SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 527
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आदिनाथ चरित्र ४८२ प्रथम पर्व केवलज्ञान और केवल-दर्शन-रूपी सूर्यचन्द्रसे शोभित मेरुके समान और तीनों लोकके गुरुके समान ऋषभस्वामीका मैं पौत्र है। इसके सिवा अखण्डषट्खण्ड-युक्त महि-मण्डलके इन्द्र और विवेकको अद्वितीय निधिके समान भरत राजाका मैं पुत्र हूँ। साथही मैंने चतुर्विधि संघके सामने ऋषभस्वामीसे पञ्चमहाव्रत का उच्चारण करके दीक्षा ली है; इसलिये जैसे वीर पुरुषोंको युद्धभूमिसे नहीं भागना चाहिये, वैसेही मुझे भी इस स्थानसे लज्जित और पीड़ित होकर घर नहीं चला जाना चाहिये। परन्तु बड़े भारी पर्वतकी तरह इस चारित्रके दुर्वह भारको मुहूर्त-मात्र के लिये उठानेको भी मैं समर्थ नहीं हूँ। न तो मुझसे चारित्रव्रतका पालन करते बनता है, न छोड़ कर घर जानाही बन पड़ता है ; क्योंकि इससे कुलको कलंक लगता है। इसलिये मैं तो इस समय एक ओर नदी और दूसरी ओर सिंहवाली हालतमें पड़ाहुआ हूँ। पर हां, अब मुझे मालूम हुआ, कि जैसे पर्वतके ऊपर भी पगडण्डी बनी होती है, वैसेही इस विषम मार्गमें भी एक सुगम मार्ग है। ___ "ये साधु मनोदण्ड, वचनदण्ड और कायदण्डको जीतनेवाले हैं , पर मैं तो इन्हींसे जीता गया है, इसलिये मैं त्रिदण्डी हूंगा। वे श्रमणकेशका लोच और इन्द्रियोंकी जय कर, सिर मुंड़ाये रहते हैं, पर मैं तो रेसे सिर मुड़वाकर शिखाधारी हूँगा। वे स्थूल और सूक्ष्म प्राणियोंके हिंसादिकसे विरत रहते हैं , पर मैं तो केवल स्थूल प्राणियोंका ही वध करने
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy