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षद्रव्य.
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छे आगे आठ, एवं दो दो प्रदेश वृद्धि होनेसे लोकान्त तक असंख्यात प्रदेशी है. एवं अधर्मास्तिकाय और आका शाfastest संस्थान लोकमें ग्रीवाके आभरण जेसा और अलोकमें गाडाके ओधनाकार है. जीव पुद्गलके अनेक प्रकार के संस्थान है कालका कोइ आकार नहीं है।
( ४ ) द्रव्यद्वार - गुणपर्यायके भाजनको द्रव्य कहते है जिस्मे समय समय उत्पाद व्यय होते रहे-कारण कार्य एकही समयमें हो जो एक समय कार्य में उत्पाद व्यय है उनी समय कारणका उत्पाद व्यय है मूलजों एक द्रव्य है उनका निश्चय दो खंड नही होता है कारण जीवद्रव्य तथा परमाणुद्रव्य इनका विभाग नही होते है । अगर द्रव्यके स्कन्ध देश प्रदेश कहा जाते है यह सब उपचरित नयसे कहा जाते है । द्रव्यके मूल सामान्य छे स्वभाव है ।
( १ ) अस्तित्वं - नित्यानित्य परिणामिक स्वभाव | (२) वस्तुत्वं - गुणपर्यायका आधारभूत स्वभाव । (३) द्रव्यस्वं - षद्रव्य एकस्थानमें रहने परभी एकेक द्रव्य अपना अपना स्वभाव मुक्त नही होते हैं अर्थात् एक दुसरे स्वभावमें नही मीलते हुवे अपनि अपनि क्रिया करे ।
( ४ ) प्रमेयत्वं - स्वात्मा परात्माका ज्ञान होना यह स्वभाव जीवद्रव्यमें है । शेषद्रव्यमे स्वपर्याय स्वभावक प्रमेयत्वं स्वभाव कहते है ।
( ५ ) सत्त्वं उत्पाद व्यय धूव एकही सयय होनेपर भी वस्तु अपने स्वभावका त्याग नही करती है ।
(६) अगुरुलघुत्वं - समय समय षट्टगुण हानिवृद्धि होने पर भी अपने अपने गुणोमें प्रणमते हैं ।