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________________ प्रथम पर्व आदिनाथ चरित्र में रहनेवाले लोगोंने एक बार आँख उठाकर सहज रीतिसे उसकी ओर मामूली पथिककी दृष्टिसे देखा, क्रीड़ा-उद्यानमें धनुविद्याकी क्रीड़ा करनेवाले वीरोंके भुजास्फोटसे उसका घोड़ा डर गया और नगर निवासियोंको समृद्धि देखनेमें लगे हुए सारथीका ध्यान पूरी तरह अपने काममें नहीं होनेके कारण उसका रथ कुराह जा कर स्खलनको प्राप्त हुआ। बाहर के उद्यानवृक्षोंके पास उसने उत्तमोत्तम हाथी बँधे देखे, मानों सब द्वीपों के चक्रवर्ती राजाओ के गज-रत्न वहीं लाकर रख दिये हों । - मानों ज्योतिष्क देवताओंके विमान छोड़ कर आये हों, ऐसे उत्तम अभ्वोंसे बड़ी-बड़ी अश्वशालाएँ उसे भरी हुई दिखाई दीं। भारत के छोटे भाईके ऐश्वर्यको आश्चर्यके साथ देखते-देखते उसके सिर में मानों पीड़ा हो गयी : इसी लिये वह बार-बार सिर धुनता हुआ तक्षशिला नगरीमें प्रविष्ट हुआ । अहमिन्द्र के समान स्वच्छन्द वृत्तिवाले और अपनी-अपनी दूकान पर बैठे हुए धनाढ्य वणिकों को देखते हुए वह राजद्वार पर आ पहुँचा। मानों सूर्यके तेजको लेकर ही बनाये गये हों, ऐसे चमचमाते हुए भालोंको - हाथ में लिये हुए पैदल सिपाहियोंकी सेना उस राजद्वारके पास खड़ी थी । कहीं-कहीं ईखके पत्तेकी तरह नुकीले अग्रभागवाली बर्लियाँ लिये हुए पहरेदार ऐसे शोभित हो रहे थे, मानों शौर्यरूपी वृक्ष ही पल्लवित हुए हों। कहीं एक दाँतवाले हाथीकी तरह - पाषाण भङ्ग करने पर भी भङ्ग न होनेवाले लोहेके मुद्गर धारण किये हुए वीर खड़े थे । मानों चन्द्रके चिह्नले युक्त ध्वजा धारण ४००
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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