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________________ प्रथम पर्व १०६ आदिनाथ-चरित्र में, भक्ति में दक्ष उन मित्रों ने मुनि महाराज से क्षमा माँगी । मुनि भी वहाँ से . अन्यत्र विहार कर गये अर्थात् किसी दूसरी जगह को चले गये । क्योंकि ऐसे पुरुष एक जगह टिककर नहीं रहते । मुनिके आराम होकर चले जाने के बाद, उन. बुद्धिमानों ने बाकी बचे हुए गोशीर्ष चन्दन और रत्नकम्बल को बेचकर सोना ख़रीद लिया । उन्होंने उस सोने और दूसरे सोनेसे मेरुके शिखर जैसा, अर्हत्-चैत्य बनाया । जिन प्रतिमा की पूजा और गुरु की उपासना में तत्पर होकर, कम की तरह, उन्होंने कुछ समय भी व्यतीत किया । एक दिन उन छहों मित्रों के हृदयों में वैराग्य उत्पन्न हुआ: अर्थात् उन्हें इस संसार से विरक्ति होगई । तब उन्हों ने मुनि महाराज के पास जाकर जन्मवृक्ष के फल-स्वरूप, दीक्षा ली। एक राशि से दूसरी राशिपर जिस तरह नक्षत्र चक्कर लगाया करते हैं, उसी तरह वे भी नगर, गाँव और वन में नियत समय तक रहकर विहार करने लगे । उपवास, छट्ट और" अट्टम प्रभृति की तप रूपी सान से उन्होंने अपने चरित्ररत्न को अत्यन्त निर्मल किया। वे आहार देनेवालों को किसी तरह की तकलीफ नहीं देते थे । केवल प्राण धारण करने के कारणसे ही, मधुकरी वृत्ति से, पारणे के दिन भिक्षा ग्रहण करते थे; अर्थात् वे मधुकर या भौंरे की सा आचरण करते थे। भौंरा जिस तरह फूलों मधुकर भौंरा, मधुकरी वृत्ति भौंरे की सी वृत्ति । भौरों जिस फूलोंका पराग लेता है, पर उन्हें तकलीफ नहीं देता, उसी तरह मधुकिरी वृत्ति वाले साधु गृहस्थों से आहार लेते हैं, पर उन्हे कष्ट हो, ऐसा काम नहीं करते ।
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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