SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 341
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आदिनाथ-चरित्र २९६ प्रथम पर्व माँगकर गुज़र करने वाला पुत्र दुःखोंका पात्र है; परन्तु आप त्रिलोकीके आधिपत्यको भोगने वाले अपने पुत्रकी सम्पत्तिको देखिये।" यह कह कर उन्होंने माताजीको गजेन्द्र पर सवार कराया। इसके बाद मूर्तिमान लक्ष्मी हो इस तरह सुवर्ण और माणिकके गहने वाले घोड़े, हाथी, रथ और पैदल लेकर वहाँसे कूच किया। अपने आभूषणोंसे जंगम-चलते हुएतोरणकी रचना करने वाली फौजके साथ चलने वाले महाराज भरतने दूरसे ऊपरका रत्नमय गढ़ देखा। उन्होंने माता मरुदेवास कहा-“हे देवि ! देखो, देवी और देवताओंने प्रभुका समवसरण बनाया है। पिताजीके चरण-कमलोंकी सेवामें आनन्द-मग्न हुए देवोंका जयजय शब्द सुनाई दे रहा है। हे माता ! मानो प्रभुका वन्दी हो, ऐसे गम्भीर और मधुर शब्दले आकाशमें बजता हुआ दुदुभीका शब्द आनन्द उत्पन्न कर रहा है। स्वामीके चरण कमलोंकी वन्दना करने वाले देवताओंके विमानोंमें उत्पन्न हु: अनेक घुघरुओंकी आवाज आप सुन रही है। स्वामीके दर्शनोंसे आनन्दित देवताओंका मेघकी गरजनाके समान यह सिंहनाद आकाश में हो रहा है। ग्राम और रागसे पवित्र ये गन्धर्वोका गाना मानो प्रभुकीवाणीके सेवक हो, इस तरह अपनेको आनन्दित कर रहा है।” जलके प्रवाह से जिस तरह कीच धुल जाती है, उसी तरह भरतकी बातोंसे उत्पन्न हुए आनन्दके आँसुओंसे माता मरुदेवा की आँखोंमें पड़े हुए पटल धुलगये । उनकी गई हुई आँखें लौट आई- उन्हें नेत्रज्योति फिर प्राप्त होगई। इसलिये उन्होंने अपने पुत्रकी अतिशय सहित ती
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy