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________________ प्रथम पर्व ४.७ आदिनाथ चरित्र सुख देता है, वैसेही मूषक, शुक आदि उपद्रव करनेवाले जीवों की अपवृत्तिसे वे सबकी रक्षा करते थे। सूर्य जिस प्रकार अन्धकारका नाशकर, प्राणियोंके नैमित्तिक और शाश्वत वैरको शान्त करता हुआ सबको प्रसन्न करता है, वैसेही वे सबको प्रसन्न करते थे। जैसे उन्होंने पहले सब प्रकारसे स्वस्थ करनेवाली व्यवहार-प्रवृत्तिसे लोगोंको आनन्दित किया था, वैसेही अब की विहार प्रवृत्तिसे सबको आनन्द दे रहे थे। जैसे औषधि अजीर्ण और अतिक्षुधाको दूर कर देती है, वैसेही वे अनावृष्टि और अतिवृष्टिके उपद्रवोंको दूर करते थे। अन्तः शल्यके समान स्वचक्र और परचक्रका भय दूर हो जानेसे तत्काल प्रसन्न बने हुए लोग उनके आगमनके उपलक्ष्यमें उत्सव करते थे। साथहो जैसे मान्त्रिक पुरुष भूत-राक्षसोंसे लोगोंको बचाते हैं, वैसेही वे संहार करनेवाले घोर दुर्भिक्षसे सबको रक्षा करते थे। इस प्रकार उपकार पाकर सब लोग उन महात्माकी स्तुति किया करते थे। मानों भीतर नहीं समाने पर बाहर आती हुई अनन्त ज्योति हो, ऐसा सूर्यमण्डलको भी जीतनेवाला प्रभामण्डल वे भी धारण किये हुए थे । * जैसे आगे-आगे चलने__ जहाँ-जहाँ तीर्थ कर विचरण करते हैं, उसके चारों ओर सवासो योजन पर्यन्त उपद्रवकारी रोग शान्त हो जाते हैं, परस्परका वैर मिट जाता है, धान्यादिको हानि पहुंचानेवाले जन्तु नहीं रह जाते, महामारी नहीं होती, अतिवृष्टि नहीं होती, अकाल नहीं पड़ता, स्वचक्र-परचक्रका भय नहीं रहता तथा प्रभुके मस्तकके पीछे प्रभामण्डल रहता है, जो केवलज्ञान प्रकट होनेसे उत्पत्र तथा ग्यारह अतिशयोंमेंसे एक है।
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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