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________________ प्रथम पव ११७ आदिनाथ-चरित्र संयम-साम्राज्य का भी पालन करूँगा ; अतएव आप मुझे उसे दीजिये।" वज्रनाभ का दीक्षा ग्रहण करना । वजूसेन को निर्वाणप्राप्ति । इसके बाद, अपने वंशरूपी आकाशमें सूर्यके समान, चक्रवर्तीने अपने पुत्र को राज्य सौंपकर, भगवान् से व्रत ग्रहण किया। पिता और बड़े भाई द्वारा ग्रहण किये हुए व्रत को उसके बाहु प्रभृति भाइयोंने भी ग्रहण किया : क्योंकि उनका कुलक्रम ऐसाही थाउनके कुल में ऐसाही होता आया था। सुयशा सारथी ने भीधर्मके सारथी की तरह-अपने स्वामी के साथ ही भगवान् से दीक्षा ग्रहण को : क्योंकि सेवक स्वामी की चालपर चलनेवाले ही होते हैं। वह वज्रनाभ मुनि थोड़े ही समय में शास्त्र-समुद्र के पारगामी होगये। इससे मानो प्रत्यक्ष एक अङ्गपणे को प्राप्त हुई जंगम द्वादशांगी हो, ऐसे मालूम होने लगे। वाहु वगैरः मुनि भी ग्यारह अङ्गों के पारगामी हुए। 'क्षयोपशमसे विचित्रता को प्राप्त हुई गुण-सम्पत्तियाँ भी विचित्र प्रकारकी ही होती हैं ।' अर्थात् पूर्वके क्षयोपशम के प्रमाणसे ही गुण प्राप्त होते हैं। वे सब सन्तोष-रूपी धनके धनी थे; तो भी तीर्थङ्कर की चरण-सेवा और दुष्कर तपश्चर्या करने में असन्तुष्ट रहते थे। उन्हें संसारी पदार्थों की तृष्णा न थी, सबमें सन्तोष था ; मगर तीर्थङ्कर की चरण-सेवा और कठिन तप से उन्हें सन्तोष न होता था। वे
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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