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________________ आदिनाथ-चरित्र ४७४ प्रथम पर्व अपनी मर्यादाके भीतर ही रुका रहता है, वैसेही वे भी चुपचाप खड़े हो गये। उन महाप्राण व्यक्तिने अपने मनमें विचार किया,-"ओह ! यह क्या ? क्या मैं भी इन्हों चक्रवर्तीकी तरह राज्यके लोभमें पड़कर बड़े भाईको मारने जा रहा हूँ ? तब तो मैं व्याधसे भी बढ़कर पापी हूँ। जिसके लिये भाई और भतीजों को मारना पड़े, वैसे शाकिनी मंत्रकेसे राज्यके लिये कौन प्रयत्न करने जाये ? राज्य श्री प्राप्त हो और उसे इच्छानुसार भोगनेका भी अवसर मिले, तो भी जैसे शराब पीनेसे शरावियों को तृप्ति नहीं होती वैसेही राजाओंको भी उससे सन्तोष नहीं होता। आराधन करने पर भी थोड़ासा बहाना पाकर रूठ जानेवाले क्षुद्र देवताको भाँति राज्यलक्ष्मी क्षणभरमें ही मुंह मोड़ लेती है। अमावसकी रातकी तरह यह घने अन्धकारसे पूर्ण है, नहीं तो पिताजी इसे किस लिये तृणके समान त्याग देते? उन्हीं पिताजीका पुत्र होते हुए भी मैने इतने दिनोंमें यह बात जान पायी, कि यह राज्यलक्ष्मी ऐसी बुरी है, तो फिर दूसरा कोई कैसे जान सकता है ? अतएव यह राजलक्ष्मी सर्वथा त्याग करने योग्य है। ऐसा निश्चय कर, उस उदार हृदयवाले बाहुबलीने चक्रवर्तीसे कहा, "हे क्षमानाथ ! हे भ्राता ! केवल राज्य के लिये मैंने आपको शत्रुको भांति दुःख पहुँचाया, इसके लिये मुझे क्षमा कीजिये। इस संसाररूपी बड़े भारी तालाबमें तन्तुपाशके समान भाई, पुत्र और स्त्री तथा राज्य आदिसे अब मुझे कुछ भी प्रयोजन नहीं है । मैं तो अब तीनों जगतके स्वामी
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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