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(३५६) शीघ्रबोध भाग ५. वा. शेष वेदनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र, ये चार अघाती कर्म है ( पाष पुण्य मिश्रित) इसलिये शास्त्रकारों ने प्रथम समुचय पापकर्म की पृच्छा अलग की है उपरोक्त ४७ बोलोमेसे कौन २ से बोलके जीव इन चार भागों में से कौन २ से मांगों से पाप कर्म को बांधे. इस म मोहनीय कर्मकी प्रबलता है इसलिये उसके बंध विच्छेद होने से शेष कर्मों के विद्यमान होते हुए भी उनके बंध की विवक्षा नहीं की.क्योंकि उववाई पनवणा सूत्र में भी मोहनीय कम परही शास्त्रकारों ने ज्यादा जोर दिया है कारण कि मोहनीय कर्म सर्व कर्मों का राजा है. उस के क्षय होने से शेष तीन कर्मों का किंचित् भी जोरं नहीं चलता, उपरोक्त सैतालीस बोलों में से समुच्चय जीव की पृच्छा करते है समुच्चयजीव १ शुक्ललेशी २ संलेशी ३ शुक्ल पक्षी ४ सज्ञानी ५ मतिज्ञानी ६ श्रुतज्ञानी ७ अवधिज्ञानी ८ मनःपर्यवज्ञानी ९ सम्यकदृष्टि १० नों संज्ञा ११ अवेदी १२ सकषायी १३ लोभ कषायी १४ सयोगी १५ मनयोगी १६ वचनयोगी १७ काययोगी १८ साकार उपयोगी १९ अनाकार उपयोगी २० इन वीस बोलों के जीवां में चारों भांगों मिलते है यथाः(१) बांधा, बांधे, बांधसी, मिथ्यात्वादि, गुणठाणों अभव्य
जीव. भूतकालमें बान्धा-बान्धे-बान्धसी. (२) बांधा, बांधे, न बाधसी, क्षपक श्रेणी चढता हुआ नवमें
गु० तक. बान्धे फीर मोक्ष जायगा-न बन्धसी. (३) बांधा, न बांधे, बांधसी, उपशम श्रेणी. दशमें, इग्यार
में गु० तक. वर्तमानमें नहीं बान्धते है. (४) बांधा, न बांधे, न बांधसी, क्षपक श्रेणी दशमें गुण तद्भव
मोक्षगामी. (२१) मिश्रदृष्टि दो भांगा से मीलता है. १-२ जो। यथा