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________________ आदिनाथ - चरित्र ४५६ प्रथम पर्व सैनिक पग-पग पर रुक जाते और इकट्ठे होकर विचार करने लगते, – “हमारे स्वामी भरतने भला किस वैरीके समान मंत्रीकी सलाह से केवल दो भुजाओंसे होनेवाला द्वन्द-युद्ध स्वीकार कर लिया ? जब छाँछके भोजनकी तरह स्वामीने ऐसाही युद्ध करना स्वीकार कर लिया, तब अपना क्या काम रहा ? भरतक्षेत्रके छओं खण्डों के राजाओंसे युद्ध करते समय क्या हमने किसीको नहीं मारा कूटा ? फिर वे क्यों हमें युद्ध करनेसे रोक रहे हैं ? जबतक अपने सिपाही भाग न खड़े हों, लड़ाई जीत न लें या मारे न जायें, तबतक तो स्वामीको युद्ध हीं करना चाहिये क्योंकि युद्धकी गति बड़ी विचित्र होती है । यदि इस एक बाहुबलीक सिवा और भी कोई शत्रु हो, तो भी अपने मनमें तो स्वामीकी विजय में शङ्का नहीं हो सकती ; परन्तु बलवान भुजाओंवाले बाहुबलीके साथ युद्ध करनेमें जब इन्द्रको ही जीतने के लाले पड़ने लगे, तव और क्या कहा जाये। बड़ी नदीकी बाढ़ के समान दुःसह वेगवाले उस बाहुबलीके साथ पहले-पहल स्वामीको ही युद्ध नहीं करना चाहिये; क्योंकि पहले चाबुक सवारोंके द्वारा दमन किये हुए घोड़े पर ही बैठा जाता है ।" अपने वीर पुरुषोंको इस प्रकार बीच-बीच में रुक-रुककर बातें करते हुए जाते देख चाल-ढालसे उनका भाव ताड़ कर भरत चक्रवर्त्तीने उन्हें अपने पास बुलाकर कहा, "हे वीरपुरुषों ! जैसे अन्धकारका नाश करने में सूर्य की किरणें सदा तत्पर रहती हैं, वैसेही शत्रुओंका नाश करनेमें तुम भी कभी पीछे
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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