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________________ आदिनाथ चरित्र २८४ प्रथम पव भगवान् के पास इन्द्र का आगमन । 1 1 अब मानों स्वामीके केवल ज्ञान उत्सवके लिये प्रेरणा करते हों इस प्रकार समस्त इन्द्रोंके आसन. काँपने लगे मानों अपने अपने लोक के देवताओं को बुलाकर इकठ्ठा करनी चाहती हों, इस तरह देवलोक में सुन्दर शब्दावाली ध्वनियाँ बजने लगीं । ज्योंही सौधर्मपति ने स्वामी के चरण कमलोंमें जाने का विचार किया, कि त्योंही अहिरावण देवगज रूप होकर उनके पास आ खड़ा हुआ । स्वामीके दर्शन की इच्छा से मानों चलता हुआ मेरु पर्वत हो, इस तरह उस गजवरने अपना शरीर चार लाख कोस या आठ लाख मील के विस्तार का बना लिया । शरीर की बर्फके समान सफेद कान्ति से वह हाथी ऐसा दिखता था, गोया चारों दिशाओं के चन्दन का लोप करता हो । अपने गण्डस्थलों से करने वाले अत्यन्त सुगन्धित मदजल से वह स्वर्गकी अङ्गण भूमिको कस्तूरी की तहोंसे अङ्कित करता था मानों दोनों तरफ पते हों, ऐसे अपने चपल चञ्चल कर्णताल से, कपोलों से करने वाले मद की गन्ध अन्धे हुए भौरों को दूर हटाता था । अपने कुम्भस्थल के तेजसे उसने बाल सूर्य के मण्डल का पराभव किया और अनुक्रम से पुष्ट और गोलाकार सूँ डसे वह नागराज का अनुसरण करता था । उसके नेत्र और दाँत मधु की सी कान्तिवाले थे । ताम्बेके पत्तर जैसा उसका तालू था । थम्भे के समान गोल और सुन्दर उसकी गर्दन थी और शरीर के भाग विशाल थे । प्रत्यञ्चा चढ़ाये हुए धनुष के जैसा उसकी पीठका भाग था ।
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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