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________________ प्रथम पर्व १८३ आदिनाथ-चरित्र होता था, मानो वे भगवान् के प्रथम स्नात्र मंगल का पाठ कर रहे हों और स्वामी के स्नान कराने के लिये पातालमें से आये हुए पाताल कलश हों, वे ऐसे कलश मालूम होते थे । अच्युत इन्द्र ने अपने सामानिक देवताओं के साथ, मानो अपनी सम्पत्तिके फल रूप हों ऐसे १००८ कलश ग्रहण किये । ऊँचे किये हुए भुजदण्ड के अग्रवर्त्ती ऐसे वे कलश, जिनके दण्डे ऊंचे किये हों ऐसे कमल कोश की शोभा की विडम्बना करते थे अर्थात् उनसे भी जियादा सुन्दर लगते थे। पीछे अच्युतेन्द्र ने अपने मस्तक की तरह कलश को ज़रा नवाँकर जगत्पति को स्नान कराना आरम्भ किया । उस समय कितने ही देवता गुफा में होनेवाले प्रति शब्दों से मानो मेरु पर्वत को वाचाल करते हों इस तरह आनक नामके मृदंग को बजाने लगे । भक्ति में तत्पर ऐसे कितने ही देवता, मथन करते हुए महासागर की ध्वनि की शोभा को चुरानेवाली आवाज़ की दुंदुभिको बजाने लगे । ; जिस तरह पवन आकुल ध्वनिवाले प्रवाह की तरंगों को भिड़ाता है; उसी तरह कितने ही देवता, ऊँची ताल से झाँझोंको परस्पर भिड़ा - भिड़ा कर बजाने लगे । कितने ही देवता, मानो उर्ध्व लोक में जिनेन्द्र की आज्ञा का विस्तार करती हो, ऐसी ऊँचे मुँहवाली भेरी को ज़ोर-ज़ोर से बजाने लगे । जिस तरह ग्वालिये किसी ऊँचे स्थानपर खड़े होकर सींगिया बजाते हैं; उसी तरह देवता मेरु-शिखरपर खड़े होकर 'काहल' नाम का बाजा बजाने लगे। कितने ही देवता, जिस तरह दुष्ट शिष्योंको
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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