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________________ आदिनाथ चरित्र यही कहकर वे दोनों देवियाँ जिधरसे आयी थीं, उधर ही चली गयीं, उनकी बात सुन मन-ही-मन विस्मित हो महात्मा बाहुबलीने विचार किया, – “सब प्रकारके सावद्य योगोंका त्याग, वृक्षकी तरह कायोत्सर्ग करने वाला मैं इस जंगलमें हाथी पर चढ़ा हूँ । यह कैसी बात है ? वे दोनों आर्याएँ भगवानकी शियाएँ हैं, पर किसी तरह झूठ नहीं बोल सकतीं। फिर मैं उनकी इस बात से क्या समझू ? ओह ! अब मालूम हुआ । व्रत में बड़े और वयसमें छोटे भाइयों को मैं कैसे नमस्कार करूँगा ? यही अभिमान जो मेरे मनमें घुसा हुआ है, वही मानों हाथी है, जिस पर मैं निर्भयताके साथ सवार हूँ। मैंने तीनों लोकके स्वामीकी बहुत दिनों तक सेवा की, तो भी जैसे जलचर जीवोंको जलमें तैरना नहीं आता, वैसेही मुझको भी विवेक नहीं हुआ । इसीलिये तो पहले से ही व्रत ग्रहण किये हुए महात्मा भाइयोंको छोटा समझ कर ही मैंने उनकी बन्दना करनी नहीं चाही। अच्छा, रहो- मैं आजही वहाँ जाकर उन महामुनियोंकी वन्दना करूँगा ।" ऐसा विचार कर ज्योंही महाप्राण बाहुबलीने अपने पैर उठाये, त्योंही चारों ओरसे लताएँ टूटने लगीं - साथही घाती कर्म भी टूटने लगे और उसी पग पर उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो आया। ऐसे केवलज्ञान और केवल दर्शनवाले सौम्य मूर्त्ति महात्मा बाहुबली उसी प्रकार ऋषभस्वामीके पास आये, जैसे चन्द्रमा सूर्यके पास जाता है । तीर्थंकर की प्रदक्षिणा कर, उन्हें प्रणामकर जगतसे वन्दनीय बाहुबली मुनि, प्रतिज्ञासे मुक्त हो, केवलीकी परिषद् में जा बैठे ! 1 ४८० प्रथम पव
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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