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कर्मबन्ध हेतु. ( ३११) अपने साथ बुरा वरताप करनेवालेको सहन करना । दया-दीन दुःखीयोंके दुर करने कि कोसीस करना। अनुव्रतोंके तथा महा. व्रतोंका पालन करना अच्छा सुयोगध्यान मौन ओर दश प्रकार साधु समाचारीका पालन करना कषायोंपर विजय प्राप्त करनाअर्थात् क्रोध मान माया लोभ राग द्वेष ईर्षा आदिके वेगोंसे अपनि आत्माको बचाना-दान करना-सुपात्रोंको आहार वस्त्रादिका दान करना-रोगीयोंके औषधि देना जो जीव भयसे व्याकूल हो रहे है उने भयसे छुडाना विद्यार्थीओंके पुस्तके तथा विद्याका दान करना अन्य दानसे भी बढके विद्यादान है । कारण अन्नसे क्षणमात्र तृप्ती होती है। परन्तु विद्यादानसे चीरकाल तक सुखी होता है-धर्ममें अपनि आत्माको स्थिर रखना बाल वृद्ध तपस्वी और आचार्यादिकि वैयावञ्च करना इत्यादि यह सब सातावेदनिय बन्धका हेतु है। इन कारणोंसे विप्रीत वरताव करनेसे असातावेदनिय कर्मको बन्धे है जैसे कि गुरुवाको अनादर करे अपने उपर कीये हुवे उपकारोंका बदला न देके उलटा अपकार करे क्रूर प्रणाम निर्दय अविनय क्रोधी व्रत खंडित करना कृपण सामग्री पाके भी दान न करे धर्मके बारेमें बेपरवा रखे हस्ती अश्व बेहेलों पर अधिक बोजा डालने वाला अपने आपको तथा औरोंको शोक संतापमें डालनेवाला इत्यादि हेतुओंसे असातावेदनिय कर्मका बन्ध होता है।
(४) मोहनियकर्मबन्धके हेतु-मोहनियकर्मका दो भेद है (१) दर्शनमोहनिय (२) चारित्रमोहनिय जिसमें दर्शन मोहनीयकर्म जैसे-उन्मार्गका उपदेश करना जिनकृयासे सं'सारकि वृद्धि होती है उनकृत्योंके विषयोंमें इस प्रकारका उपदेश करना कि यह मोक्षके हेतु है जैसेकि देवी देवोंके सामने पशुवोंकी हिंसा करनेसे पुन्यकार्य मानना। एकान्त ज्ञान या