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________________ १८७ प्रथम पर्व आदिनाथ-चरित्र सर्वस्व जैसा था और वह सुवर्णगिरि–मेरु के एक भाग से बनाया हुआ हो ऐसा देदीप्यमान था। इसके बाद अभियोगिक देवताओंने गोशीर्ष चन्दन के रसका कर्दभ सुन्दर और विचित्र रकाबियों में भरकर अच्युतेन्द्र के पास रक्खा, तब चन्द्रमा जिस तरह अपनी चांदनी से मेरु पर्वत. के शिखर को विलेपित करता है ; उसी तरह इन्द्र ने प्रभु के अंग पर उसका विलेपन करना आरम्भ किया। कितने ही देवताओं ने उत्तरासङ्ग धारण करके यानी कन्धेपर दुपट्टा डालकर, प्रभुके चारों तरफ अतीव सुगन्धिपूर्ण धूपदानी हाथों में लेकर खड़े हो गये। कितने ही उसमें धूप डालते थे। वे चिकनी-चिकनी धूए की रेखासे मानो मेरु पर्वत की दूसरी श्याम रंग की चूलिका बनाते हों, ऐसे मालूम देते थे। कितने ही देवता प्रभुके ऊपर ऊँचा सफेद छत्र धारण करने लगे। इससे वे गगनरूपी महा सरोवर को कमलवाला करते हुएसे जान पड़ते थे। कितने ही चँवर ढोलने लगे। इससे वे स्वामी के दर्शनों के लिए अपने नातेदारों को बुलाते हों ऐसे मालूम होते थे। कितने ही देवता कमर बाँधे हुए आत्मरक्षककी तरह अपने हथियार लगाकर स्वामी के चारों तरफ खड़े थे। मानो आकाश स्थित विद्यु लुता या चंचला बिजली की लीला को बताते हों, इस तरह कितने ही देवता मणिमय और सुवर्णमय पंखोंसे भगवान्को हवा करने लगे। कितनेही देवता मानो दूसरे रङ्गाचार्य हों इसतरह विचित्रविचित्र प्रकारके दिव्य पुष्पोंकी वृष्टि हर्षोत्कर्ष पूर्जाक करने लगे।
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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