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________________ प्रथम पर्व ४५७ आदिनाथ-चरित्र पैर देनेवाले नहीं हो। जैसे अगाध खाई में गिरकर हाथी किले तक नहीं आने पाता, वैसेही जबतक तुमसे योद्धा मेरे पास हैं, तबतक मेरे पास कोई शत्रु नहीं आ सकता। पहले तुमने कभी मुझे लड़ते नहीं देखा, इसीलिये तुम्हें व्यर्थकी शङ्का हो रही है; क्योंकि भक्ति उस स्थानमें भी शङ्का उत्पन्न कर देती है, जहाँ शङ्का करनेकी कोई गुञ्जाइश नहीं होती। इसलिये हे वीर ! योद्धाओ ! तुम सब लोग खड़े होकर मेरी भुजाओंका बल देखो, जिसमें तुम्हारी यह शंका मिट जाये, जैसे औषधिमें रोगका क्षय कग्नेको शक्ति है या नहीं, यह सन्देह रोग दूर होते हो दूर हो जाता है।" यह कह कर भरत चक्रवर्तीने एक बहुत लब्बा-चौड़ा और गहरा गड्डा खुदवाया। इसके बाद जैसे दक्षिण-समुद्रके तीर पर सह्याद्रि पर्वत है, वैसे ही वे आप भी उस गड्डे के ऊपर बैठ रहे और बड़के पेड़के सहारे लटकनेवाली बरोहियों (जटावल्लरी) की तरह उन्होंने बाँयें हाथमें मजबूत साँकले एकके ऊपर दूसरी बंधवायीं । जैसे किरणोंसे सूर्यकी शोभा होती है और लताओंसे वृक्ष शोभा पाता है, वैसे ही उन एक हजार शृखलाओंसे महाराज भी शोभित होने लगे। इसके बाद उन्होंने उन सब सैनिकोंसे कहा,- "हे वीरों जैसे बैल गाडीको खींचते हैं, वैसे ही तुम भी अपने वाहनोंके साथ पूरा जोर लगा कर मुझे निर्भय होकर खींचो। इस प्रकार तुम सब लोग मिलकर अपने एकत्रित बलसे मुझे खींचकर इस गड्ढे में गिरा दो। मेरी भुजाओंमें
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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