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________________ आदिनाथ-चरित्र ३६२ प्रथम पर्व के सामने स्त्रीरत्न सुभद्रा दासी सी मालूम पड़ती थी। शीलसे सुन्दर बनी हुई वह बाला, चलती-फिरती कल्पलताकी भांति याचकोंको मुँह माँगो चीजें दे रही थी। मानों हंसनी कमलिनीके ऊपर बैठी हुई हो, इसी प्रकार वह कर्पूरकी रजकी भांति सफेद वस्त्रसे सुशोभित हो, वह एक पालकामें बैठ गई। हाथी, घोड़े, पैदल और रथोंसे पृथ्वीको आच्छादित करते हुए महाराज मरुदेवीके समान सुन्दरीके पीछे-पीछे चले। उसके दोनों ओर चवर ढल रहे थे, माथे पर श्वेत छत्र शोभित हो रहा था और भाटचारण उसके व्रत-सम्बन्धी गाढ़ संश्रयकी स्तुति कर रहे थे। उसकी भाभियाँ उसके दीक्षोत्सवके उपलक्षमें माङ्गलिक गीत गातो तथा उत्तम स्त्रियाँ पग-पग पर उस पर राई-लोन वारती चली जाती थीं। इस प्रकार अनेक पूर्ण पात्रोंके साथ-साथ चलती हई वह प्रभुके चरणोंसे पवित्र बने हुए अष्टापद-पर्वतके ऊपर आई। चन्द्रमाके साथ उदयाचलकी जो शोभा होती है, वैसेही प्रभुसे अधिष्ठित उस पर्वतको देख कर भरत तथा सुन्दरीको बड़ा हर्ष हुआ। स्वर्ग और मोक्षको ले जाने वाली सीढ़ीके समान उस विशाल शिलायुक्त पर्वत पर वे दोनों चढ़े ओर संसारसे भय पाये हुए प्राणियोंके लिये शरण-तुल्य, चार द्वार-युक्त संक्षिप्त किये हुए जम्बूद्वीपके दुर्गकी तरह उस समवशरणमें आ पहुंचे। वे लोग समवशरणके उत्तर द्वारके मार्गसे यथाविधि उसके भीतर आये। इसके बाद हर्ष तथा विनयसे अपने शरीरको उच्छ्वसित तथा संकुचित करते हुए उन्होंने प्रभुकी तीनबार
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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