________________
छठा सर्ग FACS
उन दिनों भगवान् ऋषभस्वामीका शिष्य, अपने नामके समान शास्त्रके एकादश अंगोंका जाननेवाला, साधुगणोंसे युक्त, स्वभावसे सुकुमार और हस्तिपति के साथ-साथ चलनेवाले हाथीके बश्चेकी तरह,स्वामीके साथ विचरण करने वाला, भरतपुत्र मरिचि ग्रीष्म ऋतु में स्वामीके साथ विहार कर रहा था। एक दिन मध्याह्नके समय लुहारोंकी धौंकनीसे फूँकी हुई अग्निके समान चारों ओरके मार्गों की धूल तक सूर्यकी किरणोंसे तप गयी थी और मानों अदृश्य रहने वाली अग्निकी लपटें हों ऐसी गरमगरम लू सब रास्तों पर चल रही थी । उस समय अग्नि से तपे हुए किञ्चित गीले काष्ठके समान सिरसे पाँव तक सारी देह पसीनेसे सराबोर हो गयी थी । जलसे भीगे हुए सूखे चमड़े की दुर्गन्धके समान पसीनेसे तर बने हुए कपड़ोंके कारण उसके अंगोंसे बड़ी कड़ी बदबू निकल रही थी । उसके पैर जल रहे थे, इसीसे तपे हुए स्थान में रहनेवाले कुलकी स्थिति बतला थे और गरमीके कारण वह प्यासले व्याकुल हो गया था । इस. हालतसे व्याकुल होकर मरीचि अपने मनमें सोचने लगा, – “ऐ ! ३१