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________________ ४६७ प्रथम पचे आदिनाथ-चरित्र जल्दी तैयार होनेको कह रहे हों । पुलकिल अंगोवाले रथी और पैदल लोग तत्काल हर्षपूर्वक चल पड़े। क्योंकि एक तो भगवान्के पास जाना, दूसरे, राजाकी आज्ञाका पालन, मानो सोने में सुगन्ध आ गयी . बड़ी नदीके दोनों तटोंमें भी जैसे बाढ़का जल नहीं समाता, बैसेही अयोध्या और अष्टापदपर्वतके बीच में वह सेना नहीं समाती थी। आकाशमें श्वेत छत्र और मयूरछत्र का सङ्गम होने से गङ्गा यमुनाके वेणो-सङ्गमकी तरह शोभा दि. खाई दे रही थी। घुड़सवारोंके हाथमें सोहनेवाले भाले, अपनी किरणों के कारण, ऐसे मालूम पड़ते थे, मानों उन्होंने भी अपने हाथमें भाले लिये हो। हाथियों पर चढ़े हुए, वीरकुञ्जर हर्षसे उत्कट गर्जन करते हुए ऐसे मालूम पड़ते थे, मानों हाथीपर दूसरा हाथी सवार हो। सभी सैनिक जगत्पतिके दर्शन करने के लिये भरत चक्रवर्तीले भी बढ़कर उत्सुक हो रहे थे, क्योंकि तलवार की अपेक्षा उसकी म्यान और भी तेज होती है। उन सबके मिले हुए कोलाहलने मानों द्वारपालकी तरह मध्यमें विराजित भरत राजासे यह निवेदन किया, कि सब सैनिक इकट्ठे हो गये। इसके बाद जैसे मुनीश्वर राग-द्वेषको जीतकर मनको पवित्र कर लेते है, वैसेही महाराजने स्नान करके अङ्गोंको पवित्र किया और प्रायश्चित तथा मंगल कर अपने चरित्रके समान उज्ज्वल वस्त्र धारण किये। मस्तक पर :श्वेत छत्र और दोनों ओर श्वेत बंघरोंसे शोभित वे महाराज अपने महलके आँगनमें आये और सूर्य से पूर्वाचल पर आरूढ़ होता है, वैसेही आंगन में पधारे हुए ३२
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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