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________________ प्रथम पर्व ४०५ आदिनाथ-चरित्र कारण, नमकहलाल नौकर स्वामीके कार्यमें बाणकी तरह कभी स्खलनको प्राप्त नहीं होते, बहुतेरे गाँवों, नगरों, खानों और कसबोंको पार करता हुआ वह वहाँके लोगोंको क्षणभरके लिये बवंडरसा ही मालूम पड़ता था। स्वामीके कार्यमें दण्डको तरह डटे हुए उसने वृक्ष-समूह, सरोवर और सिन्धु-तट आदि स्थानोंमें भी विश्राम नहीं किया। इस प्रकार यात्रा करता हुआ वह एक ऐसे भयानक जङ्गल में पहुँचा, जो मृत्युकी एकान्त रतिभूमि मालूम पड़ती थी। वह जङ्गल धनुष बनाकर हाथियोंका शिकार करने वाले और चमरी-मृगोंको खालके बख़्तर पहननेवाले राक्षसोंके समान भीलोंसे भरा हुआ था। वह वन यमराजके नाते-गोतों के समान चमरी-मृगों, चीतों, बाघों, सिंहों और सरभों आदि क्रूर प्राणियोंसे भरा हुआ था। परस्पर वैर रखनेवाले साँ और नेवलोंके बिलोंसे वह जंगल बड़ा भयङ्कर लगता था। भालुओंके केश धारण करनेके लिये व्यग्र बनी हुई नन्हीं नन्हीं भीलनियाँ उस वनमें घूमती-फिरती रहती थीं। परस्पर युद्ध कर जंगली भैंसे वनके जीर्ण वृक्षोंको ताड़ा करते थे ; शहद निकालनेवालोंके द्वारा उड़ायी हुई मधुमक्खियोंके मारे उस जंगलमें चलना फिरना मुश्किल था। इसी प्रकार आसमान चूमनेवाले ऊँचे ऊँचे वृक्षोंके मारे वहाँ सूर्य भी नहीं दिखलाई देते थे। जैसे पुण्यवान् मनुष्य विपत्तियोंको पार कर जाता है, वैसेही खूब तेज़ रथमें बैठा हुआ सुवेग भी उस भयङ्कर जंगलको बड़ी आसानीसे पार कर गया। वहाँसे वह बहली-देशमें आ पहुँचा।
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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