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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र
न त्याग दिया। सात आठ कदम भगवान्के सामने चलकर, मानो दूसरे रत्न-मुकुटकी लक्ष्मीको देने वाली हो ऐसी कराञ्जलिको मस्तकपर स्थापन करके, जानु और मस्तक-कमलसे पृथ्वीको स्पर्श करते हुए प्रभुको नमस्कार किया और रोमाञ्चित होकर उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगा:- " हे तीर्थनाथ ! हे जगत् को सनाथ करने वाले ! हे कृपारसके समुद्र ! हे श्री नाभिनन्दन ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। हे नाथ ! नन्दन प्रभृति तीन बगीचोंसे जिस तरह मेरु पर्वत शोभित होता है : उसी तरह मति प्रभृति तीन ज्ञानों सहित पैदा होने से आप शोभते है । हे देव ! आज यह भरत क्षेत्र स्वर्गसे भी अधिक शोभायमान है: क्योकि त्रैलोक्यके मुकुट-रत्न-सदृश आपने उसे अलंकृत किया है । हे जगन्नाथ ! जन्म कल्याणसे पवित्र हुआ आजका दिन, संसारमें रहूँ तब तक, आपको तरह, वन्दना करने योग्य है। आपके इस जन्मके पर्वसे नरकवासियोंको सुख हुआ है। क्योंकि अर्हन्तोंका हृदय किसके सन्तापको हरने वाला नहीं होता ? इस जम्बूद्वीपस्थित भरत-क्षेत्र या भारतवर्ष में निधानकी तरह धर्म नष्ट हो गया है, उसे अपने आज्ञा रुपी बीजसे फिर प्रकाशित कीजिये । हे भगवान् ! आपके चरणोंको प्राप्त करके अब कौन संसार-सागरसे नहीं तरेगा ? आपके पदपङ्कजोंकी कृपा होनेसे अब किसका भवसागरसे उद्धार न होगा ? क्योंकि नावके योग से लोहा भी समुद्रके पार हो जाता है। हे भगवान् ! वृक्ष-विहीन देशमें जिस तरह कल्पवृक्ष हो और मरुदेशमें