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________________ प्रथम पव आदिनाथ-चरित्र wwwww संसारमें मेरा वसा अनुराग है ! आर यह सब महापुरुषोके आचारसे कैसा उलटा पड़ता है!” इस प्रकारकी बातें सोचनेसे राजा के मन में ठीक उसी प्रकार धर्मका ध्यान क्षण भरके लिये समा गया, जैसे समुद्र में गङ्गाका प्रवाह प्रवेश करता है। परन्तु पीछे वे बारम्बार शब्दादिक इन्द्रियोंमें आसक्त हो जाते थे, क्योंकि भोग-फल-कर्मको अन्यथा कर डालनेको कोई समर्थ नहीं होता। एक दिन पाक-शालाके अध्यक्षने महाराजके पास आकर कहा,-" महाराज ! इतने लोग भोजन करने आते हैं, कि यह समझ में नहीं आता, कि ये सबके सब श्रावक ही हैं या और भी कोई हैं ?” यह सुन, राजा भरतने आशा दी, कि तुम भी तोश्रावक हो हो, इसलिये आजसे परीक्षा करके भोजन दिया करो। अवतो पूछने लगा, कि तुम कौन हो.? जब वह बतलाना, कि मैं श्रावक हूँ, तब वह पूछता, कि तुममें श्रावकोंके कौन-कौनसे व्रत हैं । ऐसा पूछने पर जब वे बतलाते, कि हमारे निरन्तर पाँच अणुव्रत और सात शिक्षा-प्रत हैं, तब वह संतुष्ट होता। इसी प्रकार परीक्षा करके घह श्रावकों को भरत राजाको दिखलाता और महाराज भरत, उनकी शुद्धिके लिये उनमें कांकिणी-रत्नसे उत्तरासङ्गकी भांति तीन रेखाएँ ज्ञान, दर्शन और चारित्रकेचिह्न-स्वरूप करने लगे । इसी प्रकार प्रत्येक छठे महीने नये-नये श्रावकोंकी परीक्षा की जाती और उनपर कांकिणी-रत्नके चिह्न अङ्कित किये जाते। उसी चिह्नको देखकर उन्हें भोजन दिया जाता और वे "जितोभवान् इत्यादि बचनका ऊँच स्वरसे पाठ करने लगते। इसीका पाठ
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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