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( १८६) शीघ्रबोध भाग ३ जो.
व्यवहार नयकि अपेक्षा जीव जीस गतिमें वर्त रहा है उन गतिमें स्वद्रव्य स्वक्षेत्र स्वकाल स्वभावापेक्षा सत् है और पर. द्रव्य परक्षेत्र परकाल परभावापेक्षा असत् है। निश्चयनयापेक्षा जीव अपने ज्ञानादि गुण अपेक्षा सत है और पर गुण अपेक्षा असत है।
व्यवहारन यापेक्षा मिथ्यात्व गुणस्थानसे चौदवां अयोगी केवली गुणस्थान तक कि व्याख्या केवली भगवान को वह वक्तव्य है और जो व्याख्या केवली कह नहीं सके वह अवक्तव्य है । निश्चयन यापेक्षा सिद्धों के अनंतगुणोंसे जितने गुणोकि व्याख्या केवली करे वह वक्तव्य है और जितने गुणोंकि व्याख्या केवलीभी न कर सके वह सब अवक्तव्य है। जीवकि आदि ओर मिट्ठोंका अन्त सबके लिये अवक्तव्य है।
(२४) समभंगी-स्यात् अस्ति: स्यात् नास्ति, स्यात् आस्ति नास्ति. स्यात् अवक्तव्य, स्यात् अस्ति अवक्तव्य स्यात् नास्ति अवक्तव्य, स्यात् अस्तिनास्ति युगपात अवक्तव्य यह सप्तभंगी हर कीसी पदार्थ पर उतारी जाती है स्याहाद रहस्य अपेक्षामें ही रहा हवा है एक वस्तुमें अनेक अपेक्षा है। यहांपर सिद्ध भगवान पर वह सप्तभंगी उतारी जाती है यथा-सिद्धों में स्यात् आस्ति. म्यात याने अपेक्षासे सिद्धोंम स्वगुणोंको आस्ति है- स्यान्ना. स्ति अपेक्षासे सिद्धोंमें परगुणोंकि नास्ति है म्यात् अस्ति नास्ति याने सिद्धों में स्वगुणोंकि आस्ति है और परगुणोंकि नास्ति भी है स्यात् अवक्तव्य-आस्तिनास्ति एक समय है किन्तु ममयका काल स्वल्प होनेसे व्यक्तव्यता हो नही सके इस वास्ते अवक्तव्य है स्यात् अस्ति अवक्तव्व. जीन समय आस्ति है किन्तु वह अवक्तव्य है । स्यात् नास्ति अवक्तव्य. परगुणकी नास्ति है वह भी एक समय के लिये अवक्तव्य है स्यात आस्ति नास्ति युगपत्