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________________ आदिनाथ-चरित्र प्रथम पर्व लिए फैलादी है। उस समय, कीचडमें गाड़ियों के फँसने से ऐसा प्रतीत होता था, मानो चिरकाल से मर्दन होती हुई पृथ्वी ने क्रोध करके उनको पकड़ लिया हो। ऊँटों के चलाने वाले राह में नीचे उतर कर, रस्सियाँ पकड़-पकड़, कर ऊँटों को खींचने लगे, पर ऊँटों के पैर, ज़मीन पर न टिकने की वजह से, फिसलने लगे और वे पद-पदपर गिरने लगे। धन-सार्थवाह ने वर्षाकालमें राह की कठिनाइयों का अनुभव करके, उस घोर वनमें तम्बू तनवा दिये। संघके लोगों ने भी यह समझ कर कि, वर्षा ऋतु यहीं काटनी होगी, अपनी-अपनी झोंपडियाँ बनाली; क्योंकि देश-कालका उचित विचार करने वालों को दुखी होना नहीं पड़ता हैं। मणिभद्रने निर्जन्तु स्थान में बनी हुई एक झोंपड़ी या उपाश्रय दिखलाया। उसमें साधुओं-सहित आचार्य महाराज रहने लगे। संघमें बहुत लोगों के होने और वर्षा-कालका लम्बा समय होनेसे, सब का खाने-पीने का सामान और पशुओं के खाने के घास प्रभृति पदार्थ समाप्त.हो गये। इसलिये संघ के लोग भूखके मारे, मलिन वस्त्रवाले तपस्वियों की तरह, कन्दमूल और फल-फूल प्रभृति खाने के लिए इधर-उधर भटकने लगे। संघके लोगों की ऐसी बुरी हालत देखकर, सार्थवाह के मित्र मणिभद्र ने, एक दिन, सन्ध्या-समय, ये सारा वृत्तान्त सार्थवाह से निवेदन किया। संघके लोगों की तकलीफों की बात सुनकर, सार्थवाह उनकी दुःख-चिन्ता से इस तरह निश्चल हो गया, जिस तरह, पवन-रहित समय में, समुद्र निष्कम्प हो जाता है। इस
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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