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________________ प्रथम पव ४७५ आदिनाथ चरित्र और विश्वको अभयदोनका सदावत देनेमें बाँटनेवाले अपने पिताजीके मार्गका ही बटोही होने जा रहा हूँ।" , यह कह साहसी पुरुषोंमें अग्रणी और महाप्राण उन बाहुबलीने अपने तने हुए चूसेको खोलकर उसी हाथसे अपने सिरके केशोंको तृणकी तरह नोच लिया। उस समय देवताओंने 'साधु-साधु' कहकर उनपर फूल बरसाये । इसके बाद पांच महाव्रत धारण कर उन्होंने अपने मनमें विचार किया,-" मैं अभी पिताजीके चरण कमलोंके समीप नहीं जाऊँगा ; क्योंकि इस समय जानेसे पहले व्रत ग्रहण करने वाले और ज्ञान पाये हुए छोटे भाइयोंके सामने मेरी हेठी होगी। इस लिये अभी मैं यहीं रहूँ और ध्यान-रूपी अग्निमें सब घाती कर्मोंको जलाकर केवलज्ञान प्राप्त करनेके बाद उनकी सभामें जाऊँ।" ऐसा ही निश्चय कर वह मनस्वी बाहुबली अपने दोनों हाथ लम्बे फैलाकर रत्न प्रतिमाके समान वहीं कायोत्सर्ग करके टिक रहे। अपने भाईका यह हाल देख, राजा भरत, अपने कुकर्मों का विचार कर इस प्रकार नीचे गरदन किये खड़े रहे, मानों वे पृथ्वीमें समाजानेकी इच्छा कर रहे हों। तदनन्तर भरत राजाने अपने रहे-सहे क्रोधको गरम-गरम आँसुओंके रूपमें बाहर निकाल कर मूर्तिमान शान्तरसके समान अपने भाईको प्रणाम किया। प्रणाम करते समय बाहुबलीके नख-रूपी दर्पणोंमें परछाई पड़नेसे ऐसा मालूम होने लगा, मानों उन्होंने अधिक उपासना करनेकी इ. च्छासे अलग-अलग कई रूप धारण कर लिये हैं । इसके बाद
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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