SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 227
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम पर्व १८८ आदिनाथ-चरित्र कितने ही देवता मानो अपने पापका उच्चाटन करते हों, इस तरह अत्यन्त सुगन्धिपूर्ण द्रव्यों का चूर्ण कर चारों दिशाओं में बरसाने लगे। कितने ही देवता मानो स्वामी द्वारा अधिष्टि मेरु पर्वतकीऋद्धि बढ़ाने की इच्छा रखते हों इस तरह सुवर्णकी वर्षा करने लगे । कितनेही देवता स्वामीके चरणोंमें प्रणाम करने के लिये उतरनेवाले तारोंकी पक्तियाँ हों ऐसी रत्नोंकी वृष्टि करने लगे ; अर्थात् देवतागण जो रत्नोंकी वर्षा करते थे, उससे ऐसा मालूम होता था; गोया प्रभुकी वन्दना करने के लिए आस्मानसे सितारों की कतारें उतर रही हों । कितनेही देवता अपने 'मधुर और मीठे स्वर से गन्धर्वीकी, सेनाका भी तिरस्कार करनेवाले नये-नये ग्राम और रागोंसे भगवान् के गुण-गान करने लगे। कितनेही देवता मढ़े हुए; धन और छेदों वाले बाजे बजाने लगे; क्योंकि भक्ति अनेक प्रकारसे होती है। कितने ही देवता मानो मेरु पर्वत शिखरों को भी नचाना चाहते हों, इस तरह अपने चरण- प्रहारसे उसको कँपाते हुए नचाने लगे । कितने ही देवता दूसरी वारांगना हों इस तरह अपनी स्त्रियोंके साथ विचित्र प्रकारके अभिनयसे उज्ज्वल नाटक करने लगे। कितने ही देवता पँखों वाले गरुड़की तरह आकाशमें उड़ने लगे। कितनेही मुर्गे की तरह ज़मीनपर फड़कने लगे । कितने ही हंसकी सी सुन्दर चालसे चलने लगे । कितने ही सिंहकी तरह सिंहनाद करने लगे । कितने ही हाथियोंकी तरह चिङ्गाड़ते थे। कितने ही घोड़ोंकी तरह खुशीसे हिनहिनाते थे । कितने ही रथकी तरह घनघनाहट
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy