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विरहहार.
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८७ भवसिद्धि नीव वि० ८८ निगोदका जीव वि० ८९ यनस्यति जीव वि० ९० एकेंद्रिय जीव वि० ९१ तिर्यच जीव वि० ९२ मिथ्यात्वि जीष वि०
अव्रती जीव वि० ९४ सकषायी जीव वि० ९५ छमस्थ जीव वि० ९६ सयोगी जीव वि० ९७ संसारी जीव वि० ९८ समुच्चय जीव वि०
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सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम्
-Ofथोकडा नम्बर ७
सूत्रश्री पन्नवणाजी पद ६.
(विरहद्वार) जीस योनीमें जीव था वह वहां से चव जाने के बाद उस योनीमें दुसरा जीव कीतने काल से उत्पन्न होते है उनको विरह • ' कहते है। जघन्य तो सर्व स्थानपर एक समयका विरह है उत्कृष्ट
अलग अलग है जैसे