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________________ ram................... आदिनाथ-चरित्र प्रथम पर्व मालूम होती थी। मनोहर मुखकमल वाली अप्सराओं से घिरी हुई, वह नदियों से घिरी हुई गंगा सी दीखती थी। ललिताङ्ग देवको अपने पास आते देखकर, उसने अतिशय स्नेह के साथखड़े होकर, उसका सत्कार किया। इसके बाद, वह श्रीप्रभ विमान का स्वामी उसके साथ एक पलँग पर बैठ गया। जिस तरह एक क्यारे के लता और वृक्ष शोभते हैं, उसी तरह वे दोनों पास पास बैठे हुए शोभने लगे। बेड़ियों से जकड़े हुए के समान, निविड़ प्रेम से नियंत्रित उन दोनों के दिल आपस में लीन हो गये। अविच्छिन प्रेम रूपी सौरभ से पूर्ण ललिताङ्ग देव ने स्वयंप्रभा के साथ क्रीड़ा करते हुए बहुतसा समय एक घड़ीके समान बिता दिया। फिर वृक्ष से पत्ता गिरने की तरह, आयुष्य पूरी होने से, स्वयप्रभा देवी वहाँ से च्यु त हुई अर्थात् दूसरी गतिको प्राप्त हुई। आयुष्य पूरी होनेपर, इन्द्र में भी रहने की सामर्थ्य नहीं। प्रिया के विरह-दुःख से वह देव पर्वत से आक्रान्त और वजाहत की तरह मूर्छित हो गया। फिर क्षण-भर में होश में आकर, अपने प्रत्येक शब्द से सारे श्रीप्रभ विमान को रुलाता हुआ वह बारम्बार विलाप करने लगा। उपवन उसे अच्छे न लगते थे। वाटिकाओं से चित्त आनन्दित न होता था। क्रीड़ा-पर्वत से उसे स्वस्थता न होती थी और नन्दन वन से भी उसका दिल खुश न होता था। हे प्रिये ! हे प्रिये ! तू कहाँ है ? इस तरह कह-कहकर विलाप करनेवाला वह देव, सारे, ससार को स्वयंप्रभा-मय देखता हुआ, इधर उधर फिरने लगा।
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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