Book Title: Shighra Bodh Part 01 To 05
Author(s): Gyansundar
Publisher: Sukhsagar Gyan Pracharak Sabha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “અહો! શ્રુતજ્ઞાનમ્ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૧૯૪ શીધ્રબોધ ભાગ ૧ થી ૫ : દ્રવ્ય સહાયક: શ્રી નીતિસૂરિજી સમુદાયના પૂ. આ. શ્રી હેમપ્રભસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના આજ્ઞાનુવર્તિની પૂ. સા. શ્રી વિશ્વપૂર્ણાશ્રીજી મ. ના શિષ્યા પૂ. સા. શ્રી વિનીતપૂર્ણાશ્રીજી મ.ની પ્રેરણાથી શ્રી અભિનંદન સ્વામી જૈન સંઘ, જય-પ્રેમ સોસાયટી, શાહીબાગ શ્રાવિકા ઉપાશ્રયના જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી : સંયોજક : શાહ બાબુલાલ સોમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૫ (મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543 સંવત ૨૦૭૧ ઈ. ૨૦૧૫ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार પૃષ્ઠ ___84 ___810 010 011 संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६५ (ई. 2009) सेट नं.-१ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। ક્રમાંક પુસ્તકનું નામ ता-टी515ार-संपES | 001 | श्री नंदीसूत्र अवचूरी | पू. विक्रमसूरिजी म.सा. 238 | 002 | श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी | पू. जिनदासगणि चूर्णीकार 286 003 श्री अर्हद्गीता-भगवद्गीता प. मेघविजयजी गणि म.सा. 004 | श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः पू. भद्रबाहुस्वामी म.सा. | 005 | श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं पू. पद्मसागरजी गणि म.सा. | 006 | श्री मानतुङ्गशास्त्रम् | पू. मानतुंगविजयजी म.सा. | 007 | अपराजितपृच्छा श्री बी. भट्टाचार्य 008 शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम् श्री नंदलाल चुनिलाल सोमपुरा 850 | 009 | शिल्परत्नम् भाग-१ श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री 322 शिल्परत्नम् भाग-२ श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री 280 प्रासादतिलक श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 162 | 012 | काश्यशिल्पम् श्री विनायक गणेश आपटे 302 प्रासादमजरी श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 156 014 | राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र श्री नारायण भारती गोंसाई 352 | शिल्पदीपक श्री गंगाधरजी प्रणीत 120 | वास्तुसार श्री प्रभाशंकर ओघडभाई दीपार्णव उत्तरार्ध श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 110 જિનપ્રાસાદ માર્તણ્ડ શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા 498 | जैन ग्रंथावली श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फ्रन्स 502 | હીરકલશ જૈન જ્યોતિષ શ્રી હિમતરામ મહાશંકર જાની 021 न्यायप्रवेशः भाग-१ श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव 022 | दीपार्णव पूर्वार्ध श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 023 अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-१ पू. मुनिचंद्रसूरिजी म.सा. 452 024 | अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-२ श्री एच. आर. कापडीआ 500 025 | प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह श्री बेचरदास जीवराज दोशी 454 026 | तत्त्पोपप्लवसिंहः | श्री जयराशी भट्ट, बी. भट्टाचार्य 188 | 027 | शक्तिवादादर्शः | श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री 214 | क्षीरार्णव श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 414 029 | वेधवास्तु प्रभाकर श्री प्रभाशंकर ओघडभाई ___192 013 454 226 640 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 824 288 30 | શિન્જરત્નાકર प्रासाद मंडन श्री सिद्धहेम बृहदवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-१ | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-२ श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-३ श्री नर्मदाशंकर शास्त्री | पं. भगवानदास जैन पू. लावण्यसूरिजी म.सा. પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા. 520 034 (). પૂ. ભાવસૂરિ મ.સા. श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-3 (२) 324 302 196 039. 190 040 | તિલક 202 480 228 60 044 218 036. | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-५ 037 વાસ્તુનિઘંટુ 038 | તિલકમન્નરી ભાગ-૧ તિલકમગ્નરી ભાગ-૨ તિલકમઝરી ભાગ-૩ સખસન્ધાન મહાકાવ્યમ્ સપ્તભફીમિમાંસા ન્યાયાવતાર વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વલોક સામાન્ય નિર્યુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક 046 સપ્તભીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા નયોપદેશ ભાગ-૧ તરષિણીકરણી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરકિણીતરણી ન્યાયસમુચ્ચય ચાદ્યાર્થપ્રકાશઃ દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ 053 બૃહદ્ ધારણા યંત્ર 05 | જ્યોતિર્મહોદય પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા. પૂ. ભાવસૂરિન મ.સા. પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) પૂ. લાવણ્યસૂરિજી. શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. દર્શનવિજયજી પૂ. દર્શનવિજયજી સ. પૂ. અક્ષયવિજયજી 045 190 138 296 (04) 210 274 286 216 532 113 112 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર ભાષા | 218. | 164 સંયોજક – બાબુલાલ સરેમલ શાહ શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન हीशन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, महावाह-04. (मो.) ८४२७५८५८०४ (यो) २२१३ २५४३ (5-मेल) ahoshrut.bs@gmail.com महो श्रुतज्ञानमjथ द्धिार - संवत २०७5 (5. २०१०)- सेट नं-२ પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી. या पुस्तsी www.ahoshrut.org वेबसाईट ५२थी ugl stGirls sी शाशे. ક્રમ પુસ્તકનું નામ ता-टी815२-संपES પૃષ્ઠ 055 | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहदन्यास अध्याय-६ | पू. लावण्यसूरिजी म.सा. 296 056 | विविध तीर्थ कल्प प. जिनविजयजी म.सा. 160 057 लारतीय टन भए। संस्कृति सनोमन पू. पूण्यविजयजी म.सा. 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः श्री धर्मदत्तसूरि 202 059 | व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका श्री धर्मदत्तसूरि જૈન સંગીત રાગમાળા श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी | 306 061 | चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश) | श्री रसिकलाल एच. कापडीआ 062 | व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय |सं श्री सुदर्शनाचार्य 668 063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी सं पू. मेघविजयजी गणि 516 064| विवेक विलास सं/. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य 268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध | पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा. 456 066 | सन्मतितत्त्वसोपानम् | सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा. 420 06764शमाता वही गुशनुवाह गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. 638 068 | मोहराजापराजयम् सं पू. चतुरविजयजी म.सा. 192 069 | क्रियाकोश सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया 428 070 | कालिकाचार्यकथासंग्रह सं/. | श्री अंबालाल प्रेमचंद 406 071 | सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका | सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य 308 072 | जन्मसमुद्रजातक सं/हिं श्री भगवानदास जैन 128 मेघमहोदय वर्षप्रबोध सं/हिं श्री भगवानदास जैन 532 on જૈન સામુદ્રિકનાં પાંચ ગ્રંથો १४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी 376 060 322 073 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '075 374 238 194 192 254 260 | જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૧ 16 | જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૨ 77) સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી 13 ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પ સ્થાપત્ય 79 | શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧ 081 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨ | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩ 083. આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧ કલ્યાણ કારક 085 | વિનોરન શોર કથા રત્ન કોશ ભાગ-1 કથા રત્ન કોશ ભાગ-2 088 | હસ્તસગ્નીવનમ 238 260 ગુજ. | | श्री साराभाई नवाब ગુજ. | શ્રી સYTમારું નવાવ ગુજ. | શ્રી વિદ્યા સરમા નવીન ગુજ. | શ્રી સારામારું નવીન ગુજ. | શ્રી મનસુબાન મુવામન ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી ગગન્નાથ મંવારમ ગુજ. | . વન્તિસાગરની ગુજ. | શ્રી વર્ધમાન પર્વનાથ શત્રી सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा ગુજ. | શ્રી લેવલાસ ગીવરાન કોશી ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરીન લોશી સ. પૂ. મેનિયની સં. પૂ.વિનયની, પૂ. पुण्यविजयजी आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी 114 '084. 910 436 336 087 2૩૦ 322 (089/ 114 એન્દ્રચતુર્વિશતિકા સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા 560 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार क्रम 272 240 सं. 254 282 466 342 362 134 70 316 224 612 307 संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | पुस्तक नाम कर्ता टीकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक 91 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१ वादिदेवसूरिजी सं. मोतीलाल लाघाजी पुना 92 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२ वादिदेवसूरिजी | मोतीलाल लाघाजी पुना 93 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-३ बादिदेवसूरिजी | मोतीलाल लाघाजी पुना 94 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-४ बादिदेवसूरिजी मोतीलाल लाघाजी पुना | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-५ वादिदेवसूरिजी | मोतीलाल लाघाजी पुना 96 | पवित्र कल्पसूत्र पुण्यविजयजी साराभाई नवाब 97 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-१ भोजदेव | टी. गणपति शास्त्री 98 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-२ भोजदेव | टी. गणपति शास्त्री 99 | भुवनदीपक पद्मप्रभसूरिजी | वेंकटेश प्रेस 100 | गाथासहस्त्री समयसुंदरजी सं. | सुखलालजी 101 | भारतीय प्राचीन लिपीमाला | गौरीशंकर ओझा हिन्दी | मुन्शीराम मनोहरराम 102 | शब्दरत्नाकर साधुसुन्दरजी सं. हरगोविन्ददास बेचरदास 103 | सबोधवाणी प्रकाश न्यायविजयजी ।सं./ग । हेमचंद्राचार्य जैन सभा 104 | लघु प्रबंध संग्रह जयंत पी. ठाकर सं. ओरीएन्ट इन्स्टीट्युट बरोडा 105 | जैन स्तोत्र संचय-१-२-३ माणिक्यसागरसूरिजी सं, आगमोद्धारक सभा 106 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-१,२,३ सिद्धसेन दिवाकर सुखलाल संघवी 107 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-४.५ सिद्धसेन दिवाकर सुखलाल संघवी 108 | न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका सतिषचंद्र विद्याभूषण एसियाटीक सोसायटी 109 | जैन लेख संग्रह भाग-१ पुरणचंद्र नाहर | पुरणचंद्र नाहर 110 | जैन लेख संग्रह भाग-२ पुरणचंद्र नाहर सं./हि पुरणचंद्र नाहर 111 | जैन लेख संग्रह भाग-३ पुरणचंद्र नाहर सं./हि । पुरणचंद्र नाहर 112 | | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१ कांतिविजयजी सं./हि | जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार 113 | जैन प्रतिमा लेख संग्रह दौलतसिंह लोढा सं./हि | अरविन्द धामणिया 114 | राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह विशालविजयजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 115 | प्राचिन लेख संग्रह-१ विजयधर्मसूरिजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 116 | बीकानेर जैन लेख संग्रह अगरचंद नाहटा सं./हि नाहटा ब्रधर्स 117 | प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-१ जिनविजयजी सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 118 | प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२ जिनविजयजी सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 119 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-१ गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्वस गुजराती सभा 120 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-२ गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्बस गुजराती सभा 121 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३ गिरजाशंकर शास्त्री फार्बस गुजराती सभा 122 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-१ | पी. पीटरसन रॉयल एशियाटीक जर्नल 123|| | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-४ पी. पीटरसन रॉयल एशियाटीक जर्नल 124 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-५ पी. पीटरसन रॉयल एशियाटीक जर्नल 125 | कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स पी. पीटरसन | भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपा. 126 | विजयदेव माहात्म्यम् | जिनविजयजी सं. जैन सत्य संशोधक 514 454 354 सं./हि 337 354 372 142 336 364 218 656 122 764 404 404 540 274 सं./गु 414 400 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार 754 194 3101 276 69 100 136 266 244 संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६८ (ई. 2012) सेट नं.-४ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम | पुस्तक नाम कर्ता / संपादक भाषा | प्रकाशक 127 | महाप्रभाविक नवस्मरण साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 128 | जैन चित्र कल्पलता साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 129 | जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास भाग-२ हीरालाल हंसराज गुज. हीरालाल हंसराज 130 | ओपरेशन इन सर्च ओफ सं. मेन्यु. भाग-६ पी. पीटरसन अंग्रेजी | एशियाटीक सोसायटी 131 | जैन गणित विचार कुंवरजी आणंदजी गुज. जैन धर्म प्रसारक सभा 132 | दैवज्ञ कामधेनु (प्राचिन ज्योतिष ग्रंथ) शील खंड सं. | ब्रज. बी. दास बनारस 133 || | करण प्रकाशः ब्रह्मदेव सं./अं. | सुधाकर द्विवेदि 134 | न्यायविशारद महो. यशोविजयजी स्वहस्तलिखित कृति संग्रह | यशोदेवसूरिजी गुज. | यशोभारती प्रकाशन 135 | भौगोलिक कोश-१ डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात बर्नाक्युलर सोसायटी 136 | भौगोलिक कोश-२ डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी 137 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-१,२ जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 138 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-३, ४ जिनविजयजी हिन्दी । जैन साहित्य संशोधक पुना 139 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-१, २ जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 140 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-३, ४ जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 141 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-१,२ ।। जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 142 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-३, ४ जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 143 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-१ सोमविजयजी गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 144 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-२ सोमविजयजी | शाह बाबुलाल सवचंद 145 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-३ सोमविजयजी गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 146 | भाषवति शतानंद मारछता सं./हि | एच.बी. गुप्ता एन्ड सन्स बनारस 147 | जैन सिद्धांत कौमुदी (अर्धमागधी व्याकरण) रत्नचंद्र स्वामी प्रा./सं. | भैरोदान सेठीया 148 | मंत्रराज गुणकल्प महोदधि जयदयाल शर्मा हिन्दी | जयदयाल शर्मा 149 | फक्कीका रत्नमंजूषा-१, २ कनकलाल ठाकूर सं. हरिकृष्ण निबंध 150 | अनुभूत सिद्ध विशायंत्र (छ कल्प संग्रह) मेघविजयजी सं./गुज | महावीर ग्रंथमाळा 151 | सारावलि कल्याण वर्धन सं. पांडुरंग जीवाजी 152 | ज्योतिष सिद्धांत संग्रह विश्वेश्वरप्रसाद द्विवेदी सं. बीजभूषणदास बनारस 153| ज्ञान प्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्रम् रामव्यास पान्डेय सं. | जैन सिद्धांत भवन नूतन संकलन | आ. चंद्रसागरसूरिजी ज्ञानभंडार - उज्जैन हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार २ | श्री गुजराती श्वे.मू. जैन संघ-हस्तप्रत भंडार - कलकत्ता | हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार 274 168 282 182 गुज. 384 376 387 174 320 286 272 142 260 232 160 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार | पृष्ठ 304 122 208 70 310 462 512 संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६९ (ई. 2013) सेट नं.-५ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | क्रम | पुस्तक नाम कर्ता/संपादक विषय | भाषा संपादक/प्रकाशक 154 | उणादि सूत्रो ओफ हेमचंद्राचार्य | पू. हेमचंद्राचार्य | व्याकरण | संस्कृत जोहन क्रिष्टे 155 | उणादि गण विवृत्ति | पू. हेमचंद्राचार्य व्याकरण संस्कृत पू. मनोहरविजयजी 156 | प्राकृत प्रकाश-सटीक भामाह व्याकरण प्राकृत जय कृष्णदास गुप्ता 157 | द्रव्य परिक्षा और धातु उत्पत्ति | ठक्कर फेरू धातु संस्कृत /हिन्दी | भंवरलाल नाहटा 158 | आरम्भसिध्धि - सटीक पू. उदयप्रभदेवसूरिजी ज्योतीष संस्कृत | पू. जितेन्द्रविजयजी 159 | खंडहरो का वैभव | पू. कान्तीसागरजी शील्प | हिन्दी | भारतीय ज्ञानपीठ 160 | बालभारत पू. अमरचंद्रसूरिजी | काव्य संस्कृत पं. शीवदत्त 161 | गिरनार माहात्म्य दौलतचंद परषोत्तमदास तीर्थ संस्कृत /गुजराती | जैन पत्र 162 | गिरनार गल्प पू. ललितविजयजी | तीर्थ संस्कृत/गुजराती | हंसकविजय फ्री लायब्रेरी 163 | प्रश्नोत्तर सार्ध शतक पू. क्षमाकल्याणविजयजी | प्रकरण हिन्दी | साध्वीजी विचक्षणाश्रीजी 164 | भारतिय संपादन शास्त्र | मूलराज जैन साहित्य हिन्दी जैन विद्याभवन, लाहोर 165 | विभक्त्यर्थ निर्णय गिरिधर झा संस्कृत चौखम्बा प्रकाशन 166 | व्योम बती-१ शिवाचार्य न्याय संस्कृत संपूर्णानंद संस्कृत युनिवर्सिटी 167 | व्योम वती-२ शिवाचार्य न्याय संपूर्णानंद संस्कृत विद्यालय | 168 | जैन न्यायखंड खाद्यम् | उपा. यशोविजयजी न्याय संस्कृत /हिन्दी | बद्रीनाथ शुक्ल 169 | हरितकाव्यादि निघंटू | भाव मिथ आयुर्वेद संस्कृत /हिन्दी | शीव शर्मा 170 | योग चिंतामणि-सटीक पू. हर्षकीर्तिसूरिजी | संस्कृत/हिन्दी | लक्ष्मी वेंकटेश प्रेस 171 | वसंतराज शकुनम् पू. भानुचन्द्र गणि टीका | ज्योतिष खेमराज कृष्णदास 172 | महाविद्या विडंबना पू. भुवनसुन्दरसूरि टीका | ज्योतिष | संस्कृत सेन्ट्रल लायब्रेरी 173 | ज्योतिर्निबन्ध । शिवराज | ज्योतिष | संस्कृत आनंद आश्रम 174 | मेघमाला विचार पू. विजयप्रभसूरिजी ज्योतिष संस्कृत/गुजराती | मेघजी हीरजी 175 | मुहूर्त चिंतामणि-सटीक रामकृत प्रमिताक्षय टीका | ज्योतिष | संस्कृत अनूप मिश्र 176 | मानसोल्लास सटीक-१ भुलाकमल्ल सोमेश्वर ज्योतिष ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 177 | मानसोल्लास सटीक-२ भुलाकमल्ल सोमेश्वर | ज्योतिष संस्कृत ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 178 | ज्योतिष सार प्राकृत भगवानदास जैन ज्योतिष प्राकृत/हिन्दी | भगवानदास जैन 179 | मुहूर्त संग्रह अंबालाल शर्मा ज्योतिष | गुजराती | शास्त्री जगन्नाथ परशुराम द्विवेदी 180 | हिन्दु एस्ट्रोलोजी पिताम्बरदास त्रीभोवनदास | ज्योतिष गुजराती पिताम्बरदास टी. महेता 264 144 256 75 488 | 226 365 न्याय संस्कृत 190 480 352 596 250 391 114 238 166 संस्कृत 368 88 356 168 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम 181 182 183 श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543ahoshrut.bs@gmail.com शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार संवत २०७१ ( ई. 2015) सेट नं.-६ - - - 192 पुस्तक नाम काव्यप्रकाश भाग-१ काव्यप्रकाश भाग-२ काव्यप्रकाश उल्लास-२ अने ३ 184 नृत्यरत्न कोश भाग-१ 185 नृत्यरत्न कोश भाग-२ 186 नृत्याध्याय 187 संगीरत्नाकर भाग-१ सटीक 188 संगीरत्नाकर भाग २ सटीक 189 संगीरत्नाकर भाग-३ सटीक 190 संगीरत्नाकर भाग-४ सटीक 191 संगीत मकरन्द संगीत नृत्य 'अने नाट्य संबंधी जैन ग्रंथो 193 न्यायविंदु सटीक 194 शीघ्रबोध भाग-१ थी ५ 195 शीघ्रबोध भाग-६ श्री १० 196 शीघ्रबोध भाग- ११ थी १५ 197 शीघ्रबोध भाग-१६ थी २० 198 शीघ्रबोध भाग- २१ थी २५ 199 अध्यात्मसार सटीक 200 | छन्दोनुशासन 200 | मग्गानुसारिया प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची । यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। विषय कर्त्ता / संपादक पूज्य मम्मटाचार्य कृत पूज्य मम्मटाचार्य कृत उपा. यशोविजयजी श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री अशोकमलजी श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव नारद श्री हीरालाल कापडीया पूज्य धर्मोतराचार्य पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य गंभीरविजयजी एच. डी. बेलनकर श्री डी. एस शाह भाषा संस्कृत संस्कृत संस्कृत संस्कृत संस्कृत संस्कृत / हिन्दी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत गुजराती संस्कृत हिन्दी हिन्दी हिन्दी हिन्दी हिन्दी संस्कृत/गुजराती संस्कृत संस्कृत/गुजराती संपादक / प्रकाशक पूज्य जिनविजयजी पूज्य जिनविजयजी यशोभारति जैन प्रकाशन समिति श्री रसीकलाल छोटालाल श्री रसीकलाल छोटालाल श्री वाचस्पति गैरोभा श्री सुब्रमण्यम शास्त्री श्री सुब्रमण्यम शास्त्री श्री सुब्रमण्यम शास्त्री श्री सुब्रमण्यम शास्त्री श्री मंगेश रामकृष्ण तेलंग मुक्ति-कमल श्री चंद्रशेखर शास्त्री -जैन मोहन ग्रंथमाला सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा नरोत्तमदास भानजी सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ट्रस्ट पृष्ठ 364 222 330 156 248 504 448 444 616 632 84 244 220 422 304 446 414 409 476 444 146 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम पुस्तक नाम 202 | आचारांग सूत्र भाग - १ नियुक्ति + टीका 203 | आचारांग सूत्र भाग - २ निर्युक्ति+ टीका 204 | आचारांग सूत्र भाग - ३ निर्युक्ति+टीका 205 | आचारांग सूत्र भाग-४ नियुक्ति+टीका 206 | आचारांग सूत्र भाग - ५ निर्युक्ति+ टीका 207 सुयगडांग सूत्र भाग - १ सटीक 208 | सुयगडांग सूत्र भाग - २ सटीक 209 सुयगडांग सूत्र भाग - ३ सटीक 210 सुयगडांग सूत्र भाग-४ सटीक 211 सुयगडांग सूत्र भाग - ५ सटीक 212 रायपसेणिय सूत्र 213 प्राचीन तीर्थमाळा भाग १ 214 धातु पारायणम् 215 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग - १ 216 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-२ 217 | सिद्धम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-३ 218 तार्किक रक्षा सार संग्रह 219 श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद - 380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७२ (ई. 201६) सेट नं.-७ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची । 220 221 वादार्थ संग्रह भाग - १ (स्फोट तत्त्व निरूपण, स्फोट चन्द्रिका, प्रतिपादिक संज्ञावाद, वाक्यवाद, वाक्यदीपिका) | वादार्थ संग्रह भाग - २ ( षट्कारक विवेचन, कारक वादार्थ, समासवादार्थ, वकारवादार्थ) वादार्थ संग्रह भाग-३ (वादसुधाकर, लघुविभक्त्यर्थ निर्णय, शाब्दबोधप्रकाशिका) 222 | वादार्थ संग्रह भाग-४ (आख्यात शक्तिवाद छः टीका) कर्त्ता / टिकाकार भाषा श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री मलयगिरि गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ. श्री धर्मसूरि सं./ गुजराती श्री यशोविजयजी ग्रंथमाळा संस्कृत श्री हेमचंद्राचार्य आ. श्री मुनिचंद्रसूरि श्री हेमचंद्राचार्य सं./ गुजराती श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य सं./ गुजराती श्री हेमचंद्राचार्य सं./ गुजराती आ. श्री वरदराज संस्कृत विविध कर्ता संस्कृत विविध कर्ता संस्कृत विविध कर्ता संस्कृत रघुनाथ शिरोमणि संस्कृत संपादक / प्रकाशक श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री बेचरदास दोशी श्री बेचरदास दोशी राजकीय संस्कृत पुस्तकालय महादेव शर्मा महादेव शर्मा महादेव शर्मा महादेव शर्मा पृष्ठ 285 280 315 307 361 301 263 395 386 351 260 272 530 648 510 560 427 88 78 112 228 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी सुखसागर ज्ञानप्रचारज्ञानाविन्दु नं.३. 000000000000000000000 श्री रत्नप्रभसूरीश्वर सद्गुरुभ्यो नमः अथ श्री १ शीघ्रबोध भाग १-२-३-४-५ वां, 000000000000000000000 90000000000 श्रीमदुपकेश ( कमला ) गच्छीय - मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज. 00000000000000000000000000 द्रव्य सहायक और साशक श्री सुखसागर ज्ञानप्रचारक सभा मु० लोहावट-जाटावास ( मारवाड ). IMLAIMILITTLETITI नकल १०० . वीर संवत् २४५. विक्रम सं. १९८० - किंमत रू.दि. &000000000000000000000 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य सहायकश्रीसुखसागर ज्ञानप्रचारक सभा. श्री भगवतीजी सूत्रकि पूजा तथा सुपनोंकि आमदनीसें. - - . भावनगर-धी आनंद प्रीन्टींग प्रेसमें शाह गुलाबचंद लरलुभाइए छाप्यु. * इन पुस्तकोंकी आमदनीसे और भी ज्ञानप्रचार बडाया जावेगा। Jimminent-on- --- Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रत्नप्रभसूरीश्वर सद्गुरुभ्यो नमः अथ श्री शीघ्रबोध भाग ३ जा. हज्य सहायक क. २५०) ... शाह हजारीमलजी कुंवरलालजी पारख. मु० लोहावट-जाटावास ( मारवाड) नकल १.०० वीर सं. २४५. - Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन्यवाद. ४९६ श्रीमान् रेखचंदजी साहिब, चीफ सेक्रेटरी श्री जैन नवयुवक मित्रमण्डल - मु० लोहावट आप ज्ञानके अच्छे प्रेमी और उत्साही हो । इस किताब के तीसरे भाग के लिये रु. २५०) ज्ञान दान कर पुस्तके श्रीसुखसागर शाम प्रचारक सभा में सार्पण कर लाभ उठाया है इस बास्ते में आप को सहर्ष धन्यवाद देता हूं और सज्जनों को भी चल लक्ष्मी का ज्ञानदान कर लाभ लेना चाहिये | कारण शास्त्रकारोंने सर्व दानमें ज्ञानदान को ही सर्वोत्तम माना है - किमधिकम् । भवदीय, पृथ्वीराज चोपडा । मेम्बर- श्री जैन नवयुवक मित्रमंडल, लोहावट - (मारवाड). Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रायक्षदवतराधराय नमः - श्रीकल्पसूत्रजीके पानोंकी भक्ति के लिये रु. २८०) - शाह कालुरामजी अमरचंदजी बोथरा राजमवाला कि तर्फ से आया वह इस किताबमें लगाया गया है. इस ज्ञान दानसे कीतना लाभ होगा वह अन्य सजनोंकों विचार के अपनी चल लदमीकों शानदान कर अचल बनाना चाहिये. किमधिकम् ।। आपका, .... ... जोरावरमल वैद । श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला मोफीस, फलोधी. Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ daisieroecooooooooooooooooooooooooooooo pornsooooooooooooooooooooo श्रीमद् भगवतीजी सूत्र कि वाचना। पूज्यपाद प्रातःस्मरणिय मुनिश्री शामसुन्दरजी महारा.. साहिब कि अनुग्रह पाते हमारे लोहावट जैसे प्राममें भी बीमद् भगवतीबीसूत्र कि वाचना संवत् १९७९ का चैत्र पर है. इसे प्रारंभ हुइयी बिल्के दरम्यान हमे बहुत काम हुवा है। से भी भगवतीजीसूत्रका आचोपान्त श्रवण कर मानपूजाका करना मिस्केद्रव्यसे। ... . १ ५००० श्री द्रव्यानुयोग द्वितीय प्रवेशिका। ५०.. श्री शीघ्रबोध भाग १-२-३-४-५वा हजार जार प्रती १ एकही जिस्दमें बधाइगह है जिस्मे तीसरा भाग। शा. हजारीमलजी कुंवरलाली पारस कि तसे। १००० श्री भावप्रकरण शा. जमनालालजी इन्द्रचन्दबी - पारख कितफसे। १ १००० श्री स्तवन संग्रह भाग था शा आइदांनजी अगर ९ चन्दजी पारख कि तर्फले। इनके सिवाय शानध्यान कंठस्थ करना तथा श्री सुखसामर ज्ञानप्रचारक सभा और श्री जैन नवयुवक मित्रमंडल है कि स्थापना होनेसे अच्छा उपकार हुवा है। अधिक हर्ष इस वातका है कि जीत उत्साहा से भी भगवतीजी सूत्र प्रारंभ हुवाथा उनसे ही चढते उत्साहासे मी १ १. ज्ञानपंचमिको पूना प्रभावना वरघोडाके साथ निविनतासे समाप्त हुवा है हम इस सुअवसर कि वारवार अनुमोदन करते है अन्य सज्जनौंकों भी अनुमोदन कर अपना जन्म पवित्र करना चाहिये किमधिकम् । भवदीय।.. जमनालाल बोथरा राजमवाला, मेम्बर श्री जैन नवयुवक मित्रमंडल लोहावट-मारवाड..... 80000oooooo5000000000ooo Page #17 --------------------------------------------------------------------------  Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज जजrajsatanArres जलज जन्म सं. १९३२ doodhotoofootoostrotatoktantantrafootobooooooooooooooooooooooooooortootarantee ढंढक दीक्षा सं. १९४२ जनजलजलजजजजजजजx ०७४४ जुन- स्वर्गवास १९७७ मुनि महाराज श्री रत्न विजयजी महाराज. जनजान Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्न परिचय. परम योगिराज प्रातःस्मरणीय अनेक सद्गुणालंकृत श्री श्री १००८ श्री श्री रत्नविजयजी महाराज साहिब ! श्रापीका पवित्र जन्म कच्छ देश ओसवाल ज्ञाति में हुवा था. आप बालपणासे ही विद्यादेवीके परमोपासक थे. दश वर्षकि बाल्यावस्था में ही अपने पिताश्री के साथ संसार त्याग किया था. अठरा वर्ष स्थानकवासीमत में दीक्षा पाल सत्य मार्ग संशोधन करशास्त्रविशारद जैनाचार्य श्रीमद्विजयधर्मसूरीश्वरजी महाराजके पास जैन दीक्षा धारण कर संस्कृत प्राकृतका अभ्यास कर जैनागमोंका अवलोकन कर आपश्रीने एक अच्छे गीतार्थोकि पंक्तिको प्राप्त करी श्री. आपश्रीने कच्छ, काठीयावाड, गुजरात, मालवा, मेवाड और मारवाडादि देशोंमें विहार कर अपनि अमृतमय देशनाका जनताको पान करवाते हुए अनेक भव्य जीवोंका उद्धार कीया था इतना ही नही किन्तु प्राबु गिरनारादि निवृत्तिके स्थानों में योगाभ्यास कर अनेक गइ हुइ चमत्कारी विद्यावों हांसल कर कइ आत्मानों पर उपकार कीया था। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) आपका निःस्पृह सरल शान्त स्वभाव होने से जगत के ' गच्छगच्छान्तर-मत्तमत्तान्तरके झगडे. तो आपसे हजार हाथ दूरे ही रहते थे. जैसे आप ज्ञानमें उचकोटीके विद्वान थे वेसे ही कविता करने में भी उच्चकोटीके कवि भी थे आपने अनेक स्तवनों, सम्झायों, चैत्यवन्दनों, स्तुतियों, कल्प रत्नाकरी टीका और विनति शतकादि रचके जैन समाजपर परमोपकार कीया था. .. आपको निवृत्तिस्थान अधिक प्रसन्न था जो श्रीमदुपकेश गच्छाधिपति श्री रत्नप्रभसूरीश्वरजी महाराजने उपकेशपट्टन (भोशीयों) में ३८४००० राजपुतोकों प्रतिबोध दे जैन बनाया. प्रथम ही भोसवंस स्थापन कीया था. उन मोशीयों तीर्थपर आपश्रीने चतुर्मास का अलभ्य लाभ प्राप्त कीया जैसे मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजीको ढुंढकमाल से बधाके संवेगी दीक्षा दे उपकेश गच्छका उद्धार करवाया था फीर दोनों मुनिवरोंने इस प्राचीन तीर्थके जीर्णोद्धारमें मदद कर वहांपर जैन पाठक शाला, बोडींग, श्री रत्नप्रभाकर शान मंडार, जैन लायब्रेरी स्थापन करी थी और भी आपको ज्ञानका बडा ही प्रेम था. आपश्रीके उपदेश द्वारा फलोधी में श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला नामकि संस्था स्थापित हुन थी. मालश्रीने अपने पवित्र जीवनमें शासन सेवा बहुत ही करी थी. केइ जगह जीर्णोद्धार पाठशालावोंके लिये उपदेशदीया था जिनोंकि Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९ ) उज्वल कीर्त्ति आज दुनियों में उच्च पदको भोगव रही है. आपश्रीका जन्म से १६३२ में हुवा सं. १९४२ में स्थानकवासीयों में दीक्षा सं. १६६० में जैन दीक्षा और सं. १६७७ में आपका स्वर्गवास गुजरातके वापी ग्राममें हुवा है जहांपर आज भी जनताके स्मरयार्थ स्मारक मोजूद है. एसे निःस्पृही महात्मावोंकि समाज में बहुत श्रावश्यक्ता है. यह एक परम योगिराज महात्माका किंचित् आपको परिचय कराके हम हमारी आत्माको अहोभाग्य समजते है. समय पा के आपका जीवन लिख आपलोगोंकि सेवा में भेजने कि मेरी भावना है शासनदेव उसे शीघ्र पूर्ण करे. I have the honour to be Sir, Your most obedient slave M. Rakhchand Parekh. S. Collieries. Member Jain nava yuvak mitra mandal LOHAWAT. Page #22 --------------------------------------------------------------------------  Page #23 --------------------------------------------------------------------------  Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 808 जन्म सं० १९३७ विजयदशमी. 808 K कुक श्रीमदुपकेशगच्छीयमुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी. K जैन दीक्षा सं० १९७२ Doles gruls कुंই स्थान० दीक्षा सं० १९६३ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान परिचय। पूज्यपाद प्रातःस्मरणिय शान्त्यादि अनेक गुणालंकृत श्री मान्मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज साहिब । प्रापश्रीका जन्म मारवाड प्रोसर्वस वैद मुत्ता ज्ञातीमे सं. १६३७ विजय दशमिकों हुवा था. वचपने से ही आपका ज्ञानपर बहुत प्रेम था स्वल्पावस्थामें ही आप संसार व्यवहार वाणिज्य व्यपारमे अच्छे कुशल थे सं. १६५४ मागशर वद १० को प्रापका विवाह हुवा था. देशाटन भी आपका बहुत हुवा था. विशाल कुटुम्ब मातापिता भाइ काका स्त्रि आदि को त्याग कर २६ वर्ष कि युवान वयमें सं. १६६३ चेत वद ६ को आपने स्थानकवासीयों में दीक्षा ली थी. दशागम और ३०० थोकडा कंठस्थ कर ३० सूत्रों की वाचना करी थी तपश्चर्या एकान्तर छठ छठ, मास लमण अदि करनेमे भी आप सूरवीर थे आपका व्याख्यान भी वडाही मधुर रोचक और प्रसरकारी था.. शास्त्र अवलोकन करने से ज्ञात हुवा कि यह मूर्ति उस्थापकों का पन्थ. स्वकपोल कल्पीत समुत्सम पैदा हुवा है तत्पश्चात् सर्प कंचवे कि माफीक ढुंढको का त्याग कर आप श्रीमान् रत्नविजयजी महाराज साहिब के पास प्रोशीयों तीर्थ पर दीक्षा ले गुरु प्रादेशसे उपकेश गच्छ स्वीकार कर प्राचीन गच्छका उद्धार Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीया स्वल्प समय में ही आपने दीव्य पुरुषार्थ द्वारा जैन समाजपर बडा भारी उपकार कीया आपश्रीकों ज्ञानका तो श्राले दर्जेका प्रेम है जहां पधारते है वहां ही ज्ञानका उद्योत करते है. - ओशीयों तीर्थ पर पाठशाला बोर्डीग कक्क क्रन्ति लायब्रेरी, श्री रत्न प्रभाकर ज्ञान भंडार आदि में आप श्रीने मदद करी है फलोधी में श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला संस्था-ईस्की दुसरी साखा ओशीयोंमें स्थापन करी जिन संस्थावों द्वारा जैन श्रागमों का तत्त्वज्ञानमय आज ७५ पुष्प नीकल चुके है जिस्की कीताबे १५३००० करीबन हिन्दुस्तान के सब विभागमें जनता कि सेवा बजा रही है इनके सिवाय जैनपाठशाला जैन लायब्रेरी आदि भी स्थापन करवाइ गइ थी हम शासन देवनावोसे यह प्रार्थना करते है कि एसे पुरुषार्थी महात्मा चीरकाल शासन कि सेवा करते हमारे मरूस्थल देशमें बिहार कर हम लोगोंपर सदैव उपकार करे । शम् आपश्रीके चरणोपासक इन्द्रचंद पारख जोइन्ट सेक्रेटरी, श्री जैन नवयुवक मित्र मण्डल ऑफीस-लोहावट ( मारवाड.) Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) प्रस्तावना. प्यारे सज्जन गण ! यह बात तो आपलोग बखुबी जानते है कि हरेक धर्मका महत्व धर्म साहित्य के ही अन्तर्गत रहा हुधा है जिस धर्मका धमसाहित्य विशाल क्षेत्र में विकाशित होता है उसी धर्मका धर्म महत्व भी विशाल भूमिपर प्रकाश किया करता है अर्थात् ज्यों म्यों धर्मसाहित्य प्रकाशित होता है त्यों त्यो धर्मका प्रचार बढा हा करता है। __ आज सुधरे हुवे जमाने के हरेक विद्वान प्रत्येक धर्म साहित्य अपक्षपात दृष्टिसे अवलोकन कर जिस जिस साहित्यके अन्दर तत्त्व वस्तु होती है उसे गुणग्राही सजन नेक दृष्टिसे ग्रहन कीया करते है अतेव धर्म साहित्य प्रकाश करने कि अत्यावश्यक्ता कों सब संसार एक दृष्टिसे स्वीकार करते है। धर्म साहित्य प्रकाशित करने में प्रथम उत्साही महाशयजी और साथमें लिखे पढे सहनशील निःस्पृही पुरुषार्थी तथा तन मन धनसे मदद करनेवालों कि आवश्यक्ता है। प्रत्येक धर्मके नेता लोग अपने अपने धर्म साहित्य प्रकाशित करने में तन धन मनसे उत्साही बन अपने अपने धर्म साहित्यका जगतमय बनाने कि कोशीस कर रहे है। दुसरे साहित्य प्रेमियों कि अपेक्षा हमारे जैनधर्मके उच्च कोटीका पवित्र और विशाल साहित्य भण्डारों कि ही सेवा कर रहा है पुरांणे विचारके लोग अपने साहित्य का महत्व ज्ञान भण्डारोंमें रखने में ही समझ रहे थे । इस संकुचित विचारोंसे हमारे धर्म साहित्य कि क्या दशा हुइ वह हमारे भण्डारों के Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) नेताओं को अब मालुम होने लगी है कि साहित्य प्रकाश में हम. लोग कितने पाच्छाडी रहे है। हमारे धर्म साहित्य लिखनेवाले और प्रकाशित करनेवाले पूर्वाचार्य हमारे पर बडा भारी उपकार कर गये है परन्तु इस बख्त पूज्यपाद प्रातः स्मरणीय न्यायांभोनिधि जैनाचार्य श्रीमत्रिजयानंदसूरीश्वरजी ( आत्मारामजी ) महाराज का हम परमोपकार मानते है कि आपश्रीने ज्ञानभण्डारोंके नेताओं को बडे ही जोर सोरसे उपदेश देकर जैसलमेर पाटण खंभात अमदाबाद आदि के ज्ञानभण्डरों में सडते हुवे धर्म साहित्युका उद्धार करवाया था आपश्री को साहित्य प्रकाशित करवानेका इतना तों प्रेमथा कि स्थान स्थान पर ज्ञानभण्डारों, लायब्रेरीयों, पुस्तक प्रचार मंडलों, संस्थावों आदि स्थापीत करवाके ज्ञानप्रचार बढाने मैं प्रेरणा करी थी । आपके उपदेशसे स्कूलों पाठशालाओं गुरूकुलवासादि स्थापित होनेसे समाज में ज्ञान कि वृद्धि हुई है । इतना ही नही बल्के यूरोप तक भी जैनधर्म साहित्यका प्रचार करने में आपश्रीने अच्छी सफलता प्राप्त करी थी उन धर्म साहित्य प्रचार कि बदोलत आज हमारी स्वल्प संख्या होने परभी सर्व धर्मो में उच्च स्थानकों प्राप्त कीया है अच्छे अच्छे विद्वान लोगों का मत्त है कि जैनधर्म एक उच्च कोटीका धर्म है । साहित्य प्रचार के लिये श्रावक भीमसी माणेक बंबाइ, जैन धर्म प्रसारक सभा - जैन आत्मानंद सभा भावनगर, श्रीयशोविजयजी ग्रन्थमाळा भावनगर, श्री जैन श्रेयस्कर मंडल मेसाणा, मेघजी हीरजी बंबाइ. अध्यात्म ज्ञान प्रकाश- बुद्धिसागर ग्रन्थमाला. श्री हेमचन्द्र ग्रन्थमाला. जैन तत्व प्रकाश मंडल, जैन ग्रन्थमाला - रायचन्द्र ग्रन्थमाला - राजेन्द्रकोश कार्यालय — श्री रत्न प्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला, फलोधी. श्री जैन आत्मानन्द पुस्तक प्रचार मंडल, आग्रा- दिल्ही, व्याख्यान साहित्य ओफीस. जैन साहित्य संशा Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन-पुना. श्री आगमोदय समिति अन्यभी छोटी बडी सभावाने साहित्य प्रकाशित करने में अच्छी सफलता प्राप्त करी है-मनुष्य मात्रका फर्ज है कि अपनि २ यथाशक्ति तन मन धनसे धर्म साहित्य प्रचारमें अवश्य मदद देना चाहिये। साहित्यप्रेमी परम् योगिराज मुनि श्री रत्नविजयजी महाराज साहिब के सदुपदेशसे संवत् १९७३ का आसाड शुद६ के रोज मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज द्वारा फलोधी नगरके उत्साही भावक वर्ग कि प्रेरणासे श्रीरत्नप्रभाकार ज्ञान पुष्पमाला नामकि संस्था स्थापित की गइ थी. संस्थाका खास उद्देश छोटे छोटे ट्रेक्टद्वारा जनता में जैनधर्म साहित्य प्रसिद्ध करनेका रखा गया था. हरेक स्थानपर लम्बी चौडी बातों बनानेवाले या पर उपदेश देनेवाले बहुत मीलते है किन्तु जीस जगह रूपैये का नाम आता है तब कितनेक लोग धनाढ्य होनेपर भी मायाके मजुर उन्नतिके मेदान से पीच्छे हठ जाते है परन्तु मुनिश्रीके एक ही दिनके उपदेशसे फलोधी श्री संघने ज्ञानवृद्धिके लिये करीबन २०००) का चन्दाकर श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला में पुस्तके छपाने के लिये जमा करवाके इस संस्थाकि नीवकों मजबुत बनादि थी.मुनिश्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज साहबका १९७३ का चतुर्मासा फलोधी में हुवा आपश्रीने एक ही चतुर्मासा में ११ पुष्प प्रकाशित करवा दीया। चतुर्मासके बाद आपश्रीका पधारणा ओसीयातीर्थ जो कि श्री रत्नप्रभसूरीजी महाराजने उत्पलदे राजा आदि।३८४००० राजपुतोंको प्रथमही ओशवाल बनाके श्रीवीरप्रभुके बिंबकी प्रतिष्टा करवाइथी उन महापुरुषोंके स्मरणार्थ दुसरी शाखा रूप एक संस्था ओशीयों तीर्थपर श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाल स्थापित करी. जिस्का काम मुनिम चुनिलालभाइके सुप्रत किया गया था.चुनिलालभाइने ओशीयों तीर्थ तथा इन संस्थाकि अच्छी सेवा करी थी. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) कीताबोंके जरिये तीर्थकी प्रसिद्धि और आबादि भी अच्छी हुइथी... चुनिलालभाइ स्वर्गवास होनेके बाद में पुस्तकोंकि व्यवस्था ठीक न रहेनेसे नमुनाके तौरपर पुस्तकों ओशीयों रखके शेष सब पुस्तकों फलोधी मगवा लि गइ थी अब इन संस्थाका कार्य बहुत ही उत्साह से चलता है स्वल्प ही समयमें ७५ पुष्पकि करीबन् १५३००० पुस्तके छप चुकी है जिसमें प्रतिमाछत्तीसी, गयवरविलास, दानछत्तीसी, अनुकम्पाछत्तीसी, प्रश्रमाला, चर्चाका पब्लिक नोटीस, लिंगनिर्णय, सिद्धप्रतिमा, मुक्तावली, बत्तीससूत्रदर्पण, डंकेपर चोट, आगमनिर्णय और व्यवहार चूलिकाकि समालोचना यह बारहा पुस्तके तो मूर्तिउत्थापक ढुंढीये तेरेपन्थीयोंके बारे में लिखी गइ है जिस्में सप्रमाण मूर्ति और दया दानका प्रतिपादन किया गया है और स्तवन संग्रह भाग २-२-३-४, दादासाहिब कि पूजा, देवगुरु वन्दनमाला, जैन नियमावला, चौरासी आशा. तना, चैत्यबन्दनादि, जिनस्तुति, सुबोधनियमावली, प्रभु पूजा, जैन दीक्षा, तीर्थयात्रास्तवन, आनन्दधन चौवीसी, सजाय, गहुं. लीयों, राइदेवसि प्रतिक्रमण, उपकेशगच्छ पट्टावली इन १८ पुस्तको में देवगुरुकी भक्तिसाधक स्तबन, स्तुतियों, चैत्यवंदनों आदि है। व्याख्याबिलास भाग १-२-३-४, मेज्ञरनामों, तीन निर्नामा लेखोंका उत्तर, ओशीयों तीर्थके ज्ञान भंडारकि लीष्ट, अमे साधु शा माटे थया, विनती शतक, कवाबत्तीसी, वर्णमाला, तीन चतुर्मासोंका दिग्दर्शन और हितशिक्षा यह १३ पुस्तकों में वस्तुस्वरूप निरूपण या उपदेशका विषय है । दशवैकालिकसूत्र, सुखविपाकसूत्र और नन्दीसूत्र एवं तीन सूत्रोंका मूल पाठ है । शीघ्रबोध भाग १-२-३-४-५-६-७-८-९-१०-११-१२ १३-१४१५-१६-१७-१८-१९-२०-२१-२२-२३-२४-२५ ॥ पैतीस बोल, द्रव्यानुयोग प्रथम प्रवेशिका, गुणानुरागकुलक और सूचीपत्र इन २९ पुस्तको में श्री भगवती सूत्र, पन्नवणाजी सूत्र, जीवाभिगमजी Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) सूत्र, समवायांगजी सूत्र, अनुयोगद्वार सूत्र, नन्दीजी सूत्र स्थानायांगजी सूत्र, जम्बुद्विपपन्नति सूत्र, आचारांग सूत्र, सूत्र कृतांगजी सूत्र, उपासकदशांग सूत्र, अन्तगढदशांग सूत्र, अनुत्तरोववाइजी सूत्र, निरियावलकाजी सूत्र, कप्पवर्डसियाजी सूत्र, पुप्फीयाजी सूत्र, पुप्फचूलीयाजी सूत्र, विन्ही दशांगजी सूत्र, बृहत्कल्प सूत्र, दशाश्रुतखंध सूत्र, व्यवहार सूत्र, निशिथ सूत्र और कर्मप्रन्थादि प्रकारणों से खास द्रव्यानुयोगका सूक्ष्म ज्ञानकों सुगमतारूप हिन्दी भाषामें जो कि सामान्य बुद्धिवाला भी सुखपूर्वक समज के लाभ सके और इन भागोंमें बारहा सूत्रोंका हिन्दी भाषान्तर भी करवाया गया है शीघ्रबोधके प्रथम भाग से पंचवीसवां भाग तकके लिये यहां विशेष विवेचन करनेकि आवश्यक्ता नहीं है. उन भागोंकि महत्वता आद्योपान्त पढने से ही हो सक्ती है इतना तो लोगोपयोगी हुवा है कि स्वल्प ही समय में उन भागोंकि नकलो खलासे हो गइ थी और ज्यादा मांगणी होने से द्वितीयावृत्ति छपाइ गइ थी वह भी थोडा ही दोनों में खलास हो जाने से भी मांगणी उपर कि उपर आ रही है । अतेव उन भागोंकों और भी छपानेकि आवश्यक्ता होने से पुष्प २६-२७-२८-२९-३० को इस संस्था द्वारा प्रगट कीया जाता है. उन शीघ्रबोधके भागोकि जेसी जैन समाज में आदर सत्कार के साथ आवश्यक्ता है उत्तनी ही स्थानकवासी और तेरापन्थी लोगोंमें आवश्यक्ता दिखाई दे रही है। इस संस्था में जीतना ज्ञानकि सुगमता है इतनी ही उदारता है शरू से पुस्तकोंकि लागी किंमत से भी बहुत कम किंमत रखी गइ थी. जिसमे भी साधु साध्वीयों, ज्ञानभंडार, लायब्रेरी आदि संस्थाओंकों तो भेट हा भेजी जाती थी. जब ४५ पुष्प छप चुके थे . वहांतक भेट से ही भेजे जाते थे बादमें कार्यकर्त्तावोंने सोचा कि पुस्तकोंका अनादर होता है, आशातना बढती है. इस वास्ते लागी किंमत रख देना ठीक है कारण गृहस्थोंके घर से रूपैया Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) . आठ आना सहज ही में निकल जायेंगे और यहां रूपैये जमा । होंगे उनों से और भी ज्ञान वृद्धि होगी. सिर्फ बारहा सूत्रों के भाषान्तरकि किंमत कुच्छ अधिक रखी गइ है इसका कारण यह है कि इसमें च्यार छेदसूत्रोंका भाषान्तर भी साथ में है जो कि जिनोंको खास आवश्यका होगा यह ही मंगावेगा। तथापि महेनत देखतो किंमत ज्यादा नहीं है शेष कितावेंकी किंमत हमारे उद्देश माफीक ही रखी गई है. पाठकगण किंमत तर्फ ध्यान न दे किन्तु ज्ञान तर्फ दे कि जिन सूत्रोंका दर्शन होना भी दुर्लभ थे वह आज आपके करकमलो में मोजुद है इसका ही अनुमोदन करे । अस्तु। वि. सवत् १९७९ का फागण वद २ के रोज श्रीमान्मुनि महाराजश्री श्रीहरिसागरजी तथा श्रीमान् ज्ञानसुन्दरजी महाराज ठाणे ४ का शुभागमन लोहावट ग्राम में हुवा. श्रोतागणकी दीर्घ काल से अभिलाषा थी कि मुनि श्रीज्ञानसुन्दरजी महाराज पधारे तों आपश्रीके मुखाविद से श्री भगवतीजी सूत्र सुने. तीन वर्षों से विनंती करते करते आप श्रीमानोंका पधारना होनेपर यहांके श्रावकोने आग्रे से अर्ज करनेपर परम दयालु मुनि श्रीने हमारी अर्ज स्वीकार कर मीती चैत पद ६ के रोज श्री भगवतीजी सूत्र सुबे व्याख्यानमें फरमाना प्रारंभ किया जिस्का म. होत्सव वरघोडा रात्रीजागराणादि शा रत्नचंदजी छोगमलजी पारख कि तर्फसे हुवा था इस शुभ अवसर पर फलोधीसे श्रीजैन नवयुवक प्रेम भंडल तथा अन्यभी श्रावकवर्ग पधारे थे घरघोडा का दर्श-अंग्रेजीबाजा ग्यानमंडलीयों ओर सरकारी कर्मचरियों पोलीस आदिसे बडा ही प्रभावशाली दीखाइ देते थे श्री भगव. तीजी सूत्रकि पूजामें अठारा सोनामोहरों मीलाके करीबन रू १०००) की आवादानी हुइथी जिस्का श्री संघसे यह ठेराव हुवा कि इन आवादानीसे तत्व ज्ञानमय पुस्तकें छपा देना चाहिये । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस सुअवसरपर श्री सुखसागर ज्ञान प्रचारक नामकि संस्थाकि भी स्थापना हुइ थी संस्थाका खास उदेश यह रखा गया था कि जैनशासनके सुख समुद्र में ज्ञानरूपी अगम्य जल भरा हुवा है उन ज्ञानामृतका आस्वादन जनताको एकेक बिंदु द्वारा करवा देना चाहिये. इस उदेशका प्रारंभमें श्री द्रव्यानुयोग द्वितीय प्रवेशिका प्रथम बिन्दु तथा श्री भाव प्रकरण दूसरा बिन्दु आप लोगोंकी सेवामें पहुंचा दिया था। यह तीसरा बिन्दु जो शीघ्रबोध भाग १-२-३-४-५ जो प्रथम ओर दुसरी आवृति श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला-फ. लोधीसे छप चुकीथी परन्तु वह सब नकले खलास हो जानेपरभी मागणी अधिक और अति लाभ जानके नइ आवृति जोकि पहले कि निष्पत इस्मे बहुत सुधारा करवाया गया है शीघ्र बोध भाग पहले में धर्म के सन्मुख होनेवालेके गुण, मार्गानुसारीके ३५ बोल व्यवहार सम्यकत्वके ६७ बोल, पैतीस वोल लघुदंडक महादंडक धिरहद्वार रूपी अरूपी उपयोग चौदाबोल वीसवोल तेवीस बोल चालीस बोल १०८ बोल और छे आरों का इतिहासका वर्णन है दुसरा भागमें विस्तार पूर्वक नौतत्व पचवीस क्रियाका विवरण है। तीसरा भागमें नय निक्षेपा स्याद्वादं षद्रव्य सप्तभंगी अष्ट. पक्ष द्रव्यगुणपर्याय आदि जी जैनागमकि खास कुंजीयों कहलाती है भाषा आहार संज्ञायोनि और अल्पा बहुत्व आदि है। चोथा भागमें मुनिमहाराजोंके मार्ग जेसे अष्ट प्रवचन, गौचरीके दोष, मुनिके उपकरण, साधु समाचारी आदि हे ।। पांचवें भागमें को कि दुर्गम्य विषयभी बहुत सुगमतासे लिखी गइ है इन पांचो भागकि विषयानुक्रमणिका देखनेसे आपको रोशन हो जायगा कि कितने महत्ववाले विषय इन भागोंमे प्रकाशित करवाये गये है। अब हम हमारे पाठकों का ध्यान इस तर्फ आकर्षित करना चाहते है कि जितने छदमस्थ जीव है उन सबकि एकरूची नही Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) होती है याने अलग अलग रूची होती है इतनाही नही बल्के एक. मनुष्यक भी हर समय एक रूची नही होती है जिस जिस समय जो जो रूची होती है तदानुसार वह कार्य किया करता है। अगर वह कार्य परमार्थके लिये कीसी रूपमें कीसी व्यक्तिके लीये उपकारी होतों उनका अनुमोदन करना और उनसे लाभ उठाना सज्जन पुरुषों का कर्तव्य है । raft मुनिश्री कि रुची जैनागमोंपर अधिक है और जनताक सुगमता पूर्वक जैनागमोंका अवलोकन करवा देने के इरा दासे आपने यह प्रवृति स्वीकार कर जनसमाज पर घडा भारी उपकार कीया है इस वास्ते आपका ज्ञानदानकि 'उदार वृत्तिका हम सहर्ष बदा स्वीकार करते है और साथ में अनुरोध करते है कि आप चीरकाल तक इस वीर शासनकी सेवा करते हुवे हमारे ४५ आगमोंकों ही इसी हिन्दी भाषाद्वारा प्रगट करे तांके हमारे जेसे लोगोंको मालुम होकि हमारे घरके अन्दर यह अमूल्य रत्न भरे हुवे है । अन्तमें हमारे वाचक वृन्दसे हम नम्रता पूर्वक यह निवेदन करते हैं कि आप एक दफे शीघ्र बोध भाग १ से २५ तक मंगवाके क्रमशः पढीये कारण इन भागोंकी शैली एसी रखी गई है कि क्रमशः पढनेसे हरेक विषय ठीक तौरपर समजमें आसकेगें । ग्रन्थकी सार्थकता तब ही हो सक्ती है कि ग्रन्थ आद्योपान्त पढे और ग्रन्थकर्ताका अभिप्रायकों ठीक तोर पर समजे । बस हम इतना ही कहके इस प्रस्तावनाको यहां ही समाप्त कर देते है। सुज्ञेषु किं 'बहुना ! १६८० का मीती कार्तिक ज्ञानपंचमि. शुद ५ भवदीय, छोगमल कोचर. प्रेसिडन्ट श्री जैन नवयुवक मित्रमंडल. मु० लोहावट - मारवाड. Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुश खबर लिजिये. सूत्रश्री भगवतीजी, प्रज्ञापनाजी, जीवाभिगमजी, समवायांगजी, अनुयोगद्वारजी, दशषैकालिकनी आदि से उद्धरीत किये 'हुवे बालावबोध हिन्दी भाषा में यह द्वितीयावृत्ति अच्छा सुधारा "और खुलासा के साथ बढोये कागद, अच्छा टैप, सुन्दर कपडेकि एक ही. जल्द में यह ग्रन्थ एक द्रव्यानुयोगका खजाना रूप तैयार करवाया गया है. किंमत मात्र रु. १ ।। जल्दी किजिये खलास हो जानेपर मीलना असंभव है. शीघ्रबोध भाग १ - २-३-४-५ वां जिस्की संक्षिप्त विषयानुक्रमणिका. संख्या. विषय. प्रथम भाग. १ धर्मज्ञ होनेके १५ गुण १ २ मार्गानुसारीके ३५ बोल २ : व्यवहार सम्यक्त्वके ६७ बोल पृष्ट संख्या. विषय. पृष्ट ४ पैतीस बोलोंका थोकडा ११. ५ लघु दंडक बालावबोध २२ : ६ चौवीस दंडक के प्रश्नोत्तर ३८ ७ महादंडक ९८ बोल ८ विरहद्वार ३९ ७ ર્ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ट. (२२) संख्या. विषय. पृष्ट. संख्या. विषय. ९ रूपी अरूपीके १०६ बोल ४५ ३५ एकेन्द्रियके भेद १० दिसानुवाइ दिसाधिकार४६ ३६ प्रत्येक वनस्पति १२ ११ छ कोयाके छे द्वार ४९ प्रकारको १२ उपयोगाधिकार ३७ साधारण पन० के भेद ८८ १३ देवोत्पातके १४ बोल ५१ ३८ वनस्पतिके लक्षण . ८९ १४ तीर्थकर नामके २० बोल ५२ ३९ बेइन्द्रियादिके भेद ९० १५ जलदी मोक्ष जानेके २३ ४० पांचेन्द्रियके च्यार भेद ९. बोल ५४ ४१ मनुष्यके ३०३ भेदका १६ परम कल्याणके ४० बोल ५५ वर्णन १७ सिद्धोंकि अल्पाबहुत्व ५९ ४२ आर्यक्षेत्र २५॥ का वर्णन ९५ १८ छे आरोका अधिकार ६०४३ दश प्रकारकि रूची ९६ १९ पहेला आराधिकार ६१ ४४ देवतोंके १९८ भेद ९७ २. दुसरा आराधिकारः ६३ | ४५ अजीवतत्वके लक्षण १०० २१ तीसरा आराधिकार ६४ ४६ अरूपी अजीवके ३० भेद१०१ २२ चोथा आराधिकार ६८ ४७ रूपी अजीवके ५३० भेद१०२ २३ पांचमाराधिकार ६९ ४८ पुन्यतत्वके लक्षण १.३ २४ छट्ठाराधिकार | ४९ पुन्य नौ प्रकारसे बन्धते । २५ उत्सर्पिणी शीघ्रबोध भाग २ जो. | ५० पुन्य ४२ प्रकारसे भोगवे१०४ ५१ पापतवके लक्षण १०५ २६ नवतस्वके लक्षण ७८ ५२ पाप १८ प्रकारसे बन्धे १०५ २७ जीवतत्वके लक्षण ७९ ५३ पाप ८२ प्रकारसे भोगवे १०६ २८ सुवर्णादिके दृष्टांत ८. ५४ आश्रवके लक्षग १०७ २९ जीवतत्वपर द्रव्यादि च्यार८ ५५ आश्रवके ४२ भेद ३० जीवतत्यपर च्यार निक्षेप८० ५६ क्रिया २५ अर्थ संयुक्त १०८ १ जीवतत्वपर सात नय ८० ५७ संवरतत्वके लक्षण १०९ ३२ जीवोंके सामान्य भेद ८० ५८ संघरके ५७ भेद ३३ सिद्धोंके जीवोंके भेद ८१ ५९ बारहा भावना ३४ संसारी जीवोंके भेद ८२ ६० निर्जरातत्वके लक्षण १११ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्या. विषय. ६१ अनसन तप ६२ उणोदरी तप ६३ भिक्षाचारी तप ६४ रसत्याग तप ( २३ ) पृष्ट संख्या. विषय. ११२ । ८५ काइयादि क्रिया ११४ ८६ अज्जोजीया क्रिया ११५ ८७ क्रियाकि नियमा भ ११६ जना १३९ १३९ ६५ काय क्लेश तप ६६ प्रतिसंलेहना तप ११७ | ८८ आरंभियादि क्रिया ११८ | ८९ क्रियाका भांगा १४१ ६७ प्रायश्चित्त तपके ५० भेद११८ ९० प्राणातिपातादि क्रिया १४१ ११९ । ९१ क्रिया लागनेका कारण १४१ १२१ | ९२ अल्पाबहुत्व १४२ १२२ ६८ विनय तपके १३४ भेद ६९ वैयावश्च तपके १० भेद ९३ शरीरोत्पन्न में क्रिया १४३ १२२ । ९४ पांच क्रिया लगना ७४ विउगा तप ७५ बन्धतरके लक्षण ७६ आठ कर्मोंके बन्ध का रण ८५ ७७ मोक्षतच्धके लक्षण ७८ सिद्धोंकी अल्पा० ३३ बोल ७९ क्रियाधिकार ८० सक्रिय क्रियाअर्थ ८१ क्रिया कीससे करे ८२ क्रिया करेतों कीतने कर्म ८३ कर्म बन्धों कितनि क्रिया ७० स्वाध्याय तप ७१ वाचनाविधि प्रश्नादि १४३ ७२ अस्वाध्याय ३४ प्रकारके१२४ ९५ नौ जीवोंकों क्रिया लागे १४४ ७३ ध्यानके ४८ भेद पृष्ट. १३७ १३८ १२५ | ९६ मृगादि मारने से क्रिया १४४ १२८ ९७ अग्नि लगानेसे क्रिया १४४ १२८ ९८ झाल रचनेसे क्रिया १२९ ९९ क्रियाणा लेना बेचना १४५ १०० वस्तुगम जानेसे १४५ १३० | १०१ ऋषि हत्या करनेसे १४५ १४५ क्रिया १३१ १०२ अन्तक्रियाधिकार १३४ १०३ समुद्घात से किया १३४ १०४ मुनियोंकों क्रियानौ १४७ १०५ तेरहा प्रकार कि क्रिया १४७ F १३४ १४८ | १०६ श्रवकको किया १३५ १०७ vaate प्रकारकि १३६ ८४ एक जीवकों एक जीवकि क्रिया क्रिया शीघ्रबोध भाग तीजो. १३७ १०८ नयाधिकार १४९ १५१ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ (२४) संख्या. विषय. पृष्ट. संख्या. विषय. १०९:सात अंधे ओर हस्तीका १३७ प्रत्येक प्रमाण १७६ ., दृष्टान्त.... :: .१५१ १३८ आगम प्रमाण 1७६ ११० नयका लक्षण १५३ /१३९ अनुमान प्रमाण १७६ १११ नेगमनयका लक्षण १५४ १४० ओपमा प्रमाण ११२ संग्रह नय लक्षण १५५ १४१ सामान्य विशेष १७९ १.१३ व्यवहारनय १५६ १४२ गुण और गुणी १८० ११४ ऋजुसूत्रनय १५७ १४३ शेय ज्ञान ज्ञानी १८० १९५ साहुकारका दृष्टान्त १५७ १४४ उपन्ने वा विघ्ने वा ११६ शब्द-समभीरूढ-एवं मृत१५८ ध्रुववा। १८० ११७ बसतीका दृष्टान्त १५९ १४५ अध्यय आधार १८१ ११८ पायलीका दृष्टान्त १६.१४६ आविर्भाव तिरोभाव ११९ प्रदेशका दृष्टान्त १६१ १४७ गोणता मोख्यता १२० जीवपरसातनय १६२१४८ उत्सर्गोपवाद १२१ सामायिकपर सात नय१६३ १४९ आत्मातीन १२२ धर्मपर सात नय १५० ध्यान च्यार १२३ बांणपर सात नय १६३ १५१ अनुयोग च्यार १८४ १२४ राजापर सात नय १५२ जागरण तीन . १२५ निक्षेपाधिकार १५३ व्याख्या नौप्रकार १५४ अष्ट पक्ष १२६ नामनिक्षेपा १६५ १५५ सप्तभंगी १२७ स्थापना निक्षेपा १८५ १२८ द्रव्यनिक्षेपा १६७१५६ निगोद स्वरूप १२९ भावनिक्षेपा १५७ षट्व्रव्य अधिकार १९० १३. द्रव्यगुणपर्याय १७२ १५८ षद्व्यकि आदि १९० १३१ द्रव्य क्षेत्रकाल भाव १७२ १५९ षद्रव्यका संस्थान १९० १३२ द्रव्य और भाव १७३ १६० षद्रव्यमें सामान्य गुण१९१ १३३ कारण कार्य १७३ १६१ षद्रव्यमें विशेष स्व. १३४ निश्चय व्यवहार १७४ भाव १३५ उपादान निमत्त १७५ १६२ षद्रव्यके क्षेत्र . १९२ १३६ प्रमाण च्यार प्रकारके १७५२५३ षद्रव्यके काल...१९३ १८४ १८४ १८५ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) २०७ संख्या. विषय. पृष्ट. संख्या. विषय. १६४ पदम्यके भाव १९४ (१८९ सत्यादि च्यार भाषा २०४ १६५ षद्रव्यमें सा. वि १९४ १९० भाषाके पु० भेदाना २०५ १६६ षद्रव्यमे निश्चय व्य. १९५ १९१ भाषाके कारण . २०७ १६७ पदद्रव्यके सात नय १९५ १९२ भाषके वचन १६ प्र. १६८ षद्रव्यकेच्यार निक्षेपा१९५, कारके १६९ षद्रव्यके गुण पर्याय १९६ १९३ सत्यभाषाके १० भेद २०८ १७० षटद्रव्यके साधारणगुण१९६ १९४ असत्यभाषाके १० मेद २०८ १७१ षटद्रव्यके साधर्मीपणा १९६ १९५ व्यवहार भाषाके १२ १७२ षटद्रव्यमें प्रणामबार १९७ भेद २१० १७३ षटद्रव्यमें जीवद्वार . ,, १९६ मिश्रभाषाके १० भेद २१० १७४ षटद्रव्य में मूर्तिद्वार , १९७ अल्पाबहुत्व भाषा क० २११ १७५ षटद्रव्यमें एक अनेकद्वार, १९८ आहाराधिकार २११ १७६ षटद्रव्यमें क्षेत्रक्षेत्री , १९९ कीतने कालसे आहारले२१२ १७७ षटरव्यमें सक्रियद्वार १९८ २०० आहारके पु० २८८ प्रका। १७८ षटद्रव्यमें नित्यानित्य , रके १७९ षटद्रव्यमें कारणद्वार , २०१ आहार पु. के वीचार २१४ १८० षटद्रव्यमें कर्ताद्वार ,२८२ श्वासोश्वासधिकार २१६ १८१ षटद्रव्यमें प्रवेशद्वार , २.३ संज्ञा उत्पति अल्पा० २१७ १८२ षटद्रव्यके मध्य प्रदेशकि.२०४ योनि १२ प्रकारकी २१८ - पुच्छा १९९ २०५ आरंभादि २२१ १८३ षटद्रव्य स्पर्शना २०० २०६ अल्पाबहुत्व १६ बोल २२२ २८४ षटद्रव्यके प्रदेश स्प- २०७ अल्पा बहुत्व १४ बोल२२३ ना १९० २०८ अल्पाबहुत्ब ८-४-४ २२३ २०० १८५षटद्रव्यकी अल्पाबहुत्व २०१ २०९ अल्पाबहुत्व २३१८.३४ २२६ १८६ भाषाधिकार आदि २०१ शीघ्रबोध भाग ४ थो. १८७ भाषाकि उत्पति २०२ १८८ भाषाके पुदगलोंके २३९ २११ अष्ट प्रवचन ૨૨૭ बोल २०३ २१२ इर्यासमिति રર૮ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) संख्या. विषय. पृष्ट. संख्या. विषय ... . . . २१३ भाषासमिति २२८ २३७ देव अतिशय ३४ २५४ २१४ एपणासमिति २२८२३८ देव वाणी ३५ गुण २५४ २१५ गौचरीके ४२ दोष २२९ २३९ उत्तराध्ययनके ३६ अ. . २१६ गौचरीके ६४ दोष कुल ध्ययन १०६ दोष. २३३ २४० छ निग्रन्थोंके ३६ वार २५५ २१८ चोथी समिति २४१ पांच संयतिके ३६ वार २६६ २३९ २४२ अनाचार ५२ . २१९ मुनियोंके १४ उपकरण २७६ : २३९ २४३ संयमतबुंके १७८२ त२२० प्रतिलेखन २५ प्रकारकी २४० णावा २७९ ३० २४४ आराधना तीन प्रकार २८२ २२१ प्रतिलेखनके ८ मांगा २४२ २२२ पांचवी समिति २४२ २४५ साधु समाचारी १० २८४ २२३ दश बोल परिठनेका २४२ २४६ मुनि दिनकृत्य २८५ २२४ तीनगुप्ति २४७ षटावश्यक २२५ पगांम सजाके ३३ बो २४८ साधु रात्री कृत्य लोके अर्थ २४४ २४९ पौरसी पौणपोरसीका २२६ एकवोलसे दश बोल २४४ मान. २२७ श्राद्ध प्रतिमा २४६ शीघ्रबोध भाग ५ वा. २२८ श्रमण प्रतिमा २४६ २२९ तेरहसे वीस बोलका २४६२५० जड़ चैतन्यका संबन्ध २९३ २५० ज अर्थ असमाधि स्थान. २४६ २५१ कमें क्या वस्तु है ? २९४ २३. एकवीस सबला दोष २४८ २५२ आठ कमोकि १५८ उ२३१ बावीस परिसह २४८ त्तर प्रकृति २९६ २३२ तेवीससे गुणतीसबोल २४८ २५३ आठ कोके बन्ध २३३ महा मोहनिके ३० कारण २५१ २५४ सर्वघाती देश घाती प्र०३१६ २३४ सिद्धोंके ३१ गुण २५१ २५५ विपाक उदय प्र० ३१७ २३५ योगसंग्रह बत्तीस २५२ २५६ परावर्तना परावर्तन प्र.३१८ २३६ गुरुकि ३३ आशातना २५३ २५७ चौदा गुणस्थानपर बन्ध३१९ स्थान Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૭૨ (२७) संख्या. विषय. पृष्ट. संख्या. विषय. पृष्ठ २५८ चौदा गुण. पर उदय । वह आयुज्य कहांका बन्धे उदिरणा प्रकृति ३२२ वह भव्याभव्य होते है ३७६ २५९ बौदा गु० पर सत्ता प्र. २७७ समौसरण अणन्तर ३७० कृति ३२४ २७८ छ लेश्या ३७१ २६० अबाधाकालाधिकार ३७२७९ लेश्याका वर्ण ३७१ २६१ कर्मविचार २८० लेश्याका गन्ध ૭ર २६२ कर्म बान्धतो बान्धे । ३२६ २८१ लेश्याका रस २६३ कर्म बान्धतो घेदे ३४०२८२ लेश्याका स्पर्श ३७२ २६४ कर्म घेदतों बान्धे २०० २८३ लेश्या परिणाम ૨૭૨ २६५ कर्म वेदतों वेदे ३४५ २८४ कृष्ण लेश्याका लक्षण ३७३ २६६ ५० बोलोंकी बन्धी ३४७ २८५ निल लेश्याका लक्षण ३७३ २६७ पर्यावहि कर्म बन्ध ३४८ २८६ कापोत लेश्याका लक्षण ३७३ २६८ सम्प्राय कर्म बन्ध ३५३ २८७ तेजस लेश्याका लक्षण ३७३ २६९ ४७ बोलोंकी बन्धी ३५४ २८८ पन लेश्याका लक्षण ३७३ २७० प्रत्येक दंडकपर बन्धी २८९ शुक्ल लेश्याका लक्षण ३७४ के बोल ३५५ २९० लेश्याका स्थान ३७४ २७१ प्रत्येक बोलोपर बम्धी २९१ लेश्याकी स्थिति ३७४ के मांग ३१० २९२ लेश्याकी गति ३७५ ३५६ , २७२ अनंतरोववनगादि उ- २९३ लेश्याका चयन ३७६ देशा ३११२९४ संचिठण काल ३७६ ३७७ २७३ पापकर्म करते कहां भो २९५ सून्य काल गये २९६ असून्य काल ३६४२९७ मिश्र काल २७४ पापकर्मके १६ भांगा ३६६ २९८ सचिठन २७५ समौसरणाधिकार ३३७ २९९ अल्पाबहुत्व ૩% २७६ प्रत्येक दंडकर्म बोल .. बन्धकाल • और बोलोंमें समौसरण ३०१ बन्धके ३६ बोल. ३७७ ३७८ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशीघ्रबोध भाग १-२-३-४-५ वां के थोकडोंकि नामावली. किनत मात्र रु. १॥ संख्या. थोकडे के नाम. कोन कोनसे सूत्रोंसे उध्धृत किये है. । धर्मके सन्मुख होनेवालो में . पूर्वाचार्य कृत (१) मार्गानुस्वारके ३२ बोल , ,' (२) व्यवहार सम्यक्त्वके ६७ बोल , , (३) पैतीस बोल संग्रह बहुतसूत्रों संग्रह (४) लघुदंडक बालावबोध सूत्रश्री जीवाभिगमजी (५) चौवीस दंडकके प्रश्नोत्तर पूर्वाचार्य कृत . (६) महादंडक ९८ बोलका सूत्रधी पन्नवणाजी पद ३ (७) विरहवार [बासटीया ] ,, , पद ६ (८) रूपी अरूपीके १६ सूत्रश्री भगवतीजी श०१२ उ०५ (९) दिसाणुषाइ दिशाधिकार सूत्रश्री पन्नवणाजी पद ३ (१०) छे कायाधिकार सूत्रश्रो स्थानायांग ठा. ६ । १९ ) श्री उपयोगाधिकार सूत्रश्री भगवतीजी श०१३ उ-२ (१२) चौदा बोल देवोत्पात , श० १ उ० २ (१३) तीर्थंकर गोत्र बन्ध कारण सूत्रश्री ज्ञाताजी अध्य०८ (१४) मोक्ष जानेके २३ बोल पूर्वाचार्य कृत (१५) परमकल्याणके ४० बोल बहुत सूत्रोंसे संग्रह (१६) सिद्धोंकि अल्पाबहुत्व __ १०८ बोलोंकि श्री नन्दीसूत्र (१७) छे आरोंकाधिकार श्री जम्बुनिपपन्नति सूत्र Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९) (१८) वडी नवतस्व श्री उत्तराध्ययनजी सूत्र ( १९ ) पचवीस क्रियाधिकार बहुतसे सूत्रोंसे संग्रह (२०) नय निक्षेपादि २५ द्वार श्री अनुयोगनारादि सूत्र . (२१) प्रत्यक्षादि च्यार प्रमाण श्री अनुयोगद्वार सूत्र ( २२ षटद्रव्यके द्वार ३१ बहत सूत्रोंसे संग्रह (२३) भाषाधिकार सूत्रश्री पन्नवणाजी पद ११ ( २४ ) आहाराधिकार ___ " पद २८ उ०१ (२५) श्वासोश्वासाधिकार " पद ७ ( २६ ) संज्ञाधिकार " पद ८ (२७) योनि अधिकार " , पद ९ (८) आरंभादि चौषीस दंडक सूत्रश्री भगवतीजी श०११ (२९) अल्पाबहुत्व पूर्वाचार्य कृत (३०) अल्पाबहुत्व बोल (३१) अल्पाबहुत्व. (३.) अष्टप्रवचनाधिकार सूत्रश्री उत्तराध्ययनादि (३३) छत्तीस बोल संग्रह सूत्रश्री आवश्यकजी (३४) पांच निग्रंथके ३६ द्वार सूत्रधी भगवती श० २५-६ (३५) पांच सयतिके ३६ द्वार , २५-७ ( ३६ ) बावन अनाचार सूत्रश्री दशवकालिक अध्य०३ ( ३७ ) पांच महाव्रतादि १७८२ , " ( ३८) आराधना पद सूत्र भी भगवतीजी श.८ उ.१० (३९) साधु समाचारी सूत्र श्री उत्तराध्ययनजी अ. २ (४०) जड चैतन्यका स्वभाव पूर्वाचार्य कृत (४१) आठ कर्मोंकि १५८ प्रकृति श्री कर्मगन्थ पहला (४२) आठ कर्मोके बन्धहेतु श्री कर्मग्रन्थ पहला (४३) कर्मप्रकृति विषय श्री कर्मग्रन्थ चोथासे . (४४) कर्मप्रकृतिका बन्ध , , दूसरा Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) (४५) कर्मप्रकृतिका उदय , , , (४६) कर्मप्रकृतिकि सत्ता , , , (४७) अबाधाकालाधिकार श्री पन्नषणाजी सूत्रपद २३ (४८) कर्म विचार श्री भगवतीजी सूत्र श. ८ उ. १० (४९) कर्मवान्धतो बान्धे श्री पन्नवणाजी मूत्रपद २३ (५०) कर्म बान्धतो वेदे " " , पद २४ (५१) कर्म वेदतों बान्धे " " , पद २५ (५२) कर्म वेदतों वेदे , पद २६ (५३) पचास बोलोकी बन्धी श्री भगवतीजी श. ६ उ.३ (५४) र्यावहि संप्रायकर्म श्री भगवतीजी श. ८ उ.८ (५५) ४७ बोलोंकि बन्धी , , , २६ उ. ३ (५६) ४७ बोलोंके अणंतरादि , ,, २६ उ. २ (५७) करीसु शतक , , , २७-११ (५८) ४७ बोलोपर आठ भांगा , , ,, •८-११ (५९) सम भोगवनादि (६०) समोसरणाधिकार , , ,, ३०-११ (६१) लेश्याके ११ द्वार श्रीउत्तराध्ययनजी अ०३४ (६२) संचिठ्ठण काल श्रीभगवतीजी श०१ उ०२ (६३) बन्धकाल बोल ३६ श्रीकर्मग्रंथ चौदे पत्ता- श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला. मु० फलोधी-(मारवाड.) श्री सुखसागर ज्ञानप्रचारक सभा. मु० लोहावट-(मारवाड.) Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिपत्र, पृष्ट पंक्ति अशुद्धि शुद्धि अत्तन्ती सागरोप १. भु. १३ वैक्रय नवतत्वका सिद्धि परस्पर तीयर्च समथ ख्याते मलता असंही पल्योपम १० औदारीक १३ देवता नवतस्वमें सिद्धों परम्परा तीर्यच समर्थ ख्याते जीव मालती तेइन्द्रिय जाति कटक८-१२-१६ पेहर कीसका अठारा कासी अठा यंत्रमे । . यंत्रमे। . ५७२ तीर्यध संग्रल रहात ९७२ तीयेच संग्रह १७३ रहित बुंद Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२४० २४४ २६५ पर्याय गुण जास जिस रथ रक्षा समिमि समिति ,, स्नातकमें एक केवली समु० पाये इच्छार इच्छाकार इच्छार इच्छाकार २-८ २-८ ३-८ लोन लोग 3-८ KAL Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुरुपमाळा पुष्प नं २६ ॥ श्री रत्नप्रभसरिसद्गुरुभ्यो नमः ॥ अथ श्री शीघ्रबोध नाग पहेला. -*OKधर्मके सन्मुख होनेवालोमें १५ गुण होना चाहिये। १ नितीवान हो, कारण निती धर्मकी माता है। २ हीम्मत बाहादुर हो, कारण कायरोंसे धर्म नही होता है। ३ धैर्यवान् हो, हरेक कार्योंमें आतुरता न करे। ४ बुद्धिवान् हो, दरेक कार्य स्वमति विचारके करे। ५ असत्यको धीकारनेवाला हो, और सत्य वचन बोले । ६ निष्कपटी हो, हृदय साफ स्फटिकरत्न माफिक हो। : ७ विनयवान, और मधुर भाषाका बोलनेवाला हो । ८ गुणग्राही हो, और स्वात्मश्लाघा न करो। ९ प्रतिज्ञा पालक हो, कीये हुवे नियमोंकों बराबर पाले। १० दयावान हो, और परोपकार कि बुद्धि हो । ११ सत्य.धर्मका अर्थी हो, सत्यकाही पक्ष रखना। १२ जितेन्द्रिय हो, कषायकी मंदता हो। . . १३ आत्म कल्याण कि द्रढ इच्छा हो। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) शीघ्रबोध भाग १ लो. १४ तत्व विचार में निपुण हो । तस्वमें रमणता करे । १५ जिन्होंके पास धर्म पाया हो उन्होंका उपकार कभी भुलना नहीं परन्तु समयपाके प्रति उपकार करे । थोकडा नम्बर १ ( मार्गानुसारीके ३५ बोल ) ( १ ) न्यायसंपन्न विभव - न्यायसे द्रव्यं उपार्जन करना परन्तु विश्वासवात स्वामिद्रोही, मित्रद्रोहो, चौरी, कुड तोल, कुड माप आदि न करे। किसीकी थापण न रखे खोटा लेखन बनावे महान् आरंभवाले कमदानादि न करे। अर्थात् लोक विरुद्ध कार्य न करे । (२) शिष्टाचार - धार्मीक नैतिक और अपने कुलकि म र्यादा माफिक आचार व्यवहार रखना । अच्छे आचारवालोंका संग और तारीफ करना । ( ३ ) सरिखे धर्म और आचार व्यवहारवाले अन्य गोत्रीके साथ अपने बचका विवाह (लग्न) करना, दम्पतिके आयुष्यादिका अवश्य विचार करना अर्थात् बाललग्न, वृद्धलग्न से बचना और दम्पतिका धर्म-जीवन सामान्य धर्मसे ही सुखपूर्वक होता है । वास्ते सामान्यधर्म अवश्य देखना । ( ४ ) पापके कार्य न करना अर्थात् जिसमें मिथ्यात्वादिसे चिकने कर्मबन्ध होता है या अनर्थ दंड-पाप न करना और उपदेश भी नही देना । ( ५ ) प्रसिद्ध देशाचार माफिक वर्ताव रखना उद्भट Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गानुसारी. (३) वेष या खरचा न करना ताके भविष्य में समाधि रहै। आवादानी माफीक खरचा रखना। (६) कीसीका भी अवगुनबाद न बोलना नो अवगुनबाला हो तो उन्हीकि संगत न करना तारीफ भी न करना परन्तु अवगुण बोलके अपनि आत्माको मलीन न करे। (७) जिस मकानके आसपासमें अच्छे लोगोंका मकान हो और दरवाजे अपने कब्जे मेंहो, मन्दिर, उपासरा या साधर्मों भाइयों नजीक हो एसे मकानमें निवास करना चाहिये। ताके सुखसे धर्मसाधन करसके। (८) धर्म, निति, आचारवन्त और अच्छी सलाहके देनेवालांकी संगत करना चाहिये तांक चित्तमे हमेशां समाधी और बनी रहै। (९) मातापिता तथा वृद्ध सजनोंकि सेवाभक्ति विनय करना, तथा कोइ आपसे छोटा भी होतो उनका भी आदर करना सबसे मधुर वचनोंसे बोलना। (१०) उपद्रववाले देश, ग्राम या मकान हो उनका परित्याग करना चाहिये। रोग, मरकी, दुष्काल आदिसे तकलीफ हो एसे देशमें नही रहेना। (११) लोक निंदने योग्य कार्य न करना और अपने श्री पुत्र और नोकरोंको पहलेसे ही अपने कब्जे में रखना अच्छा आचार व्यवहार सीखाना। (१२ ) जैसी अपनी स्थिति हो या पेदास हो इसी माफिक खरचा रखना शिरपर करजा करके संसार या धर्मकार्य में नामून हांसल करने के इरादेसे बेभान होके खरचा न कर देना, खरचा करनेके पहिले अपनी हासयत देखना। . Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) शीघ्रबोध भाग १ लो. (१३) अपने पूर्वजोंका चलाइ हूइ अच्छी मर्यादाकों या वेषका ठीक तरहसे पालन करना कीसीके देखादेख प्रवृत्ति या वेष नही बदलना। (१४) आठ प्रकार के गुणोंकों प्रतिदिन सेवन करते रहना यथा (१) धर्मशास्त्र श्रवण करनेकि इच्छा रखना (२) योग मीलनेपर शास्त्र श्रवणमें प्रमाद न करना (३) सुने हुवे शास्त्रके अर्थकों समझना (४) समझे हूवे अर्थकों याद करना (५) उसमें भी तर्क करना (६) तर्कका समाधान करना (७) अनुपेक्षा उपयोगमें लेना या उपयोग लगाना (८) तत्वज्ञानमें तलालीन हो. जाना शुद्ध श्रद्धा रखना दुसरेको भी तस्वज्ञानमें प्रवेश करा देना। (१५) प्रतिदिन करने योग्य धर्मकार्यको संभालते रहेना, अर्थात् टाईमसर धर्म क्रिया करते रहना । धर्महीको सार समझना। ) १६ ) पहिले कियेहुवे भोजन के पचजानेसे फिर भोजन करना इसीसे शरीर आरोग्य रहता है और चित्तमें समाधी रहेती है। (१७) अपचा अजिर्ण आदि रोग होनेपर तुरत आहारको त्याग करना, अर्थात् खरी भूख लगनेपर ही आहार करना परन्तु लोलुपता होके भोजन करलेने के बाद मीष्टानादि न खाना और प्रकृतिसे प्रतिकुल भोजन भी नही करना, रोग आनेपर औषधीके लिये प्रमाद न करना। (१८) संसारमें धर्म, अर्थ, कामको साधते हुवे भी मोक्षवर्गको भूलना न चाहिये । सारवस्तु धर्म ही समझना । और समय पाकर धर्मकार्योंमे पुरुषार्थ भी करना। (१९) अतित्थी-अभ्यागत गरीब रांक आदिको दुःखी Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गानुसारी. देखके करूणाभाष लाना यथाशक्ति उन्होंकी समाधीका उपाय करना। (२०) कीसीका पराजय करनेके इरादेसे अनितिका कार्य आरंभ नही करना, विना अपराध किसीकों तकलीफ न पहुंचाना। । (२१) गुणीजनोंका पक्षपात करना उन्होंका बहूमान करना सेवाभक्ति करना। (२२) अपने फायदेकारी भी क्यों न हो परन्तु लोग तथा राजा निषेध कीये हवे कार्य में प्रवृत्ति न करना। (२३) अपनी शक्ति देखके कार्यका प्रारंभ करना प्रारंभ किये हवे कार्यकों पार पहुंचा देना। (२४) अपने आश्रितमें रहे हवे मातापिता, स्त्रि, पुत्र, नोकरादिका पोषण ठीक तरहसे करना। कीसीको भी तकलीफ न हो एसा बर्ताव रखना। (२५) जो पुरुष व्रत तथा ज्ञानमें अपनेसे वढा हो उन्होंकों पूज्य तरीके बहूमान देना, और विनय करना। तथा गुणलेनेकि कोशीस करना। .. (२६) दीर्घदर्शी-जो कार्य करना हो उन्हीमें पहिले दीर्घद्रष्टीसे भविष्यके लाभालाभका विचार करना चाहिये। (२७) विशेषज्ञ कोइ भी वस्तु पदार्थ या कार्य हो तो उ. न्हीके अन्दर कोनसा तत्व है कि जो मेरी आत्माको हितकर्ता है या अहितकर्ता है उन्हीका विचार पहले करना चाहिये। (२८) कृतज्ञ-अपने उपर जिस्का उपकार है उन्हीको कभी मूलना नही, जहांतक बने वहांतक प्रतिउपकार करना चाहिये। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) शीघ्रबोध भाग १ लो. - (२९) लोकप्रीय-सदाचारसे एसी प्रवृत्ति अपनी रखनी चाहिये कि वह सब लोगोंको प्रीय हों अर्थात् परोपकारके लिये अपना कार्य छोडके दुसरेके कार्यको पहले करदेना चाहिये । (३०) लजावन्त-लौकीक और लोकोत्तर दोनों प्रकारकी लज्जा रखना चाहिये कारण लज्जा है सो नितिकि माता है लजावतकी लोक तारीफ करते है बहुतसी वखत अकार्यसे बच जाते है। (३१) दयालुहो-सब जीवोंपर दयाभाव रखना अपने प्राण के माफीक सब आत्मावोंकों समझके कीसीको भी नुकशान न पहुंचाना। (३२) सुन्दर आकृतिवाला अर्थात् आप हमेशां हस्तवदन आनन्दमे रहना अर्थात् कर प्रकृति या क्षीण क्षीण प्रत्ये क्रोधमानादि कि वृत्ति न रखना। शान्त प्रकृति रखनेसे अनेक गुणोंकि प्राप्ती होती है। (३३) उन्मार्ग जाते हुवे जीवोंको हितबोध देके अच्छे रहस्तेका बोध करना उन्मार्गका फल कहते इथे मधुर वचनोंसे समझाना। (३४) अन्तरंग वैरी क्रोध, मान, माया, लोभ, हर्ष, शोक इन्होंके पराजय करनेका उपाय या साधनों तैयार करतेहूवे वैरीयोंको अपने कब्जे करना। (३५) जीवकों अधिक भ्रमण करानेवाले विषय (पंचेन्द्रिव) और कषाय है उनका दमन करना, अच्छे महात्मावोंकी सत्संग करते रहना, अर्थात् मोक्षमार्ग बतलानेवाले महात्मा ही होते है सन्मार्गका प्रथम उपाय सत्संग है। यापैतीस बोल संक्षेपसे ही लिखा हैकारण कंठस्थ करनेवा Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार सम्यक्त्व के ६७ बोल. (७) लोको अधिक विस्तार कीतनी बखत बोजारूप हो जाता है वास्ते यह ३५ बोल कंठस्थ करके फीर विमानोंसे विस्तारपूर्वक समझके अपनी आत्माका कल्याण अवश्य करना चाहिये । शम् । थोकडा नं० २. (व्यवहार सम्यक्त्वके ६७ बोल) इन सडसठ बोलोंको बारह बार करके कहेंगे-(१) सहहणा ४ (२) लिंग ३ (३) विनय १० प्रकार (४) शुद्धता ३ (५) लक्षण ५ (६) भूषण ५ (७) दोषण ५ (८) प्रभाषना ८ (९) आगार ६ (१०) जयणा ६ (११) स्थानक ६ (१२) भावनो ६ इति। (१) सदाणा चार प्रकारकी-१) पर तीर्थीका अधिक प. रिचय न करे (२) अधर्म प्ररुपक पाखंडीयोंकी प्रशंसा न करे (३) स्वमतका पासस्था, उसन्ना और कुलिंगादिकी संगत न करे. इन तीनोंका परिचय करने से शुद्ध तत्वकी प्राप्ति नहीं हो सकती (४) परमार्थको जाणनेवाले संविन गीतार्थकी उपासना करके शुद्ध प्रद्धाको धारण करें। (२) लिंगका तीन भेद-(१) जैसे तरुण पुरुष रंग राग उपर राचे वैसे ही भव्यात्मा श्री जिन शासनपर राचे (२) जैसे क्षुधा तुर पुरुष खीर खांडयुक्त भोजनका प्रेम सहित आदर करे वैसे ही वीतरागकी वाणीका आदर करे (३) जैसे व्यवहारीक ज्ञान पढने की तिव्र इच्छा हो और पढानेवाला मिलनेसे पढ़ कर इस लोकमें . सुखी होवे वैसे ही वीतरागके आगमोंका सुक्ष्मार्थ नित नया ज्ञान सोखके लोक और परलोकके मनोवांच्छत सुखको प्राप्त करें। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) शीवबोध भाग १ लो. (३) विनयका दश भेद-१) अरिहन्तोंका विनय करे (२) सिद्धोका विनय (३) आचार्यका वि० (४, उपाध्यायका वि० (५) स्थवीरका वि० :६) गण बहुत आचार्योंके समुह)का वि० (७)कुल ( बहुत आचार्यों के शिष्यसमुह )का वि० (८) स्वाधर्मीका वि० (९) संघका वि० (१०) संभोगीका विनय करे. इन दशोका बहुमानपर्वक विनय करे। जैन शासनमें 'विनय मूल धर्म है। विनय करनेसे अनेक सद्गुणोंकी प्राप्ति हो सकती है। (४) शुद्धताके तीन भेद-१) मनशुद्धता-मन करके अरिहन्तदेव ३४ अतिशय, ३५ वाणी, ८ महाप्रातिहार्य सहित, १८ दुपण रहितx१२ गुण सहित हमारे देव है। इनके सिवाय हजारों कष्ट पडने पर भी सरागी देवोंका स्मरण न करे (२ वचन शुद्धता बचनसे गुण कीर्तन अरिहन्तोंके सिवाय दूसरे सरागी देवोंका न करे (३) काय शुद्धता-कायसे नमस्कार भी अरिहन्तोंके सिवाय अन्य सरागी देवोंको न करे। . (५) लक्षणके पांच भेद-१) सम-शत्रु मित्र पर सम परिणाम रखना २) संवेग-वैराग भाव रखना याने संसार असार है विषय और कषायसे अनन्ताकाल भव भ्रमण करते हुवे इस भव अच्छी सामग्री मिली है इत्यादि विचार करना। (३) निर्वगशरीर और संसारका अनित्यपणा चिन्तवन करना। बने जहां तक इस मोहमय जगत्से अलग रहना और जगतारक जिनराजकी दीक्षा ले कर्म शत्रुओंको जीतके सिद्धपदको प्राप्त करनेकी हमेशां अभिलाषा रखना (४) अनुकम्पा-स्वात्मा, परात्माकी ___x दानान्तराय, लाभांतराय, भोगांतराय, उपभोगांतराय, वीर्यातराय, हास्य, भय, शोक, जुगप्सा, रति, अरति, मिध्यात्व, अज्ञान, अवत, राग, द्वेष, निदा, मोह यह १८ दुषण न होना चाहिये । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार सम्यक्त्वके ६७ बोल. ( ९ ) अनुकम्पा करनी अर्थात् दुःखी जीवको सुखी करना (५) आसता - त्रैलोक्य पूजनीय श्री बीतरागके वचनोंपर दृढ श्रद्धा रखनी, fearfect विचार, अर्थात् अस्तित्व भाषमें रमण करना। यह व्यवहार सम्यक्त्वका लक्षण है। जिस बातकी न्युनता हो उसे पूरी करना । 1 (६) भूषणके पांच भेद - १) जिन शासन में धैर्यवंत हो। शासनका हर एक कार्य धैर्यता से करें । (२) शासन में भक्तिवान हो ( ३ ) शासनमें क्रियावान हो (४) शासन में चातुर्य हो । हर एक कार्य ऐसी चतुरताके साथ करे ताके निर्विघ्नता से हो ( ५ ) शासन में चतुर्विध संघकी भक्ति और बहुमान करनेवाला हो । इन पांच भूषणोंसे शासनकी शोभा होती है। (७) दूषण पांच प्रकारका - (१) जिन वचन में शंका करनी (२) कंखा- दूसरे मतका आडम्बर देखके उनकी वांच्छा करनी (३) वितिमिच्छा - धर्म करणीके फलमें संदेह करना कि इसका फल कुछ होगा या नहीं । अभीतक तो कुछ नहीं हुवा इत्यादि (४) पर पाखंडी से हमेशां परिचय रखना ( ५ ) पर पाखंडीकी प्रशंसा करना ये पांच सम्यक्त्वके दूषण है । इसे टालने चाहिये। 1 (८) प्रभावना आठ प्रकारनी - (१) जिस कालमें जितने सूत्रादि हो उनको गुरुगमसे जाणे वह शासनका प्रभाविक होता है (२) बड़े आडम्बर के साथ धर्म कथाका व्याख्यान करके शासनकी प्रभावना करें (३) विकट तपस्या करके शासनकी प्रभावना करे (४) तीन काल और तीन मतका जाणकार हो (५) तर्क, विः तर्क, हेतु, वाद, युक्ति, न्याय और विद्यादि वलसे वादियोंको शास्त्रार्थमें पराजय करके शासनकी प्रभावना करे (६) पुरुषार्थी पुरुष दिक्षा लेके शासनकी प्रभावना करे (७) कविता करने की A Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) शीघ्रबोध भाग १ लो. शक्ति हो तो कविता करके शासनकी प्रभावना करे (८) ब्रह्मचर्यादि कोई बडा व्रत लेना हो तो प्रगट बहुतसे आदमियोंके बीच में ले। इसीसे लोगोंको शासन पर श्रद्धा और व्रत लेनेकी रुची बढती है अथवा दुर्बळ स्वधर्मी भाइयोंकी सहायता करनी यह भी प्रभावना है परन्तु आजकल चौमासेमें अभक्ष वस्तुओंकी प्र. भावना या लड्डु आदि बांटते है दीर्घदृष्टिसे विचारीये इस बांटने से शासनको क्या प्रभावना होती है ? और कितना लाभ है इस को बुद्धिमान स्वयं विचार कर सके है अगर प्रभावनासे आपका सच्चा प्रेम हो तो छोटे छोटे तत्वज्ञानमय ट्रेक्टकि प्रभावना करिये तांके आपके भाइयोंको आत्मज्ञानकि प्राप्ती हो। (९) आगार छे हैं-सम्यक्त्व के अंदर छे आगार है (१) राजाका आगार (२) देवताका. (३) म्यातका (१) माता पिता गुरुजनोंका (५) बलवंतकाल (६) दुष्कालमें सुखसे आजीविका न चलती हो, इन छे आगारोंसे सम्यक्त्वमें अनुचित कार्य भी करना पडे तो सम्यक्त्व दुषित नहीं होता है। (१०) जयणा छे प्रकारकी-१) आलाप-स्वधर्मी भाईयोंसे एक बार बोलना (२) सलाप-स्वाधर्मी भाईयोसे वार २ बोलना (३) मुनिको दान देना और स्वधर्मी वात्सल्य करना (४) प्रति. दिन वार २ करना (५) गुणीजनोंका गुण प्रगट करना (६) और बन्दन, नमस्कार, बहुमान करना। (११) स्थान छे हैं- १) धर्मरुपी नगर और सम्यक्त्व रुपी दरवाजा (२) धर्मरुप वृक्ष और सम्यक्त्वरूपी जड (३) धर्मरुपी प्रासाद और सम्यक्त्वरूपी नीव (४) धर्मरुपी भोजन और सम्यक्त्वरूपी थाल ५) धर्मरुपी माल और सम्यकपरूपी दुकान (६) धर्मरुपी रत्न और सम्यक्षरुपी तिरी. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पतीस बोल. (११) (१२) भावना छ हैं-(१) जीव चैतन्य लक्षणयुक्त असंख्यात प्रदेशी निष्कलंक अमूर्ती है, (२) अनादि काल से जीव और कमौका संयोग है। जैसे दूधमें घृत, तिलमें तेल, धूलमें धातु, पुष्पमें सुगन्ध, चन्द्रकान्ती में अमृत सी माफिक अनादि संयोग है (३) जीव सुख दुःखका कर्ता है और भोक्ता है। निश्चय नयसे कर्मका कर्ता कर्म है और व्यवहार नयसे जीव है. (४, जीव, द्रव्य, गुण पर्याय, प्राण और गुण स्थानक सहित है. (५' भव्य जीवको मोक्ष है. (६) ज्ञान, दर्शन और चारित्र मोक्षका उपाय है॥ति॥ इस माकडेको कंठस्थ करके विचार करो कि यह ६७ बोल व्यवहार सम्यक्त्व है इनमेंसे मेरेमें कितने है और फिर आगेके लिये पढनेकी कोशीस करो और पुरुषार्थ द्वारा उनको प्राप्त करों॥ कल्याणमस्तु ॥ सेव भंते सेवं भंते तमेव सचम् थोकडा नम्बर ३ ( पैंतीस बोल) (१) पहेले बोले गति च्यार-नरकगति, तीर्यचगति, मनुष्यगति और देवगति. (२) जाति पांच-एकेन्द्रिय, बेइंद्रिय, तेन्द्रिय, चोरिद्रय और पंचेन्द्रिय. . (३) काया ले-पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय, वायु: काय, वनस्पतिकाय, और उसकाय । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीवबोध भाग १ लो. (४) इन्द्रिय पांच-श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुइन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसेन्द्रिय और स्पशेन्द्रिय । (५) पर्याप्ति ले-आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रि. यपर्याप्ति, श्वासोश्वास पर्याप्ति, माषा पर्याप्ति, और मनःपर्याप्ति. (६) प्राणदश-श्रोत्रेन्द्रिय बलप्राण, चक्षुइन्द्रिय बलप्राण, घ्राणेन्द्रिय बलप्राण, रसेन्द्रिय बलप्राण, स्पर्शेन्द्रिय बलप्राण, मनबलप्राण, वचन बलप्राण, काय बलप्राण, श्वासोश्वास बलप्राण आयुष्य बलप्राण. (७) शरीर पांच-औदारिक शरीर, घेक्रिय शरीर, आहारीक शरीर, तेजस शरीर, कारमाण शरीर। (८) योग पंदरा-च्यार मनके, च्यार वचनके, सात कायके, यथा-सत्यमनयोग, असत्यमनयोग, मिश्रमनयोग, व्यवहार भनयोग, सत्यभाषा, असत्यभाषा, मिश्रभाषा, व्यवहार भाषा, औदारीक काययोग, औदारीक मिश्र काययोग, वैक्रियकाययोग, धैक्रिय मिश्रकाययोग. आहारक काययोग, आहारक मिश्र काययोग, और कार्मण काययोग । (6) उपयोग बारहा-पांच ज्ञान, तीन अज्ञान, च्यार दर्शन: यथा-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान, केवलज्ञान, मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान, विभंगज्ञान, चक्षुदर्शन, अ. चक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन. (१०) कर्म आठ-ज्ञानावर्णीय ( जैसे घाणीका बेल) दर्शनाधर्णिय ( जैसे राजाका पोलीया ) वेदनीय कर्म (जैसे मधुलिप्त छुरी ) मोहनीय कर्म (मदिरा पान कोये हुवे मनुष्य) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैंतीस बोर. (१३) आयुष्यकर्म ( जैसे कारागृह) नामकर्म ( जैसे बीतारो ) गोत्रकर्म ( कुंभार ) अंतरायकर्म ( जैसे राजाका खजांची ) | (११) गुणस्थानक - चौदा - मिध्यात्वगुणस्थानक, सास्वादन गु० मिश्र गु० अव्रतसम्यग्दृष्टि गुरु देशव्रती श्रावककागु० प्रमत्त साधुका गुe अप्रमत्त साधु गु० निवृतिबादर गु० अनिवृतिवादर गु० सुक्ष्म संपराय गु० उपशान्त मोह गु० क्षीणमोह सयोगि गु० अयोगि 'गु' । (१२) पांच इन्द्रियोंका - २३ विषय श्रोत्रेन्द्रियकि तीन विषय - जीवशब्द. अजीवशब्द मिश्रशब्द, चक्षुरिन्द्रियकी पांच विषय. काला रंग, निलारंग, रातो ( लाल, पीलोरंग. सफेद रंग, घ्राणेन्द्रियकी दोय विषय, सुगन्ध, दुर्गन्ध, रसेन्द्रियकी पांच विषय तीक्त कटुक, कषाय आविल, मधुर, स्पर्शेन्द्रि यी आठ विषय. कर्कश, मृदुल, गुरु, लघु, सीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष. गु० (१३) मिथ्यात्वदश - जीवकों अजीव श्रद्धे वह मिथ्यात्व, अजबकों जीव श्रद्धे वह मिथ्यात्य, धर्मको अधर्म श्रद्धे, अधर्मकों धर्म श्रद्धे० साधुकों असाधु श्रद्धे; असाधुकों साधु श्रद्धे० अष्टकर्मोंसे मुक्त अमुक्त श्रद्धे० अष्टकम से अमुक्तक मुक्त श्रद्धे० संareके मार्गको मोक्षका मार्ग श्रद्धे० मोक्षके मार्गको संसारका मार्ग श्रद्धे वह मिथ्यात्व है विशेष मिथ्यात्व २५ प्रकारका देखो गुणस्थानद्वार | (१४) छोटी नवतस्वके ११५ बोल- विस्तार देखों व state | नववके नाम जीवतन्त्र, अजीवताव, पुन्यतव, पापतव, आश्रवतत्व, संवरतस्त्र, निर्जरातख बन्धतत्व, मोक्षतच्व । जिसमें । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) ftaar भाग १ लो. (क) जीवतन्त्र के चौदा भेद है। सूक्ष्म पकेन्द्रिय, वादर एकेन्द्रिय, बेन्द्रिय तेइन्द्रिय चोरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय, संज्ञीपंचेन्द्रिय एवं सातोंके पर्याप्ता. सातों के अपर्याप्ता मीलानेसे १४ भेद जीवका है । (ख) अजीत चौदे भेद है यथा-धर्मास्तिकाके तीन भेद है धर्मास्तिकाय के स्कन्ध, देश, प्रदेश, एवं अधर्मास्तिकायके स्कन्ध, देश, प्रदेश एवं आकाशास्तिकायके स्कन्ध, देश, प्रदेश एवं नौ और दशवा काल, तथा पुद्गलास्तिकायके व्यार भेद स्कन्धः स्कन्धदेश स्कन्धप्रदेश, परमाणु पुद्गल एवं चौदा भेद अजीवका है । (ग) पुन्यत्र के नौ भेद है । अन्न देना पुन्य, पाणी देना पुन्य, मकान देणा पुन्य, पाटपाटला शय्या देना पुन्य. वस्त्र देना पुन्य, मनपुन्य, वचनपुन्य, काय पुन्य, नमस्कारपुन्य. (घ) पापतचके अठारा भेद । प्राणातिपात (जीबहिंसा करना ) मृषावाद ( जुठ बोलना ) अदत्तादान ( चोरी करना ) मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन, परपरीवाद, रति अरति, मायामृषाबाद, मिथ्यात्वशल्य एवं १८ पाप. (च) श्रवतत्व २० भेद है यथा- मिथ्यात्वाश्रव, अव्रताभव, प्रमादाश्रव, कषायाश्रव, अशुभयोगाश्रम, प्राणातिपाताश्रव, मृषावादाश्रम, अदत्तादानाश्रव, मैथुनाश्रव, परिग्रहाश्रव, श्रोत्रेन्द्रियकों अपने कब्जे में न रखनाश्रत्र एवं चचइन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसेन्द्रिय, स्पर्शेन्द्रिय एवं मनः वचन० काय० अपने वसमे न रखे, भंडोंपकरण अयत्नासे लेना, अय Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैंतीस बोल. (१५) स्नासे रखना. सूचीकुश अर्थात् तृणमात्र अयत्नासे लेना रखना से आश्रय होता है। (छ) संवरतत्त्व-के २० भेद है यथा समकित संवर, अतप्रत्याख्यान संघर अप्रमादसंवर, अकषायसंवर, शुभयोगसंघर, जीपहिंस्या न करे, जुठ न बोले, चोरी न करे, मैथुन न सेवे, ए. रिग्रह न रखे, भोत्रेन्द्रिय अपने कब्जे में रखे, चक्षु इन्द्रिय घ्राणेन्द्रिय रसेन्द्रिय स्पर्शेन्द्रिय, मन, वचन, काया अपने कब्जेमे रखे,भंडोपकरण यत्नासे ग्रहन करे, यत्नासे रखे,एवं सूचीकुश अ. र्थात् तृणमात्र यत्नासे उठावे यत्नासे रखे एवं २० भेद संवरका है। (ज) निर्जरातत्त्व के १२ भेद है यथा अनसन, उणोदरी, वृत्तिसंक्षेप, रस (विगइ) का त्याग, कायाकलेस, प्रतिसंले. षना, प्रायश्चित्त, विनय, श्रेयावच्च, स्वध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग एवं १२ भेद. . (झ) बन्धतत्व के च्यार भेद है. प्रकृतिबन्ध, स्थिति बन्ध, अनुभागबन्ध, और प्रदेशबन्ध. (ट) मोचतत्व के च्यार भेद है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य. (१५) आत्मा आठ-द्रव्यात्मा, कषायात्मा, योगात्मा उपयोगात्मा, ज्ञानात्मा, दर्शनात्मा, चारित्रात्मा, वीर्यात्मा. (१६) दंडक २४-यथा सात नरकका एक दंड, सात नरकके नाम-धम्मा, वंशा, शीला, अञ्जना, रिठा, मघा, माधवती. इन सात नरकके गौत्र-रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, घालुकाप्रभा, पकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा, तमस्तमःप्रभा. एवं पहला दंडक । दश भुवनपतियोंके दश दंडक यथा-असुरकुमार, नागकुमार, सुवर्ण Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) शीघ्रबोध भाग १ लो. कुमार, विद्युत्कुमार, अमिकुमार, द्विपकुमार, दिशाकुमार, उद-- धिकुमार, वायुकुमार, स्तनीतकुमार एवं ११ दंडक हुवा. पृथ्वीकायका दंडक, अपकायका, तेउकायका, वायुकायका, वनस्पति. कायका, बेहन्द्रिकादंडक तेइन्द्रिका, चौरिंद्रिका, तिर्यचपंचेन्द्रि यका, मनुष्य का, व्यंतरदेवताका, ज्योतीषीदेवोंका और चौवीसंवा बैमानिकदेवतोंका दंडक है। (१७) लेश्या छ-कृष्णलेश्या, निललेश्या, कापोतले. श्या, तेजसलेश्या, पालेश्या, शुक्ललेश्या. (१८) दृष्टि तीन-सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, मिश्रदृष्टि । (१६) ध्यान चार-आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान, शुक्लध्यान। (२०) पट् द्रव्य के जान पनेके ३० भेद. यथा षट् द्र. व्यके नाम. धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय पुद्गलास्तिकाय और काल. (१) धर्मास्तिकाय-पांच बोलोंसे जानी जाती है. जेसे द्रव्यसे धर्मास्तिकाय एक द्रव्य है क्षेत्रसे संपूर्ण लोक परिमाण है. कालसे अनादिअन्त है. भावसे अरुपी है जिसमें वर्ण, गन्ध, रस स्पर्श कुच्छ भी नही है और गुणसे धर्मास्तिकायका चलन गुण हे जेसे जलके सहायतासे मच्छी चलती है इसी माफिक धर्मास्तिकायकि सहायतासे जीव और पुद्गल चलन क्रिया करते है. (२) अधर्मास्तिकाय पांच बोलोसे जानी जाती है अन्यसे अधर्मा० एक द्रव्य है क्षेत्रसे संम्पूर्ण लोक परिमाण है. कालसे आदि अन्त रहीत है भावसे अरूपी है वर्ण गन्ध रस Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैंतीस बोल. (१७) स्पर्श कुच्छभी नही है गुणसे स्थिर गुण है जैसे थाका हुवा मु. साफरकों वृक्षकी छायाका दृष्टान्त । (३) आकाशास्तिकाय-पांच बोलोंसे जानी जाति है द्रव्यसे आकाशास्तिकाय एक द्रव्य है क्षेत्रसे लोकालोक परिमाण है कालसे आदि अंत रहीत है भावसे वर्ण गन्ध रस स्पर्श रहोत है गुणसे आकाशमें विकाशका गुण है जेसे भीतमें खुंटी तथा पाणीमें पत्तासाका दृष्टान्त है। ४) जीवास्तिकाय-पांच बोलोंसे जानी जाती है द्र. ग्य से जीव अनंते द्रव्य है क्षेत्रसे लोक परिमाण है. कालसे आदिअंत रहीत है भावसे वर्ण गन्ध रस स्पर्श रहीत है गुणसे जी. बका उपयोग गुण है जैसे चन्द्र के कलाका दृष्टांत.. (५) पुद्गलास्तिकाय-पांच बोलोंसे जानी जाती है. द्रव्यसे पुद्गलद्रव्य अनंत है क्षेत्रसे संपूर्ण लोक परिमाण है. कालसे आदि अन्त रहीत है भावसे रूपी है वर्ण है गन्ध है रस है स्पर्श है गुणसे सडन पडन विध्वंस गुण है । जेसे बादलोंका दृष्टान्त । (६) कालद्रव्य-पांच बोलोंसे जाने जाते है. द्रव्यसे अनंते द्रव्य-कारण अनंते जीव पुद्गलोंकि स्थितिको पुर्ण कर रहा है । क्षेत्रसें कालद्रव्य अढाइ द्वीप में है ( कारण बाहारके चन्द्र सूर्य स्थिर है ) कालसे आदि अंत रहीत है भावसे वर्ण गन्ध रस स्पर्श रहीत है गुणसे नइ वस्तुको पुराणी करे पुराणी वस्तुको क्षय करे. कपडा कतरणीका दृष्टांत । (२१) राशीदोय-यथा जीवराशी जिस्के ५६३ भेद । अजीवराशी जिस्के५६० भेद है देखो दुसरे भाग नवतत्वके अन्दर (२२) श्रावकजी के बारहाव्रत. (१) प्रस जीव हालता चालताको विगर अपराधे मारे नही। स्थावरजीवोंकि मर्यादा Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) शीघबोध भाग १ लो. करे। (२) राजदंडे लोक भंडे एसा बडा जूठ बोले नही (३) राज दंडे लोक भंडे एसी बडी चोरी करे नही ( ४ ) परस्त्री गमनका त्याग करे स्वनिकि मर्यादा करे (५) परिग्रहका परिमाण करे (६) दिशाका परिमाण करे (७) द्रव्यादिका संक्षेप करे पन्नरे कर्मादान व्यापारका त्याग करे (८) अनर्थदंड पापोंका त्याग करे (९) सामायिक करे. (१०) देशावगासी व्रत करे. (११) पौषध व्रत करे. (१२) अतीथीसंविभाग अर्थात् मुनि महाराजोंको फासुक एषणीक अशनादि आहार देवे । (२३) मुनिमहाराजोंके पांच महाव्रत-(१) सर्वथा प्रकारे जीवहिंसा करे नहीं, करावे नहीं, करते हुवेको अच्छा समजे नहीं. मनसे, वचनसे, कायासे. (२) सर्वया प्रकारे झठ बोले नहीं, बोलावे नहीं, बोलतोको अच्छा समजे नहीं मनसे, वचनसे, कायासे. (३) सर्वथा प्रकारे चोरी करे नहीं, करावे नहीं करतेको अच्छा समजे नहीं मनसे, वचनसे, कायासे. (४) सर्वथा प्रकारे मैथुन सेवे नहीं, सेवावे नहीं, सेवतेको अच्छा समजे नहीं मनसे, वचनसे, कायासे. (५) सर्वथा प्रकारे परिग्रह रखे नहीं, रखावे नहीं, रखते हुवेको अच्छा समजे नहीं मनसे, वचनसे, कायासे । एवं रात्रीभोजन स्वयं करे नहीं, करावे नहीं, करते हुवेको अच्छा समजे नहीं मनसे, वचनसे, कायासे । (२४) प्रत्याख्यानके ४६ भांगा---अंक ११ भाग ९, एक करण-एक योगसे । करं नहीं मनसे करावू नहीं कायासे करुं नहीं वचनसे अनुमोदु नहीं मनसे करुं नहीं कायासे " , वचनसे करावू नहीं मनसे " , कायासे करावु नहीं वचनसे Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैंतीस बोल. (१९) अंक १२ भाग १ । करुन. करावुन. मनसे वचनसे एक करण दो योगसे , , मनसे कायासे वचनसे कायासे करं नहीं मनसे वचनसे | करुं न. अनुमोदुन. मनसे वचनसे ,,,, मनसे कायासे , मनसे कायासे " , पचनसे कायासे , वचनसे कायासे करावं नहीं मनसे वचनसे करावु न. अनु. न. मनसे वचनसे " " मनसे कायासे " , मनसे कायासे ,, , वचनसे कायासे " , वचनसे कायासे अनुमोदुं नहीं मनसे वचनसे अंक २३ भाग ३ " , मनसे कायासे " , वचनसे कायासे | दो करण तीनयोगसे __ अंक १३ भाग ३ करं न.करावुन.मन. वच. काया. एक करण तीन योगसे , अनुन. , , , करं नहीं मनसे वचनसे कायासे करावुन. अ० न. "" करावू नहीं, अंक ३१ भाग ३ अनु० नहीं" , " तीन करण तीन योगसे अंक २१ भाग करुं न.करा. न. अनु.न. मनसे दो करण एक योगसे " " , वचनसे करं नहीं करावु नहीं मनसे " " , कायासे " " वचनसे अंक ३२ भाग ३ " कायासे करुं नहीं अनुमोदु नहीं मनसे । तीन करण दो योगसे , वचनसे करु न.करावं न. अनु.न.मनवचनसे " कायासे " " मनसे कायासे करावं नहीं अनु० नहीं मनसे " , " वचन. काया. " " वचनसे अंक ३३ भाग १ " . , कायासे तीन करण तीन योगसे अंक २२ भाग: करुं नहीं करावं न. अनु० नहीं दो करण दा योगसे मनसे वचनसे कायासे Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) शीघ्रबोध भाग १ लो. (२५) चारित्र पांच सामायिक चारित्र, छेदोपस्था पनीय चारित्र, परिहारविशुद्धि चारित्र, सूक्ष्मसंपराय चारित्र यथाख्यात चारित्र। (२६) नय सात--नैगमनय. संग्रहनय. व्यवहार मय अजुसूत्रनय. शब्दनय संभिरूढनय. एवंभूतनय.। (२७ ) निक्षेपाच्यार-नामनिक्षेप. स्थापनानिक्षेप, द्रव्यनिक्षेप. भावनिक्षेप. (२८) समकित पांच औपशमिक समकित.क्षयोपशम स० क्षायिकस० वेदक स० सास्वादन समकित। (२६) रस नौ-श्रृंगाररस. वीररस. करुणारस. हास्यरस. रौद्वरस. भयानकरस. अद्भुतरस बिभत्सरस. शान्तिरस. (३०) अभक्ष २२ यथा-घडकेपीपु. पीपलकेपीपु. पीपलीके फल. उम्बरवृक्षकेफल. कदुम्बरकेफल. मांस. मदिरा. मधु. मक्खण. हेम. विष सोमल. कचेगडे. कचीमटी रात्रीभोजन. बहुवीजाफल. जमी कन्दवनस्पति बोरोंका अथांणा, कचे गोरसमे डाले हुवे बडे. रींगणा. अनजामा हुवाफल. तुच्छफल चली. तरस याने वीगडी हुइ वस्तु । (३१) अनुयोग च्यार-द्रव्यानुयोग. गीणीतानुयोग. चरणकरणानुयोग धर्मकथानुयोग.। (३२) तत्त्वतीन–देवतत्व देव ( अरिहंत ) गुरु तत्व (निग्रन्थगुरु ) धर्मतत्व (वीतरागकि आज्ञा) (३३) पांच समवाय-काल. स्वभाव. नियत, पूर्वकृत कर्म, पुरुषार्थ. Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैंतीस बोल. (२१) (३४)पाखंडमतके ३६३ भेद यथा-क्रियाबादीके १८० मत, अक्रियाबादी के ८४ मत, अज्ञानबादी के ६७ मत. विनयबादीके ३२ मत. (३५) श्रावकोंके २१ गुण-(१) क्षुद्र मतिवाला न हो याने गंभीर चितवाला हो (२) रूपवंत सर्वाग सुन्दरऽकार यांने श्रावकव्रतको साग पालने में सुन्दर हो (३) सौम्य (शांत) प्रकृतिवाला हो (४) लोक प्रियहो यांने हरेककार्य प्रशंसनियकरे (५) क्रूर न हो, (६) इहलोक परलोकके अपयशसे डरे [७] शाध्यता न करे धोखाबाजीकर दुसरोंकों ठगे नही (८) दुसरोंकि प्रार्थनाका भंग न करे (९) लौकीक लोकोत्तर लज्जा गुणसंयुक्त हो (१०) दयालु हो याने सर्वजीवोंका अच्छा वांच्छे ( ११) सम्यग्द्रष्टि हो याने त्तत्वविचारमें निपुण हो राग द्वेषका संग न करता हुवा मध्यस्थ भावमें रहै (१२) गुण गृहीपनारखे (१३) सत्य वातनिःशंकपणे कहै (१४ ) अपनेपरिवारको सुशील बनावे अपने अनुकुल रखे (१५) दीर्घदर्शी अच्छा कार्यभी खुब विचारके करे (१६) पक्षपात रहीत गुण अवगुणों को जानने वाला हो (१७) तत्वज्ञ वृद्ध सजनोंकि उपासना करे (१८) विनयवान हो यांने चतुर्विध संघकाविनयकरे (१९) कृतज्ञ अपने उपर कीसीने भी उपकार कीया हो उनोका उपकार भूले नही समयपाके प्रत्युपकारकरे (२०) संसारको असार समजे ममत्व भाव कम करे निर्लोभता रखे (२१) लब्धिलक्ष धर्मानुष्ठान धर्म व्यवहार करनेमें दक्ष हो याने संसारमें एक धर्म ही सारपदार्थ है सेवं भंते सेवं भंते तमेवसत्यम्. -HOk Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) शीघ्रबोध भाग १ लो. थोकडा नम्बर ४ ७ .. 'सूत्रश्री जीवाभिगम' से लघुदंडक बालबोध. ॥ गाथा ॥ सरीरोगाहणा संघयण संठाण सन्ना कसायाय लेसिदिय समुग्धाओ सन्नी वेदय पजति ॥१॥ दिठि दसण नाण अनाणे जोगुवोगअ तह किमाहारे उववाय ठि समोइय चवण गइआगह चेव ॥ २॥ इन दो गाथावोंका अर्थ शास्त्रकारोंने खुब विस्तारसे कीया है परन्तु कंठस्थ करनेवाले विद्यार्थी भाइयोंके लिये हम यहाँ पर संक्षिप्तही लिखते है। (१) शरीर प्रतिदिन नाश होता जाय-नयासे पुरांणा होनेका जीस्मै स्वभाव है जिन शरीरके पांच भेद है (१) औदारीक शरीर, हाड मांस रौद्र चरबी कर संयुक्त सडन पडन वि. ध्वंसन, धर्मवाला होनेपरभी एकापेक्षासे इन शरीरकों प्रधान माना गया है कारण मोक्ष होनेमे यहही शरीर मौख्य साधन कारण है (१) वैक्रय शरीर हाड मंस रहीत नाना प्रकारके नये नये रूप बनावे (३) आहारक शरीर चौदा पूर्वधारी लब्धि संपन्न, मुनियोंके होते है (४) तेजस शरीर आहारादिकी पाच. नक्रिया करनेवाला (५) कामण शरीर अष्ट कर्मोका खजाना तथा पचा हुआ आहारको स्थान स्थानपर पहुंचानेवाला। (२) अवगाहना-शरीरकी लम्बाइ जिस्के दो भेद है एक Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुदंडक ( २३ ) भवधारणो अवगाहना दुसरी उत्तर वैक्रिय, जो असली शरीरसे न्यूनाधिक बनाना । (३) संहनन - हाडकि मजबुतीसे ताकत शक्तिको संहनन कहते है जिसके छे भेद है बज्रऋषभनाराच, ऋषभनाराच, नाराच, अर्द्धनाराच, किलका, और छेवटा संहनन । ( ४ ) संस्थान - शरीर कि आकृति, जिसके छे भेद - समचतुरस्र, न्यग्रोध परिमंडल, सादीया, बांधना, कुब्ज, हुंडकसंस्थान. (५) संज्ञा - जीवोंकि इच्छा-जिसके च्यार भेद. आहारसंज्ञा भयसंज्ञा मैथुनसंज्ञा परिग्रहसंज्ञा. (६) कषाय - जिनसे संसारकि वृद्धि होती है जिस्के च्यार मेद है क्रोध, मान, माया, लोभ. (७) लेश्या - जीवोंके अध्यवसाय से शुभाशुभ पुद्गलॉकों ग्रहन करना जिसके छे भेद है कृष्ण० निल० कापोत० तेजस० पद्म० शुक्ललेश्या । (८) इन्द्रिय - जिनसे प्रत्यक्षज्ञान होता है जिसके पांच भेद. श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसेन्द्रिय, स्पर्शेन्द्रिय । ( ९ ) समुद्घात - समप्रदेशोंकि घातकर विषम बनाना जिसका सात भेद है वेदनि० कषाय० मरणांतिक वैक्रिय० ते नस० आहारक० केवली समुद्घात० O (१०) संज्ञी - जिसके मनहो वह संझी. मन न हो वह असंज्ञी (११) वेद - वीर्यका विकार हो मैथुनकि अभिलाषा करना उसे वेद कहते है जिसके तीन भेद है श्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद । ( १२ ) पर्याप्ती - जीष योनिमें उत्पन्न हों पुद्गलोंको ग्रहनकर भविष्य के लिये अलग अलग स्थान बनाते है जिसके भेद छे. आहार० शरीर० इन्द्रिय० श्वासोश्वास० भाषा० मनपर्याप्ती ! Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) शीघ्रबोध भाग १ लो. (१३) दृष्टि - तव पदार्थ की श्रद्धा, जिस्के तीन भेद. स. म्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, मिश्रदृष्टि, (१४) दर्शन - वस्तुका अवलोकन करना जिस्के प्यार भेद चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन. (१५) ज्ञान - तत्ववस्तुको यथार्थ जानना जिस्के पांच भेद है मतिज्ञान, श्रुतिज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान, केवळज्ञान । (१६) अज्ञान - वस्तु तस्वको विप्रीत जानना जिस्के तीन भेद हे मतिअज्ञान, श्रुतिअज्ञान, विभंग अज्ञान । ( १७ ) योग- शुभाशुभ योगोंका व्यापार जिस्का भेद १५ देखो बोल ८ वा । ( पैंतीस बोलोंमें ) (१८) उपयोग - साकारोपयोग ( विशेष ) अनाकारोपयोग ( सामान्य ) (१९) आहार- रोमाहार, कंबलाहार लेते है उन्होंका दो भेद है व्याघात जो लोकके चरम प्रदेशपर जीव आहार लेते हैं उनको कीसी दीशामें अलोककि व्याघात होती है तथा अचर्म प्रदेशपर जीव आहार लेता है वह निर्व्याघात लेता है । (२०) उत्पात - एक समय में कोनसे स्थानमें कितने जीव उत्पन्न होते है । (२१) स्थिति - एक योनिके अन्दर एक भवमें कितने काल रह सके । (२२) मरण - समुद्घात कर तांणवेजाकि माफीक मरे. विगर समुद्गात गोली के वडाकाकी माफीक मरे । (२३) चवन - एक समय में कोनसी योनिसे कीतने जीव खवे. ( २४ ) गति आगति - कोनसी गतिसे जाके कील योनिक जीव उत्पन्न होता है और कोनसी योनिसे चवके जीव कोनसी गतिमें जाता है । इति । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) लघुदंडक पढनेवालोको पहले पैंतीसवोल कंठस्थ कर लेना चा- . हिये । अब यह चौवीसवार चौवीसदंडकपर उतारा जाते है। (१) शरीर-नारकी देबतावों में तीन शरीर-वैक्रीय शरी र० तेजस कारमण पृथ्वीकाय, अप० तेउ०पनास्पति बेइन्द्रिय तेहन्द्रिय चोरिन्द्रय, असंही तीर्यच पंचेन्द्रिय, असंही मनुष्य और युगल मनुष्य इन बोलोंमें शरीर तीन पावे. औदारीक शरीर तेजस० कारमण । वायुकाय और संज्ञी तीर्यच में शरीर च्यार पावे. औदारीक वैक्रीय तेजस. कारमण.। मशीमनुष्यमें शरीर पांचोंपाय. सिद्धोंमें शरीर नहीं. (२) अवगाहना-जघन्य-भवधारणी अंगुलके असंख्यात मे भाग है और उत्तर वैक्रिय करते है उनके जघन्य अंगुलके संख्यातमें भागहोती है अब भवधारणि तथा उत्तर धैक्रय कि उत्कृष्ट अवगाहाना कहते है उत्कृष्ट उत्कृष्टि नाम. भवधारिणि उत्तरवैक्रिय धनुष्य | आंगुल धनुष्य मांगुल - - - - - ७॥ पहली नारकी दुसरी , तीसरी , चोथी , ६२॥ पांचमी " छठी " सातमी, - | Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीघ्रबोध भाग १ लो. । १० भुवनपति वोणव्यन्तर १ ७ हाथकी लाख जोजन जोतीषी पहला दुसरा देवलोक ३-४ था देवलोक ५-६ ठा , ५ हाथ ४ हाथ ९-१०-११-१२-दे. ३ हाथ नौग्रैवेयक २ हाथ ... ... ...| उत्तर वैक्रिय नहीं कर चार अनुत्तर विमान १ हाथ . सर्वार्थसिद्ध वि०१ हाथ उणो पृथ्वी, अप, तेउ, || आंगुलके अंस । ख्यातमो भाग | वायुकाय... ... ... आंगु० संख्या० भाग 11. जोजन-सा- | उत्तर वैक्रिय नहीं ... वनस्पतिकाय धिक (कमल) बे इंद्रिय १२ जोजन ते इंद्रिय ३ गाउ ४ गाउ तिर्यंच पंचेंद्रिय x | १.०० जोजन |९०० जोजन जलचर संज्ञी १००० जोजन . + नोट-उत्कृष्ट अवगाहनावाला उतर वैक्रिय करे नहि. Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुदंडक. . (२७) मनुष्य चलचर संझी ६ गाउ ९०० जोजन खेचर , प्रत्येक धनुष्य उरपरिसर्प , १००० जोजन भुजपरिसर्प , प्रत्येक गाउ जलचर असंही १००० जोजन वैक्रिय नहीं करे थलचर , प्रत्येक गाउ खेचर , प्र० धनुष्य उरपरिसर्प ,, प्र. जोजन भुजपरिसर्प , प्र. धनुष्य ३ गाउ | लाख जोजन झाझेरी असन्नी मनुष्य | आंगु० असं० भाग | उत्तर वैक्रिय करे नहि देवकुरु, उत्तरकुरु |३ गाउ हरिवास, रम्यकवास २ गाउ हेमवय, पेरण्यवय | १ गाउ ५६ अंतरद्वीप - ८०० धनुष्य महाविदेहक्षेत्र ५०० धनुष्य लाख जोजन साधिक *सुसमा सुसमारो लागते आरे ३ गाउ | उतरते २ गाउ सुसम दुजो आरो , १ गाउ सुसमा दुसमा तीजो, ,१ गाउ ,, ५०० धनुष्य दुसमा सुसमा चोथो, ५०० धनुष्य । ,, ७ हाथ दुसम पांचमो आरो,, ७ हाथ , १ हाथ दुसमा दुसमो छ8ो , १ हाथ , १ हाथ उणी २ गाउ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) शीघ्रबोध भाग १ लो. - यह अवसर्पिणी कालकी अवगाहना है इससे उलटी उत्स । पिणीकी समझना । सिद्धोंके शरीरकी अवगाहना नहीं है परंतु आत्म प्रदेशने आकाश प्रदेशको अवगाहया (रोकाहै) इस अपेक्षा जघन्य १ हाथ ८ आंगुल, मध्यम ४ हाथ १६ आंगुल, उत्कृष्ट ३३३ धनुष्य ३२ आंगुल, इति. (३) संघयण-नारकी और देवतामें संघयण नहीं है किंतु नारकीमें अशुभ पुद्गल और देवतामें शुभ पुद्गल संघयणपणे प्रणमते है. पांच स्थावर, तीन विकलेंद्रिय, असन्नी तिर्यच, असन्नी मनुष्यमें संघयण एक छेव? पावे. सन्नी मनुष्य ओर सन्नी तिर्यचमें छ संघयण पावे युगलीआमें एक वज्रऋषभनारायसंघयण और सिद्धोमें संघयण नहीं है. इति (४) संठाण-[६] नारकी, पांच स्थावर तीन विकलेंद्रिय असन्नी तिथंच और असन्नी मनुष्यमें संठाण एक हुंडक पावे तथा देवता और युगलीआमें समचौरस संठाण पावे सन्नी तिर्यच और सन्नी मनुष्यमै छ संस्थान पावे. सिद्धोमें संस्थान नहीं है. (५) कषाय-[४]-चोवीसों दंडकमें कषाय च्यारों पावे और सिद्ध अकाई है। (६) संज्ञा [४]-चोधीसों दंडकमें संज्ञा च्यारों पावे सिद्धोंमें संज्ञा नहीं है (७) लेश्या- पहली दुजी नारकीमें कापोत लेश्या। तीजीमें कापोत और नील ले० चोथीमें नील ले० पांचमीमें नील और कृष्ण ले० छठीमें कृष्ण ले. सातमीमें महाकूष्ण ले० १० भुवनपति, व्यंतर पृथ्वी, पाणी, वनस्पति, युगलीआमें लेश्या चार पावे कृष्ण, नील कापोत, तेजो ले० तेउकाय, वायुकाय, Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुदंडक. तीन विकलेंद्रिय, असन्नी तीर्थच, असन्नी मनुष्यमें लेश्या पावे तीन कृष्ण, नील कापोत ले० सन्नी तिर्यच सन्नी मनुष्यमें लेश्या ६ पावे. जोतीषी और १-२ देवलोकमै तेजोलेश्या ३-४-५ देवलोकमें पदमलेश्या ६ से १२ देवलोकमे शुक्ललेश्या नौवागैवेयक पांच अनुत्तर विमानमें परम शुक्ल लेश्या सिद्ध भगवान अलेशी है। (८) इंद्रिय-[५] पांच स्थावरमें एक इंद्रिय, वे इंद्रियमें दा इंद्रिय, तेइंद्रियमें तीन इंद्रिय, चौरेंद्रिय चार इंद्रिय बाकी १६ दंडकमें पांच इंद्रियां है सिद्ध अनिदिआ है । (६) समुद्घात [७] नारकी और वायु कायमें समुद् घात पावे चार, वेदनी, कषाय, मरणंति, वैक्रिय । देवतामें और सन्नीतियेचमें समुद्घात पावे पांच वेदनी, कषाय, मरणंति वैकिय, तेजस । चार स्थावर तीन विकलेंद्रिय, असन्नी तिर्यंच, असन्नी मनुष्य और युगलीआमें समुद्घात पावे तीन वेदनी, कषाय, मरगंति । सन्नी मनुष्य में समुद्घात पावे सात नववेयक, पांच अनुत्तर विमाममें स० पावे तीन और वैक्रिय तेजसकी शक्ति है परन्तु करे नहीं सिद्धोमें समुद्घात नहीं है। (१०) सनी-नारकी देवता, सन्नी तिर्यच, सन्नी मनु. प्य और युगलीआ ये सन्नी है पांच स्थावर तीन विक्लेंद्रिय असन्नी मनुष्य, असन्नी तिर्यच ये अत्तन्नी है । सिद्ध नो सन्नी नो असन्नी है। (११) वेदनारकी पांच स्थावर तीन विक्लेंद्रिय . · असन्नीतिर्यंच और असन्नी मनुष्यमें नपुंसक वेद है। दश भुवन पति, व्यंतर, जोतीषी १-२ देवलोक और युगलीआमें वेद पावे Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) शीघ्रबोध भाग १ लो. २ पुरुषवेद और बीवेद । तीजा देवलोकसें सर्वार्थसिद्ध विमा: नतक पुरुषवेद है सन्नी मनुष्य औ सन्नीतिर्यचमें वेद पावे तीन, सिद्ध अवेदी है। ( १२ ) पर्याप्त नारी देवतामें पर्याप्त पांच (मन और भाषा साथमें बांधे ) पांच स्थावरमें पर्याप्ती पावे चार क्रमसे, तीन विक्लेंद्रिय और असन्नी तिर्यचमें पर्याप्ती पावे पांच क्रमसे, असन्नी मनुष्य में चार में कुच्छ उणी क्रमसे; सन्नी मनुष्य सन्नी तिर्यच और युगलीआमें पर्याप्ती पावे छ. सिद्धोमें पर्याप्ती नहीं है । (१३) दिट्ठी - नारकी, भुषनपति, व्यंतर ज्योतिषी, बारहा देवलोक, सन्नीतिर्यच और सन्नी मनुष्य में दृष्टि पावे तीनों, नवग्रैवेयक में दो ( सम्यक० मिथ्या० ) अथवा तीन पावे. पांच अनुत्तर विमानमें एक सम्यकदृष्टि, पांच स्थावर, असन्नी मनुष्य और ५६ अंतरद्वीप के युगली आमें एक मिथ्यादृष्टि, तीन विकलेंद्रिय असन्नी तिर्यंच और ३० अकर्मभूमि युगली में द्रष्टि पावे दो ( १ ) सम्यकूदृष्टि ( २ ) मिथ्यादृष्टि. सिद्धों में सम्यकदृष्टि है. (१४) दर्शन - नारकी, देवता और सन्नीतिर्यचमें दर्शन पावे तीन क्रमसे, पांच स्थावर बेइंद्रिय तेई द्रियमें दर्शन पावे एक अचक्षु, चौरेन्द्रिय, असन्नोतिर्यच असनी मनुष्य और युगलीआ में दर्शन पावे दो क्रमसे । सन्नी मनुष्य में दर्शन पावे चार, सिद्धों में केवल दर्शन है (१५) नाग - नारकी देवता और सन्नीतिर्यचमें ज्ञान पावे तीन क्रमसे, । पांच स्थावर, असन्नी मनुष्य और ५६ अंतर atest युगलीआमें नाण नहीं है, तीन विकलेंद्रिय, असन्नी तिर्य Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुदंडक. (३१) च और ३० अकर्मभूमी युगलीया नाण पावेदो क्रमसे तथा सन्नी मनुष्यमें ज्ञान पावे पांच सिद्धोमें केवल ज्ञान है. (१६) अनाण-नारकी, देवतामें नवग्रंवयक तक, तिर्यच पंचेंद्री और सन्नी मनुष्यमे अनाण पावे तीन, पांच स्थावर तीन विकलेंद्रिय असन्नी तिर्यंच असन्नी मनुष्य और युगलीआमे अनाण पाये दो क्रमसे पांच अनुत्तर विमान और सिद्धोमें अनाण नहीं है। (१७) जोग-नारकी और देवता जोग पावे ११ (४) मनके ( ४ ) वचनके, वैक्रिय १, वैक्रियका मिश्र १, कामणकोय योग, पृथ्वि, अप, तेड, वनस्पति, असन्नी मनुष्यमें योग पावे तीन (औदारिक १ औदारिककामिश्र १ ९ कार्मण काययोग १) वायुकायमें पांच पावे (पूर्ववत् ३ और वैक्रिय, वैक्रियका मिश्र ज्यादा) तीन विकलेंद्रिय, असन्नी तिर्यंचमें योग पावे चार औदारिक १, औदारिकका मिश्र १, कार्मणकाय योग १, ( और व्यवहार भाषा १ ) सन्नी तिर्यचमें योग पावे १३ ( आहारिक और आहारिकका मिश्र वर्जके ) सन्नी मनुज्यमे योग पावे पंदरा । युगलीआमे योग पावे अगीआरा (४ मनका ४ वचनका, औदारिक १, औदारिक मिश्र १, कार्मण काय योग १) सिद्धोंमे योग नहीं है . (१८) उपयोग-सर्व ठेकाणे दो दो पावे और जो उपयोग बारहा गीणना हो तो उपर लिखा पांच ज्ञान, तीन अज्ञान और चार दर्शनसे समझ लेना। (१६) आहार-आहार व्याघात ( अलोक) आश्रयी पांच स्थावर स्यात् तीन दिशि, स्यात् चार दिशि, स्यात् पांच Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२) शीघ्रबोध भाग १ लो. दिशि, निर्व्याघाताश्रयी चोवीस दंडकका-जीवनियमा छ दिशिका आहार लेके । सिद्ध अनाहारिक. - (२०) उत्पात-(१) नारकी, १० भुवनपतियोंसे ८ वर्मा देवलोक तक, तथा चार स्थावर ( वनस्पति वर्ज के) तीन वि. कलेंद्रिय, सन्नी या असन्नी तिर्यंच, और असन्नी मनुष्य एक समयमें १-२-३ जाव संख्याता असंख्याता उपजे, वनस्पति एक समयमें १-२-३ जाव अनंता उपजे, नवमा देवलोकसे सर्वार्थसिद्ध तक तथा सन्नी मनुष्य और युगलीआ एक समय में १-२-३ जाव संख्याता उपजे, सिद्ध एक समय में १-२-३ जाव १०८ उपजे (२१) ठीइ-स्थिति यंत्रसे जाणना. जघन्य उत्कृष्ट १ ली नारकी ... ... १०००० वर्ष... ... १ सागरोपम १ सागरोपम ३ सागरोपम ३ जी , ... ... ३ , ... ... ७ ४ थी , ... ... ७ , ... ... १० ॥ ५ मी , ... ... १० , ... ... १७ , ६ ठो , ... ... १७ , ... ... २२ ॥ ७ मी , ... ... २२ , ... ... ३३ , देवता. x चमरेंद्र दक्षिण तर्फ १०००० वर्ष १ सागरोपम ___x दश भुवनपतिमें प्रथम असुरकुमारका दो इंद्र (१) चमरेंद्र (२) बलेंद्र. चमरेंद्रकी राजधानी मेरसे दक्षिण तरफ है और बलेंद्रकी राजधानी मेरुसे उत्तर तरफ है. ऐसे ही नागादि नवनिकायका इंद्र और राजधानी दक्षिण उत्तर समज लेना. नारकी mms, 布布5 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्तदेवी नागादि नौ इन्द्र दक्षिण तर्फके तस्सदेवी लेंद्र उत्तर तर्फके देव लघुदडकं. १०००० वर्ष " ग्रह विमानवासी देव तस्सदेवी नक्षत्र विमा० देव तस्सदेवी तारा विमा० देव तस्सदेवी " "" तस्सदेवी नागादि नव उत्तर तर्फ तस्तदेवी व्यंतर देवता तस्सदेवी 39 चंद्र विमानवासी देव | पल्योपम १ तस्सदेवी सूर्य विमानवासी देव तस्सदेवी : " " "" "" "" 39 ور "" ,, "" 39 " " | पत्योपम | १ 이 7 ० ॥ ܙܐ oll ३॥ सागरोपम १॥ पल्योपम •III "" १ सागरोपम झाझेरा ४|| पल्योपम देशउणी २ पल्योपम १ ५० ". तस्स अपरिग्रहिता देवी दुसरे देवलोकके देव १ पल्योपम झाझेरा तस्त परिग्रहिता देवी तस्स अपरिग्रहता देवी >> 'तीजा देवलोकके देव २ सागरोपम ३ ० ॥ ० प० + ५०००० वर्ष १ पल्योपम १ प०+ हजार वर्ष ॥ प०+ ५०० १ पल्योपम 153 पल्योपम + लाख वर्षाधिव ( ३३ ) ܕ "" 99 99 ܕܝ 95 "" " पहला देवलोकके देव १ पल्योपम २ सागरोपम ree परिग्रहिता देवी ७ पल्योपम "" झाझेरी ० साधिक 99 99 २ सा० ज्ञाझेरा ९. पल्योपम ५५ 27 ७ सागरोपम Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) शीघ्रबोध भाग १ लो. चोथा देवलोकके देव २ सा० साझेरा ७ , झाझेरा' पांचमा , , ७ सागरोपम १० सागरोपम , २८ " सातमा , आठमा नवमा दशमा , अगीआरमा,, बारहमा , , नीचली त्रिक, विचली ,, , उपली , , चार अनुत्तर विमान सर्वार्थसिद्ध , ३३ पृथ्वीकाय अपकाय ... ... तेउकाय .... ... वायुकाय ... वनस्पतिकाय बेइंद्रिय ... ... तेइंद्रिय ... ... चौरिद्रिय ... ... जलचर असंही थलचर , खेचर , ___... उरपरिसर्प, भुगपरिसर्प,, " २२००० वर्ष ... ... ७००० ,, ... ३ अहोरात्रि ३००० वर्ष ... १००००, . ... ... १२ ,, , ... ... ४९ दिन " ... ... ६ मास क्रोड पूर्व ८४००० वर्ष , .... ७२००० ,, ५३००० , ४२००० , Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थलचर " खेचर , १ कोड पूर्व लघु दंडक. (३५) जलचर संज्ञी अंतर्मुहुर्त क्रोड पूर्व ३ पल्योपम पल्यो० असं० भाग उरपरिसर्प , क्रोड पर्व भुजपरिसर्प, असन्नि मनुष्य अंतर्मुहुर्त सन्नि , बेठते आरे उतरते आरे *पहलो आरो ३ पल्योपम २ पल्योपम दुजो " तीजो , चोयो , १२० वर्ष पांचमो, १२० वर्ष छठ्ठो , युगलीया. . जघन्य. उत्कृष्ट देवकुरु-उत्तरकुरु देशउणो ३ पल्यो० ३ पल्योपम हरिवास-रम्यकवास , २ , हेमवय-ऐरण्यवय , १ , १ , ५६ अंतरद्वीप पल्यो० अ० भाग पल्यो० असं० भाग महाविदेह क्षेत्र अंतर्मुहूर्त क्रोड पूर्व सिद्ध-सादि अनंत । अनादि अनंत । .. - २२ मरण:-चौबीसो दंडक समोहीय, असमोहीय, दोनों मरण मरे। २३ चवणः-उत्पन्न होने की माफक समझ लेना। २४ गति आगतिः-प्रथमसे छठ्ठी नारको तथा तीजासे * अवसर्पिणीकालके मनुष्यकी स्थिति कोष्टको लिखी है, और उत्सर्पिणी कालके मनुष्यको स्थिति इसम उलटो समझनी. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) शीघबोध भाग १ लो. ८ मा देवलोक तक दो गतिसे आवे, दो गतिमें जाय। दंडकाश्रयी दो दंडक ( मनुष्य और तिर्यच) के आवे और दो दंडकमें जावे । सातमी नारकी दो गतिसे ( मनुष्य, तिर्यंच ) आवे, एक गतिमें जावे (तिर्यच में ), दंडकाश्रयी २ दंडकको ( मनुष्य, तिर्यंच) आवे, एक दंडक तिर्यंचमें जावे । दश भुवनपति, व्यंतर, जोतिषी, १-२ देवलोक दो गति ( मनुष्य, तिर्यंच ) से आवे, और दो गति (मनुष्य, तिर्यच ) में जावे, और दंडकाश्रयी २ दंडक ( मनुष्य, तिर्यच ) को आवे, और पांच दंडकमें जावे ( मनुष्य, तिर्यंच, पृथ्वि, पाणी, वनस्पति ) ९ वा देवलोकसे सर्वार्थसिद्ध विमानके देव, एक गति ( मनुष्य ) में से आवे एक गतिमें जावे दंडकाश्रयी एक दंडक ( मनुष्य को आवे और एक दंडकमें जावे ( मनुष्यमे )। पृथ्वि, पाणी, वनस्पति, तीन गति ( मनुष्य, तिर्यंच, देवता ) से आवे, और २ गतिमें जावे ( मनुष्य, तिर्यंच ), दंड. काश्रयो २३ दंडक ( नारकी वर्जी । का आवे. और १० दंडकम जावे : ५ स्थावर, ३ विकलेंद्रिय, मनुष्य, तियेच ) तेउ वायु दो गति ( मनुष्य, तिर्यच ) मेंसे आवे, और एक गति तिर्यंच) में जावे, दंडकाश्रयी दश दंडक ( पूर्ववत् ) को आये और ९ दंडक ( मनुष्य वर्जके ) में जावे । तीन विकलेद्रिय दो गति ( मनुष्य, तिर्यंच ) मेंसे आवे, और दो गति ( मनुष्य, तिर्यंच ) में जावे, दंडकाश्रयी दश दंडक (पूर्ववत् ) को आवे और दश दंडकमें जावे । असन्नि तिर्यच दो गति (मनुष्य, तिर्यच) मेंसे आवे और चार गतिमें जावे, दंडकाश्रयी दश पूर्ववत् आवे और २२ (जोतिषी वैमानिक वर्जी) दंडकमें जावे । सन्नि तिर्यच चार गति में से आवे और चार गतिमें जावे दंडकाश्रयी २४ को आवे और २४ में जावे । असन्नि मनुष्य दो गति ( मनुष्य, तिर्यच ) को आवे दो गतिमें जावे। दंडकाश्रयी ८ दंडक (पृथ्वि, पाणी, वनस्पति, ३ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुदंडक. (३७) विकलेंद्रिय, मनुष्य, तिर्यच ) को आवे और दशमें जावे ( दश पूर्ववत् ) सन्नि मनुष्य-चार गतिमेंसे आवे और चार गतिमें जावें अथवा सिद्ध गतिमें जावे, दडकाश्रयी २२ (तेउ, वायु, वर्जी में से आवे और २४ में जावे तथा सिद्ध में जावे.। ३० अकर्मभूमि युगलिया दोगति (मनुष्य तिर्यंच)मेंसे जावे एक गति (देवता) में जावे दंडकाश्रयी दो दंडकसे आवे और १३ दंडक (देवतामें) जावे. । ५६ अंतर द्वीप दो गतिमेंसे आवे एक गतिमें जावे. दंडकाश्रयी दो दंडकको आवे और ११ दंडक (१० भुवनपति, व्यंतर)में जावे. सिद्धीमे आगत एक मनुष्यकी गति नहीं दंडकाश्रयी मनु प्य दंडकसे आवे. इति. २५ प्राण-( अन्य स्थानसे लीखते है प्राण दश है (१) श्रोतेद्रिय बलप्राण (२) चक्ष इंद्रियबलप्राण (३) घ्राणेंद्रिय० (४) रसेन्द्रिय० (५) स्पर्शेन्द्रिय (६) मन० (७) वचन० (८) काय. (९) श्वासोश्वास० (१०) आयु० . नारकी देवता सन्नि मनुष्य, सन्नि तिर्यंच और युगलीआमें प्राण पावे दस. पांच स्थावर में प्राण पावे चार-(१) स्पर्श० (२) काय० (३) श्वासोश्वास. (४) आयु. बेइंद्रियमें प्राण पावे ६. (२) एर्ववत् १ रसें० २ वचन तेइंद्रियमें प्राण पावे ७. (६) पुर्ववत् १ घ्राणे० चौरेन्द्रियमें प्राण ८. (७) पूर्ववत् १ चक्षु० - असन्नि तिर्यच पंचेन्द्रिपमें प्राण पावे ९-८ पुर्ववत्, १ श्रोते. असन्नि मनुष्य में प्राण पावे ८ में कंइकउणा-५ इन्द्रिय० १ काय० १ आयु० १ श्वास अथवा उश्वास० सिद्धोंमें प्राण नही है । इति सेवं भंते सेवं भंते तमेव सचं Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८) शीघबोध भाग १ लो. । प्रभार एक दंडक थोकडा नम्बर ५ चोवीस दंडकमेंसे कितने दंडक किस स्थानपर मिलते है. दडंक स्थान प्रश्न किस जगह पावे ) नारकीमें पावे (प्र) दो दंडक ,, (उ) श्रावकमें पावे-२०+२१ मो (प्र) तीन दंडक ,, (उ) तिन विकलेंद्रियमें पावे-१७+१८+१९ मो (प्र) चार दंडक ,, (उ) सत्वमें पाये १२+१३+१४+१५मो (प्र) पांच दंडक ,, (उ) एकेंद्रियमें ,, १२+१३+१४+१५+१६ (प्र) छ दंडक ,, (उ) तेजीलेश्याका अलद्विआमें यांने जीस दंडकमें तेजोलेश्या न मले-१-१४-१५---१७-१८-१९ वा (प्र) सात दंडक ,, (उ) वैक्रियका अलद्विआमें ४ स्थावर ३ वि. (प्र) आठ दंडक ,, (उ) असन्नी में ५ स्थावर ३ वि० (प्र) नव दंडक ,, (उ) तिर्यचमें ५ स्थावर ४ त्रस (प्र) दश दंडक ,, (उ) भुवनपतिमें (प्र) अगीआर दंडक ,, (उ) नपुंसकमें १० औदारीक १ नारकी (प्र) बारहा ,, ,, (उ) तीच्छालोको १० भु० व्यंतर ज्योतिषी (प्र) तेरहा ,, ,, (उ) देवतामें (प्र) चौद ,, ,, (उ) एकंत वैक्रिय शरीरमें १३ वैक्रिय १ नारकी (प्र) पंदर , ,, (उ) ब्री वेदमें । (प्र) सोलह , (उ) सन्नि तथा मनयोगमें (प्र) सत्तरा ,, ,, (उ) समुच्चय वैक्रिय शरीरमें (प्र) अठारा ,,, (उ) तेजोलेश्याम ६ वर्जके (प्र) ओगणीस ,,, (उ) त्रसकायमें ५ स्थावह वर्जके (प्र) वीस ,, ,, (उ) जघन्य उत्कृष्ट अवगाहनावाला जीवोमें (प्र) एकवीस ,, , (उ) नीचा लोकमें ३ देवता वर्जके (प्र) बावीस ,, ,, (उ) कृष्णलेश्याम जोतीषी वि० वर्जके Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महादंडक. (३९) (प्र) तेवीस , ,, (उ) भगवानका समोसरणमें १ नारकी वर्जके (प्र) चौषीस ,, ,, (उ) समुच्चय जीवमें सेवं भंते सेवं भंते तमेव सचम्. थोकडा नम्बर. ६ सूत्र श्री पन्नवणाजी पद तीजा. ( महादंडक ) و . संख्या मार्गणाका ९८ बोल. जीवकाभेद गुणस्थान १४ | योग १५ پیام مه سه م م " nd on १ सर्वस्तोक गर्भज मनुष्य. २ मनुष्यणी संख्यात गुणी. | बादर तेउकायके पर्याप्ता असं० गुण. ४ पांच अणुत्तर वैमानके देव ,, , ५ | ग्रैवेयक उपरकी त्रिकके देव संख्या० ,, मध्यमकी , , , ७ , नीचेको , , , ८/ बारहवें देवलोकके देव संख्या० गु० ९ ग्यारवें , , , १० दशवें , , , ११ नौवा , , १२ सातवी नरकके नैरिया असं० गु० १३ छठी , , , १४ आठवें देवलोकके देव , ~ mom Mmm Www xw MMI लेश्या ६ م م م م - م - م A ce & ccc & م م م Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ م م م م م م م م م م م (४०) शीघ्रबोध भाग १ लो. १८सातवा देवलोकके देव असं० गु० १६ पांचवी नरकके नैरिया १७ छठे देवलोकके देव १८ चोथी नरकके नैरिया • १९ पांचवें देवलोकके देव तीजी नरकके नैरिया २१ चोथे देवलोकके देव २२/ दुजी नरकके नैरिया २३ तीजा देवलोकके देव २४ समुत्सम मनुष्य २५ दुजा देवलोकके देव २६, , , की देवी संख्या० गु० २७ पहले देयलोकके देव असं० गु० २८ ,, ,, की देवी सं० गु० । २९ भुवनपति देव असं० गु० ३० ,, देवी संख्या० गु० ३१) पहली नरकके नैरिया असं० गु० ३२ खेचर पुरुष असं० गु० ३३ , स्त्री संख्या० गु० ३४, थलचर पुरुष , ३९/ , स्त्री , ३६/ जलचर पुरुष, ३७ , श्री , ८३/ व्यंतरदेव .. م CHARA..ccc.cc c a me coccccccc . cmm MMM M Newww.vwww ma mm.s on م م سم م س ه ه ه م م ه سه Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महादंडक. (४१) م م ه ه ه م م م م ao at م م w ه w ه ه م م م م w ه ه ه im w م ه ه m ه ه m ه ه سه سه ه ه م w ه م m ه ३९ व्यंतर देवी संख्या० गु० ४. जोतीषी देव , ११ , देवी ४२ खेचर नपुंसक " | थलचर ,, , | जलचर ,, , ४५/ चौरिद्रियका पर्याप्ता सं० गु० ४६, पंचेंद्रियका ,, विशेषा ४७. बेइन्द्रियका , , १८ तेइन्द्रियका ,. " ४९ पंचेन्द्रियका अपर्याप्ता असं० गु० ५० चौरिन्द्रियका ,, विशेषा ५. तेइन्द्रिय " " ५२ बेइन्द्रिय " " ५३, प्रत्येक शरीरी बादर वनस्पतिकायका पर्याप्ता असं० गुरु ५४ बादर निगोदका ५५) बादर पृथ्वी० ५६ ,, अप० ,, वायु ,, तेउ० अपर्याप्ता प्र० बादर वना, ६० बादर निगोदका , .६१ , पृथ्वीकायका अप० ६श ,, अपकायका 20_0_n 11.3-- --marM_------------- م سه سه س m ه م n ه م or ه م m ه م سه سه سه س س m m ه ه م ه m س m ه م س a سه سه مه سه م س m م س do م له سه do Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ س س on س س m س س m س س m م ܩ ܩ م م ܩ ܩ م م ܩ ܩ م م ܩ ܩ م m س م س س m م س n س on م م س m ܩ م م ܩ ܩ م س m س م س (४२) शीघ्रबोध भाग १ लो. ६३) बादर वाउकायका अप० असं० गृ । १ ६४ सुक्ष्म तेउकायका अप० , १ ६५/ सुक्ष्म पृथ्विकायका अप० विशेषाः । ६६/ सुक्ष्म अप्कायका अप० वि० .... ६७/ सुक्ष्म वायुकायका अप० वि० ... ६८ सुक्ष्म ते उकायका पर्याप्ता सं० गु० । ६९/ सुक्ष्म पृथ्विकायका पर्याप्ता वि०... ७०/ सुक्ष्म अप्कायका पर्याप्ता वि० ... सुक्ष्म वायुकायका पर्याप्ता वि० .... ७२ सुक्ष्म निगोदका अपर्याप्ता असं० गुः | ७३ सुक्ष्म निगोदका पर्याप्ता सं० गु०... . ७४/ अभव्य जीव अनंत गु० .. ... ७५ पडवाइ सम्मदिट्टीअनंत गु० ... ७६/ सिद्ध भगवान अनंत गु० ... ७७ बादर वनस्पति० पर्याप्ता अनंत गु० १ ७८ बादर पर्याप्ता वि. ... ... ७९ बादर वनस्पति अपर्याप्ता असं० गु० ८० बादर अपर्याप्ता वि० ... ... ८१ समुच्चय बादर० वि० ... ... ८२ सुक्ष्म वनस्पति अपर्याप्ता असं० ८३ सुक्ष्म अपर्याप्ता वि० ... ८४ सुक्ष्म वनस्पति पर्याप्ता सं० गु० ८५ सुक्ष्म पर्याप्ता० वि० ... ८६ समुच्चय सुक्ष्म वि. ... ... ه ܩ م ه ه m w w € ه ه ه ܀ ܚ ه ه ه به س م ܀ ܩ . ه س ه س o mw x w w ܚ م م ه م ܀ ܩ ه س ه ه س س m م ܩ ܩ سه م س m m س م ܩ ܩ ه m سه Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरहहार. (४३) ง 10 m w د س س س م م م 0 ८७ भवसिद्धि नीव वि० ८८ निगोदका जीव वि० ८९ यनस्यति जीव वि० ९० एकेंद्रिय जीव वि० ९१ तिर्यच जीव वि० ९२ मिथ्यात्वि जीष वि० अव्रती जीव वि० ९४ सकषायी जीव वि० ९५ छमस्थ जीव वि० ९६ सयोगी जीव वि० ९७ संसारी जीव वि० ९८ समुच्चय जीव वि० 0 ” ” ” ” ” ” : : : : : 0 0 0 م م م م م 0 0 0 सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम् -Ofथोकडा नम्बर ७ सूत्रश्री पन्नवणाजी पद ६. (विरहद्वार) जीस योनीमें जीव था वह वहां से चव जाने के बाद उस योनीमें दुसरा जीव कीतने काल से उत्पन्न होते है उनको विरह • ' कहते है। जघन्य तो सर्व स्थानपर एक समयका विरह है उत्कृष्ट अलग अलग है जैसे Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) शीघ्रबोध भाग १ लो. ( १ ) समुच्चय व्यार गति संज्ञीमनुष्य और संज्ञी तीर्थच में उत्कृष्ट विरह १२ मुहूर्तका है. ( २ ) पहली नरक दश भुवनपति, व्यंतर, जोतीषी, सौ. धर्मेशान देव और असंज्ञी मनुष्य में २४ मुहुर्त. दुजी नरकमे सात दिन, तीजी नरक में पंदरा दिन, चोथी नरकमे एक मास, पांचवी नरक में दो मास, छठी नरकमें च्यार मास, सातवी नरक सिद्धगति और चौसठ इन्द्रोंमें विरह छे मासका है. ( ३ ) तीजा देवलोक में नौदिन वीस महुर्त, चोथा देवलोक में बारहा दिन दश मुहुर्त, पांचवा देवलोकमें साढाबावीस दिन, छठा देवलोक में पैतालीस दिन, सातवा देवलोकमें एसी दिन, आठवा देवलोक में सौ दिन नौवा दशवा देवलोक में सेंकडो मास, इग्यारवा बारहा देवलोक में सेकड़ों वर्षोंका, नौग्रैवेयक पहले त्रीकमें संख्याते सेकड़ों वर्ष, दुसरी त्रीकमें संख्याते हजारों वर्ष, तीसरी वीक में संख्याते लाखों वर्ष, व्यारानुत्तर वैमानमें पल्योमके असंख्यातमे भाग, सर्वार्थसिद्ध वैमानमें पल्योपमके संख्यातमे भाग । ( ४ ) पांच स्थावरोंमें विरह नही है. तीन विकलेन्द्रिय, असंज्ञी तीर्थच में अंतरमुहुर्त. ( ५ ) चन्द्र सूर्य के ग्रहणाश्रयी विरह पडे तों जघन्य छे मास उत्कृष्ट चन्द्रके बेयालीस मास, सूर्य के अडतालीस वर्ष । (६) भरतेरवत क्षेत्रापेक्षा, साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका आश्रयी जघन्यतौ ६३००० वर्ष और अरिहंत, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आश्रयी जघन्य ८४००० वर्ष उत्कृष्ट सबकों देशोन अठारा कोडाकोड सागरोपमका । इति । सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम्. --***-- Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपी अरूपी १०६ बोल. (४५) थोकडा नम्बर ८ सूत्रश्री भगवतीजी शतक १२ वा उद्देशा ५ वा. ___ (रूपी अरूपीके १०६ बोल.) रूपी पदार्थ दो प्रकार के होते है एक अष्ट स्पर्शवाले जीनसे कीतनेक पदार्थोको चरम चक्षुवाले देख सके, दुसरे च्यार स्पर्शवाले रूपी जीनोंकों चरम चक्षुवाले देख नहीं सके. अतिशय ज्ञानी ही जाने। अरूपी-जीनोंकों केवलज्ञानी अपने केवलज्ञानद्वारा ही जाने-देखे. (१) आठ स्पर्शवाले रूपोके संक्षिप्तसे १५ बोल है यथा-छे द्रव्यलेश्या (कृष्ण, निल, कापोत, तेजस, पद्म, शुक्ल) औदारीक शरीर, वैक्रियशरीर, आहारकशरीर, तेजसशरीर एवं १० तथा समुचय, घणोदधि, घणवायु, तणवायु, बादर पुद्गलोका स्कन्ध और कायाका योग एवं १५ बोलमें वर्णादि २० बोल पावे । ३०० (२) च्यार स्पर्शवाले रूपीके ३० बोल है. अठारा पाप, आट कर्म, मन योग, वचन योग, सूक्ष्मपुद्गलोंका स्कन्ध, और कारमणशरीर एवं ३० बोल में वर्णादि १६ बोल पावे । ४८० बोल. (३) अरूपीके ६१ बोल है. अठारा पापका त्याग करना, बारहा उपयोग, कृष्णादि छे भावलेश्या, च्यार संज्ञा ( आहार भय मैथुन० परिग्रह०) च्यार मतिज्ञानके भांगा (उग्गह ईहां आपाय० धारणा) च्यार वुद्धि (उत्पातिकी, विनयकी, कर्मकी, पारि. णामिकी ) तीन दृष्टि ( सम्यकष्टि, मिथ्याष्टि, मिश्रदृष्टि ) पांच द्रव्य "धर्मास्ति, अधर्मास्ति, आकाशास्ति, जीवास्ति, और कालद्रव्य " पांच प्रकारसे जीवकी शक्ति “ उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषार्थ." एवं ६१ बोल अरूपोके है । इति. । सेवं भंते सेवं भंते तमेव सञ्चम् ॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) शीघ्रबोध भाग १ लो. थोकडा नं। श्री पन्नवणा सूत्र पद ३ जो.. (दिशाणुवइ) दिशाणुषा-२४ दंडकके जीव किस दिशामें ज्यादा है ओर किस दिशा में कम है वो इस थाकडे द्वारे बतलायेंगे । जहां पाणी होता है वहां सात बाल होते हैं जिसका नाम समुच्चय जीव, अपकाय, वनस्पतिकाय, बेइंद्रिय, तेइंद्रिय चौरेंद्रिय, पंचेद्रिय. इन सात बालोंकी शास्त्र में अलग अलग व्याख्या करी है यद्यपि एक सरिखा होनेसे यहां एकठा लीखते है. सबसे स्तोक ७ बोलोंका जीव पश्चिम दिशामें कारण जंबुद्धीपकी जगतिसे पश्चिम दिशा लवण खमुद्र में १२००० जोजन जावे सब १२००० जोजनका लंबा चौडा गौतम द्वीप आवे, वह पृथ्वीकाय में है । इस लीये पाणीका जीव कमती है. पाणी का जीव कम होनेसे सात बालोंका जीवभी कम है. उनसे पूर्व दिशा विशेषाः कारण गौतम द्वीपा नहीं है. उनसे दक्षिण दिशा विशेषाः कारण सूर्य चंद्रका द्वीपा नहीं है. उनसे उत्तर दिशा विशेषाः मान सरोवर तलावकी अपेक्षा (देखो जोतिषीका बाल में). पृथ्विकायका जीव सबसे स्तोक दक्षिण दिशामें कारण भुवनपतिओंका चार कोड छ लाख भुवनकी पोहार है इस लिये पृथ्विकायका जीव कम है. उनसे उतर दिशा विशेषाः कारण भुवनपतिओंका तीन कोड छातठ लाख भुवन है पोलार कम है Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगृहार. (४७) उनसे पूर्वमें विशेषाः कारण सूर्य चन्द्रका द्वीप पृथ्वीमय है. उनसे पधिममें विशेषाः कारण गौतम द्वीप पृथ्वीमय है. .. तेउकाय, मनुष्य, और सिद्ध सबसे स्तोक दक्षिण उत्तरम कारण भरतादि क्षेत्र छोटा है. उनसे पूर्व दिशा संख्यातगुणा कारण महाविदेह क्षेत्र बड़ा है. उनसे पश्चिम दिशा विशेषाः कारण सलीलावती विजया १००० जोजनकी ऊंडी है. जिसमें मनुष्य घणा, तेउकाय घणी और सिद्ध भी बहोत होते हैं. __वायुकाय, और व्यंतरदेव सबसे स्तोक पूर्व दिशामें कारण धरती का कठणपणा है. उनसे पधिम दिशा विशेषाःकारण सलीलावती विजया है. उनसे उत्तर दिशा विशेषाः कारण भुवनपतियोंका ३ कोड और ६६ लाख भुषन है. उनसे दक्षिण दिशा विशेषाः कारण भुवनपतिका ४ कोड और ६ लाख भुवन है ( पोलारकी अपेक्षा) भुवनपति सबसे स्तोक पूर्व पश्चिमम कारण भुवन नहीं है आना जानासे लाधे. उनसे उत्तरमें असंख्यात गुणा कारण ३ कोड और ६६ लाख भुवन है. उनसे दक्षिणमे असंख्यात गुणा कारण ४ क्रोड और ६६ लाख भुवन है. भुवनोम देव ज्यादा है. जोतीषीदेव सबसे थोडा पूर्व पश्चिममें कारण उत्पन्न होनेका स्थान नहीं है उनसे दक्षिणमे विशेषाः उत्पन्न होनेका स्थान है. उनसे उत्तरमें विशेषाः कारण मानसरोवर तलाव-जम्बुद्वीपकी जगतिसें उत्तरकी तरफ असंख्याता द्वीप समुद्र जावे तब अ. रणावर नामका द्वीप आवे जिसके उत्तरमें ४२००० जोजन जावे तब मानसरोवर तलाव आता है, यह तलाव बडा शोभनीक और वर्णन करने योग्य है, और उसके अंदर बहोतसे मच्छ कच्छ जलचर जोतीषीकों देखके निआणा कर मरके जोतीषी होते हैं इसलिये उत्तरदिशामें जोतीषीदेव ज्यादा है। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) शीघ्रबोध भाग १ लो. पहला, दुजा, तीजा, और चौथा देवलोकका देवता सबसे स्तोक पूर्व पश्चिममें कारण पुष्पावेकरणीय विमान ज्यादा है. और पंक्तिबंध कम है। उनसे उत्तरमें असंख्यातगुणा कारण पंक्ति बंध विशेष है उनसे दक्षिण में विशेषाः कारण देवता विशेष उपजे. पांचमा, छठ्ठा, सातमा, आठमा देवलोकका देवता सबसे स्तोक पूर्व, पश्चिम, उत्तर में उनसे दक्षिणमें असं० गु. नवमासे सर्वार्थसिद्ध विमान तक चारे दिशा में समतुल्य है पहेली नारकीका नेरइया सबसे स्तोक पूर्व, पश्चिम उत्तर में उनसे दक्षिण में असंख्यातगुणा कारण कृष्णपक्षी जीव घणा उपजे इसी माफक साताही नारकी में समझ लेना. अल्पाबहुत्व - सर्वस्तोक सातवी नरक के पूर्व पश्चिम उत्तरके नैरिया. उनोसे दक्षिणके नैरिये असंख्यातगुणे. सातवी नरकके दक्षिणके नैरिये से छटी नरकके पुर्व पश्चिम उत्तरके नैरिये असं० गु० उनोसे दक्षिणके नैरिये असं० गु० । छटी नरकके दक्षिणके नैरियों से पांचवी नरकके पूर्व पश्चिम उत्तरके नैरिये असं० गु० उनोंसे दक्षिणके नैरिये असं० गु० उनोंसे चोथो नरकके पूर्व पश्चिम उत्तर के नैरिये असं० गु० उनोंसे दक्षिणके नै० असं० गु० उनोंसे तीजी नरकके पूर्व पश्चिम उत्तरके नैरिये असं० गु० उनोंसे दक्षिणसे असं० गु० उनोसे दुजी नरकके पुर्व पश्चिम उत्तरके नैरिये असं० गु० उनोसे दक्षिणके असं० गु० दुजी नरकके दक्षि णके नैरियोंसे पहली नरकके पूर्व पश्चिम उत्तरके नैरिये असं० उनोंसे दक्षिण के नैरिये असं० गुण० इति । गु० सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम् ek Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४९) छे काया. थोकडा नं० १० ' छ कायको थोकडा. नामद्वार नामद्वार ! गोत्रद्वार | वर्णद्वार संठाणद्वार एक महुर्तमें भव अल्पाबहुत्व गोत्र इंदीस्थावरकाय पृथ्वीकाय पीलो चद्र मसुरकीदाल १२८२४ ३ विशेषाः , बंभीस्थावरकाय अपकायसपेद पाणीका परपोटा १२८२४ विशेषाः सपीस्थावरकाय तेउकाय लाल सूइकलाइ (भारो)१२८२४ २ असंख्यातगुणा सुमति स्थावर- वायुकाय नीलो पताका १२.२४ ५ विशेषाः काय पीयवच्छ स्था घनस्पति नाना प्रका. नाना प्रकारका ३२०० प्रत्येक ६ अनंतगुणा वर काय काय २ रकी ६५५३६ साधारण जंगमकाय१ प्र. २.सा. नाना प्रका- नाना प्रकारका *८४६०४४० १ सबसे थोडा प्रसकायरको | ४२४४१ - त्रमकायका कोठामें ८० भव बेइंद्रिय, ६० तेइं०, ४० चौरें०, २४ असन्नी पंचें० १ सन्नी पांचेन्द्रिय. सेवं भंते सेवं भंते-तमेव सक्षम Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीघबोध भाग १ लो. थोकडा नम्बर ११ . सूत्रश्री भगवतीजी शतक १३ उद्देशो १-२. ( उपयोगाधिकार.) उपयोग बारह है जिस्मे कोत गतिमें जाता हुवा जीव कीतने उपयोग साथमे ले जाते है और कीस गति से आता हुवा जीव साथमें कीतने उपयोग ले आते है यह सब इन थोकडे द्वारा बतलाया जाता है। (१) पहली, दुसरी, तीसरी नरकमें जाते समय आठ उपयोग लेके जाते है यथा-तीनज्ञान ( मतिज्ञान, श्रुतिज्ञान अवधिज्ञान ) तीन अज्ञान ( मति, श्रुति, विभंगज्ञान ) दोय दर्शन ( अचक्षु, अवधिदर्शन ) और सात उपयोग लेके पीच्छा निकले. एक विभंगज्ञान वर्ज के । चोथी, पांचमी, छठी नरक में पूर्ववत् आठ उपयोग लेके जावे. और पांच उपयोग लेके निकले अर्थात् इन तीनों नरकसे निकलनेवाला अवधिज्ञान अवधिदर्शन नही लाता है. सातवी नरकमें पांचज्ञान तीन अज्ञान-दो दर्शन) लेके जावे और तीन उपयोग लेके निकले दो अज्ञान-एक दर्शन) (२) भुवनपति, व्यंतर, ज्योतीषी देव आट उपयोग लेके जावे पूर्ववत् और पांच उपयोग लेके निकले (दो ज्ञान, दो अ. ज्ञान, एक दर्शन ।। बारहा देवलोक नौवेयकमें आठ उपयोग (पूर्ववत् लेके जावे और सात उपयोग लेके निकले) (तीनज्ञान, दो अज्ञान, दो दर्शन ।। अनुत्तर चेमानमें पांच उपयोग लेके जावे (तीन ज्ञान, दो दर्शन एवं पांच उपयोग लेके निकले। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपयोगहार. (५१) (३) पांच स्थावरमें तीन उपयोग लेके जावे और तीन उपयोग ही लेके निकले दो अज्ञान, एक दर्शन)। तीन विकलेन्द्रिय पांच उपयोग लेके जावे ( दो ज्ञान, दो अज्ञान, एक दर्शन | और तीन उपयोग लेके निकले (दो अज्ञान, एक दर्शन' और तिर्यच पांचेन्द्रिय पांच उपयोग लेके जावे ( दो ज्ञान दो अज्ञान एक दर्शन ) और आठ उपयोग लेके निकले ( तीन ज्ञान, तीन अज्ञान दो दर्शन )॥ मनुष्य में सात उपयोग (तीन ज्ञान, दो अज्ञान, दो दर्शन ) लेके जावे और आठ उपयोग ( तीन ज्ञान, तीन अज्ञान, दो दर्शन ) लेने निकले ॥ सिद्धों में केवलज्ञान, केवल दर्शन लेके जीव जाता है वह सादि अंत भांगे सदैव साश्वते आनन्दघनमें विराजमान होते है । इति. सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम् थोकडा नम्बर १२ सूत्रश्री भगवती शतक १ उ० २. (देवोत्पातके १४ बोल.) निम्नलिखत चौदा बोलोंके जीप अगर देवतोंमें जावें तो कहांतक जा सके. संख्या. मार्गणा. जघन्य. उत्कृष्ट. असंयतिभवी द्रव्य देव २ । अधिराधि मुनि ३ | विराधि मुनि भुवनपतिमें नौवेयक सौधर्मकल्प | अनुत्तर वैमान भुवनपतिमें सौधर्मकल्प Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) 33 १० ११ १२ १३ શૈક अविराधि श्रावक विराध श्रावक असंज्ञी तीर्यच शीघ्रबोध भाग १ लो. कन्दमूल खानेवाले तापस हांसी ठठा करनेवाले मुनि ( कदर्पीया ) परिव्राजक सन्यासी तापस आचार्यादिका अवगुण बोलनेवाले किल्बिषीया मुनि संज्ञी तीर्यच आजीविया साधु गोशाला के मतका यंत्र मंत्र करनेवाले अभोगी साधु स्वलींगी दर्शन ववन्नगा • हैं । इति. सौधर्मकल्प भुवनपति "" 19 --- "" 33 "" 27 23 "" सेवं भंते सेवं भंते तमेव सम् अच्युतकल्प जोतीषीमें व्यंतरदेवों में जोतीषीमें सौधर्मकल्प थोकडा नम्बर १३ ब्रह्मदेवलोक लांतक चौदवां बोल में भव्य जीव है पहले बोलमें भव्याभव्य दोनों आठवा देवलोक अच्युतकल्प "3 नौ ग्रैवेयक सूत्र श्री ज्ञाताजी अध्ययन ८ वां ( तीर्थंकर नाम बन्धके २० कारण ) ( १ ) श्री अरिहंत भगवान्के गुण स्तवनादि करनेसे | ( २ ) श्री सिद्ध भगवान् के गुण स्तवनादि करने से | Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकरपद. . (५३) (३) श्री पांच समति तीन गुप्ति यह अष्ट प्रवचनकी माता है. इनोंको सम्यकप्रकारसे आराधन करनेसे । (४) श्री गुणवन्त गुरुजी महाराजका गुण करनेसे । ( ५ ) श्री स्थिवरजी महागजके गुणस्तवनादि करनेसे। (६) श्री बहुश्रुती-गीतार्थोंका गुणस्तवनादि करनेसे। (७) श्री तपस्थीजी महाराज के गुणस्तवनादि करनेसे । (८) लीखा पढा ज्ञानको वारवार चितवन करनेसे । (९) दर्शन (समकित) निर्मल आराधन करनेसे। (१०) सात तथा १३४ प्रकार के विनय करनेसे । (११) कालोकाल प्रतिक्रमण करनेसे । ( १२ ) लिये हुवे व्रत-प्रत्याख्यान निर्मल पालनेस । (१३) धर्मध्यान-शुक्लध्यान ध्याते रहनेसे । ( १४ ) बारह प्रकारकी तपश्चर्या करनेसे । (१५) अभयदान-सुपात्रदान देनेसे। (१६) दश प्रकार की वैयावश्च करनेसे । (१७) चतुर्विध संघको समाधि देनेसे । ( १८ ) नये नये अपूर्व ज्ञान पढनेसे । (१९) सूत्र सिद्धान्तकी भक्ति-सेवा करनेसे। ( २० ) मिथ्यात्यका नाश और समकितका उद्योत करनेसे । उपर लिखे वीस बोलोका सेवन करनेसे जीव कर्मोंकी कोडाकोडी क्षय करदेते है. और उत्कृष्टी रसायण ( भावना) आनेसे जीव तीर्थकर नामकर्म उपार्जन करलेते है. जीतने जीव तीर्थकर हुवे है या होंगे वह सब इन बीस बोलोंका सेवन कीया है और करेंगे इति ।। ॥ सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम् ॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) शीघ्रबोध भाग १ लो. थोकडा नम्बर १४ . ... ( जलदी मोक्ष जानेके २३ बोल ) (१) मोक्षकी अभिलाषा रखनेवाला जलदी २ मोक्ष जावे । (२) तीव्र-उग्र तपश्चर्या करनेसे , (३) गुरुगम्यतापूर्वक सूत्र-सिद्धान्त सुने तो जलदी २,, (४) आगम सुनके उनोमे प्रवृत्ति करनेसे , (५) पांचो इन्द्रियोंका दमन करनेसे (६) छे कायाको जानके उन जीवोंकी रक्षा करे तो ज., (७) भोजन समय साधु-साध्वीयोंकी भावना भावे तो जलदी २ मोक्ष जावे। (८) आप सद्ज्ञान पढे और दुसरोंको पढावे तो ज० मोक्ष जावे (९) नव निदान न करे तथा नौ कोटी प्रत्याख्यान करनेसे , (१०) दश प्रकारकी वैयाषञ्च करनेसे जलदी २ मोक्ष जावे (११) कषायको निर्मुल करे पतली पाडे तो ,, , (१२) छती शक्ति क्षमा करे तो , (१३) लगा हुवा पापकी शीघ्र आलोचना करनेसे ज० ,, (१४) ग्रहन किये हुवे नियम अभिग्रहको निर्मल पाले तो ___जलदी २ मोक्ष जावे। (१५) अभयदान-सुपात्रदान देनेसे जलदी २ मोक्ष जावं? (१६) सच्चे मनसे शील-ब्रह्मचर्य व्रत पालनेसे ज.., (१७) निर्वद्य (पापरहित मधुरवचन बोलनेसे ,, ,, (१८) लिया हुवा संयमभारको स्थितोस्थित पहुंचानेसे जलवी २ मोक्ष जावे। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जलदी मोक्ष. (५५) (१९) धर्मध्यान-शुक्लध्यान ध्यानेसे जलदी २ मोक्ष जावे । (२०) एक मासमें छे छे पौषध करनेसे ,, (२१) उभयकाल प्रतिक्रमण करनेसे , , ( २२) रात्रीके अन्तमें धर्मजाग्रना ( तीन मनोरथ ) करे तो जलदी २ मोक्ष जावे। ( २३ ) आराधि हो आलोचना कर समाधि मरन मरे तो जलदी २ मोक्ष जाये। इन तेवीस बोलोंको पहले सम्यकप्रकारसे जानके सेवन करनेसे जीव जलदी २ मोक्ष जाते है इति । ॥ सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम् ॥ थोकडा नम्बर १५ (परम कल्याणके ४० वोल.) नीयों के परम कल्याण के लिये आगमोंसें अति उपयोगी बोलोंका संग्रह किया जाता है. (१) समकित निर्मल पालनेसे 'जीवोंका परमकल्याण' होता है। राजा श्रेणिक कि माफीक ( श्री स्थानायांग सूत्र ) (२) तपश्चर्या कर निदान न करनेसे जीवोंका “परम कल्याण होता है"तांमली तापसकि माफीक (सूत्र श्री भगवतीजी) (३) मन वचन कायाके योगोंको निश्चल करनेसे जीवोंका “परम०" गजसुकमाल मुनिकि माफीक (श्री अंतगढ सूत्र) (४) ससामर्थ्य क्षमा धर्मकों धारण कर नेसे जीवोंके "परम" अर्जुनमालीकि माफीक (श्री अंतगढ सूत्र) Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) शीघ्रबोध भाग १ लो. ( ५ ) पांचमहाव्रत निर्मला पालने से जीवके श्री गौतमस्वामिजtकि माफीक ( श्री भगवतीजी सूत्र ) ( ६ ) प्रमाद त्याग अप्रामादि होनेसे जीवोंके " श्री शैलराजऋषिकी माफीक ( श्री ज्ञातासूत्र ) परम ० ( ७ ) पांचों इन्द्रियोंका दमन करनेसे जीवोंके श्री हरकेशी मुनिराज कि माफीक ( श्री उत्तराध्यायनजी सूत्र ) (८) अपने मित्रोंके साथ मायावृति न करने से जीवोंके "परम” मल्लिनाथजी के पूर्वभवके छे मित्रोंकि माफीक (ज्ञातासूत्र ) (९) धर्म चर्चा करनेसे जोवोंका परम० " जैसे केशीस्वामी गौतमस्वामीकी माफीक ( श्री उत्तराध्ययनजी सूत्र ) (१०) सच्चा धर्मपर श्रद्धा रखनेसे जीवोंका " वर्णनागनत्वाके बालमित्रकी माफीक ( श्री भगवती सूत्र ) परम० ( ११ ) जगत् के जीवोंपर करुणाभाव रखनेसे जीवोंके "परम० " मेघकुमार के पूर्व हाथीके भवकी माफीक (श्री ज्ञातासूत्र ) ( १२ ) सत्य बात निःशंकपणे करनेसे जीवोंका ' 'परम आनन्द श्रावक और गौतमस्वामीके माफीक ( उपासक दशांग सूत्र० ) , " परम ० ". परम० 13 19 7% (१३) आपत्त समय नियम- व्रतमें मजबूति रखने से 'परम० ' अम्बडपरिव्राज्य के सातसे शिष्योंकि माफीक ( श्री उबवाइजी सूत्र ० ) परम० ( १४ ) सच्चे मन शील पालने से जीवों का 'परम० ' सुदर्शन शेठकी माफीक (सुदर्शन चरित्र ) (१५) परिग्रहकी ममत्वका त्याग करने से जीवका 'परम० ' कपील ब्राह्मणकि माफोक ( श्री उत्तराध्ययनजी सूत्र ) (१६) उदार भाव से सुपात्र दान देने से जीवोंका ' itra गाथापतिfक माफक ( श्री बीपाक सूत्र ) > Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम कल्याण. (५७) (१७) अपने व्रतोसे गीरते हुवे जीवोंके स्थिर करनेसे 'परम 'राजमति और रहनेमिकी माफीक (श्री उत्तराध्ययन (१८) उग्र तपश्चर्या करते हुवे जीवोंका ' परम०' धन्नामुनिकि माफीक (श्री अनुत्तर उववाइ सूत्र ) (१९) अग्लानपणे गुरुवादिकिवेयावञ्च करनेसे 'परम०' पन्थकमुनिकी माफीक ( श्री ज्ञातासूत्र ) (२०) सदैव अनित्य भावना भावनेसे जीवोंका ‘परम' भरतचक्रवर्तिकि माफीक (श्री जम्बुद्विपप्रज्ञप्ति सूत्र ) (२१) प्रणामोंकि लहरोंको रोकनेसे जीवोंके ‘परम०' प्रसन्नचन्द्रमुनिकी माफीक (श्रेणिकचरित्रमें) (२२) सत्यज्ञानपर श्रद्धा रखनेसे जीवोंके 'परम० ' अर्हअक श्रावककी माफीक (श्री ज्ञातासूत्र ) (२३) चतुर्विधसंघकि वैयावच्च करनेसे जीवोंके 'परम' सनत्कुमार चक्रवत्तिके पुर्वके भवकि माफीक (श्री भगवती सूत्र) । २४ ) चढते भावोंसे मुनियोंकि वैयावञ्च करनेसे 'परम' बाहुबलजीके पुर्वभवकी माफीक ( श्री ऋषभचरित्र) (२५) शुद्ध अभिग्रह करनेसे जीवोंके 'परम० ' पांच पांडवोंकि माफीक (श्री ज्ञातास्त्र) (२६) धर्म दलाली करनेसे जीवोंके “परम " श्रीकृष्ण नरेशकि माफीक (श्री अंतगडदशांग सूत्र ) (२७) सूत्रज्ञानकि भक्ति करनेसे जीवों के " परम" उदाइराजाकि माफिक ( श्री भगवतीसूत्र ) (२८) जीवदया पाले तो जीवोंके " परम०" श्री धर्मरूची अणगारकी माफीक ( श्री ज्ञातासूत्र ) . Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) शीघ्रबोध भाग १ लो. (२९) व्रतोसे गीरजानेपरभी चेतजानेसे “ परम" अर-- णिकमुनिकी माफीक । (श्री आवश्यक सूत्र ) . (३०) आपत्त आनेपरभी धैर्यता रखनेसे 'परम० ' खंधक मुनिकी माफोक । (श्री आवश्यक सूत्र ) (३१) जिनराज देवोंकि भक्ति और नाटक करनेसे जीवोंके ‘परम० ' प्रभावती राणीकी माफीक ( श्री उत्तराध्ययन सूत्र) (३२) परमेश्वरकी त्रिकाल पुजा करनेसे जीवोंके 'परम०' शान्तिनाथजीके पुर्वभव मेघरथ राजाकी माफीक (शान्तिनाथ चरित्र ) (३३) छती शक्ति क्षमा करनेसे जीवोंके ‘परम०' प्रदेशी राजाकी माफीक ( श्री रायपसेनी सूत्र ) (३४) परमेश्वरके आगे भक्ति सहित नाटक करनेसे 'परम०' रावण राजाकी माफीक (त्रिषष्ठीशलाका पुरुष चरित्र) (३५) देवादिके उपसर्ग सहन करनेसे 'परम० ' कामदेव श्रावककी माफीक ( श्री उपासक दशांग सूत्र) (३६) निर्भाकतासे भगवानको वन्दन करनेको जानेसे परम' श्री सुदर्शन शेठकी माफीक (श्री अन्तगड दशांग सूत्र ) (३७) चर्चा कर वादीयोंको पराजय करनेसे 'परम' मंडुक श्रावककी माफीक (श्री भगवती सूत्र ) (३८ ) शुद्ध भावोंसे चैत्यवन्दन करनेसे जीवोंके 'परम०' जगवल्लभाचार्यकी माफीक ( पुजा प्रकरण ) (३९) शुद्ध भावोंसे प्रभुपुजा करनेसे जीवोंके ‘परम" नागकेतुकी माफीक ( श्री कल्पसूत्र ) (४०) जिनप्रतिमाके दर्शन कर शुभ भावना भावनेसे ‘परम०' आर्द्रकुमारकी माफीक ( श्री सूत्र कृतांग) Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध भगवान. (५९) इन बोलोंकों कंठस्थ कर संदेवके लिये स्मरण करना और बथाशक्ति गुणोंको प्राप्त कर परम कल्याण करना चाहिये। ॥ सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम् ॥ थोकडा नम्बर १६. ( श्री सिद्धोंकी अल्पाबहुत्त्वके १०८ बोल ) ज्ञान दर्शन चारित्रकी आराधना करनेवाले भाइयोंको इन भल्पाबहुत्यको कंठस्थ कर सदैव स्मरण करना चाहिये । (१) सर्व स्तोक एक समयमें १०८ सिद्ध हुवे । (२) उनोंसे एक समय में १७ , अनंतगुणे। (३) उनोंसे एक समय में १०६ एवं ५८ वा बोलमें एक समय में ५१ . (५९) उनोंसे एक समयमें ५० ,, असंख्यातगुणे । (६०) उनोंसे एक समयमें ४९ (६१ ) उनोंसे एक समयमें ४८ , ,, एवं कमसर ८४ वा बोलमें एक समयमें २५ सिद्ध हुवे असं० गु० (८५) उनोंसे एक समय २४ सिद्ध हुवे संख्यातगुणे (८६) उनसे एक समय २३ एवं क्रमसर १०८ वा बोले एक समयमें एक , , यह १८८ बोलोंकी 'माला' सदैव गुणनेसे कर्मोकी महा निर्जरा होती है. वास्ते सुज्ञजनोंको प्रमाद छोड प्रातःकालमें इस मालाको गुणनेसे सर्व कार्य सिद्ध होते है इति। ॥ सेवभंते सेवभंते तमेव सच्चम् ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) शीवबोध भाग १ लो. थोकडा नम्बर १७ (मत्र श्री जम्बुद्विप प्रज्ञप्ति--छे आरा.) भगवान् वीरप्रभु अपने शिष्य इन्द्रभूति अनगार प्रति कहते है कि हे गौतम इन आरापार संसारके अन्दर कम प्रेरित अनंते जीव अनंते काल से परिभ्रमन कर रहे है कालकि आदि नही है. और अंत भी नहीं है. भरत-ऐरवतक्षेत्रकि अपेक्षा अवसर्पिणी उत्सर्पिणी कही जाती है वह दश कोडाकोड मागरोपमकि अवसर्पिणी और दश कोडाकोड सागरोपमकी उत्सर्पिणी एवं दोनों मीलके वीस कोडाकोडी सागरोपमका कालचक्र होता है एवं अनंते कालचक्रका एक पुद्गल परावर्तन होता है एसे अनंते पुद्गल परावर्तन भूतकालमें हो गये है और भविष्य में अनन्ते पुद्गल परावर्तन हो जायगा. हे गौतम में आज इन भरतक्षेत्र में अवसर्पिणी कालका ही व्याख्यान करता हुं हुं एकाग्रचित्त कर श्रवण कर। एक अवसर्पिणी काल इश कोडाकोड सागरोपमका होता है जिस्के छ विभाग रूपी छे आरा होते है यथा--(१) सुखमा सुखमा ( २) सुखमा ( ३ ) सुखमा दुःखमा ( ४ ) दुःखमा सुखमा (५) दुःखमा (६) दुःखमा दुःखमा इति छे आरा । (१) प्रथम सुखमा सुखम आरा च्यार कोडाकोड सागरोपमका है इस आराके आदिमे यह भारतभूमि वडी ही सम्य रमणिय सुन्दराकार और सौभाग्यको धारण करनेवाली थी. पाहाड पर्वत खाइ खाडा याने विषमपणाकर रहित इन भूमिका "विभाग पांच प्रकार के रत्न से अच्छा मंडित था. चोतर्फसे वन Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छे आरा. राजी पत्र पुष्प फलादिकि लक्ष्मी से अपनी छटा दीखा रही थी.. दश प्रकार के कल्पवृक्ष अनेक विभागोमें अपनि उदारता मशहूर कर रहे थे भूमिका वर्ण बडा ही सुन्दर मनोहर था स्थान स्थान वापी कुवे पुष्करणी वापी अच्छा पथ पाणी से भरी हुइ लेहरो कर रही थी. भूमिका रस मानो कालपी मीसरी माफीक मधुर और स्वादिष्ट था. भूमिकी गन्ध चोतर्फ से सुगन्ध ही सुगन्ध दे रही थी. भूमिका स्पर्श बडा ही सुकुमाल मक्खनकि माफीक था एक वारीस होनेपर दश हजार वर्ष तक उनकी सरसाइ बनो रहती थी. हे गौतम उन समयके मनुष्य युगल कहलाते थे कारण उन समय उन मनुष्यों के जीवन में एक ही युगल पैदा होते थे उनोंके मातापिता ४९ दिन उनोंका संरक्षण करते थे फीर वह ही युगल गृहवास कर लेते थे. वास्ते उन मनुष्योंकों 'युगलीये' मनुष्य कहा जाते थे वह बडे ही भद्रीक प्रकृतिवाले सरल स्वभावी विनयमय तो उनका जीवन ही थे उन मनुष्योंके प्रेमबन्धन या ममस्वभाव तो बीलकुल ही नही था. उन जमाने में उन मनुष्यों के लिये राजनीती और कानुन कायदावोंकि तो आवश्यक्ता ही नही थी कारण जहां ममत्व भाव होते है वहां राजसत्ताकि जरूरत होती है वह उन मनुष्योंके थी नही। वह मनुष्य पुन्यवान तो इतने थे कि जब कीसी पदार्थ भोग उपभोगके लिये जरूरत होती तो उनके पुन्योदय वह दशजातिके कल्पवृक्ष उसी बखत मनो. कामना पुरण कर देते थे। उन कल्पवृक्षोंके नाम और गुण इस माफीक था। (.१) मत्तांगा-उच्च पदार्थोके मदिराके दातार. (२) भूयोगा-थाल कटोर गीलासादि वरतनोंके दातार. Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीघ्रबोध भाग १ लो. 3) तडांगा-१९ जातिके वाजित्रों के दातार. (१) जोयांगा-पूर्य चन्द्रसे भी अधिक ज्योतीके दातार. ( ५ ) दीपांगा-दीपक चराख मणि आदिके प्रकाश (६ चित्तरांगा-पांचवर्ण के सुगन्धी पुष्पोंकि मालावोंके ,, (७) चित्तरसा अनेक प्रकारके पाक पक्वानके भोजन सुन्दर स्वादिष्ट पौष्टीक मनगमते भोजनके दातार. (८) मणियांगा-अनेक प्रकारके मणि रत्न मुक्ताफल सु. वर्ण मंडित कमबजन अधिक मूल्य वेसे भूषणोंके दातार । (९) गेहगारा-उंचे उंचे शीखरवाला मनोहर प्रासाद भुवन महल शय्या संयुक्त मकानके दातार।। (१०) अणिमणा-उम्मदा सुकमाल बखोंके दातार । यह दश जातिके कल्पवृक्ष युगल मनुष्योंके मनोर्थ पुरण करते थे. हे गौतम! उन मनुष्योंके उन समय तीन पल्योपमका आयुष्य तीन गाउका शरीर और शरीरके २९६ पासलीयों थी. बन. ऋषभ नाराच संहनन समचतुन संस्थान, उन स्त्री पुरुषोंका रूपजोबन लावण्य चातुर्य सौभाग्य सुन्दरता बहुत ही अच्छी थी, क्रमशः काल बीतने लगा तब उतरते आरे उन मनुष्योंका दो पल्योपमका आयुष्य दो गाउकी अवगाहना शरीरकि पांसलीयों १२८ रही वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्शमें अनंतीहोनी होने लगी।भूमिका रस खंडा जेसा रह गया। आराके आदिमे उन युगल मनुष्योंकों तीन ___x दश जातिके कल्पवृक्षोंकों जीवाभिगम सूत्रमें 'बिसेसपरणिया' कहा है जीस्कों कइ आचार्य कहते है कि उन वृक्षों के अधिष्टत देवता है वह युगल मनुष्योंकि इच्छा पुरण करते है केइ कहते है कि युगलीयों के स्वभावी पुन्य होनेसे स्वभावी उनी पदार्थ द्वारा प्रणम जाते है। तस्य केवलिगम्यं । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छे आरा. ( ६३ ) दिनोंसे आहारकि इच्छा होती थी जब शरीर प्रमाणे आहार करते थे फीर आराके अन्तमें दो दीनोंसे आहारकि इच्छा होने लगी. युगल मनुष्यों के शेष छेमास आयुष्य रहता है तब उनके परभवको आयुष्य बन्ध जाता है युगल मनुष्योंका आयुष्य नोपकर्म होता है । युगलनीके एक युगल ( बच्चाबच्ची ) पेदा होते है उनकी ४९ दिन " प्रतिपालना करके युगल मनुष्यको छींक आति है और युगलनीकों उभासी आती है. बस इतनेमें वह दोनों साहमें कालधर्मको प्राप्त हों देवगतिमें चले जाते है । उन समय सिंह व्याघ्र चित्ता रीच्छ सर्प वीच्छु गौ भेंस हस्ति अभ्वादि जानवर भी होते हैं, परन्तु वह भी बडे भद्रीक प्रकृतिषाले कीसी जीवोंके साथ न वैरभाव रखते है न कीसीकों तकलीफ देते है उनकीभी गति देवतावोंकी ही होती है । युगल मनुष्य उसे कीसी काममें नहीं लेते है । उन समय न कसी मसी असी वीणज्य बैपार है न राजा प्रजा होती है वहांके मनुष्य तथा पशु स्वइच्छानुसार घूमा करते है । जेसा यह प्रथम आरा है जीसकि आदिमें जो वर्णन किया है वेसाही देवकुरू उत्तरकुरु युगलक्षेत्रका वर्णन समज लेना चाहिये । पुर्व में कीये हुवे सुकृत कर्मका उदय अनुभाग रसकों वहां पर भोगवते है । इति प्रथम भाग | पहले आरेके अन्तमें दुसरा आग प्रारंभ होते है तब अनंते वर्णगन्धरस स्पर्श संस्थान संहनन गुरुलघु अगुरुलघु पर्यायकी हानी होती है ।। दुसरा सुखम, नामका आरा तीन कोडाकोड सागरोपमका होता है जीस्का वर्णन प्रथम आगकि माफीफ समजना. इतना विशेष है कि उन मनुष्योंकि आराके आदिमें दो Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीघ्रबोध भाग १ लो. गाउकी अवगाहना, दो पल्योपमकी स्थिति, शरीरके पांसलीयों १२८ संहनन संस्थान स्त्रि पुरुषोंके शरीर के वर्णन प्रथमाराके माफीक समजना आराके आदिम खांड जेसी भूमिका सरसाई है उत्तरते आरे एक गाउकी अवगाहाना एक पल्योपमकी स्थिति शरीरके ६४ पासलीयों भूमिका सरसाइ गुड जेसी रहेगी उन मनुष्योंको दो दिनोंसे आहारकि इच्छा होगी तब वहही शरीर प्रमाणे आहारकि कल्पवृक्ष पुरती करेंगे, दुसरे आराके युगलनी युगलको जन्म देंगी वह ६४ दिन संरक्षण कर वहही छींक उभासी होतेही स्वर्गगमन करेंगे । इसी माफीक हरीवास रम्य क्वासके युगलोकाधिकार भी समजना। दूसरे आरेके अन्त में तीसरा आरा प्रारंभ होते है तब दुसरे आरेकि निष्पत् अनंते वर्णगन्धरस स्पर्श संहनन संस्थानादि पर्याय हीन होगा। __तीसरा सुखमादुखम आरा दो कोडाकोड सागरोपमका है उस्मेंभी युगल मनुष्यही होते है उनोंका आयुष्य एक पल्योपमका, अवगाहना एक गाउकी, शरीरके पासलीये ६४ होती है शेष शरीरके संहनन संस्थानरूप जोबनादि पुर्ववत् समजना. उत्तरते आरे कोंडपुर्वका आयुष्य पांचसो धनुष्य कि अवगाहना ३२ पासलीयो होती है. एक दिन के अंतरसे आहारकि इच्छा होती है वह कल्पवृक्षपुर्ण करते है भूमिकी सरसाइ गुल जेसी होती है । छे मास पहलेपरभवका आयुष्य बन्धत है वह युगल मनुष्य ७९ दिन अपने वच्चाबच्चीकी प्रतिपालना कर स्वर्गको गमन करते हैं । इन आरामें सुख ज्यादा है और दुःख स्वल्प है इसी माफीक हेमवय, ऐरण्यवययुगल क्षेत्र भी समजना। इन तीसरे आरे के दो विभाग तो युगलपने में ही व्यतित हुवे जीस्का वर्णन उपर कर चुके है । अब जोतीसरा विभाग रहा है उनोंका वर्णन इस माफी है । जेसे जेसे काट के प्रभाव Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छे आरा. ( ६५ ) से हानि होने लगी इसी माफीक कल्पवृक्ष भी निरस होने लगें. फल देने में भी संकुचितपना होनेसे युगल मनुष्योंके चित्तमें चंचलता व्याप्त होने लगी इस समय रागद्वेषने भी अपना पगपसारा करना सरु कर दीया इन कारणों से युगल मनुष्यो में अधिपति की आवश्यक्ता होने लगी. तब कुलकरों कि स्थापन हुई पहले के पांचकुलकरा के 'हकार' नामका नीति दंड हुवा अगर कोई भी युगल अनुचित कार्य करे तो उसे वह कुलकर दंड देता है कि ' है ' बस इतनेमें वह मनुष्य लज्जीत होंके फीर -जन्म भरमें कोइभी अनुचित कार्य नही करता. इस नितीसे केह काल व्यतित हुवा. जब उन रागद्वेष का जोर बढने लगा तब दुसरे पांच कुलकरोंने 'मकार' नामका दंड नीकाला, अगर कोई युगल मनुष्य अनुचित कार्य करें तो वह अधिपति कहते कि 'म' याने यह कार्य मत्त करों इतने में वह मनुष्य लज्जीत हो जाता था बाद रागद्वेषका भाइ क्लेशने भी अपना राज जमाना सरूकीया जब तीसरे पांच कुलकरोंने 'धीक्कार' नामका दंड देना सरू कीया. इन पंद्रह कुलकरोंद्वारा तीन प्रकार के दंड से नीति चलती रही जब तीसरे आराके ८४ चोरासी लक्ष पूर्व और तीन वर्ष साढे आठ मास शेष बाकी रहा उन समय सर्वार्थ सिद्ध महा वैमान से चवके भगवान ऋषभदेवने, नाभीराजा के मरूदेवी भार्या कि रत्नकुक्षीमें अवतार लीया माताको वृषभादि चौदा सुपना आये उनका अर्थ खुद नाभीराजने ही कहा क्रमशः भगवानका जन्म हुवा चौसठ इन्द्रोंने महोत्सव कीया. युवक वय में सुनन्दा सुमंगला के साथ भगवानका व्याह (लग्न कीया जीसके रीत रस्म सब इन्द्र इन्द्राणीयों ने करीथी फीर भगवान् ऋषभदेवने पुरुषोंकी ७२ कला ओर स्त्रियोंकी ६४ कला बतलाइ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) शीघ्रबोध भाग १ लो. कारण प्रभु अवधिज्ञान संयुक्त थे वह जानते थे कि अब कल्पवृक्ष तो फल देंगे नहीं और नीति न होगी तो भविष्य में बड़ा भारी नुकशान होगा दुराचार बढ जायगें इस वास्ते भगवान ने उन मनुष्यों को असी मसी कसी आदि कर्म करना बतलाके नीतिके अन्दर स्थापन कीया । बस यहां से युगलधर्म का बिलकुल लोप होगया अब नितिके साथ लग्न करना अन्नादि खाद्य पदार्थ पेदा करना और भगवान् आदीश्वर के आदेश माफीक परताव करना वह लोग अपना कर्तव्य समजने लग गये. भगवान् एसे वीस लक्ष पुर्व कुमार पद में,रहै इन्द्र महाराज मीलके भगवान् का राज्याभिषेक कीया भगवान् इक्ष्वाकुवंस उग्रादिकुल स्थापन कर उनोंके साथ ६३ लक्षपूर्व राजपद कों चलाये अर्थात् ८३ लक्षपूर्व गृहवास सेवन किया जीस्में भरत वाहुबल आदि. १०० पुत्र तथा ब्राह्मी, सुन्दरी आदि दो पुत्रोये हुए यी अयोध्या नगरी कि स्थापना पहलेसे इन्द्र महाराजने करी थी और भी ग्राम नगर पुर पाटण आदि से भूमंडल बडाही शोभने लग रहाथा. भगवानके दीक्षाके समय नौलाकान्तिक देव आके भगवान से अर्ज करी कि हे प्रभो!जेसे आप नितीधर्म बतलाके क्लेश पाते युगलीयोंका उद्धार किया है इसी माफीक अब आप दीक्षा धारण कर भव्य जीवोंका संसार से उद्धार कर मोक्षमार्ग को प्रचलीत करो. उनसमय भगवान् संवत्सर दान दे के भरतकों अयोध्याका राज बाहुबलकों तक्षशीला का राज ओर ९८ भाइयोंकों अन्यदेशोंका राज दे ४००० राजपुत्रोंके साथ दीक्षा ग्रहन करी । भगवान् के एक वर्ष तक का अन्तराय कर्म था और युगल मनुष्य अज्ञात होनेसे एक वर्ष तक आहार पाणी न मीलने से वह ४००० शिष्य जंगलमे जाके फलफूल भक्षण करने लग गये. जब भगवान् ने वरसीतपका पारणा श्रेयांसकुमार के वहां Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छे आरा. (६७) किया तबसे मनुष्य आहार पाणी देना सीखे. भगवान १००० वर्ष छद्मस्थ रह के केवल ज्ञानकी प्राप्ति के लिये पुरीमताल नगरके उद्यानमें आये भगवान को केवल ज्ञानोत्पन्न हुवा. वह बधाइ भरत महाराज को पहुंची उस समय भरत राजाके आयुधशालामें चक्ररत्न उत्पन्न हुषा. एक तरफ पुत्र होनेकी वधाइ आइ, एवं तीनों कार्य बडा महोत्सवका था, परन्तु भरत राजाने विचार कीया कि चक्ररत्न और पुत्र होना तो संसारवृद्धिका कार्य है परन्तु मेरे पिताजीकों केवलज्ञान हुवा वास्ते प्रथम यह महोत्सव करना चाहिये क्रमशः महोत्सव कीया. माता मरूदेवी को हस्ती पर बैठा के लाये माताजी अपने पुत्र ऋषभदेव ) को देख पहले बहुत मोहनी करी फीर आत्म भावना करते हस्तीपर बैठी हुई माताको केवलज्ञान उत्पन्न हुवा और हस्तीके खंधेपरसे ही मोक्ष पधार गये. भगवान के ४००० शिष्य वापिस आगये औरभी ८४ गणधर ८४००० साधु हुवे और अनेक भव्य जीवोंका उद्धार करते हुये भगवान आदीश्वरजी एक लक्ष पुर्व दीक्षा पाल मोक्षमार्ग चालु कर अन्त में १०००० मुनिवरों के साथ अष्टापदजीपर मोक्ष पधार गये. इन्द्रोंका यह फर्ज है कि भगवान के जन्म, दीक्षाग्रहन केवल ज्ञानोत्पन्न और निर्वाण महोत्सवके समय भक्ति करे. इस कर्तव्यानुसार सभी महोत्सव कोये अन्तम इन्द्र महाराजने अष्टापद पर्वत् पर रत्नमय तीनबडे ही विशाल स्तृप कराये और भरत महाराज उन अष्टापद पर २४ भगवान् के २४ मन्दिर बनवा के अपना जन्म सफल कीया था इस बखत तीजा आरा के तीन वर्ष साडा आठ मास बाकी रहा है जोकि युगलीये मरके एक देव गति मेंही जाते थे. अब वह मनुष्य कर्मभूमि हो जाने से नरक नीर्यच मनुष्य देव और केह केइ सिद्ध गतिमें भी जाने लयगये है। तीसरे आरे के अन्तमें क्रोड पूर्वका आयुष्य, पांचसो धनुष्य का Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) शीघ्रबोध भाग १ लो. शरीर, मान ३२ पासलीयों यावत् वर्ण गन्ध रस स्पर्श संहनन संस्थानादिके पर्यव अनंते अनंते हानि होने लगे. धरती की सरसाइ गुल जेसी रही. तीसरा आरा उतर के चोथा आरा लगा वह ४२००० वर्ष कम, एक कोडाकोड सागरोपमका है जिस्मे कर्मभूमि मनुष्य जघन्य अन्तर महुर्त, उत्कृष्ट क्रोड पूर्वका आयुष्य जघन्य अंगुल के असंख्य भाग उत्कृष्ट पांचसो धनुष्य कि अवगाहना थी शरीर के पांसलीयों ३२थी संहनन छे, संस्थान छे था. जमीनकी सरसाइथी स्निग्ध संयुक्त मनुष्यों के प्रतिदिन आहार करने कि इच्छा उत्पन्न होती थी भगवान ऋषभदेव और भरतचक्रवत्ति यह दो शीलाके पुरुष तो तीसरे आरा के अन्तमें हुवे और शेष २३ तीर्थकर, ११ चक्रवति ९ बलदेव, ९ वासुदेव, ९ प्रतिवासुदेव यह सब चोया आरामें हुवे थे। भगवान ऋषभदेव के पाटोनपाट असंख्यात जीव मोक्ष गये तत्पश्चात् अजितनाथ भगवान का शासन प्रवृत्तमान हुवा क्रमशः नौवो मुविधिनाथ भगवान तक अविच्छिन्न शासन चला फीर हुन्डा सर्पिणी के प्रयोगसे शाशन उच्छेद हुवा फीर शीतलनाथ भगवान से शासन चला एवं श्री धर्मनाथजी के शासन तक अंतरे अंतरे धर्म विच्छेद हुवा बाद में श्री शान्तिनाथ प्रभु अवतार लीया वहांसे श्री पार्श्वनाथ प्रभु तक अवच्छिन्न शासन चला बाद में चोथा आराके ७५ वर्ष आढा आठ मास बाकी रहा.। पाठ कोतव दशवा स्वर्ग से चवके क्षत्रीकुंड नगर के सिद्धार्थ राजा कि त्रिसलादे राणी के रत्नकुक्षमें श्री वीर भगवान् अवतार धारण कीया माता को १४ स्वप्ना यावत् भगवान का जन्म हुवा ६४ इन्द्र मील के भगवान का जन्म महोत्सव कीया बाद में राजा Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छे आरा. ( ६९ ) सिद्धार्थ जन्म महोत्सव कीया था उनसमय जिन मन्दिरों में सेंकडो पुजाओं कर अनुक्रमशः ३० वर्ष भगवान् गृहवास मे रहके बाद दिक्षा ग्रहन कर साढ़े बारह वर्ष घोर तपश्चर्या कर के areज्ञान कि प्राप्त कर तीस वर्ष लग भव्य जीवोंका उद्धार कर सर्व ७२ वर्षों का आयुष्य पाल आप मोक्ष में पधार गये उससमय भगवान् गौतम स्वामि को केवलज्ञान उत्पन्न हुवा farar महा महोत्सव इन्द्रादिकने कीया | चोथा आरामें दुःख ज्यादा और सुख स्वल्प है आरा के अन्तमें मनुष्यों का आयुष्य उत्कृष्ट १२० वर्षका शरीरकी उंचाह - सात हाथकी पांसलीयों १६ धरतीकी सरसाइ मटी जैसी थी एक दिनमें अनेकवार आहारकी इच्छा उत्पन्न होती थी जब चोथा आरा समाप्त हो पांचवा आरा लगा तब वर्णगन्ध रस स्पर्श संहनन संस्थान के पर्यः व अनंते हीन हुये धरती की सरसाइ मटी जेसो रही । पांचवा आरा २१००० वर्षोंका होगा आरा के आदिमें १२० afar मनुष्योंका आयुष्य ७ हाथका शरीर शरीर के छे संहनन छ संस्थान १६ पांसलीयां होगें चोसठ वर्ष केवलज्ञान ( ८ वर्ष alanara १२ सौधर्मस्वामि ४४ जम्बुस्वामि ) पांचवे आरे के मनुष्यों को आहारकी इच्छा अनियमित होगें । जम्बु स्वामि मोक्ष जाने पर १० बोलोंका उच्छेद होगा यथापरमावधिज्ञान, मनःपर्यष ज्ञान, केवलज्ञान, परिहार विशुद्धि चारित्र, सूक्ष्मसंपराय चारित्र, यथाख्यात चारित्र, पुलाक लब्धि, आहारक शरीर, क्षायक श्रेणी, जिन कल्पीपना,, Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीघ्रबोध भाग १ लो. प्रसंगोपात पांचवे आरे के धर्म धुरंधर प्राचार्योंकि नाम: (१) श्री सयंप्रभसूरि जैनपोरवाल श्रीमालोंके कर्ता (२) श्री रत्नप्रभसूरि उपलदे राजादि को जैन ओसवाल कीये (३) श्री यक्षदेवसूरि सवालक्ष जैन बनानेशला (४) श्री प्रभवस्वामि सधंभवभट्टके प्रतिबोधक (५) श्री सज्जंभवाचार्य दशवकालक के कर्ता (६) श्रीभद्रबाहुस्वामि नियुक्ति के कर्ता (७) श्री सुहस्ती आचार्य राजा संप्रती प्रतिबोधक (८)श्री उमास्वाति आचार्य पांचसो अन्य के कर्ता (९) श्री श्यामाचार्य श्री प्रज्ञापना सूत्र के कर्ता (१०) श्री सिद्धसेन दीवाकर विक्रमराजा प्रतिबोधक (११) श्री वनस्वामि जिनमन्दिरोंकी आशातना मीटानेवाले (१२) कालकाचार्य शालीवाहन राजा प्रतिबोधक (१३) श्री गन्धहस्ती आचार्य प्रथम टीकाकार (१४) श्री जिनभद्रगणी आचार्य भाष्यकर्ता (१५) श्री देवऋद्धि खमासमण आगम पुस्तकारूढ कर्ता (१६) श्री हरिभद्रसूरि १४४४ ग्रन्थ के कर्ता ( १७ ) श्री देवगुमसूरी निवृत्यादि च्यार माखोंके कर्ता (१८) श्री शीलगुणाचार्य श्री मल्लवादि श्री वृद्धवादी (१९) श्री जिनेश्वरसूरी श्री जिन वल्लभसूरी संघपट्टक कर्ता (२०) श्री जिनदत्तसूरी जैन ओसवाल कर्ता (२१) श्री कक्कसूरी आचार्य अनेक ग्रन्थकर्ता (२२) श्री कलीकाल सर्व श्री हेमचन्द्राचार्य, राजा कुमा रपाल प्रतिबोधक Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छे आरा. (७१) (२३) श्री हिरविजयसूरी पादशाह अकबर प्रतिबोधक। इत्यादि हजागे आचार्य जो जैनधर्मके स्थंभभूत हो गये है उनोंके प्रभावशाली धर्मोपदेशसे विमलशा, वस्तुपाल, कर्माशा जावडशा भंसाशा धनासा भामाशा सोमासादि अनेक वीरपुत्रोंने जैनधर्मकि प्रभावना करी थी इति ___ पांचवे आरा में कालके प्रभावसे कीतनेक लोग ऐसेभी होंगे और इस आर्यभूमिका वर्णन जो पूर्व महा ऋषियोंने इस माफीक कीया है। (१) बडे बडे नमर उजडसा या गामडे जेसे हो जायेंगे (२) ग्राम होगा वह श्मसान जेसे हो जायगें (३) उच्च कूलके मनुष्य दास दासीपना करने लग जायगे (४) जनता जिन्होंपर आधार रखें वह प्रधान लाचडीये होगें मुदाइ मुदायले दोनोंका भक्षण करेंगे (५) प्रजाके पालन करनेवाले राजा यम जेसे होगें (६) उच्च कुलकि ओरते निर्लज हो अत्याचार करेंगी (७) अच्छे खानदानकि ओरतों वैश्या जेसे वेश या नाच करेंगी निर्लज हों अत्याचार करेंगे (८) पुत्र कुपुत्र हों आपत्त कालमें पिताको छोडके भाग जावेंगे मारपीट दावा फीरयादि करेंगे (९) शिष्य अविनीत हो गुरु देवोंका अवगुनबाद बोलेंगे (१०) लुओ लंपट दुर्जन लोग कुच्छ समय सुखी होंगे । (११) दुर्भिक्ष दुष्काल बहुत पडेंगें (१२) सदाचारी सजन लोगं दुःखी होंगे - (१३) ऊंदर सर्प टीडी आदि क्षुद्र जीवोंके उपद्रव होंगे (१४) ब्राह्मण योगी साधु अर्थ (धन) के लालची होगे Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) शीघ्र भाग १ लो. ( १५ ) हिंसा धर्म ( यज्ञहोम) के प्ररूपक पाखंडी बहुत होगें (१६) एकेक धर्म अन्दर अनेक अनेक भेद होगे ( १७ ) जीस धर्मके अन्दर से निकलेंगे उसी धर्मकी निंदा करेंगे उपकारके बदले अपकार करेंगे (१८) मिथ्यात्वीदेव देवीयों बहुत पूजा पायेंगे | उनके उपासकभी बहुत होगें । ( १९ ) सम्यग्दृष्टि देवोंके दर्शन मनुष्यों कों दुर्लभ होंगे। ( २० ) विद्याधरोंकि विद्यावका प्रभाव कम हो जायगें ( २१ ) गौरस दुध दही घृत) तैल गुड शकर में रस कम होगें ( २२ ) वृषभ गज अश्वादि पशु पक्षीयोंका आयुष्य कम होगा ( २३ ) साधु साध्वीयोंके मासकल्प जेसे क्षेत्र स्वल्प मीलेंगे ( २४ ) साधुकि १२ श्रावककी ११ प्रतिमावका लोप होगें (२५) गुरु अपने शिष्योकों पढाने में संकुचीतता रखेंगे। (२६) शिष्य शिष्यणीयों कलह कदाग्रही होगी । (२७) संघ में क्लेश टंटा पीसाद करनेवाले बहुत होंगे। ( २८ ) आचार्योंकि समाचारी अलग २ होगें अपनि अपनि सचाइ बतलाने के लिये उत्सूत्र बोलेंगे एक दुसरेको झूठा बतलाar aaraaree वेशबिटम्बिक कुलिंगी सन्मार्गसे पतित बनानेवाला बहुत होंगे। (२९) भद्रीक सरल स्वभावी अदल इन्साफी स्वल्प होंगे वहभी पाखंडीयोंसे सदैव डरते रहेगें । (३०) म्लेच्छराजावका राज होर्गे सत्यकी हानि होगी । (३१) हिन्दु या उच्च कूलिन राजा, न्यायीराज स्वरूप होंगे। (३२) अच्छे कूलीन राजा निचलोगोंकि सेवा करेंगे निच कार्य करेंगे। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छे आरा. (७३) इत्यादि अनेक बालोसे यह पांचवा आरा कलंकित होगे। इन आरामें रत्न सूवर्ण चांन्दी आदि धातु दिन प्रतिदिन कम होती जावेगी. अन्तमें जीस्के घर में मणभर लोहा मीलेंगे वह धनाढ्य कहलायेंगे इन आरामें चमडे के कागजोंके चलन होगें इन आरामें महनन बहुत मंद होगें अगर शुद्ध भावोंसे एक उपासभी करेंगे वह पुषकि अपेक्षा मासखमण जेसा तपस्वी कहलावेगे, उन समय श्रुतज्ञानकि क्रमशः हानि होगी अन्तम श्री दशवकालीक सू. के च्यार अध्ययन रहेंगे उनसे ही भव्य जीव आराधि होंगे पांच आरेके अन्त में संघमें च्यार जीव मुख्य रहेंगें (१) दुप्पसासूरी साधु ( २) फाल्गुनी साध्वी (३) नागल श्रावक ( ४ ) नागला श्राविका यह च्यार उत्तम पुरुष सद्गतिगामी होगे। पांचवे आरेके अन्तमें आमाढ पुर्णीमाको प्रथम देवलोकमें शक्रन्द्रका मासन कम्पायमान होगें. जब इन्द्र उपयोग लगाके जानेंगें कि भरतक्षेत्रमें कल छठा आरा लगेगा. तब इन्द्र मृत्युलोगमें आधेगें और कहेगेंकि हे भव्यों! आज पांचवा आरा है कल छठा आरा लगेंगे. वास्ते अगर तमकों आत्मकल्याण करना हो मों आलोचन प्रतिक्रमण कर अनसन करों इत्यादि इनपरसे यह ही च्यारों उत्तम पुरुष आलोचना प्रतिक्रमण कर अनसनकर देवगतिमें जायेंगें शेष जीव बाल मरणसे मृत्युपाके परभव गमन करेंगे ! पाठको वहही पांचमकाल अपने उपर घरत रहा है वास्ते मावचेत रहना उचित है। पांचवे आरेके अन्तमें मनुष्योंका उत्कृष्ट बीस वर्षका आयुष्य एक हाथका शरीर चरम संहनन संस्थान रहेगा भूमिका . रस दग्धभूमि जेसा रहेगा वर्ण गन्ध रस स्पर्शादि सब अनंत भाग न्युन होंगें पांचवा आरा उत्तरके छठा आरा लगेगा उनका वर्णन बडा ही भयंकर है। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४) शीघबोध भाग १ लो. श्रावण कृष्ण प्रतिपदा के दिन संवर्तक नामका वायु चलनेसे पहलेपहर जैनधर्म, दुसरे पहर ३६३ पाखांडीयेका धर्म, तीजे पहर राजनीती; चोथे पहर बादर अग्निकाय विच्छेद होंगें उन समय गंगा सिंधु नदी, वैताव्यगिरि पर्वत ( सास्वतगिरी ) और लवण समुद्र कि खाडि इनके सिवाय सब पर्वत पाहाड जंगल जाडी वृक्षादि वनस्पति घर हाट नदी नालादि सर्व वस्तु नष्ट हो जायगी. उसपर सात सोत दिन सात प्रकारके मेघ वर्षगे वह अग्नि सोमल विष धूल खार आदि के पडने से सब भूमि एकदम दग्ध हो जायगी-हाहाकार मच जायंगे उन समय कुच्छ मनुष्य तीर्यच वर्चगे उनों को देवता उठाके गंगा सिन्धु नदीके किनारेपर ७२ बोल रहेंगे जिस्म ६३ बीलोंमें मनुष्य ६ बीलोंमें गजाश्व गौ/सादि भूमिचर पशु आदि ३ बीलोंमें ग्वेचर पक्षीकों रखदेंगे उनोंका शरीर वडाही भयंकर काला काबरा मांजरा लुला-लंगडा अनेक रोगप्राप्त कुरूपे मनुष्य होंगे जिनोंके मेंथुनकर्मकी अधिकाधिक इच्छा रहेंगे उनोंके लडके लडकीये बहुत होगी छ वर्षों की ओरतें गर्भ धारण करेंगी. वहभी कुतीयोंकि माफीक एक बखतमे ही बहुत बचा बचीयोंकों पैदा करेंगी महान् दुःखमय अपना जीवन पूर्ण करेंगे। गंगा सिन्धु नदी मूलमें ६२॥ जोजनकी है परन्तु कालके प्रभाषसे क्रमशः पाणी सुकता सुकता उन समय गाडीके चीले जीतनी चोडी ओर गाडाका आक डुबे इतनी उडी रहेगी उन पाणी में बहुतसे मच्छ कच्छ जलचर जानवर रहेंगे। उन समय सूर्य कि आताप बहुत होगी चन्द्रकि शीतलता बहुत होगी. जिनके मारे वह मनुष्य उन बीलोसे नीकल नहीं सकेंगे. उन मनुष्योंके उदर पुरणाके लिये उन नदीयोंमे कच्छ मरछ होगा उनीको श्याम सुबह बीलोंसे निकलके जलचर जीवों Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छे आरा. (७५) को पकड उन नदीके कीनारेकी रेतीमें गाड देंगे यह दिनकों सूर्यकि आतापनासे रात्री में चन्द्रकी शीतलतासे पक जायेंगे फीर सुबे गाडे हुवेका श्यामको भक्षण करेंगे श्यामको गाडे हुवेका सुबे भक्षण करेंगे इसी माफीक वह पापीष्ट जीव छठे आरेके २१००० वर्ष व्यतित करेंगे। उन मनुष्योंका आयुष्य लागते छठे आरे उत्कृष्ट २० वर्षका होगा शरीर एक हाथका हुन्डक संस्थान छेवटुं संहनन आठ पासलीयों और उत्तरते आरे १६ वर्षाका आयुष्य, मुडत हाथका शरीर, च्यार पांसलीयां होगी. उन दुःखमा दुःखम आरामें यह मनुष्य नियम व्रत प्रत्याख्यान रहीत मृत्यु पाके विशेष नरक और तीर्यच गतिमें जावेंगे । पाठकों ! अपना जीव भी एसे छ? आरेमें अनंतो अनंती वार उत्पन्न होके मरा है वास्ते इस बखत अच्छी सामग्री मीली है जिस्मे सावचेत रहनेकी आवश्यक्ता है। फीर पश्चाताप करनेसे कुच्छ भी न होंगे। अब उत्सर्पिणी कालका संक्षेपमें वर्णन करते है। (१) पहला आरा छटा आरेके माफीक २१००० वर्षका होगा। (२) दुसरा आरा पांचधा आरे जेसा २१००० वर्षांका होगाः परन्तु साधु साध्वी नही रहेंगे. प्रथम तीर्थकर पानाभका जन्म होगा याने श्रेणिकराजाका जीव प्रथम पृथ्वीसे आके अवतार धारण करेंगे। अच्छी अच्छी वर्षात होनेसे मूमिमें रस अच्छा होगा. (३) तीसरा आरा-चोथा आरेके माफीक बीयालीसहजार वर्ष कम एक कोडाकोड सागरोपमका होगा जिस्मे २३ तीर्थकर आदि शलाके पुरुष होगे मोक्षमार्ग बलु होगा शेष अधिकार चोथा आरा कि माफीक समज लेना। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीघ्रबोध भाग १ लो. (४) चोथा आरा तीसरे आरेके माफीक होगा जीले प्र. यम तीजा भागमें कर्मभूमि रहेगे एक तीर्थकर एक चक्रवत्ति मोक्ष जावेंगे फीर दो-तीन भागमें युगल मनुष्य हो जायेंगे वहही कल्पवृक्ष उनोंकि आशा पुरण करेंगे सम्पूरण आरा दो कोडाकोडी सागरोपमका होगा। (५) पांचवां आरा दुसरे आरेकं माफीक तीन कोडा-. कोडी सागरोपमका होगा उसमें युगल मनुष्यही होगा। (७) छठा आरा पहेले आरेके माफीक च्यार कोडाकोडी सागरोपमका होगा उसमें युगल मनुष्यही होगे। इन उत्सपिणी तथा अवसर्पिणीकाल मीलानेसे एक का. लचक्र होता है पसा अनंते कालचक्र हो गये कि यह जीव अज्ञानके मारे भवभ्रमन कर रहा है। पाठकगण ! इसपर खुब गहरी दृष्टिसे विचार करे कि इस जीवकि क्या क्या दशा हुई और भविष्य में क्या दशा होंगी। वास्ते श्री परमेश्वर वीतराग के वचनोंको सम्यक प्रकारसे आराधन कर इस कालके मुंहते छुट चलीये सास्वते स्थानमें इति । सेवं भंते सेवं भंते-तमेव सञ्चम् Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रत्नप्रभाकरज्ञानपुष्पमाला पुष्प नं. २७ श्री ककसूरी सद्गुरुभ्यो नमः अथ श्री शीघ्रबोध भाग २ जा. थोकडा नम्बर १८. ( नवतत्त्व ) पावासव संवरो य निझरणा !! गाथा - जीवाजीवा पुष्पं बंधी मुक्खा य तहा, नवतत्ता हुंति नायव्वा ॥ १ ॥ ( श्री उत्तराध्ययन अ० २८ वचनात ) (१) जीवतत्त्व - जीवके चैतन्यता लक्षण है ( २ ) अजीवतत्त्व - अजीवके जडता लक्षण है (३) पुन्यतत्व - पुन्यका शुभफल लक्षण है (४) पापस्य - पापका अशुभफल लक्षण है (५) आश्रवतत्त्व - पुन्य पाप आनेका दरवाजा लक्षण है (६) संवरतत्व - आते हुवे कर्मोंको रोक रखना ( ७ ) निजैरातत्व - उदय आये कर्मोंकों भोगवके दूर करना ( ८ ) बन्धतत्व - २ - रागद्वेषके परिणामोंसे कर्मका बन्धना. ( ९ ) मोक्षतत्व - सर्व कर्म क्षयकर सिद्धपद प्राप्त करना. इन नवतत्वमें जीव अजीवतत्व जानने योग्य है. पाप आ श्रव और बन्धतत्व जानके परित्याग करने योग्य है. संवर नि Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८) शीघ्रबोध भाग २ जा. जरा और मोक्षतत्व जानके अंगीकार करने योग्य है पुन्यतय नैगमन के मत से स्वीकार करने योग्य है कारण मनुष्यजन्म उत्तम कुल, शरीर निरोग्य, पूर्ण इन्द्रिय, दीर्घ आयुष्य, धर्म सामग्री आदि सब पुग्योदयसे ही मीलती है व्यवहार नयके मतसे पुन्य जानने योग्य है और एवंभुत नयके मतसे पुन्य जानके परित्याग करने योग्य है कारण मोक्ष जानेवालोंकों पुन्य बाधाकारी है पुन्य पापका क्षय होनेसे जीवोंका मोक्ष होता है। नवतवमे च्यार तत्व जीव है-जीव, संवर, निर्ज्जरा, और मोक्ष. तथा पांच तत्व अजीव है-अजीव पुन्य पाप - आश्रम और बन्धतत्व । नवतत्त्वका च्यार तत्व रूपी है पुन्य-पाप-आश्रव और बन्ध च्यार तत्व अरूपी है जीव संवर निर्जरा और मोक्ष तथा अजीवतत्व रूपी अरूपी दोनों है. निश्चयनयसे जीवतत्व है सो जीव है और अजीवतत्व है सो अजीब है शेष सात तत्व जीव अजीवकि पर्याय है यथा संवर निर्जरा मोक्ष यह तीन तत्व जीवकि पर्याय है, पाप पुन्य आश्रय बन्ध यह व्यार तत्व अजीवको पर्याय है। अजीव पाप पुन्य आश्रव और बन्ध यह पांचतत्व जीवके शत्रु है संवर तत्व जीवका मित्र है, निजैरातत्व जीवको मोक्ष पहुंचानेवाला बोलावा है. मोक्ष तत्व जीवका घर है. नवतत्वपर च्यार निक्षेपा-नामनिक्षेपा. जीवाजीवका नाम नवतत्व रखा, अक्षर लिखना तथा चित्रादिकि स्थापना करना यह नवतत्वका स्थापना निक्षेपा है. उपयोग रहीत नवतत्वाध्ययन करना वह द्रव्यनिक्षेपा है सम्यक्प्रकारे यथार्थ नवतत्वका स्वरूप समजना यह भावनिक्षेपा है Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवतत्त्व. (७९) नवतत्वपर सात नय नैगमनय नवतत्व शब्दकों तत्व माने. संग्रहनय तत्वकि सत्ताको तत्व माने. व्यवहार नय जीव अजीव यह दोय तत्व माने. ऋजु सूत्रनय छे तत्व माने. जीव अजीव पुन्य पाप आश्रय बन्ध, शब्दनय सात तत्व माने छे पुर्ववत् यक संबर. संभिरूढनय आठ तत्व माने निर्जराधिक. एवंमृत नय नव तत्व माने । नव तत्वपर द्रव्य क्षेत्र काल भाष-द्रव्यसे नवतत्व जीव अजीव द्रव्य है क्षेत्रसे जीव अजीव पुन्य पाप आश्रव बन्ध सर्व लोकमें है सवर निर्जरा और मोक्ष प्रस नालीमें है. का. लसे नवतत्व अनादि अनंत है कारण नवतत्व लोकमें सास्थता है भावसे अपने अपने गुणों में प्रवृत रहे है। नवतत्त्वका विशेष विवेचन इस माफीक है । (१) जीवतत्त्व-जीवका सम्यक प्रकारे ज्ञान होना जेसे जीवके चैतन्य लक्षण है व्यवहारनयसे जीव पुन्य पापका कर्ता है सुख दुःखके भोक्ता है पर्याय प्राण गुणस्थानादिकर संयुक्त द्रव्ये जीव सास्वता है पर्याय (गतिअपेक्षा ) अमास्वताभी है. मृतकालमें जीवथा वर्तमानकाल में जीव है मविष्य में जीव रहेंगे । तीनकालमें जीवका अजीव होवे नही उसे जीव कहते है निश्चयनयसे जीव अमर है कर्मों का अकर्ता है और व्यवहार नयसे जीव मरे है कर्मों का कर्ता है अनादि कालसे जीवके साथ कर्मोका संयोग है जेसे दुध घृत तीलोम तेल धूलमे धातु चमें रस पुष्पों में सुगन्ध चन्द्रकान्ता मणिमे अमृत इमी माफीक जीव और कर्माका अनादि कालसे सबन्ध है दृष्टान्त सोना निर्मल है परन्तु अग्निके संयोगसे अपना स्वरूपको छोड अग्नि के स्वरूप को धारण कर लेता है इसो माफीक अनादि काल के अज्ञान के वस क्रोधादि संयोगसे जीव अज्ञानी कर्मवाला कह. Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०) शीघ्रबोध भाग २ जा. लाते है जब सोना को जल पवनादिकी सामग्री मीलती है तब परगुण अग्नि ) त्याग कर अपने असली स्वरूप को धारण करते है इसी माफीक जीव भी दर्शनज्ञान चारित्रादिकि सामग्री पाके कर्म मेलको त्याग कर अपना असली ( सिद्ध ) स्वरूपको धारण कर लेता है। द्रव्यसे जीव असंख्यात प्रदेशी है। क्षेत्रसे जीव स्मपुरण लोक परिमाणे है ( एक जीवका आत्मप्रदेश लोकाकाश जीतना है) कालसे जीव आदि अन्त रहीत है भावसे जीव ज्ञानदर्शन गुणसंयुक्त है । नाम जीव सो नाम निक्षेपा, जीवकि मूर्ति तथा अक्षर लिखना वह स्थापना जीव है उपयोग सुन्य जीवकों द्रव्य निक्षेपा कहते है उपयोगगुण संयुक्तकों भावजीव कहते है। नय-जीव शब्दको नैगमनय जीव मानते है असंख्याता प्रदेश सत्तावाले जीवकों संग्रहनय जीव कहते है-बस स्थावरके भेदवाले जीवोंको व्यवहारनय जीव कहते है : सुखदुःखके परिणामवाले जीवोंको ऋजुलूत्र नयजीव कहते है क्षायकगुणप्रगटांणा ही उसे शब्दनय जीव कहते है केवलज्ञान संयुक्तको संभिरुद्ध नयजीव कहते है सिद्धपद प्राप्त कीये हुवे कों एवंभूत नयजीव कहते है। जीवोंके मूलभेद दोय है (१) सिद्धोंके जीव और २) संसारी जीव. जिस्मे सिद्धोंके जीव सर्वता प्रकारे कर्म कलंकसे मुक्त है अनंते अव्यावाध सुखोंमे लोकके अग्रमागपर सचिदान्द बुद्धानन्द सदानन्द स्वगुणभोक्ता अनंतज्ञानदर्शनम रमणता करते है, द्रव्यसे सिद्धोके जीव अनंत है क्षेत्रसे सिद्धोंके जीव पैतालीस लक्ष योजनके क्षेत्रमें विराजमान है कालसे सिद्धोंके जीव बहुत जीवोंकी अपेक्षा अनादि अनंत है एक जीवकि अपेक्षा सादि अनंत है भावसे अनंतज्ञान दर्शन चारित्र वीर्य गुणसंयुक्त समय Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवतत्त्व. (८१) समय लोकालोकके भावोंको देख रहे है. सिद्धीका नाम लेनेसे नामनिक्षेपा, सिद्धोंकी प्रतिमा स्थापन करनेसे स्थापना नि क्षेपा, यहां पर रहे हुवे महात्मा सिद्ध होनेवाले है वह सिद्धोंका द्रव्य निक्षेपा है सिद्धभावमें वरत रहे है वह सिद्धोंका भाव निक्षेपा है उन सिद्धोंके मूल भेद दोय है (१) अनंतरसिद्ध (२) प. रम्परसिद्ध, जिस्मे अनंतर सिद्धों जोकि सिद्ध हुवेको प्रथमही समय बरत रहे है जिनोंके पंदरा भेद है (१) तिर्थसिद्धातीर्थ स्थापन होनेके बाद मुनिवरादि सिद्ध हुवे (२ ) अतीत्यसिद्धा-तीर्थ स्थापन होनेके पहेले मरूदेव्यादि सिद्ध हुवे (३) तीत्थयर सिद्धा-खुद तीर्थंकरसिद्ध हुवे (४) अतीत्थयरसिद्धा -तीर्थकरोंके सिवाय गणधरादि सिद्ध हुवे (५) सयंबोद्धे सिद्धाजातिस्मरणादि ज्ञानसे असोचा केवली आदि सिद्ध हुवे. (६) प्रतिबोद्विसिद्धा-करकंडु आदि प्रत्येक बुद्ध सिद्ध हुए (७) बुद्ध बोहीसिद्ध-तीर्थकर गणधरा मुनिवरों के प्रतिबोधसे सिद्ध हुवे. (८) इथिलिंगसिद्धा. द्रव्य से स्त्रिलिंग है परन्तु भाषसे वेदक्षय होने से अवेदि है वह ब्राह्मी सुन्दरी आदि (९ । पुरुषलिंगसिद्ध -पुर्ववत् अवेदि-पुंडरिकादि-(१० ) नपुंसकलिंगसिद्धे-पुर्ववत् अवेदि गाङ्गेयादि मुनि-(११) स्वलिंगीसिद्धे-स्वलिंग रजोहरण मुखवस्त्रिका संयुक्त मुनियोंकि मोक्ष (१२) अन्यलिंगसिद्धे-अन्यलिंग त्रीदंडीयादिके लिंगमें भावसम्यक्त्व चारित्र आनेसे मोक्ष नाना ( १३ ) गृहीलिंगीसिद्धे-गृहस्थ के लिंगमें सिद्ध होना मरूदेवी आदि-(१४) एक समय में एक सिद्ध (१५) एक समयमें अनेक (१०८) सिद्धोंका होना इन सबको अनंतर सिद्ध कहते है (२) दुसरे जो परम्पर सिद्ध होते है उनोंके अनेक 'भेद हे जेसे अप्रथम समयसिद्ध अर्थात् प्रथम समय वर्जके द्वि. Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८२) शीघ्रबोध भाग २ जो. त्यादि संख्याते असंख्याते अनंते समय के सिद्धोंकों परस्पर सिद्ध कहते है इति. (२) अब संसारी जीवोंके अनेक भेद बतलाते है जेसे संसारी जीवों के एक भेद याने संसारीजीव. दो भेद बस-स्थावर। तीन भेद खोवेद पुरुषवेद नपुंसकवेद। च्यार भेद. नारकी तीयच मनुष्य देवता । पांच भेद एकेन्द्रिय बेइन्द्रिय तेइन्द्रिय चोरिंन्द्रय पांचेन्द्रिय । छे भेद. पृथ्वीकाय अपकाय तेउकाय वायुकाय वनस्पतिकाय प्रसकाय । सात भेद नारको तीर्यच तीर्यचणी मनुष्य मनुष्यणी देवता देवी। आठ भेद च्यार गतिके पर्याप्ता अपर्याप्ता। नौभेद पांच स्थावर च्यार स । दश भेद पांच इन्द्रियों के पर्याप्ता अपर्याप्ता। इग्यारो भेद पांचेन्द्रियके पर्याप्ता अपर्याप्ता एवं १० और अनेन्द्रिय । बारहा भेद छे कायाके पर्याप्ता अपर्याप्ता। तेरहा भेद छे कायाके पर्याप्ता अपर्याप्ता ते. रहवा अकाया. जीवोंके चौदा भेद सूक्ष्मएकेन्द्रिय बादरएकेन्द्रिय बेइन्द्रिय तेन्द्रिय चोरिन्द्रय असंज्ञीपांचेन्द्रिय संज्ञीपांचेन्द्रिय एवं सातोंके पर्याप्ता अपर्याप्ता मीलाके चौदा भेद जीवोंके समजना। विशेष ज्ञान होने के लिये संसारी जीवोंके ५६३ भेद बतलाते है जिस्मे संसारी जीवोंके मूल भेद पांच है यथा-(१) एकेन्द्रिय (२) बेइन्द्रिय ३) तेइन्द्रिय (४) चौरिन्द्रिय (५) पांचे. न्द्रिय । एकेन्द्रियके दो भेद है ( १ ) सूक्ष्म एकेन्द्रिय (२) बादर एकेन्द्रिय । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पांच प्रकारको है पृथ्वीकाय अपकाय तेउकाय वायुकाय वनस्पतिकाय यह पांचों सूक्ष्म स्थावर जीव, संपूर्ण लोकमें काजलकी कुंपलीके माफीक भरे हुवे हैं उन जीवों के शरीर इतना तो सूक्ष्म है कि छमस्योंकी दृष्टिगोचर नहीं होते है उनों को केवली भगवान अपने केवलज्ञान केवलदर्शनसे Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवतत्त्व. (८३) जानते देखते है. उनोंने ही फरमाया है कि सूक्ष्म नामकर्मके उदयसे उन जीवोंको सूक्ष्म शरीर मीला है वह जीव मारे हुवा नहीं मरते है, बाले हुवा नहीं बलते है, काटे हुवा नहीं कटते है अर्थात् अपने आयुष्य से ही जन्म-मरण करते है. उनोंका आयुष्य मात्र अंतरमुहुर्तका ही है जिस्में पूक्ष्म, पृथ्वी, अप, तेउ, वायुके अन्दर तो असंख्याते २ जीव है और सूक्ष्म वनस्पतिमें अनंते जीव है. इन पांचोंके पर्याप्ता अपर्याप्ता मीलानेसे दश भेद होते है। दुसरे बादर एकेन्द्रियके पांच भेद है यथा-पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय. वायुकाय, वनस्पतिकाय. जिस्में पृथ्वीकायके दो भेद है. (१) मृदुल ( कोमल ) (२) कठन. जिस्में कोमल पृथ्वीकायके सात भेद है. काली मट्टी, नीली मट्टी, लाल मड़ी, पीली मट्टी, सुपेद मट्टी, पाणीके नीचे तली जमी हुइ मट्टी उसे 'पणग' कहते है. पांडु गोपीचन्दनादि। (२ खरपृथ्वीके अनेक भेद है यथा-मट्टी खानकी, चीकणी मट्टी, छोटे कांकरा, वालुका रेती, पाषाण, शीला, लुण ( अनेक जातीका होते है ) धूलसे मीले हुवे धातु-लोहा, तांबा, तरुवा, सिसा, रुपा, सुवर्ण, बज्र, हरताल, हिंगलु, मणशील, परवाल, पारो, वनक, पवल, भोडल, अबरक, बज्ररत्न, मणिगोमेदरत्न, * श्री सूत्रकृतांगमें कहा है कि अवापरी हुइ धूल च्यार अंगुल निचे सचित्त है. राजमार्गमें पांच अंगुल निचे सचित्त है. सरी ( गली ) में सात अंगुल निच. गृहभूमिमें दश अंगुल निचे.. मलमूत्रभूमिकामें पंदरा अंगुल निचे. चौपद जानवरों रहनेकी भूमिमे ३१ अंगुल निचे. चूल्हाके स्थान ३२ अंगुल निचे. कुम्भकारके निम्बाडांक ३६ अंगुल निचे. इंट केलवके पचाने के स्थान निचे १२० अंगुल निचे भूमिका सचित्त रहती है। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८४) शीघ्रबोध भाग २ जो. रुचकरन, अंकरत्न, स्फटिकरत्न, लोहीताक्ष, मरकतरत्न, मशारगलरत्न, भुजमोचकरत्न, इन्द्रनिलरत्न, चन्दनारत्न, गौरीकरत्न, हंसगर्भरत्न, पुलाकरत्न, सौगन्धीरत्न, अरष्टरत्न, लीलम, पीरोजीया, लसणीयारत्न, वैडूर्यरत्न, चन्द्रप्रभामणि, कृष्णमणि, सूर्यप्रभामणि जलकांतमणि इत्यादि जिसका स्वभाव कठन है जिनकी सात लक्ष योनि है. इनोंके दो भेद है, पर्याप्ता अपर्याप्ता जो अपर्याप्ता है वह असमर्थ है जो पर्याप्ता है वह समर्थ है वर्ण गन्ध रस स्पर्श कर संयुक्त है ( जहां एक पर्याप्ता है वहां निश्चय असंख्या अपर्याप्ता होते है एक चिरमी जीतनी पृथ्वीका. यमें असंख्य जीव होते है वह अगर एक महुर्तमें भव करे तो उत्कृष्ट १२८२४ भव करते है। बादर अपकायके अनेक भेद है ओसका पाणी धूमसका पाणी कचेगडोकापाणी, आकाशकापाणी, समुद्रोंकापाणी, खारापाणो, खट्टापाणी घृतसमुद्रकापाणो खीरसमुद्रकापाणी इक्षुसमुद्रका पाणी लवणसमुद्रकापाणी कुँवे तलाव द्रह वावी आदि अनेक प्रकारका पाणी तथा सदैव तमस्काय वर्षती है इत्यादि इनोंके दो भेद है पर्याप्ता अपर्याप्ता जो अपर्याप्ता हे वहअसमय है जो पर्याप्ता है वह वर्णगन्धरस स्पर्श कर संयुक्त है एक पर्याप्ताकि नेश्राय निश्चय असंख्याते अपर्याप्ता जीव उत्पन्न होते है एक बुंदमें असं. ख्याते है वह एक महुतमें उत्कृष्ट १२८२४ भव करते है सात लक्ष योनि है। बादर तेउकायके अनेक भेद है इंगाला मुमरा ज्वाला अं. गारा भोभर उल्कापात विद्युत्पात वडवानलाग्नि काष्टाग्नि पाषाणाग्नि इत्यादि अनेक भेद है जीनोंके दो भेद है पर्याप्ता अपर्याप्ता जो अपर्याप्ता है वह असमर्थ जो पर्याप्ता है वह वर्णगन्ध रस. Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवतत्त्व. (८५) स्पर्श कर संयुक्त है एक पर्याप्ताकि नेश्राय असंख्याते अपर्याप्ता उत्पन्न होते है एक तुणगीयामें असंख्य जीव है सातलक्ष योनि है एक महुर्तमें उत्कृष्ट १२८२४ भव करते है। बादर वायुकाय के अनेक भेद है । पूर्ववायु पश्चिमवायु दक्षिणवायु उत्तरायु उर्ववायु अधोवायु विदिशीवायु उत्कलिक वायु मंडलीयावायु मंदवायु उदंडवायु द्विपवायु समुद्रवायु इत्यादि जिनोंका दो भेद है पर्याप्ता अपर्याप्ता जो अपर्याप्ता है यह असमर्थ है जो पर्याप्ता है वह वर्णगन्धरस स्पर्श कर संयुक्त पर्याप्ताकि निश्राय निश्चय असंख्याते अपर्याप्ता जीव उत्पन्न होते है एक झबुकडे में असंख्य जीव होते है वह एक महुर्तमें उत्कृष्टभव करे तो १२८२४ भव करते है । सात लक्ष जाति है। बादर वनस्पतिकायके दो भेद है (१) प्रत्येक शरीरी (२) साधारण शरीरी जिस्मे प्रत्येक शरीरी (जिस शरीरमें एकही जीव हो ) के बारहा भेद है वृक्ष, गुच्छा, गुम्मा, लता, वेल्ली, इक्षु, तृण, बलय, हरिय, औषधि, जलरुख, कुहणा-जिस्मे वृक्षके दो भेद है। . (१) जिस वृक्षके फलमें एक गुठली हों उसे एग्गठीये कहते है और जिस वृक्षके फलमें बहुतसे गुठलीयो (बीज) होते हो उसे बहुवीजा कहते है। जेसे एक गुटलीवालोंके नामयथा-निबंब जांबुवृक्ष कोशंबवृक्ष शालवृक्ष आम्रवृक्ष निंबवृक्ष नलयेरवृक्ष केवलवृक्ष पैतुवृक्ष शेतुवृक्ष इत्यादि और भी जिस वृक्षके फलमें एक बोज हो वह सब इसके अन्दर समजना. जिस्के मूलमें असंख्य जीव कन्दमें स्कन्ध साखामे, परवालमें असंख्य जीव है पत्रों में 'प्रत्येक जीव है पृष्पों में अनेक जीव और फलमें एक जीव होते है। बहु बीन वृक्षके नाम-तंदुकवृक्ष आस्तिकावृक्ष कविटवृक्ष Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८६) शीघ्रबोध भाग २ जो. अबाडग वृक्ष, दाडिम, उम्बर वडनदी वृक्ष, पीपरी जंगाली मिथावृक्ष दालीवृक्ष कादालीवृक्ष इत्यादि ओरभी जिस वृक्षके फलमे अनेक बीज हो वह सब इनके सामिल समझना चाहिये जिस्के मुल कन्द स्कन्ध साख परवालमें असंख्यात जीव है पत्रोंमे प्रत्येक जीव पुष्पोंमे अनेक जीव फलमें बहुत जीव है। (२) गुच्छा-अनेक प्रकारके होते है |गण सल्लाइ थुडसी जिमुणीके लच्छाइके मलानीके सादाइके इत्यादि (३) गुम्मा-अनेक प्रकार के होते है जाइ जुइ मोगरा मा. लता नौमालती वसन्ती माथुली काथुली नगराइ पोद्दिना इत्यादि। (४) लता-अनेक प्रकारकी होती है पद्मलता वसन्तलता नागलता अशोकलता चम्पकलता चुमनलता पैणलता आइमुक्त. लता कुन्दलत्तर श्यामलता इत्यादि । (५) वेल्लीके अनेक भेद है तुबीकीवेल्ली तीसंडी, तिउसी, पुंसफली, कालंगी, एल, वालुकी, नागरवेल्ली घोसाडाइ (तोरू) इत्यादि। (६) इक्षुके अनेक भेद है इक्षु इक्षुवाडी वारूणी कालइक्षु पुडइक्षु बरडइनु एकडइक्षु इत्यादि । (७) तृणके अनेक भेद है साडीयातृण मोतीयातृण होती. यातृण धोब कुशतृण अर्जुनतृण आसाढतृण इकडतृण इत्यादि. (८) बलहके अनेक भेद ताल तमाल तेकली तम्र तेतली शाली एरंड कुरुबन्ध जगाम लोण इत्यादि। (९) हरियाके अनेक भेद है अजरूवा कृष्णहरिय तुलसी संदुल दगपीपली सीभेटका सराली इत्यादि। .. Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवतत्त्व. (८७) (१०) औषधिके अनेक भेद-शाली व्याली ब्रही गोधम नव जवाजव ज्वारकल मशुर विल मुंग उडद नफा कुलत्थ कागथु आलिंस दूस तीणपली मंथा आयंसी कसुंब कोदर कंगू रालग मास कोद्दसासण सरिसव मूल बीज इत्यादि अनेक प्रकारके धान्य होते हैं वह सब इन औषधिके अन्दर गीने जाते है। (११) जलरूहा-उत्पलकमल पद्मकमल कौमुदिकमल निलनिकमल शुभकमल सौगन्धीकमल पुंडरिककमल महापुंडरिककमल अरिबिन्दकमल शतपत्रकमल सहस्रपत्र कमल इत्यादि । (१२) कुहुणका अनेक प्रकारके है आत कात पात सिघोटीक कच कनड इत्यादि यह वनस्पति मीजलके अन्दर होती है। इन बारह प्रकारकि प्रत्येक वनस्पतिकायपर दृष्टान्त जेसे सरसवका समुह एकत्र होने से एक लडु बनता है परन्तु उन सरसबके दाने सब अलग अलग अपने अपने स्वरूप में है इसी माफीक प्रत्येक वनस्पतिकायभी असंख्य जीवोंका समुह एकत्र होते है परन्तु एकेका जीवके अलग अलग शरीर अपना अपना भिन्न है जेसे अनेक तीलोंके समुह एकत्र हो तीलपापडी बनती है इसी माफीक एक फल पुष्पमें असंख्यजीव रहते है यह सब अपने अपने अलग अलग शरीर में रहते है जहांतक प्रत्येक वनास्पति हरि रहेती है वहांतक असंख्याते जोवोंके स. मूह एकत्र रहते है जब वह फल पुष्प पक जाते है तब उनोंके अन्दर एक जीव रह जाते है तथा उनके अन्दर बीज हो तो जीतने बीज उतनेही जीव ओर एक जीव फलका मूलगा रहता है इति। १ ईन धानोंके सिवाय भी केइ अडक धान्य होते हैं जैसे बाजरी मकाइ मार इत्यादि । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८) शीघ्रबोध भाग २ जो. (२) दुसरा साधारण धनास्पतिकाय है उनोंके अनेक भेद है मूला कान्दा लसण आदो अडषी रतालु पीडालु आलु सकरकन्द गाजर सुवर्णकन्द बज्रकन्द कृष्णकन्द मासफली मुगफली हल्दी कर्चुक नागरमोथ उगते अळूरे पांच वर्णकि निलण फूलण कचे कोमल फल पुष्प विगडे हुवे वासी अन्नमें पेदा हुइ दुर्गन्धमें अनन्तकाय है औरभी जमीनके अन्दर उत्पन्न होनेवाले वनास्पति सब अनंतकायमें मानी जाती है दृष्टान्त जेसा लोहाका गोला अग्निमें पचानेसे उन लोहाके सब प्रदेशमें अनि प्रदीप्त हो जाती है इसी माफीक साधारण घनास्पतिके सब अंगमें अनंते जीव होते है वह अनंते जीव साथहीमें पेदा होते है साथही में आहार ग्रहन करते है साथही में मरते है अ. र्थात् उन अनंते जीवोंका एक ही शरीर होते है उने साधारण वनास्पतिकाय या बादर निगोदभी कहते है। वनास्पतिकायके च्यार भांगे बतलाये जाते है । (१) प्रत्येक वनास्पतिकायके निश्रायमें प्रत्येक बनास्पति उत्पन्न होती है जेसे वृक्षके साखावों । (२) प्रत्येक घनास्पतिकि निश्रायमे साधारण वनाएतिकाय उत्पन्न होती है कचे फल पुष्पोंके अन्दर कोमलतामें अनंते जीव पेदा होना। (३) साधारण वनास्पतिकि निश्राय प्रत्येक घनास्पति उत्पन्न होना जेसे मूलोंके पत्ते, कान्दोंके पत्ते इत्यादि उन पतोंमें प्रत्येक वनस्पति रहती है (४) साधारणकि निश्राय साधारण वनस्पति उत्पन्न होती है जेसे कान्दा मूळा । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवतत्त्व. (८९) इन साधारण ओर प्रत्येक वनस्पतिकों छदमस्थ मनुष्य केसे पेच्छान सके इस वास्ते दृष्टान्त बतलाते है. ___ जीस मूल कन्द स्कन्ध साखा प्रतिसाखा त्वचा प्रवाल पत्र पुष्पफल और बीजकों तोडतें बखत अन्दरसे चिकणास निकले तुटतों सम तुटे उपरकि त्वचा गीरदार हो वह वनस्पति सा. धारण अनंतकाय समजना ओर तुटतों विषम तुटे त्वचा पातली हों अन्दरसे चिकणास न हो उन वनस्पतिकायकों प्रत्येक समझना सीघोडे कचे होते है उनोंमें संख्याते असंख्याते ओर अनन्ते जीव रहते है इन प्रत्येक और साधारण वनस्पति कायके दो दो भेद है (१) पर्याप्ता (२) अपर्याप्ता एवं बादर एकेन्द्रियका १२ भेद समजना । इति एकेन्द्रियके २२ भेद है (२) बेइन्द्रियके अनेक भेद है । लट गीडोले कीडे कृमिये कुक्षीकृमि ये पुरा । जलोख लेवों खापरीयो इली रसचलोत अन्न पाणी में रसइये जीव. वा शंख शीप, कोडी चनणा वंसीमुखा सूचीमुखा वाला अलासीया भूनाग अक्ष लालीये जीव ठंडीरोटी विगेरेमें उत्पन्न होते है इनके सिवाय जीभ ओर त्वचावाले जीतने नीव होते है वह सब बेइन्द्रियकि गीनतोमें है। (३) तेइन्द्रिय के अनेक भेद है-उपपातिका रोहणीया चांचड माकड कीडी मकोडे डंस मंस उदाइ उकाली कष्टहारा पत्राहारा पुष्पाहारा फलाहारा तृणब्रिटीत पुष्प० फल० पत्रविटित जू. लिख. कानखोजुर इली घृतेलीका जो घृतमे पेदा होती है चर्म जु. गौकीटक जो पशुवोंके कानोंमे पेदा होते है । गर्दभ गौशालामै पेदा होते है. गौकीडे गोबरमे पेदा होते है। धान्य. कीडे कुंथु इलीका इन्द्रगोप चतुर्मासामे पेदा होते है. इत्यादि जीसके तीन इन्द्रिय शरीर जीभ नाक हो । वह तेइन्द्रिय है। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९०) शीघबोध भाग २ जो. (४) चोरिन्द्रिय के अनेक भेद है अंधिका पत्तिका मक्खी मत्सर कीडे तीड पतंगीये विच्छु जलविच्छु कृष्णविच्छु श्यामपत्तिका यावत् श्वेत पत्तिका भ्रमर चित्रपक्खा विचित्रपक्खा जलचारा गोमयकोडा भमरी मधु मक्षिका-टाटीया डंस मंसगा कींसारी मेलक दंभक इत्यादि जीस जीवोंके शरीर जीभ नाक नेत्र होते है यह सब चोरिन्द्रियको गीणतीमें समजना. इन तीन वैकलेन्द्रियके पर्याप्ता अपर्याप्ता मिलानेसे ६ भेद होते है। (५) पांचेन्द्रिय जीवोंके च्यार भेद है नारकी, तीर्यच, मनुष्य, देवता, जिस्मे नारकीके सात भेद है यथा गम्मा वंसा शीला अजना रिठा मघा माघवती-सात नरकके गौत्र. रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पङ्कप्रभा, घूमप्रभा, तमःप्रभा तमस्तमःप्रभा इन सातो नरकके पर्याप्ता अपर्याता मीलानेसे चौदे भेद होते है। (२) तीर्यच पांचेन्द्रियके पांच भेद है यथा-जलचर, स्थलचर, खेचर, उरपुरिसर्प भुजपुरिसर्प. जिस्मे जलचरके पांच भेद है मच्छ कच्छ मगरा गाहा और सुसमारा। (१) मच्छके अनेक भेद है यथा-सन्हमच्छा युगमच्छा विद्यत्मच्छा हलीमच्छा नागरमच्छा रोहणीयामच्छा तंदुलमच्छा कनकमच्छा शालीमच्छा पत्तंगमच्छा इत्यादि (२) कच्छक दो भेद है (१) अस्थि हाडवाले कच्छ (२) मांसवाले कच्छ (३) गोहके अनेक भेद दीलीगोह बेडीगोह मुदीगोह तुलागोह सामागोह सबलागोह कोनागोह दुमोहीगोह इत्यादि (१) मगरा-मगरा सोडमगरा दलीत मगरा पालपमगरा नायकमगरा दलीपमगरा इत्यादि (५) सुसमारा एकही प्रकारका होते है वह आढाइ द्विपके बाहार होते है यह पांच प्रकारके जलचर जीव संज्ञी भी होते है ओर समुत्सम भी होते है जो संज्ञी होते Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवतत्त्व. (९१) है वह गर्भजस्त्रि पुरुष नपुंसक तीनों प्रकार के होते है ओर जो समुत्सम होते है वह एक नपुंसक ही होते है। (२) स्थलचरके च्यार भेद है यथा-एकखुरा दोखुरा गंडीपदा सन्हपदा जिस्मे एक खुरोका अनेक भेद है अश्व खर खचर इत्यादि दो खुरोक अनेक भेद है गौ भैस ऊंट बकरी रोज इत्यादि-गंडीपदाके भेद गज हस्ति गेंडा गोलड इत्यादि सन्ह पदके भेद सिंह-व्यात्र नाहार केशरीसिंह वन्दर मञ्जार इत्यादि इनोंके दो भेद है गर्भज और समुत्सम । (३) खेचरके च्यार भेद है यथा. रोमपक्खी चर्मपक्खी समुगपक्खी. वीततपक्खी-जिस्मे रोमपक्खी-ढंक पक्खी कंकपक्खी, वयासपक्खी. हंसपक्खी, राजहंसः कालहंस, क्रौंचपक्खी, सारसपक्खी, घायल० रात्रीराजा, मयूर पारेवा तोता मैना चीडी कंमेडी इत्यादि चर्मपक्खी चमचेड विगुल भारंड समुद्रवयस इत्यादि समुगपक्खी जीस्की पाक्खों हमेशां जुडी हुइ रहते है वितित पक्खी जोस्की पाखों हमेशां खुली हुइ रहती है इनों के भी दो भेद है गर्भज समुत्सम पूर्ववत् । (४) उरपरीसर्प के च्यार भेद है अहिसर्प अजगरसर्प मोहरगसर्प, अलसीयो. जिस्मे अहिसर्पके दो भेद है एक फण करे दुसरा फण नही करे. फण करे जिस्के अनेक भेद है आसीविष सर्प दृष्टिविषसर्प त्वचाविषसर्प उप्रविषसर्प भोगविषसर्प लालविषसर्प उश्वासविषसर्प निश्वासविषसर्प कृष्णासर्प सु. पेदसर्प इत्यादि जो फण न करे उनोंका अनेक भेद है-दोषीगा गोणसा चीतल पेणा लेणा होणसर्प पेलगसर्प इत्यादि । अजगर एकही प्रकारका होते है । मोहरग नामका सर्प अढाइद्विपके बाहार होते है उनोंकी अवगाहना उत्कृष्ट १००० योजनकी होती है। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९२) शीघ्रबोध भाग २ जो. अलसीया आढाइद्विपके पंदरा क्षेत्रमें ग्राम नगर सेड कषिट आदिके अन्दर तथा चक्रवर्त वासुदेवकी शैन्याके निचे जघन्य अंगुलके असंख्यात भाग उत्कृष्ट बारहा योजनका शरीर होता है जिनके शरीर में रक्त पाणी एसा तो जोरदार होते है कि उन पाणीसे वह बारहा योजनकी भूमिको थोथी बना देते है।। (५) भुजपरकेभी अनेक भेद है जेसे नाकुल कोल मूषा आदि - यह जलचर थलचर खेचर उरपुरसर्प भुजपुर सर्प पांच प्रकारके संज्ञी गर्भज मनवाले होते है और यहही पाचों प्रकार के तीर्यच असंज्ञी मन रहीत समुत्सम होते है जो गर्भज है वह खि पुरुष नपुंसक होते है ओर जो समुत्सम होते है वह मात्र नपुंसक होते है एवं १० भेद हुवे इन दशोंके पर्याप्ता ओर द. शोंके अपर्याप्ता मिलाकर तीर्यच पांचेन्द्रियके २० भेद होते है एकेन्द्रियके २२ विकलेन्द्रियके ६ ओर पांचेन्द्रियके २० सर्व मी. लाके तीर्यचके ४८ भेद होते है। (३) मनुष्यके दो भेद है (१) गर्भज मनुष्य (२) समु. त्सम मनुष्य-जिस्मे समुत्सम मनुष्य जो आढाइ दीप पंदरा क्षेत्र के कर्मभूमि १५ अकर्मभूमि ३० अन्तरदिपा ५६ एवं १०१ आति के मनुष्योंके निम्नलिखित चौदा स्थानमें आंगुलके असंख्याते भागकि अवगाहाना अन्तरमहुर्तका आयुष्यवाले अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव उत्पन्न होते है चौदा स्थानोंके नाम यथा टटी, पैशाब, प्रलेष्म, नाकके मेलमें, वमन (उलटी) पीत्त, रौद्र रसी (वीगडा रक्त) वीर्य, शुखे हुवे वीर्य फीरसे भीना-आला होनेसे, घि पुरुषके संयोगमें, मृत्यु मनुष्यके शरीर में, नगरके किचमे, सर्व असूची-लाल मैल थुक विगेरे तथा असूची स्थान इन चौदे स्थानोंमें अन्तरमहुर्त के बाद जीवोत्पत्ति होती है और गर्भज मनुष्यों के तीन भेद है कर्मभूमि, अकर्मभूमि, अन्तरदिप-जिस्में पहला Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवतत्त्व. (९३) अन्तरद्विप बतलाते है यथा यह जम्बुद्विप एक लक्ष योजनके विस्तारवाला है इनोंकी परिधि ३१६२२७।३।१२८॥१३॥-१-१-६।५ इतनी है इनों के बाहार दो लक्ष योजनके विस्तारवाला लवण समुद्र है । जम्बुद्विपके अन्दर जो चूल हेमवन्त नामका पर्वत है उनोंके दोनों तर्फ लवणसमुद्रमें पूर्व पश्चिम दोनो तर्फ दाढके आकार टापुवोंकी लेन आ गई है वह जम्बुद्विपकि जगतीसे लव. णसमुद्रमे ३०० योजन जानेपर पहला द्विपा आता है वह तीनसो योजनके विस्तारवाला है उन द्विपसे लवणसमुद्र में ४०० योजन जानेपर दुसरा द्विपा आता है वह ४०० यीजनके विस्तारवाला है यहभी ध्यानमें रखना चाहिये कि यह दुसरा द्विपा जम्बुद्विपकी जगतीसेभी ४०० योजनका है । दुसरा द्विपासे लवणसम. द्रमें पांचसो योजन तथा जगतीसेभी पांचसो योजन जावे तब तीसरा द्विपा आता है वह पांचसो यौजनके विस्तारवाला है उन तीसरा द्विपासे छेसो ६०० योजन लवणसमुद्र में जावे तथा जगतीसेभी ६०० योजन जावे तब चोथा द्विपा आवे वह ६०० योजनके विस्तारवाला है उन चोया द्विपासे ७०० योजन लवण समुद्रमे जावे तथा जगतोसे भी ७०० योजन जावे तब पांचवा द्विपा सातसों योजनके विस्तारवाला आता है उन पांचवा छिपासे ८०० योजन तथा जगतीसे ८०० योजन लवणसमुद्र में जावे तब छठा द्विपा आठसो योजनके विस्तारवाला आता है उन छठा द्विपासे ९०० योजन तथा जगतीसे ९०० योजन लवणसमद्र में जावे तब नौसो योजनके विस्तारवाला सातवा द्विपा आता है इसी माफीक सात टापुपर सात द्विपोंकी लेन दुसरी तर्फभा समजना. एवं दो लेन में चौदा द्विपा हुवे इसी माफीक पश्चिमके लवणसमुद्र मेंभी १४ द्विपा है दोनों मिलाके २८ द्विप हुवे उन अठाविस द्विपोंके नाम इसी माफीक है। एकरूयद्विप, Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९४) शीघ्रबोध भाग २ जा. आहासिय. वेसाणिय, नागल, हयकन्न, गयकन्न, गोंकान व्याकुलकन्न, अयंसमुहा. मेघमुहा, असमुहा, गोमुहा, आसमुहा, हत्थिमुहा, सिंहमुहा, पाग्धमुहा, आसकन्ना, हरिकन्ना, अकन्ना, कन्नपाउरणा, उक्कामुह, मेहमुहा, विज्जुमुहा, विजुदान्ता, घणदान्ता, लट्टदान्ता, गुढदान्ता, शुद्धदान्ता एवं २८ द्विपचुल हैमवन्त पर्बतकि निश्राय है इसी माफीक २८ द्विप इसी नामके सीखरी पर्वतकी निश्राय समजना एवं ५६ द्विपा है उन प्रत्येक द्विपमे युगल मनुष्य निवास करते हैं उनका शरीर आठलो धनुष्यका है पल्योपमके असंख्यातमें भागकी स्थिति है. दश प्रकारके कल्पवृक्ष उनकी मनोकामना पुरण करते हैं जहांपर असी मसी कसी राजा राणी चाकर ठाकुर कुच्छ भी नहीं ह. देखो छे आरोंके थोकडेसे विस्तार इति । अकर्मभूमियोंके ३० भेद है. पांच देवकुरु, पांच उत्तरकुरु, पांच हरिवास, पांच रम्यक्वास, पांच हेमवय, पांच परणवय एवं ३० जिसमें एक देवकुरु, एक उत्तरकुरु, एक रम्यक्वास, एक हरीवास, एक हेमवय. एक एरणवय एवं ६ क्षेत्र जम्बुद्विपमे. छेसे दुगुणा बारहा क्षेत्र धातकीखंड में बारहा क्षेत्र पुष्कराई द्विप में एवं ३० भेद. वह अकर्मभूमिमें मनुष्ययुगल है वहां भी असी मसी कसी आदि कर्म नहीं है. उनोंके भी दश प्रकारके कल्पवृक्ष मनोकामना पुरण करते है ( छे आराधिकारसे देखो) कर्मभूमि मनुष्योंके पंदरा भेद है. पांच भरतक्षेत्रके मनुष्य, पांच ऐरवत, पांच महाविदेह. जिसमें एक भरत, एक ऐरवत, एक महाविदेह एवं तीन क्षेत्र जम्बुद्विपमें तीनसे दुगुणा छे क्षेत्र घातकीखंड द्विपमें है. छे क्षेत्र पुष्करार्द्ध द्विपमें है. कर्मभूमि जहांपर राजा राणी चाकर ठाकुर साधु साध्वी तथा असी मसी कसी आदिसे वैणज वैपार कर आजीविका करते हो, उसे कर्मभूमि Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवतत्त्व. (९५) कहते है. यहांपर भरतक्षेत्रके मनुष्योंका विशेष वर्णन करते है. मनुष्य दो प्रकारके है (१ ) आर्य मनुष्य, (२) अनार्य मनुष्य. जिस्में अनार्य मनुष्योंके अनेक भेद है. जेसे शकदेशके मनुष्य, बबरदेशके, पवनदेशके, संबरदेशके, चिलतदेशके, पीकदेशके, पावालदेशके, गीरंददेशके, पुलाकदेशके, पारसदेशके इत्यादि जिन मनुष्योंकी भाषा अनार्य व्यवहार अनार्य, आचार अनार्य, खानपान अनार्य, कर्म अनार्य है इस वास्ते उनोंको अनार्य कहा जाते हैं उनोंके ३१९७४॥ देश है। आर्य मनुष्योंके दो भेद है (१) ऋद्धिमन्ता, (२) अनभृद्धिमन्ता. जिसमें ऋद्धिमन्ते आर्य मनुष्यों के छे भेद है. तीर्थकर, चक्रवर्ति, बलदेव, वासुदेव, विद्याधर और चारणमुनि । ___अनऋद्धिमन्ता मनुष्यों के नौ भेद है. क्षेत्राय, जातिआर्य, कुलआर्य, कार्य, शिल्पार्य, भाषार्थ, ज्ञानार्य, दर्शनाय, चारिचार्य. जिस्म क्षेत्र आर्यके साढापचवील क्षेत्रआर्थ माने जाते है. उनके नाम इस माफिक है. मागधदेश राजगृहनगर, अंगदेश चम्पानगरी, बंगदेश तामलीपुरी, कोलंगदेश कंचनपुर, काशी. देश बनारसी, कोशल देश संकेतपुर, कुरुदेश गजपुर, कुशावर्त सोरीपुर, पंचालदेश कपिलपुर. जंगलदेश ( मारवाड) अहिछता, सोरठदेश द्वारामति, विदेहदेश मिथिला, वच्छदेश कोसुंबी, सडिलदेश नंदिपुर. मलीयादेश भद्दलपुर, वत्सदेश वैराटपुर, वरणदेश अच्छापुर दशार्गदेश मृतकावती, चेदीदेश शक्तावती, सिन्दुदेश वीनवयपट्टण, सूरशैनदेश मथुरा, भङ्गदेश पावापुरी, पुरिवर्तदेश सुममापुर, कुनाला सावत्थी, लाढदेश कोटीवर्ष, कैका नामका अईदेश प्रवेताम्बिकानगरी इति। इन आर्यदेशोंका लक्षण जहा कर, चक्रवत्ति, वासुदेव, बलदेव, प्रतिवासुदेव आदिक जमाने ह तीर्थंकरोंके पंचकल्याञ्चक होते हैं, Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९६) शीघ्रबोध भाग २ जो. जहांपर भाषा, आचार, व्यवहार, वैपारादि आर्यकर्म होते है ऋतु समफल देवे उनीकों आर्यदेश कहते है। .. ___ आर्यजातिके छ भेद है. यथा-अम्बष्टजाति, किलंदजाति, विदेहजाति, वेदांगजाति, हरितजाति, चुचणरुपाजाति. उन जमाने में यह जातियों उत्तम गीनी जाती थी। __कुलार्यके छे भेद है. उग्रकुल, भोगकुल, राजनकुल, इक्षाककुल, ज्ञातकुल, कोरवकुल. इन छे कुलोसे केइ कुल निकले है, इन कुलोको उत्तम कुल माने गये थे। कर्मआय-वैपार करना. जैसे कपडाका वैपार, रुईका वैपार, सुतके वैपार, सोनाचान्दीके दागीनेका वैपार, कांसी पीतलके वरतनोंके वैपार, उत्तम जातिके क्रियाणाके वैपार. अर्थात् जिस्में पंदरा कर्मादान न हो, पांचेन्द्रियादि जीवोंका बध न हो उसे कर्मआर्य कहते है। शिल्पार्य-जैसे तुनारकी कला. तंतुवय याने कपडे बनानेकी कला, काष्ट कोरनेकी, चित्र करनेकी, सोनाचन्दी घडनेकी मुंजकला, दान्तकला, संखकला, पत्थर चित्रकला, पत्थर कोरणी कला, रांगनकला, कोष्टागार निपजाने की कला, गुंथणकला, बन्धगलबन्धन कला, पाक पकाबनेकी कला इत्यादि. यह आर्यभूमिकी आये कलावों है। भाषार्य-जो अर्ध मागधी भाषा है, वह आर्य भाषा है. इनके सिवाय भाषाके लिये अठारा जातिकी लीपी है वह भी आर्य है। . ज्ञानार्य के पांच भेद है. मतिज्ञान, श्रुतिज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान, केवलज्ञान. इन पांचों ज्ञानोंको आर्य ज्ञान कहते है। ____ दर्शनार्य के दो भेद है. (१) सराग दर्शनार्य, (२) वीतराग दर्शनार्य. जिसमें सराग दर्शनार्य के दश भेद है। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवतत्त्व. (९७) (१) निसर्गरुची-जातिस्मरणादि ज्ञानसे दर्शनरुची। (२) उपदेशरुची-गुरवादिके उपदेशसे , (३) आज्ञारुची-वीतरागदेवकी आज्ञासे , (४) सूत्ररुची-सूत्र सिद्धान्त श्रवण करनेसे , (५) बीजरुची-बीजको माफिक एक से अनेक ज्ञान, दर्शनरुची। (६) अभिगमरुची-द्वादशांगी जानने से विशेष (७) विस्ताररुची-धर्मास्ति आदि पदार्थ से (८) क्रियारुची-वीतरागके बताइ हुइ क्रिया करनेसे , (९) धर्मरुची-वस्तुस्वभावके ओलखनेसे (१०) संक्षेपरची-अन्य मत ग्रहन न किये हुवे भद्रिक जीवोंको, दुसरा वीतराग दर्शनार्य के दो भेद है. (१) उपशान्त कषाय, (२) क्षीण कषाय. इत्यादि संयोगी अयोगी केवली तक कहना। (९) चारित्रार्यके पांच भेद है. सामायिक चारित्र, छेदो. पस्यापनीय चारित्र, परिहार विशुद्ध चारित्र, सूक्ष्मसंपराय चारित्र, यथाख्यात चारित्र इति. आर्य मनुष्य इति मनुष्य । (४) देव पांचेन्द्रियके च्यार भेद यथा-भुवनपति, वाणव्यंतर ज्योतिषी. वैमानिक । जिम्मे भुवनपतियोंके दश भेद है। असुरकुमार, नागकुमार, सुवर्णकुमार, विद्युत्कुमार अग्निकुमार दिपकुमार. दिशाकुमार, उदधिकुमार, पवनकुमार, स्तनित्कु. मार । पंदरा परमाधामियों ( असुरकुमारकी जातिमें ) के नाम. अम्ब्रे आम्ररसे शामे सबले ऋद्धे विरूद्धे काले महाकाले असीपत्ते धणु कम्भे वालु वैतरणि खरखरे महाघोषे । शोलहा बाणव्यंतरीके नाम. पिशाच भूत यक्ष राक्षस किन्नर किंपुरुष मोहरग गन्धर्व आणपुन्ये पाण पुन्ये ऋषिभाइ भूतिभाइ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९८ ) शोध भाग २ जो. ऋण्डे महाकण्डे कोहंड पयंगदेवा, वाणव्यंत रोमें दश जातिके जंमृकदेवोंके नाम आणजं भूक प्राणजंक लेणजं भूक शेनजंभूक वखजे तक पुष्पजं भूक फलक पुष्पफलजंसक विद्युत्सूक अजिंक ज्योतिषीदेव पांच प्रकार के है. चन्द्र सूर्य, ग्रह नक्षत्र, तारा पांच स्थिर अढाइ द्विपके बाहार है जिनोंकि क्रान्ति अन्दर के ज्योतिषयोंसे आदि है सूर्य सूर्य के लक्ष योजन और सूर्य चन्द्रके पचास हजार योजना अन्तर है. आढाइ द्विपके बाहार जहांदिन है वहां दिनही है और जहां रात्री है वहां रात्रीही है और पांचों प्रकार के ज्योतिषी आढाइ द्विपके अन्दर है यह सब गमनागमन करते रहते है । चन्द्र सूर्य ग्रह नक्षत्र तारा । वैमानिक देवो के दो भेद है. (१) कल्प, (२) कल्पअतित. जो कल्प मानवासी देव है उनमें इन्द्र सामानिक आदि देवों काँ छोटा बढापणा है जिनोंके बारहा भेद है सौधर्मकल्प, इशान कल्प सनत्कुमार, महेन्द्र ब्रह्मदेवलोक लंतकदेवलोक महाशुक्रदेवलोक सहस्रादेवलोक अणत्देवलोक पणतदेवलोक अरणदेवलोक अच्युत देवर्लोक | जो तीन कल्विषीदेव है वह मनुष्यभवमें आचार्योपाध्याय के अवगुण बाद बोलके कल्विषीदेव होते है वहांपर अच्छे देव उनसे अद्भुत रखते है. अपने विमानमें आने नहो देते है अर्थात् बडा भारी तिरस्कार करते है जिनके तीन भेद है (२) तीन पल्योपमकि स्थितिवाले पहले दुसरे देवलोकके बाहार रहते है (२ तीन सागरोपमकी स्थितिवाले, तीजा चोधा देवलोक के बाहार रहते है (३) तेरह सागरोपमकी स्थितिवाले छठा देवलोकके बाहार रहते है. और पांचमा देवलोक के तीसरा रिष्ट नामके परतर में नौ लोकांतिकदेव रहते है उनका नाम Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवतत्त्व. (९९) सारस्वत आदित्य बिनय वारूण गन्धोतीये तुसीये अव्याबाद अगिचा और रिष्ट ॥ कल्पातित्त-जहां छोटे बडेका कायदा नही है अर्थात् जहां सबदेव 'अहमिदा' है उनों के दो भेद है ग्रीवग और अनुत्तर वैमान जिस्मे ग्रीवैगके नौ भेद है यथा-भद्दे सुभद्दे सुजाये सुमानसे सुदर्शने प्रीयदर्शने आमोय सुपडिबुद्धे और यशोधरे। अनु. तर वैमानके पांच भेद है. विजय विजयवन्त जयन्त अपराजित और सर्वार्थ सिद्ध वैमान इति १०-१५-१६-१०-१२-९-३-९-५ एवं ९९ प्रकोरके देवतोंके पर्याप्ता अपर्याप्ता करनेसे १९८ भेद देवतोंके होते है देवतोंके स्थान भुवनपतिदेवता अधोलोकमे रहते है घाणमित्र व्यंतर) ज्योतिषीदेव तो लोकमें और वमा. निकदेव उर्वलोकमें निवास करते है इति । उपर बतलाये हुवे ५६३ भेद जीवोंका संक्षेपमें निर्णय१४ नरक सातोंका पर्याप्ता अपर्याप्ता । ४८ तीर्यचके सूक्ष्म पृथ्वीकायके पर्याप्ता अपर्याप्ता बादर पृथ्वीकायके पर्याप्ता अपर्याप्ता एवं ४ भेद अपकायके चार भेद तेउकायके च्यार भेद वायुकायके च्यार भेद और वनास्पति जो सूक्षम साधारण प्रत्येक इन तीनों में पर्याप्ता अपर्याप्ता से छे भेद मीलाके २२ भेद. बे इन्द्रिय तेइन्द्रिय चोरिन्द्रिय इन तीनोंके पर्याप्ता अपर्याप्ता मीलाके ६ भेद. तीच पांचेन्द्रिके जलचर स्थलचर खेचर उरपुर भुजपुर यह पांच संज्ञी और पांच असंज्ञी मील दश भेद इनोंके पर्याप्ता अपर्याप्ता मीलके २० भेद होते है २२-६-२० सई ४८ भेद। ३०३ मनुष्य-क्रमभूमि १५ अकर्मभूमि ३० अन्तर दिपा ५६ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) शीघ्रबोध भाग २ जो. मोलाके १०१ भेद इनोंके पर्याप्ता अपर्याप्ता करनेसे २०२ एकसो.. एक मनुष्योंके चौदा स्थानमे समुत्सम जीव उत्पन्न होते है यह अपर्याप्ता होनेसे १०१ मोलाकेसर्व ३०३ देवतोंके दशभुवनपति १५ परमाधामी १६ बाणमित्र १० जम्मृक दश जोतीषी बारहा देवलोक तीन कल्विषी नौ लोकान्तिक नौ ग्रीवंग पांच अनुतर पैमान एवं ९९ इनोंके पर्याप्ता अपर्याप्ता मीलाके १९८ भेद हुये १४-४८-३०३-१९८ एवं जीव तरबके ५६३ भेद होते है इनके .. सिवाय अगर अलग अलग किया जावे तो अनंते जोवोंके अनंते भेदभी हो सकते है। इति जीव तत्व। (२) अजीवतस्वके जडलक्षण-चैतन्यता रहित पुन्यपापका अकर्ता सुख दुःखके अभक्ता पर्याय प्राण गुणस्थान रहित द्रव्यसे अजीव शाश्वता है भूत कालमें अजीव था वर्तमान कालमें अजीव है भविष्य में अजीव रहेगा तीनों कालमें अजीयका जीव होवे नही. द्रव्यसे अजीवद्रव्य अनंते है क्षेत्रसे अजीवद्रव्य लोकालाक व्यापक है कालसे अजीवद्रव्य अनादि अनंत है भावसे अगुरु लघुपर्याय संयुक्त है. नाम निक्षेपासे अजीव नाम है स्थापना निक्षेपा अजीव एसे अक्षर तथा अजीवकि स्थापना करना. द्रव्य से अजीव अपना गुणोको काममें नही ले. भावसे अजीव अपना गुणोको अन्य के काम में आवे जेसे कीसीके पास एक लकडी है जबतक उन मनुष्यके वह लकडी काममें न आती हो तबतक उन मनुष्य कि अपेक्षा वह लकडी द्रव्य है और वह ही लकडीं उन मनुष्यके काममें आति है तब यह लकडी भाष गीनी जाती है. अजीवतत्वके दो भेद है (१) रूपी ( २ ) अरूपी जिस्मे अरूपी अजीवके ३० भेद है यथा-धर्मास्तिकायके तीन भेद है.' धर्मास्तिकाय के स्कन्ध, देश, प्रदेश. अधर्मास्तिकायके स्कन्ध, Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनीवतत्त्व. (१०१) देश, प्रदेश. आकाशास्तिकायके स्कन्ध, देश, प्रदेश. एवं ९ भेद और एक कालका समय गीननेसे दश भेद हुवे.धर्मास्तिकाय पांच बोलोंसे जानी जाती है द्रव्यसे एक द्रव्य. क्षेत्रसे लोकव्यापक कालसे आदि अन्त रहित भावसे अरूपी जिस्मे वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श नही है गुणसे चलन गुण. जेसे पाणीके आधारसे मच्छी चलती है इसी माफीक धर्मास्तिकायके आधारसे जीवाजीव गमनागमन करते है। अधर्मास्तिकाय पांच बोलोसे जानी जाती है द्रव्य से एक द्रव्य. क्षेत्रसे लोकव्यापक कालसे आदि अन्त रहित भावसे अरूपी वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श रहित, गुणसे-स्थिरगुण जैसे श्रम पाये हए पुरुषोंकों वृक्षकी छांयाका दृष्टान्त । आकाशा. स्तिकाय पांच बोलोंसे जानी जाती है । द्रव्यसे एक द्रव्य, क्षेत्रसे लोकालोक व्यापक, कालसे आदि अन्त रहित भा. बसे अरुपी वर्ण गन्ध रस स्पर्श रहित गुणसे आकाशमें विकासका गुण भीतमें खुटी तथा पाणीमें पतासाका दृष्टान्त । कालद्रव्य पांच बोलोसे जाने जाते है द्रव्यसे अनंत द्रव्य कारण काल अनंते जीत्र पुद्गलोंकि स्थितिको पुरण करता है इस वास्ते अनंत द्रव्य माना गया है क्षेत्रसे आढाइ द्विप परिमाणे कारण चन्द्र, सूर्यका गमनागमन आढाइद्विपमें ही है समयावलिक आदि कालका मान ही आढाइद्विपसे ही गीना जाते है. कालसे आदि अन्त रहित है भावसे अरूपी. वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श रहित है गुणसे नवी वस्तुकों पुराणी करे और पुराणी वस्तुकों क्षय करे जेसे कपडा कतरणीका दृष्टान्त एवं ३-३-३-१-५-५-५-२ सर्व मील अरूपी अजीवके ३० भेद हुवे. - रूपी अजीवतत्यके ५३० भेद है निश्चयनयसे तो सर्व पुद्गल परमाणु है व्यवहारनय से पुद्गलों के अनेक भेद है जेसे दो प्रदेशी Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०२) शीघ्रबोध भाग २ जो. स्कन्ध, तीन प्रदेशी स्कन्ध एवं च्यार पांच यावत् दश प्रदेशी स्कन्ध संख्यात प्रदेशी स्कंध, असंख्यात प्रदेशी. स्कंध. अनंत प्रदेशी स्कन्ध कहे जाते है. निश्चयनयसे परमाणु जीस वर्णका होते है वह उसी वर्णपणे रहते है कारण वस्तुधर्मका नाश कीसी प्रकारसे नही होता है व्यवहारनयसे परमाणुवोंका परावर्तन भी होते है व्यवहारनयसे एक पदार्थ एक वर्णका कहा जाता है जसे कोयल श्याम, तोताहरा, मांमलीया लाल, हल्दी पीली, हंस सुपेद परन्तु निश्चयनयसे इन सब पदार्थी में वर्णादि वीसों बोल पाते है कारण पदार्थकि व्याख्या करनेमें गौणता और मुख्यता अवश्य रहेती है जेसे कोयलकों श्याकवर्णी कही जाती है वह मुख्यता पेक्षासे कहा जाता है परन्तु गौणतापेक्षासे उनोंके अन्दर पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस, आठ स्पर्श भी मीलते है इसी अपेक्षानुसार पुद्गलोंके ५३० भेद कहते है यथा पुद्गल पांच प्रकारसे प्रणमते है (१) वर्णपणे (२) गन्धपणे (३) रसपणे (४) स्पर्शपणे (५) संस्थानपणे इनोंके उत्तर भेद २५ है जेसे वर्ण श्याम हरा, रक्त (लाल , पीला, सुपेद. गन्ध दो प्रकार सुर्भिगन्ध, दुर्भिगन्ध, रस-तिक्त, कटुक, कषायन, अम्बील, मधुर, स्पर्श, कर्कश, मृदुल, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध, रुक्ष. संस्थानपरिमंडल (चुडीके आकार ) वट ( गोल लडंके आकार ) तंस (तीखुणासीघोडेके आकार ) चौरस-चोकीके आकार, आयत. रन ( लंबा बांसके आकार ) एवं ५-२-५-८-५ मीलाके २५ भेद होते है। कालावर्णकि पृच्छा शेष च्यार वर्ण प्रतिपक्षी रखके शेष कालावर्णमें दो गन्ध, पांच रम, आठ स्पर्श, पांच संस्थान एवं २० बोल मोलते है इसी माफीक हरावर्णकि पृच्छा शेष च्यार वर्ण Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजीवतत्त्व. (१०३) प्रतिपक्षी है उन हरावर्ण में दो गन्ध, पांच रस, आठ स्पर्श, पांच संस्थान एवं वीस बोल पावे इसी माफीक लालवर्णम २० बोल पीला वर्णमें २० बोल श्वेतवर्णमें २० बोल. कुल पांचो वर्णों के १०० बोल होते है।सुभि गन्धकि पृच्छा दुर्भिगन्ध रहा प्रतिपक्षी जिस्मे बोल पांच वर्ष पांच रस, आठ स्पर्श, पांच संस्थान एवं २३ बोल पावे इसीमाफीक दुर्भिगन्धमें भी २३ बोल पावे एवं गन्धके ४६ बोल रस तिक्त रसकि पृच्छा च्यार रस प्रतिपक्षी जीस्मे बोल पांच वर्ण, दो गन्ध, आठ स्पर्श.पांच संस्थान एवं २० एवं कटुकमें २०कषायलेमे२० आम्बिलमें २० मधुरमें २० सब मीलानेसे रसके १०० बोल होते है। कर्कशस्पर्श कि पृच्छा मृदुलस्पर्श प्रतिपक्षी शेष बोल पांचवर्ण दोगन्ध पांच रस छे स्पर्श पांच संस्थान एवं बोल २३ पावे एवं मृदुल स्पर्शमें भी २३ बोल पावे एवं गुरु स्पर्श कि पृच्छा लघु प्रतिपक्ष बील २३ पावे एवं लघु २३ शीतकि पृच्छा उष्ण प्रतिपक्ष बोल २३ एवं उष्णमें २३ बोल स्निग्ध कि पृच्छा ऋक्ष प्रतिपक्ष बोल पावे २३ इसी माफीक ऋक्ष स्पर्श में भी २३ बोल पावे. परिमण्डल संस्थान की पृच्छ च्यार संस्थान प्रति पक्ष बोल पावे पांच वर्ण दोगन्ध पांच रस आठ स्पर्श एवं २० बोल. इसी माफीक वट संस्थानमें २० तंस संस्थानमें २० चौरंस संस्थानमें २० आयतान संस्थान में २० । कुल बोल वर्ण के १०० गन्धके ४६ रसके १०० स्पर्शके १८४ संस्थानके १०० सर्व मीलके ५३० बोल और पहले अरूपीके ३० बोल एवं अजीव तत्वके ५६० भेद होते है इनके सिवाय अजीव द्रव्य अनंते है उनोंके अनंते भेद . भी होते है इति अजीवतत्व । (३) पुन्य तायके शुभ लक्षण है पुन्य दुःख पूर्वक बन्धे जाते Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०४ ) शीघ्रबोध भाग २ जो. है और सुखपूर्वक भोगयीये जाते है जब जीवके पुन्य उदय रस विपाक में आते है तब अनेक प्रकारसे इष्टपदार्थ सामग्री प्राप्त होती है उनके जरिये देवादिके पोद्गलिक सुखोका अनुभव करते है परन्तु मोक्षार्थी पुरुषों के लिये वह पुन्य भी सुवर्ण कि बेडी तुल्य है यद्यपि जीवको उच्च स्थान प्राप्त होनेमे पुन्य अवश्य सहायताभूत है जेसे कोसी पुरुषको समुद्र पार जाना है तो नौका कि आवश्यक्ता जरुर होती है इसी माफीक मोक्ष जानेवालों को पुन्यरूपी नौकाकी आवश्यक्ता है मानों पुन्यएक संसार अटवी उलंगने के लिये वोलाधाको माफीक सहायक तरीके है वह पुन्य नौ कारणों से बन्धाता है यथा (१) अन्न पुन्य-कीसीको अशानादि भोजन करानेसे। . (२) पाणी-जल प्यासोको जल पोलानेसे पुन्य होते है। (३) लेण पुन्य-मकान आदि स्थानका आश्रय देनासे । (४) सेणपुन्य-शय्या पाट पाटला आदि देनेसे पुन्य। . (५) वस्त्रपुन्य-धन कम्बल आदि के देनेसे पुन्य । (६) मनपुन्य-दुसरोंके लिये अच्छा मन रखनेसे । : (७) वचन पुन्य-दुसरोंके लिये अच्छा मधुर वचन बोलनेसे। (८) काय पुन्य-दुसरोंको व्यावञ्च या बन्दगी बजानेसे। (९) नमस्कार पुन्य-शुद्ध भावोंसे नमस्कार करनेसे। इन नौ कारणोंसे पुन्य बन्धते है वह जीव भविष्यमें उन पुन्यका फल ४२ प्रकारसे भोगवते है यथा सातावेदनी(शरीर आरोग्यतादि), अत्रीयादि उच्चगौत्र,मनुध्यगति,मनुष्यानुपूर्वी,देवगति,देवानुपूर्वी,पांचेन्द्रियजाति औदा. रोक शरीर,वैक्रय शरीर,आहारीक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर औदारीक शरीर अंगोपांग,वैक्रयशरीर अंगोपांग,आहारीक Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुन्यतत्त्व. (१०५) शरीर अंगोपांग, बन ऋषभनाराचसंहनन,समचतुत्रसंस्थान,शुभ वर्ण,शुभगंध शुभरस,शुभस्पर्श, अगुरु लघु नाम ( ज्यादा भारीभी नही ज्यादा हलका भी नही) पराघात नाम, ( बलवानकों भी पराजय करसके ) उश्वास नाम (श्वासोश्वास सुखपूर्वक ले सके) आताप नाम, ( आप शीतल होने पर भी दुसरोंपर अपना पुरा असर पाडे ) उद्योत नाम, (सूर्य कि माफीक उद्योत करने वाला हो) शुभगति (गजकी माफीक गति हो ) निर्माण नाम, ( अंगोपांग स्वस्वस्थानपर हो) प्रस नाम, बादर नाम, पर्याप्ता नाम प्रत्येक नाम, स्थिर नाम (दांत हाड मजबुत हो) शुभ नाम (नाभीके उपरका अंग सुशोभीत हो तथा हरेक कार्यमें दुनिया तारीफ करे ) सौभाग्य नाम ( सब जीवोंको प्यारा लगे और सौभाग्यको भोगवे ) सुस्वर नाम जिस्का (पंचम स्वर जेसा मधुर स्वर हो) आदेय नाम (जीनोंका वचन सब लोग माने ) यशो कीर्ति नाम-यश एक देशमें कीर्ति बहुत देशमे, देवतोंका आयुष्य, मनुष्यका आयुष्य, तीर्यचका शुभ आयुष्य, और तीर्थकर नाम, जिनके उदयसे तीन लोगों पूजनिक होते है एवं ४२ प्रकृति उदय रस विपाक आनेसे जीवको अनेक प्रकारसे आहलाद सुख देती है जिसके जरिये जीव धन धान्य शरीर कुटम्बानुकुल आदि सर्व सुख भोगवता हुवा धर्मकार्य साधन कर सके इसी वास्ते पुन्यको शास्त्रकारोंने वोलाया समान मददगार माना हुषा है इति पुन्यतत्य । (४) पापतत्वके अशुभ फल सुखपूर्वक बान्धते है. दुःख. पूर्वक भोगवते है जब जीवोंके पाप उदय होते है तब अनेक प्रकारे अनिष्ट दशा हो नरकादि गतिमें अनेक प्रकारके दुःख रस विपाकको भोगवने पडते है कारण नरकादि गतिमें भूख्य Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६ ) शीघ्रबोध भाग २ जो. कारणभूत पाप ही है पाप दुनिया में लोहाकी बेडी समान है अठारा प्रकार से जीव पाप कर्म बन्धन करते है-यथा प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य परपरीवाद, मायामृषावाद और मिथ्या दर्शन शल्य इन अठारा कारणोंसे जीव पाप कर्म बन्ध करते है उनको ८२ प्रकार से भोगवते है यथा ज्ञानावर्णियकर्म जीवकों अज्ञानमय बना देते है जेसे घाणीका बैटके नेत्रोंपर पाटा बान्ध देनेसे कोसी प्रकारका ज्ञान नही रहता है इसी माफीक जीवोंके ज्ञातावर्णियका पडल छा जानेसे कोसी प्रकारका ज्ञान नही रहता है जिस ज्ञानावर्णिय कर्मको पांच प्रकृति हे- मतिज्ञानावर्णिय श्रुतज्ञानावर्णिय, अवधिज्ञानावर्णिय, मनः पर्यवज्ञानावर्णिय, केवलज्ञानावर्णिय यह पांचो प्रकृति पांचों ज्ञानकों रोक रखती है। दर्शनावर्णियकर्म जैसे राजाके पोलीयाकि माफीक धर्मराजासे मिलने तक न देवे जिस्की नौ प्रकृति है चक्षुदर्शनावर्णिय अचक्षुदर्शनावर्णिय अवधिदर्शनावर्णिय केवलदर्शनावर्णिय निंद्रा ( सुखे सोना सुखे जागना ) निद्रानिंद्रा ( सुखे सोना दुःखे जागना ) प्रचला ( बेठे बेठेकों निंद्रा होना ) प्रचलाप्रचला. ( चलते फोरतेको निंद्रा होना ) स्त्यानद्धि. निंद्रा (दिनको बि. चारा हुवा सर्व कार्य निद्रामे करे वासुदेव जितने बलवाले हो ) असातावेदनीय. मिथ्यात्वमोहनिय (विप्रीतश्रद्धा अतस्व पर रुखी) अनंतानुबन्धी क्रोध ( पत्थर कि रेखा ) मान ( बनका स्थंभ ) माया वांसकी जड) लोभ करमजी रेसमका रंग) घात करे तो समकितनी स्थिति जावजीवको मतिनरककी । अप्रत्याख्यानी क्रोध । तलावकी तड) मान-दान्तका स्थंभ, माया मे डाका श्रृंग. लोभ नगरका कीच । बात करे तो श्रावकके व्रतोंकी Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापतत्त्व. ( १०७ ) स्थिति बारहमास. गति तिर्यचकी । प्रत्याख्यानी क्रोध - गाडाको लोक. मान-काष्टका स्थंभ माया चालते बैलका मात्रा. लोभ-का जलका रंग ( घात करेतो संयमकी स्थिति च्यार मासको गति मनुष्यकी ) संज्वलन के क्रोध ( पाणीकी लीक) मान (तृणके स्थंभ ) मायावांकी छाल. लोभ ( हल्द पतंगका रंग ) घात वीतरागताकी स्थिति क्रोधकी दो मास, मानको एक मास, मायाकी पंदरादीन, लोभकी अंतरमहुर्त, गति देवतोंकी करे. और हांसी (ठठा मकरी) भय, शोक, जुगप्सा रति अरति त्रिवेद, पुरुषवेद, नपुंसक वेद. नरकायुष्य नरकगति नरकानुपुत्रिं, तीर्थचगति, ती. चानुपूर्व एकेन्द्रियजाति बेइन्द्रियजाति चोरिंद्रयजाति ऋषभ नाराचसंहनन नाराच० अर्द्धनाराच० किलको० छेवटों संहनन, निग्रोदपरिमंडल संस्थान, सादीयो० बवनसं० कुब्जमं० हुडकसं स्थावरनाम सूक्षमनाम अपर्याप्तानाम साधारणनाम, अशुभनाम अस्थिरनाम दुर्भाग्यनाम दुःस्वरनाम अनादेयनाम अयशनाम अशुभागतिनाम, अपवातनाम निचगोत्र अशुभवर्ण गन्ध रस स्पर्श - दानान्तराय लाभान्तराय भोगान्तराय उपभोगान्तराय atर्यान्तराय. एवं पापकर्म ८२ प्रकार से भोगबीया जाते है इति पापतत्त्व | (५) आश्रवतत्त्व - व जीवोंके शुभाशुभ प्रवृतिले पुन्य पापरूपी कर्म आनेका रहस्ता जैसे जीवरूपी तलाव कर्मरूपी नाला पुन्य पापरूपी पाणीके आने से जीव गुरु हो संसार में परिभ्रमन करते है उसे आश्रवतत्व कहते है जिसके सामान्य प्रकार से २० भेद हे मिथ्यात्वाश्रव यावत् सूची कुशमात्र अयत्नासे लेना रखना आश्रव ( देखो पैंतीस बोलसे atrai बोल ) विशेष ४२ प्रकार प्राणातिपात ( जीवहिंसा Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८) शीघ्रबोध भाग २ जो. करना ) मृषावाद ( झूट बोलना ) अहसादान चौरीका करना. मैथुन, परिग्रह (ममत्व वढाना) श्रोतेन्द्रिय चक्षुइन्द्रिय घ्राणेन्द्रिय रसेन्द्रिय स्पर्शन्द्रिय मन वचन काय इन आठोको खुला रखना अर्थात् अपने कब्जामें न रखना आश्रय हे क्रोध मान माया लाम एवं १७ बोल हुवे । अब क्रिया कहते है. काइयाक्रिया अयत्नासे हलना चलना तथा अव्रतसे अधिगरणियाक्रिया-नये शस्त्र बनाना तथा पुराने तैयार कराना पावसीयाक्रिया-जीवाजीवपर द्वेषभाव रखनेसे परतापनियाक्रिया-जीवोंको परिताप देनेसे पाणाइवाइ क्रिया-जीवोंकों प्राणसे मारदेनेसे आरंभीकाक्रिया-जीवाजीषका आरंभ करनेसे परिग्रहकिक्रिया-परिग्रहपर ममत्व मुर्छा रखनेसे मायवतीयाक्रिया-कपटाइसे दशवे गुणस्थानक तक मिथ्यादर्शनक्रिया-तस्वकि अश्रद्धना रखनेसे अप्रत्याख्यानकिक्रिया-प्रत्याख्यान न करनेसे दिठ्ठीयाक्रिया-जीवाजीवको सरागसे देखना पुठ्ठीयाक्रिया-जीवाजीवको सरागसे स्पर्श करने से पाडूचीयाक्रिया-दुसरेकि वस्तु देख इर्षा करना सामंतवणिय-अपनि वस्तुका दुसरा तारीफ करनेपर आप हर्ष लानेसे सहस्थियाक्रिया-नोकरोंके करने योग्य कार्य अपने हाथोंसे करनेसे कारण इसमें शासनको लघुता होती है नसिहत्थिया-अपने हाथोंसे करने योगकार्य नोकरादिसे करानेसे; कारण वह लोग बेदरकारी अयत्नासे करने से अधिक पापका भागी होना पडता है। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्रवतत्त्व (१०९) आणवणियाक्रिया-राजादिके आदेशसे कार्य करनेसे . वेदारणीयाक्रिया-जीवाजीवके टुकडे कर देनेसे । अणाभोगक्रिया-शुन्योपयोगसे कार्य करनेसे अणवकखवतीया-बीतरागके आज्ञाका अनादर करनेसे पोग-प्रयोगक्रिया-अशुभ योगोंसे क्रिया लगती है पेज-रागक्रिया-माया लोभ कर दुसरोंको प्रेमसे ठगना दोस-वेषक्रिया-क्रोध-मानसे लगे द्वेषको बढाना समुदाणी क्रिया-अधर्मके कार्य में बहुत लोग एकत्र हो वहां सबके एकसा अध्यवसाय होनेसे सबके समुद्दाणी कर्म बन्धते है इरियावाइक्रिया-वीतराग ११-१२-१३ गुणस्थानवालोंके केवलयोगोंसे लगे-एवं २५ क्रिया इन ४२ द्वारोंसे जीवके आश्रय आते है इति आश्रवतस्य । (६) संवरतत्व-जीवरूपी तलाव कर्मरूपी नाला पुन्यपाप रूपी पाणी आते हुवेकों संवर रूपी पाटीयासे नाला बन्ध कर उन आते हुवे पाणीको रोक देना उसे संवरतत्त्व कहते है अर्थात् स्वसत्ता आत्मरमणता करनेसे आते हुवे कम रूकजा ते है उसे सेवर कहते है जिस्के सामान्य प्रकारसे २० भेद पैतीस बोलोंके अन्दर चौदवा बोलमे कह आये है अब विशेष ५७ प्रकारसे संवर हो सक्ते है वह यहांपर लिखा जाता है। इर्यासमिति-देखके चलना, भाषासमिति विचारके बोलना, एषणासमिति शुद्धाहार पाणी लेना, आदान भंडोपकरण-मर्यादा परमाणे रखना उनोंकों यत्नासे वापरणा, उच्चार पासवण जल खेल मैल परिष्टापनिकासमिति. परठन परठावण यत्नाके साथ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११०) शीघ्रबोध भाग २ जो. करना । मनगुप्ति, वचनगुप्ति, काय गुप्ति अर्थात् मन, वचन काया को अपने कब्जे में रखना, पापारंभमें न जाने देना एवं ८ बोल. क्षुधापरिसह, पीपासापरिसह, शितपरिसह, उष्णपरिसह, दंशमंशगपरिसह, अचेल (वस्त्र ) परिमह, आरतिपरिसह, इथि (स्त्री) परिसह, चरिय (चलनेका ) परिसह, निषेध ( स्मशानोमें कायोत्सर्ग करनेसे ) शय्या परिसह ( मकानादिके अभाव) अक्रोशपरिसह, बद्धपरिसह, याचनापरिसह, अलामपरिसह, रोगपरिसह. तृणपरिसह, मैलपरिसह, सत्कारपरिसह, प्रज्ञाप. रिसह, अज्ञानपरिसह, दर्शनपरिसह एवं २२ परिसहको सहन करना समभाव रखनासे संघर होते है. क्षमासे क्रोधका नाश करे, मुक्त निर्लोभतासे ममत्वका नाश करे, अर्जवसे मायाका नाश करे, मार्दवसे मानका नाश करे, लघवसे उपाधिको नाश करे, सच्चे सत्यसे मृपावादका नाश करे, संयम से असंयमका नाश करे, तपसे पुराणे कर्मों का नाश करे, चेहये. वृद्ध मुनियोको अशनादिसे समाधि उत्पन्न करे, ब्रह्मचर्य व्रत पालके सर्व गुणोको प्राप्त करे यह दश प्रकारके मुनिका मौख्य गुण है. अनित्यभावना-भरत चक्रवर्तीने करी थी. अशरणभावना-अनाथी मुनिराजने करी थी. संसारभावमा-शालीभद्रजीने करी थी. एकत्वभावना-नमिराज ऋषिने करी थी. असारभावना-मृगापुत्र कुमरने करी थी. असूची भावना-सनत्कुमार चक्रवर्तीने करी थी. आवभावना-एलायची पुत्रने करी थी. Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १११) संवरतत्त्व. संभावना - केशी गौतमस्वामिने करी थी. निर्जराभावना -अर्जुन मुनि महाराजने करी थी. लोकसार भावना - शिवराज ऋषिने करी थी. बोधोबीज भावना - आदीश्वर के ९८ पुत्रोंने करी थी. धर्मभावना-धर्मरूची अनगारने करी थी. यह बारह भावना भावनेसे संवर होते है । सामायिक चारित्र, छदोपस्थापनिय चारित्र, परिहारविशुद्ध चारित्र, सुक्ष्म संपराय चरित्र यथाख्यात्त चारित्र यह पांच चारित्र संबर होते है एवं ८-२२-१०-१२-२ सर्व मीलके ५७ प्रकारके संघर है इति संवरतत्व । (७) निर्जरातत्व - जीवरूपी कपडो कर्मरूपी मैल लगा हुवा है जिस्कों ज्ञानरूपी पाणी तपश्चर्यारूपी साबुसे धो के उज्वल बनावे उसे निर्जरातत्व कहते है वह निर्जरा दो प्रकारकी एक देशसं आत्मप्रदेशोकों निर्मल बनावे; दुसरी सर्व से आत्मप्रदेशों को निर्मल बनावे, जिसमें देश निर्जरा दो प्रकार (१) सकाम निजरा (२) अकाम निर्जरा जेसे सम्यक् ज्ञान दर्शन विना अनेक प्रकारके कष्ट क्रिया करनेसे कर्मनिर्जरा होती है वह सब अकाम निर्जरा है और सम्यक् ज्ञान दर्शन संयुक्त कष्ट क्रिया करना वह.. सकाम निर्जरा है सकामनिर्ज्जर। और अकामनिर्ज्जरामे इतना ही भेद है जो अकामनिर्जरासे कर्म दूर होते है वह कीसी भवो कारण पाके वह कर्म और भी चीप जाते है और सम्यक् सकामनिर्जरा हुइ हो वह फीर कीसी भवमें वह कर्म जीवके नही लगते है यह हो सम्यक् ज्ञानकी बलीहारी है इसवास्ते पहिले सम्यक ज्ञान दर्शन प्राप्त कर फोर यह निर्जरा करना चाहिये । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११२) शीघ्रबोध भाग २ जो. प्र अब सामान्य प्रकार से निर्जराके बारहा भेद इसी माफाक है। अनसन, उनोदरी, भिक्षाचरी, रस परित्याग, कायाक्लेश, तिसंलेषना, प्रायश्चित्त, विनय, वेयावच्च, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग इनके विशेष ३५४ भेद है । अनसन तपके दो भेद है ( १ ) स्वल्पमर्यादितकाल ( २ ) यावत् जीव जिसमे स्वल्पकालके तपका छे भेद है श्रेणितप, परसरतप, घनतप, वर्गतप, वर्गावर्गतप, आकरणीतप. श्रेणितपके चौदा भेद है एक उपवास करे, दो उपवास करे, तीन उपवास करे, च्यार उपवास करे, पांच उपवास करे, छे. उपवास करे, सात उपवास करे, अद्ध मास करे मास करे, दो.. मास करे, तीन मास करे, च्यार मास करे, पांच मास करे, छे मास करे. १ २ ३ परतरतप जिस्के सोलह पारणा करे देखो यंत्रसे. एसी च्यार परिपाटी करे, पहले परपाटीमें विगइ सहित आहार करे: दुसरी परपाटीमें विगइ रहित आहार करे, तीसरी परिपाटी में लेप रहित आहार करे, चोथी परिपाटीमें पारणेके दिन आंबिल करे, एक उपवास कर पारणो करे, फीर दो उपवास करे, पारणों कर तीन उपवास करे, पारणो कर व्यार उपवास करे. यह पहली परिपाटी हुइइसी माफीक कोष्टकमें अंक माफीक तपस्या करे. अन्तरामें पारणो करे... एवं च्यार परिपाटी करे. घनतपके ३ ४ ខ १ २ ३. चौसठ पारणा करे. च्यार परिपाटी पूर्ववत् समजना । २ ३ ४. १ ४ १ २ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ २ ૐ ४ ३ | ४ | ५ | ६ | S m ७ ८ ८ m ५ ६ ७ ७ ८ १ ६ | ७ | ८ | १ | २ | ३ ३ ४ w ८ १ नवतत्त्व. मर्यादा हुई. इसी माफिक सम्पुर्ण तप क रने से एक प रिपाटी होती है. इसी माफिक च्यार परिपाटी स मजना. वर्गत जिसमे चोसठ कोष्टकका यंत्र करे ४०९६ पारणे होते हैं. ६ ६ ७ ७ | ८ | ८ | १ | ३ ८ १ m एक उपवास ८ पारणो दो उपवास पारणो तीन उपवास पारणो एवं १ ३ ( ११३ ) ६ ६ ७ यावत् आठ उपवास कर पा रणो करे यह प हली ओलीकी वर्गावर्गतपके १६७७७२१६ पारणेके कोष्टक ४०९६ होते है. अकरणीतपका अनेक भेद है यथा एकावलीतप, रत्नावली तप मुक्तावलीतप, कनकावलीतप, खुडियाकसिंह निकलंकतप, महासिंह निकलंक तप, भद्रतप, महाभद्रतप, सर्वतोभद्रतप, यवमध्यतप, वज्रमज्जतप, कर्मचूरतप, गुणरत्नसंवत्सरतप, आंबिल वर्द्धमानतप, तपाधिकार देखों अन्तगढसूत्र के भाषान्तर भाग १७ बा से इति स्वल्पकालकातप. यावत् जीवके तपका तीन भेद है ( १ ) भत्त प्रत्याख्यान, Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीघ्रबोध भाग २ जो. (२) इंगीतमरण, (३) पादुगमन, जिस्मै भत्तप्रत्याख्यान मरण जेसे कारणसे करे अकारण से करे, ग्रामनगरके अन्दर करे, जंगल पर्बत आदिके उपर करे, परन्तु यह अनसन सप्रतिक्रमण होते है. अर्थात् यह अनसन करनेवाले व्यावच्च करते भी है और कराते भी है कारण हो तो विहार भी कर सकते है दुसरा इंगीतमरणमें इतना विशेष है कि भूमिकाकी मर्यादा करते है उन भूमिसे आगे नही जा सके शेष भत्तप्रत्याख्यानकी माफीक. तीसरा पादुगमन अनसनमें यह विशेष है कि वह छेदा हुवा वृक्षकी डालके माफीक जीस आसन से अनसन करते है फीर उन आसनकों बदलाते नहीं है. अर्थात् काष्टकी माफीक निश्चलपणे रहते है उनों के अप्रतिक्रमण अनसन होते है यह वज्रऋषभनाराच संहननवाला ही कर सकते है इति अनसन. (२) औणोदरीतपके दो भेद है. (१) द्रव्य औणोदरी (२) भाव औणोदरी जिस्में द्रव्य औणोदरीके दो भेद है (१) औपधि औणोदरी (२) भात्त पाणी औणोदरी. औपधि औणोदरीके अनेक भेद है जेसे स्वल्पवस्त्र, स्वल्प पात्र, जीर्णवस्त्र, जीर्णपात्र, एकवख, एकपात्र, दोवस्त्र, दो पात्र इत्यादि दुसरा आहार औणोदरीके अनेक भेद है अपनि आहार खुराक हो उनके ३२ विभाग करले उनों से आठ विभागका आहार करे तो तीन भागकी औणोदरी होती है और वारहा विभागका आहार करे तो आधासे अधिक सोलहा विभागका आहार करे तो आदि० चौवीस विभागका आहार करे तो एक हीस्ताकी औणोदरी होती है अगर ३१ विभागका आहार कर एक विभाग भी कम खावे तो उमे किंचित् औणोदरी और एक विभागका ही आहार करे तो उत्कृष्ट औणोदरी हाती है अर्थात अपनी खुराकसे किसी प्रकारसे कम खाना उसे औणोदरी तप कहा जाता है। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवतत्त्व. (११५) भाव औणोदरीके अनेक भेद है. क्रोध नहीं करे, मान नहीं करे, माया नहीं करे, लोभ नहीं करे, रागद्वेष नहीं करे, द्वेष न करे क्लेश नहीं करे, हास्य भयादि नहीं करे अर्थात् जो कर्मबन्ध के कारण है उनोंकों क्रमशः कम करना उसे औणोदरी कहते है। (३) भिक्षाचारी-मुनि भिक्षा करनेकों जाते है उन समय अनेक प्रकारके अभिग्रह करते है यह उत्सर्ग मार्ग है जीतना नीतना ज्ञान सहित कायाको कष्ट देना उतनी उतनी कर्मनिर्जरा अधिक होती है उनी अभिग्रहोंके यहांपर तीस बोल बतलाये जाते है। यथा (१) द्रव्याभिग्रह-अमुक द्रव्य मोले तो लेना. . ( २ ) क्षेत्राभिग्रह -अमुक क्षेत्रमें मीले तो लेना. (३) कालाभिग्रह-अमुक टाइममें मीले तो लेना. (४) भावाभिग्रह-पुरुष या स्त्री इस रूपमें दे तो लेना. (५) उक्खीताभिग्रह-वरतन से निकालके देवे तो लेना. (६) निक्खीताभिग्रह-धरतनमें डालताहुवा देवेतो लेना. (७) उक्खीतनिक्खीत-व० निकालते डालते दे तो लेना. (८) निक्खीतउक्खीत-व० डालते निकालते दे तो लेना. (९) वट्ठीजाभिग्रह-भेंटते हुवे आहार दे तो लेना. (१०) साहारीजाभिग्रह-एक वरतन से दुसरे घरतन में डालते हुवे देवे तो लेना. (११) उवनित अभिग्रह-दातार गुण कीर्तन करके आ हार देवे तो लेना. Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११६) शीघ्रबोध भाग २ जो. - (१२) अवनित अभिग्रह-दातार अवगुण बोलके आहार. देवे तो लेना. (१३) उवनित अवनित-पहले गुण ओर पीच्छे अवगुण करते हुवे आहार देवे तो लेना.. (१४) अव० उप० पहले अवगुण और पीछे गुण करता देवे. (१५) संसठ्ठ ,, पहलेसे हाथ खरडे हुवे हो वह देवे तो लेना ( १६ ) असंसट्ट,, पहलेसे हाथ साफ हो वह देवे तो लेना. (१७ ) तजत ,, जोस द्रव्यसे हाथ खरडे हो वहही द्रव्य लेवे. (१८) अणवण ,, अज्ञात कुलकि गौचरी करे। (१९) मोण ,, मौनव्रत धारण कर गौचरी करे। (२०) दिट्ठाभिग्रह, अपने नेत्रोंसे देखा हुवा आहार ले. ( २१ ) अदिठ्ठ ,, भाजनमें पडा हुवा अदेखा हुआ" लेवे. ( २२ ) पुठ्ठाभिग्रह पुच्छके देवे क्या मुनि आहार लोगे तो लेना. (२३) अपुट्ठाभिग्रह-विनों पुच्छे दे तो आहार लेना. ( २४ ) भिक्ख ,, आदर रहीत तिरस्कारसे देवे तो लेना. ( २५ ) अभिक्ख ,, आदार सत्कार कर देवे तो लेना. ( २६ ) अणगीलाये ,, बहुत क्षुधा लगजाने पर आहार लेवे. ( २७) ओवणिया ,, नजीक नजीक घरोंकी गोचरी करे, ( २८) परिमत्त ,, आहारके अनुमानसे कम आहार ले. ( २९ ) शुद्धेसना ,, एकही जातका निर्वध आहार ले. (३०) संखीदात ,, दातादिकी संख्याका मान करे. Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११७ ) इनके सिवाय पेडागोचरी अदपेडागोचरी संखावृतन गोचरी चक्रवाल गोचरी गाउगोचरी पतंगीया गोचरी इत्यादि अनेक प्रकारके अभिग्रह कर सकते है यह सब भिक्षाचरीके ही भेद है। नवतत्त्व. ( ४ ) रस परित्यागतपके अनेक भेद है सरसाहारका त्याग, frat करे, आंबिल करे ओसामण से एक सीतले, अरस आहार ले विरस आहार ले, लुख आहार ले, तुच्छ आहार ले, अन्ताहार ले, पांताहार ले, बचा हुवा आहार ले, कोइ रांक भिक्षु, काग कुते भी नही वांच्छे एस फासूक आहार ले अपनि संयमयात्राका निर्वाहा करे. (५) कायक्लेशतप - काष्टकि माफीक खडा रहे. ओकडू आसन करे, पद्मासन करे, वीरासन निषेद्यासन दंडासन लगडासन, आम्रखुजासन, गोदुआसन, पीलांकासन, अधोशिरासन, सिंहासन, कोचासन, उष्णकालमें आतापना ले, शीतकालमें वदूर रख ध्यान करे. थुक थुके नही खाज खीणे नही मैल उत्तारे नही, शरीरकी विभूषा करे नही और मस्तकका लोच करे इत्यादि. ( ६ ) पडिसलीणतातपके च्यार भेद ( १ ) कषाय पडिसलेणता याने नयाकषाय करे नही उदय आयेकों उपशान्त करे जिसके च्यार भेद क्रोध मान माया लोभ |४| (२) इन्द्रिय पडिसलेणता, इन्द्रियोंके विषय विकारमें जातेकों रोके उदय आये विषय विकारकों उपशान्त करे जिसके पांच भेद है श्रोत्रेन्द्रिय चक्षु इन्द्रिय, त्राणेन्द्रिय, रसेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय ( ३ ) योगपडिसलिणता । अशुभ भागोके व्यापारको रोके और शुभ योगों के व्यापार में प्रवृति करे जिसके तीन भेद है, मनयोग, वचन Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८) शीघ्रबोध भाग २ जो. योग, काययोग, (४) विवतसयनासन याने स्त्रि नपुंसक ओर पशु आदि विकारीक निमत्त कारण हो एसे मकानमें न रहे इति । इन छे प्रकारके तपको बाह्यतप कहते है। (७) प्रायश्चिततप-मुनि ज्ञान दर्शन चारित्रके अन्दर सम्यक् प्रकारसे प्रवृत्ति करते हुवेकों कदाचित् प्रायश्चित लग जावे, तो उन प्रायश्चितकी तत्काल आलोचना कर अपनि आत्माको विशुद्ध बनाना चाहिये यथा दश प्रकारसे मुनिकों प्रायश्चित लगते है यथा-कंदर्प पी. डित होनेसे, प्रमादवस होनेसे, अज्ञातपणेसे, आतुरतासे, आप. तियों पडनेसे, शंका होनेसे, सहसात्कारणसे, भयोत्पन्न होनेसे द्वेषभाव प्रगट होनेसे, शिष्यकि परिक्षा करनेसे। दश प्रकार मुनि आलोचन करते हुवे दोष लगावे. कम्पता कम्पता आलोचन करे. पहले उन्मान पुच्छे कि अमुक प्रायश्चित सेवन करने का क्या दंड होगा फीर ठीक लागे तो आलोचना करे । लोकोंने देखा हो उन पापकि आलोचना करे दुसरेकी नही. अदेखा हुवे दोषकि आलोचना करे। बड़े बडे दोषोंकी आलोचना करे. छोटे छोटे पापोंकी आलोचना करे. मंद स्वरसे आलोचना करे. जोर जोरके शब्दोंसे० एक पापकों बहुतसे गीतार्थोके पास आलोचना करे,अगीतार्थोके पास आलोचना करे. दशगुणोंका धणी हो वह आलोचना करे. जातिवन्त, कुलवन्त, विनयवन्त उपशान्तकषायवन्त, जितेन्द्रियवन्त, ज्ञानवन्त, दर्शनवन्त, चारित्रवन्त, अमायवन्त, और प्रायश्चित ले के पश्चाताप न करे। दशगुणोंके धणी के पास आलोचना लि जाति है. स्वयं आचारवन्त हो. परंपरासे धारणवन्त हो. पांच व्यवहारके नानकार हो. लज्जा छोडाने समर्थ हो शुद्धकरने योग हो. आग Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवतत्त्व (११९) लोंके मर्म प्रकाश न करे. निर्वाहाकरने योग्य हो अनालोचनाके अनर्थ बतलानेमे चातुर हो. प्रीय धर्मों हो. और दृढधर्मी हो । दश प्रकार के प्रायश्चित आलोचना, प्रतिक्रमण, दोनों साथमें करावे. विभाग कराना. कायोत्सर्ग कराना. तप, छेद. मूलसे फीर दीक्षा देना, अणुठप्पा. और पारंचिय प्रायश्चित इन ५० बो. लोका विशेष खुलासा दे,खो शीघ्रबोध भाग २२ के अन्तमे इति । (८) विनयतप जिस्का मूल भेद ७ है यथा. ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय, मनविनय, वचनविनय, कायविनय, लोकोपचार विनय, इन सात प्रकार विनयके उत्तर भेद ज्ञानविनयके पांच भेद है मतिज्ञानका विनय करे, श्रुतिज्ञानका विनय करे. अवधि ज्ञानका विनय करे, मनः पर्यवज्ञानका विनय करे, केवलज्ञानका विनय करे, इन पांचों ज्ञानका गुण करे, भक्ति करे, पूजा करे, बहुमान करे तथा इन पांचों ज्ञानके धारण करनेवालोंका बहुमान भक्ति करे तथा ज्ञानपद कि आराधना करे। दर्शन विनयका मूल भेद दो है. (१) शुश्रुषा विनय, (२) अनाशातना विनय, जिस्मे शुश्रुषा विनयका दश भेद है. गुरुः महाराजकों देख खडा होना, आसनकि आमन्त्रण करना, आसन विच्छादेना, वन्दन करना पांचांग नामाके नमस्कार करना वस्त्रादिदे के सत्कार करना गुण कीर्तनसे सन्मान करना. गरु पधारे तो सामने लेनेको जाना. विराजे वहांतक सेवा करना. पधारे जब साथमें पहुंचानेको जाना, इत्यादि इनकों शुश्रपा विनय कहते है। अनअशातनाविनयके ४५ भेद है अरिहन्तोंकि आशातना Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२०) शीघबोध भाग २ जो. न करे. अरिहंतोंके धर्मकि आ० आचार्य उपाध्याय स्थविर कुल० गण० संघ० क्रियावंत० संभोगी स्वामि, मतिज्ञान, श्रुतिज्ञान अवधिज्ञान मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान इन १५ महापुरुषोंकि आशातना न करे इन पंदरोंका बहुमान करे इन पंदरों कि सेवा भक्ति करे एवं ४५ प्रकारका विनय समझना। ___ नोट- दशवा बोलमें संभोगी कहा है जिस्का समवायांगजी सूत्र में संभोग बारहा प्रकारका कहा है अर्थात् सरीखी समाचारी वाले साधुवोंके साथ अल्पा स्वल्पा करना जेसे एक गच्छके साधुवाँसे दुसरे गच्छके साधुवोंको औपधिका लेन देन रखना, सूत्र वाचनाका लेना देना, आहारपाणीका लेना देना, अर्थ वाचना लेना देना, आपसमे हाथ जोडना, आमंत्रण करना, उठके खडा होना, वन्दना करना, व्यावच्च करना, साथ में रहना, एक आसन पर बेठना, आलाप संलापका करना. ___ चारित्रविनयके पांच भेद सामायिक चारित्रका विनय करे. छदोपस्थापनिय चारित्रका विनय करे, परिहारविशुद्ध चारित्रका विनय करे, सूक्ष्म संपराय चारित्रका विनय करे. यथाख्यात चारित्रका विनय करे।। मनविनयके भेद २४ मूल भेद दोय. (१) प्रशस्त विनय, (२) अप्रशस्त विनय, जैसे प्रशस्त विनयके १२ भेद है मनों सावध कार्यमें जाते हुवेको रोकना, इसी माफीक पापक्रियासे रोकना, कर्कश कार्यसे रोकना. कठोर कार्यसे रोकना, फरूसतीक्षण पापसे रोकना, निष्ठुर कार्यसे रोकना, आश्रवसे रोकना, छेद करानेसे, भेद करानेसे, परितापना करानेसे, उद्विग्न करानेसे और जीवोंकि घात करानेसे रोकना इसका नाम प्रशस्त मन विनय है और इन बारहा बोलोंकों विप्रीत करनेसे बारहा Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवतत्त्व. ( १२१) प्रकारका अप्रशस्त विनय होते है अर्थात् विनय तो करे परन्तु मन उक्त अशुद्ध कार्य में लगा रखे इनोसे अप्रशस्त विनय होते है एवं २४ भेद मन विनयका है। वचन विनयका भी २४ भेद है, मूल भेद दो. (१) प्रशस्त विनय, ( २ ) अप्रशस्त विनय, दोनोंके २४ भेद मन विनयकि माफीक समझना। काय विनयके १४ भेद है मूल भेद दो (१) प्रशस्तविनय, ( २ ) अप्रशस्त विनय, जिस्मे प्रशस्त विनय के ७ भेद है. उप. योग सहित यत्नापूर्वक चलना, बेठना उभारहना सुना एक वस्तुकों एक दफे उलंघन करना तथा वारंवार उलंघन करना इन्द्रियों तथा कायाको सर्व कार्यमें यत्ना पूर्वक वरताना. इसी माफीक अप्रशस्त विनयके ७ भेद है परन्तु विनय करते समय कायाको उक्त कार्यों में अयत्नासे वरतावे एवं १४. लोकोपचार विनयके ७ भेद है यथा (१) सदैव गुरुकुलवासाकों सेवन करे, ( २ ) सदेव गुरु आज्ञाकों ही परिमाण करे और प्रवृति करे, (३) अन्य मुनियोंका कार्य भि यथाशक्ति करके परको साता उपजावे, (४) दुसरोंका अपने उपर उपकार है तो उनोंके बदलेमें प्रत्युपकार करना, (५) ग्लानि मुनियों कि गवेषना कर उनोंकि व्यावच्च करना, (६) द्रव्य क्षेत्र काल भावको जानकर बन आचार्यादि सर्व संघका विनय करना, (७) सर्व साधुवोंके सर्व कार्यमें सबकों प्रसन्नता रखना यहही धर्मका लक्षण है इति. (८) व्यावञ्च तपके दश भेद है आचार्य महाराज उपाध्यायजी स्थिवरजी गण (बहुताचार्य) कुल (बहुताचार्यों • के शिष्य समुदाय) संघ, स्वाधर्मि, तपस्वी मुनिकी क्रियावन्तकि नवदिक्षित शिष्य इन दशों जीवांकी बहुमान पूर्वक Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२२) शीघ्रबोध भाग २ जो. व्यावञ्च करे याने आहारपाणी लाके देखें और भी यथा उचित कार्यमें सहायता पहुंचाना जिनसे कर्मोकी महा निर्जरा और संसारसमुद्रसे पार होनेका सिधा रहस्ता है। (१०) स्वाध्याय तपके पांच भेद है. याचना देना या लेना, पृच्छना-प्रभादिका पुच्छना. परावर्तना-पठनपाठन करना. अनुपेक्ष पठनपाठन कीये हुवे ज्ञानमें तत्त्वरमणता करना. धर्मकथाधर्माभिलाषीयोको धर्मकथा सुनाना || तीन जनोंको वाचना नहीं देना. (१) नित्य विगइ याने सरस आहारके करनेवालेको. (२) अविनयवंतको, (३) दीर्घ कषायवालेको। तीन जनोंको वाचना देना चाहिये. विनयवंतको, निरस भोजन करनेवालेको २ जिस्के कोध उपशान्त हो गया है तथा अन्यतीर्थी पाखंडी हो धर्मका द्वेषी हो उनको भी वाचना न देनी और न उनोंसे वाचना लेनी, कारण वाचना देनेसे उनोंको विप्रीत होगा ता धर्मकी निंदा करेंगा और वाचना लेना पडे तो भी वह उपहास करेंगे कि जैनोंको हम पढाते है, हम जैनोंके गुरु है, इस वास्ते एसे धर्मद्वेषीयोंसे दूर ही रहना अच्छा है. अगर भद्रिक प्रणामी हो उसे उपदेश देना और मिथ्यात्वका रहस्ता छोडाना मुनियोंकी वाचनाकी विधिका छे भेद है. संहितापद, पदछेद, अन्वय, अर्थ, नियुक्ति तथा सामान्यार्थ और विशेषार्थ । प्रश्नादि पूच्छनेका सात भेद है। पहले व्याख्यानादि शान्त चित्तसे श्रवण करे. गुरवादिका बहुमान करे अर्थात् वाणि झेले हुंकारा देवे. तहकार करे अर्थात् भगवानका वचन सत्य है. जो पदार्थ समझमें नहीं आवे उनोंके लिये तर्क करे, उनका उत्तर सुन विचार करे. विस्तारसे ग्रहन करे, ग्रहन कीये ज्ञानको धारण कर याद रखे। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवतत्त्व. ( १२३ ) प्रश्न करनेके छे भेद है, अपनेको शंका होनेसे प्रश्न करे.. दुसरे मिथ्यात्वीयोंको निरुत्तर करनेको प्रश्न करे । अनुयोग ज्ञानकी प्राप्ति के लीये प्रश्न करे. दुसरोंको बोलानेके लिये प्रश्न करे. जानता हुवा दुसरोंको बोधके लीये प्रश्न करे. अनजानता हुवा गुरवादिकी सेवा करनेके लिये प्रश्न करे । परावर्तन करनेके आठ भेद है. काले, विनये, बहुमाणे, उवहाणे, अनिन्नवणे, व्यञ्जन, अर्थ, तदुभय इन आठ आचारों से स्वाध्याय करे तथा इनोंकी ३४ अस्वाध्याय है उनको टालके स्वाध्याय करे, अस्वाध्याय आगे लिखी है सो देखो । अनुपेक्षा के अनेक भेद है. पढा हुवा ज्ञानको वारंवार उपयागमें लेना. ध्यान, श्रवण, मनन, निदिध्यासन, वर्तन, चैतन्य, जादिके भेद करना । धर्मकथाके च्यrर भेद है. अक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेगणी, farari. इनके सिवाय विचित्र प्रकारकी धर्मकथा है. जैन सिद्धान्त पढने वालोंको पहलां इस माफीक( १ ) द्रव्यानुयोगके लिये न्यायशास्त्र पढो. ( २ ) चरणकरणानुयोगके लिये नीतिशास्त्र पढो. (३) गणितानुयोग के लिये गणितशास्त्र पढी. ( ४ ) धर्मकथानुयोग के लिये अलंकारशास्त्र पढो. वह च्यार लौकीक शास्त्र च्यारों अनुयोगद्वारके लिये मददगार है. इनोंके पहला गुरुगम्यताकी खास आवश्यक्ता है, इस वास्ते जैनागम पढनेवालोंको पहले गुरुचरणोंकी उपासना करनी चाहिये । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२४ ) शीघ्रबोध भाग २ जो. जैनागम पढनेवालों को निम्नलिखित अस्वाध्याय टालनी चाहिये । ( १ ) तारों तूटे तो एक पेहर सूत्र न वांचे. ( २ ) पश्चिम दिशा लाल रहे वहांतक सूत्र न पढे. ( ३ ) आर्द्रा नक्षत्रसे चित्रा नक्षत्र तक तो गाजविज कडेकेका काल है. इनोंके सिवाय अकाल कहा जाते है. उन अकाल में विद्युत्पात हो तो एक पहर, गाज हो तो दो पेहर, भूमिकम्प हो तो जघन्य आठ पेहर, मध्यम बारहा उत्कृष्ट सोलहा पेहर सूत्र न पढे, (४–२–६ ) बालचन्द्र हरेक मास के शुद १-२-३ रात्री पहले पहर में सूत्र न पढे, ( ७ ) आकाश में अग्निका उपद्रव हो वह न मीठे वहांतक सूत्र न पढे, (८) धूवर, (९) सुपेत धुमस, (१०) रजोघात यह तीनों जहांतक न मीरे वहांतक सूत्र न पढे, ( ११ ) मनुष्य के हाड जिस जगहपर पडा हो उनोंसे १०० हाथ तीर्यचका हाड ६० हाथके अन्दर हो तथा उनकी दुर्गन्ध आति हो मनुष्यका १२ वर्ष तीर्थचका ८ वर्ष तकका हाडकी अस्वाध्याय होती है वास्ते सूत्र न पढे । (१२) मनुष्यका मांस १०० हाथ तीर्थचका ६० हाथ काल से मनुष्यका ८ पेहर तीर्थचके ३ पेहर इनोंकी अस्वाध्याय हो तो सूत्र न बाचे । ( १३ ) इसी माफीक मनुष्य तीर्थचका रूद्रकी अस्वाध्याय (१४ ) मनुष्यका मल मूत्र - जहांतक जिस मंडलमे हो वहांतक सूत्र न पढे तथा जहांपर दुर्गन्ध आति हों asiभी सूत्र न पढना चाहिये । (१५) स्मशानभूमि चौतर्फ १०० हाथ के अन्दर सूत्र न पढे ( १६ ) राजमृत्यु होनेके बाद नया राजापाटन बेठे वहांतक उनोंके राजमें सूत्र न पढे ( १७ ) राजयुद्ध जहाँतक शान्त न हो वहांतक उनोंके राजमें सूत्र न पढे (१८) चन्द्रग्रहन ( १९ ) सूर्यग्रहन जघन्य ८ पेहर मध्यम १२ पेहर उत्कृष्ट ९६ पेहर सूत्र न पढे ( २० ) पांचेन्द्रियका मृत्यु Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवतत्त्व. (१२५) कलेवर जीस मकानमें पडा हो वहांतक सूत्र न पढे। यह वीस अस्वाध्याय ठाणांयांगसूत्रके दशवे ठाणामे कही है। प्रभात, श्याम मध्यान्ह आदि रात्री एवं च्यार अकाल अकेक मुहुर्त तक सूत्र न पढे ।२१। २२ । २३ ।२४। आषाढ शुद १५ श्रावण वद १ भाद्रवा शुद १५ आश्वन वद १ आश्वन शुद १५ कार्तिक वद १ कार्तिक शुद १५ मागशर वद १ चैत शुद १५ वैशाख वद १ एवं दश दिन सूत्र न पढ वह १२ अस्वाध्याय निशिथसूत्रके उन्नीसवे उदे. शामें कही है और दो अस्वाध्याय ठाणायांगसूत्र में कही है एवं सर्व मिल ३४ अस्वाध्याय अवश्य टालनी चाहिये। सवैया-तारोतुटे, रातीदिश, अकालमें गाजविज, कडक आकाश तथा भूमि कम्प भारी है. बालचन्द्र यक्षचेन्ह आकाश अग्निकाय काली धोली धूमर ओर रजघात न्यारी है. हाड मांस लोहीराद ठरडे मसान जले, चन्द्र सूर्य ग्रहन और राजमृत्यु टालीये, पांचेन्द्रिका कलेवर राजयुद्ध सर्व मील वीस बोल टाल कर ज्ञानी आज्ञा पाली है. आसाढ, भाद्रवो, आसोज, काती, चैती पुनम जाण; इनहीज पांचो मासकी पडिवा पांच व्याख्यान पडिवा पांच ब्याख्यान श्याम शुभे नही भणीये | आदी रात दे फार सर्व मीली चोतीस थुणिये. चोतीस अस्वाध्याय टालके सूत्र भणसे सोय, लालचन्द इणपर कहे जहां विघ्न न व्यापे कोय ॥१॥ इति स्वाध्याय । (११) ध्यान-ध्यानके च्यार भेद है. (१) आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान, शुक्लध्यान जिस्मे आर्तध्यान के च्यार पाया है अच्छी मनोज्ञ वस्तुकि अभिलाषा करे. खराब अमनोज्ञ वस्तु का वियोग चिंतवे, रोगादि अनिष्ट पदार्थोका वियोंग चिंतवे, परभवमें सुखोंका निदान करे। अब आर्तध्यानके च्यार लक्षण. Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६) शीघबोध भाग २ जो. फीकर चिंता शोकका करना, आशुपातका करना, आनन्द शब्द करना रोना, छाती मस्तक पीटना विलापातका करना. रौद्रध्यानके च्यार पाये. जीवहिंस्या कर खुशीमनाना, जूठ बोल खुशीमनाना, चौरी कर कुशीमनाना, दुसरोको कारागृहमें डलाके हर्ष मानना. एवं रौद्रध्यान के च्यार लक्षण है. स्वल्प अपराधका बहुत गुस्सा द्वेष रखना, ज्यादा अपराधका अत्यन्त द्वेष रखना, अज्ञानतासे द्वेष रखना, जाव जीवतक द्वेष रखना. इन प्ररिणामवालोंको रौद्रध्यान कहते है। धर्मध्यानके च्यार पाये. वीतरागकि आज्ञाका चितवन करना, कर्म आने के स्थानोंको विचारना, कर्मों के शुभाशुभ विपाकका विचार करना, लोकका संस्थान चितवन करना, धर्मध्यान के च्यार लक्षण इस मुजब है आज्ञारूची याने वीतरागके आज्ञा का पालन करनेकी रूची, निःसर्गरूची याने जातिस्मरणादिज्ञान से धर्मध्यानकि रूची होना, उपदेशरूची याने गुरंवादिके उपदेश श्रवण करनेकि रूची हो. सूत्ररुची-सूत्र सिद्धान्त श्रवण कर मनन करनेकी रूची यह धर्मध्यानके च्यार लक्षण है। धर्मध्यानके च्यार अवलम्बन है. सूत्रोंकि वाचना, पृच्छना, परावर्तना और धर्मकथा कहेना. धर्मध्यानके च्यार अनुपेक्षा है. संसारको अनि. त्य समझना, संसारमे कीसी सरणा नही है सुखदुःख अपने आप ही को भोगवना पडेगा, यह जीव एकेला आया है ओर अकेला ही जावेंगा. एकत्वपणा चिंतवे. हे चैतन्य! तुं इस संसारमें एकेक जीवोंसे कीतनी कीतनीवार संबन्ध कीया है इस संबन्धी. योंमें तेरा कोन है, तुं कीसका है, कीसके लिये तुं ममत्वभाव करता है आखीर सब संबन्धीयोंओ छोडके एकलेको ही जाना पडेगा। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवतत्त्व. ( १२७) शुक्लध्यानके च्यार पाया है. एक ही द्रव्यमें भिन्न भिन्न गुणपर्याय अथवा उपनेवा विघ्नेवा ध्रुवेवा आदि भावका विचार करना, बहुत द्रव्योंमें एक भावका चितवना जेसे षद्रव्य अगुरुलघुपर्याय स्वामिताका. चिंतवना अचलावस्थामें तीनों योगोंका निरूद्धपणा चितवना, चौदवां गुणस्थानमें सूक्षमक्रियासे निवृतन होनेका चिंतधन करना. शुक्लध्यानके च्यार लक्षण देवादिके उपसर्गसे चलायमान न होवे, सूक्षमभाव श्रवण कर ग्लानी न लावे, शरीरसे आत्मा अलग और आत्मासे शरीर अलग चिंतवे. शरीरको अनित्य समझ पुद्गल जो पर वस्तु जान उनका त्याग करे । शुक्लध्यानका च्यार अवलम्बन. क्षमा करे, निर्लोभता रखे. निष्कपटी हो, मदरहित हो. शुक्लध्यानके चार अनुपेक्षा. यह मेरा जीव अनंतवार संसारमें परिभ्रमन कीया है. इन आरापार संसार में यह पौद. गलीक वस्तु सर्व अनित्य है, शुभ पुद्गल अशुभपणे और अशुभपुदगल शुभपणे प्रणमते है इसी वास्ते पुदगलोंसे प्रेम नही रखना एसा विचार करे। संसारमें परिभ्रमन करनेका मूल कारण शुभाशुभ कर्म है कर्मोका मूल कारण च्यार हेतु है उनोंका त्याग कर स्वसत्तामें रमणता करना एसा विचार करे उसे शुक्ल ध्यान कहते है इति ध्यान । (१२) विउस्सगतप-त्याग करना जिस्का दो भेद है (१) द्रव्य त्याग ( २ ) भावत्याग-जिस्मे द्रव्यत्यागके च्यार भेद है शरीरका त्याग करना. उपाधिका त्याग करना गच्छादि संघका 'त्याग करना. ( याने एकान्तमे ध्यान करे ) भातपाणीका त्याग करना. ओर भावत्यागके तीन भेद है कमाय-क्रोधादिका त्याग Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२८ ) शीघ्रबोध भाग २ जा. करना कर्म ज्ञानावर्णियादिका त्याग करना, संसारा-नरकादि गतिका त्याग करना इति त्याग ॥ इति निर्जरातरख । (८) बन्धतत्व-जीवरूपी जमीन, कर्मरूपी पत्थर रागद्वेषरूपी चुनासे मकान बनाना इसी माफीक जीवोंके शुभाशुम अध्यवसायसे कर्म पुद्गल एकत्र कर आत्माके प्रदेशोंपर बन्ध होना उसे बन्धतत्त्व कहते है. (१) प्रकृतिबन्ध-१४८ प्रकृतियोंका बन्धना. (२) स्थितिबन्ध-१४८ प्रकृतियोंकी स्थितिका बन्धना. (३) अनुभागबन्व-कर्मप्रकृति बन्धते समये रस पडना. (४) प्रदेशबन्ध-प्रदेशोंका एकत्र हो आत्मप्रदेशपर बन्ध होना. इसपर लडूका दृष्टान्त जेसे लडू नुक्ती दांनेका बनता है यह प्रकृति है वह लडू कीतने काल रहेगा वह स्थिति है यह लड्डू क्या दुगुणी सकर तीगुणी सकर चोगुणी सकरका है वह रस विपाक है वह लडू कीतने प्रदेशोंसे बना है इत्यादि. केवल प्रकृति और प्रदेश बन्ध योगोंसे होते है और स्थिति तथा अनुभागबन्ध कषायसे होते है कर्मबन्ध होनेमे मौख्य हेतु च्यार है मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय, योग जिसमें मिथ्यात्व पांच प्रकारके है अभिग्रह मिथ्यात्व. अनाभिग्रह मिथ्यात्व, संसयमिथ्यात्व, विप्रीत मिथ्यात्व, अभिनिवेस मिथ्यात्व । अव्रत-पांच इन्द्रियकि पांच अवत, छे कायाकि अव्रत छ, बारहवीमनकि अव्रत एवं १२ अव्रत । . कषाय पांचवीस-सोलह कषाय नौ नो कषाय एवं २५. : योग पंदरा. च्यार मनका, च्यार वचनका, सात कायाका Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवतत्त्व. ( १२९) एवं ५७ हेतु है इनोंसे कर्मबन्ध होते हैं यह सामान्य है अब वि. शेष प्रकारसे कर्मबन्धका हेतु अलग अलग कहते है। ज्ञानावणिय कर्मबन्धके छे कारण है ज्ञानका प्रातनिक (वैरी) पणा करना, अथवा ज्ञानी पुरुषोंसे प्रतनिकपणा करना, ज्ञान तथा जिनोंके पास ज्ञान सुना हो पढा हो उनका नामको बदला के दुसराका नाम बतलाना। ज्ञान पढते हुवेको अंतराय करना। ज्ञान या ज्ञानी पुरुषोंकि आशातना करना, पुस्तक पाना पाटी आदिकी आशातना करना। ज्ञान तथा ज्ञानी पुरुषोंके साथ द्वेष भाव रखना, ज्ञान पढते समय या ज्ञानी पुरुषोंपर विषमवाद तथा पढने का अभाव करना इन छे कारणों से ज्ञानावणिय कर्मबन्धता है। दर्शनावर्णीय कर्मबन्ध के छ कारण है जो कि उपर ज्ञानावर्णिय कर्मबन्ध के छे कारण बतलाया है उसी माफीक समझना. वेदनिय कर्मवन्ध के कारण इस मुजब है साता वेद. निय. असाता बेदनिय कर्म जिस्में साता वेदनिय कर्मबन्ध के छे कारण है सर्व प्राणभूत जीव सत्वकी अनुकम्पा करे दुःख न दे. शोक न करावे झुरापो न करावे, परताप न करावे. उद्विघ्न न करावे. अर्थात् सर्व जीवों को साता देवे. इन कारणों से साता वेदनियकर्म बन्धता है और सर्व प्राण भूतजीवसत्वको दुःख देवे तकलीफ दे शोक करावे झरापो करावे परतापन करावे उद्विघ्न करावे अर्थात पर जीवोंको दुःख उत्पन्न कराने से असाता वेदनियकर्म बन्धता है। ___मोहनिय कर्मबन्ध के छ कारण है तीव्र क्रोध मान माया लोभ राग द्वष दर्शन मोहनिय चारित्र मोहनिय तथा दर्शन मोहनिका बन्ध कारण जिन पूजा में विघ्न करना देव द्रव्य भक्षण करना. अरिहंतो के धर्मका अवगुण बाद बोलना इत्यादि कारणोंसे माहनिय कर्मका वन्ध होता है। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३०) शीघबोध भाग २ जो. आयुष्य कर्मबन्ध होनेका कारण-नरकायुष्य बन्धनेका च्यार कारण है महा आरंभ, महा परिग्रह पांचेन्द्रियका घातो. मांस भक्षण करना इन च्यार कारणोंसे नरकायुष्य बन्धता है। माया करे गुढ माया करे. कुडा तोल माप करे. असत्य लेख लिखना इन च्यार कारणोंसे जीव तीर्यचका आयुष्य बन्धता है। प्रकृतिका भद्रीक हो विनयवान हो. दयाका परिणाम है दुसरेको संपत्ती देख इर्षा न करे इन च्यार कारणों से मनुष्यका आयुष्य बन्धता है । सराग संयम संयमासंयम, अकाम निर्जरा, बालतप इन च्यार कारणों से देवतावोंका आयुष्य बन्धता है। नाम कर्मबन्ध के कारण-भावका सरल; भाषाका सरल. कायाका सरल, और अविषमबाद योग इन च्यार कारणोंसे शुभ नाम कर्मका बन्ध होता है तथा भावका असरल वांका. भाषाका असरल, कायाका असरल, विषमबाद योग इन च्यारों कारणोसे अशुभ नाम कर्मबन्ध होता है इति गौत्र कर्मबन्ध के कारण जातिका मद करे. कुलका मद करे. बलका मद करे रूपका मद करे तपका मद करे लाभका मद करे. सूत्रका मद करे ऐश्वर्यका मद करे इन आठ मदके त्याग करनेसे उच्च गौत्र कर्मका बन्ध होते है इनोसे विप्रीत आठ मद करनेसे निच गोत्र कर्मका बन्ध होते है। अन्तराय कर्मबन्धके पांच कारण है दान करते हुवेकों अंत. राय करना कीसी के लाभ होते हो उनों में अंतराय करना. भोग में अन्तराय करना. उपभोग में अंतराय करना. वीर्य याने कोइ पुरुषार्थ करता हो उनोंके अन्दर अंतराय करना. इन पांचो कारणोंसे अंतराय कर्मबन्ध होते है। (९) मोक्षतत्व-जीव रूपी सुवर्ण कर्म रूपी मैल ज्ञान दर्शन चारित्र रूपी अग्निसे सोधके निर्मल करे उसे मोक्ष तत्त्व कहते है जीव के आत्म प्रदेशोंपर कर्मदल अनादि काल से लगे हुवे है Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवतत्त्व. ( १३१ ) arial अनेक प्रकारकी तपश्चर्या कर सर्वथा कर्मोंका नाश कर जीवकों निर्मल बना अक्षयपद को प्राप्त करना उसे मोक्ष तत्व कहते है जिसके सामान्य चार भेद ज्ञान, दर्शन, चारित्र. वीर्य. विशेष नौ भेद है ( १ ) सत्पद परूपना, सिद्ध पद सदाकाल शास्वता है ( २ ) द्रव्य प्रमाण - सिद्धों के जीव अनंता है। ( ३ ) क्षेत्र प्रमाण - सिद्धोंके जीव सिद्ध शीलाके उपर पैंतालीस लक्ष योजन के विस्तारवाला एक योजनके चौवीसवां भाग में सिद्ध भगवान विराजते है । ( ४ ) स्पर्शना- एक सिद्ध अनेक सिद्धोंको स्पर्श कर रहे है अनेक सिद्ध अनेक सिद्धोंको स्पर्श कर रहे है । ( ५ ) काल प्रमाण - एक सिद्धोंकि अपेक्षा आदि है परन्तु अन्त नही है ओर बहुत सिद्धोंकि अपेक्षा आदि भो नही ओर अन्त भी नही है । ( ६ ) अन्तर - सिद्धों के परस्पर अंतिरा नही है ( ७ ) संख्या- सिद्धों के जीव अनंता है वह अभव्य जीवोंसे अनंत गुणा और सर्व जीवोंके अनंतमें भाग है । (८) भाव - सिद्धों के जीव क्षायक ओर परिणामीक भावमें है। ( ९ ) अल्पाबहुत्व - ( १ ) सर्व स्तोक चोथी नरकसे निकला सिद्ध हुवे है २ ) तीजी नरक से निकले सिद्ध हुवे संख्यात गुणे ( ३ ) दुजी नरकसे निकले सिद्ध हुवे संख्यात गुणा "" "" ( ४ ) वनास्पति से (५) पृथ्वी काय से ܕ 35 ܕܪ " Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३२ ) शीघ्रबोध भाग २ जो. निकले सिद्ध हुवे संख्यात गुणे.. " 99 9: ( ६ ) अपकायसे (७) भुवनपति देवीसे (८) भुवनपति देवसे ( ९ ) व्यंतर देवीसे " ( १२ ) ज्योतीषी देवसे (१३) मनुष्यणी से (१४) मनुष्य से ( १५ ) पहले नरक से 23 ( १० ) व्यंतर देवसे ( ११ ) ज्योतीषी देवीसे " " " 3 29 23 "" 29 (१६) तीर्थचणी से ( ९७ ) तीर्थच से ( १८ ) अनुत्तर वैमान दे० (१९) नवग्रैवेयक देवसे " (२०) बारहवा देवलोक दे० ( २१ ) इग्यारवा देवलोक से (२२) दशवा देवलोकसे ( २३ ) नौवा देवलोक से ( २४ ) आठवा देवलोक से " ( २५ ) सातवा देवलोक से "" 23 19 "" " (२६) छट्ठा देवलोक से (२७) पांचवा देवलोकसे ( २८ ) चोथा देवलोक से (२९) तीजा देवलोक से (३०) दुजा देवलोककी देवी (३१) दुजा देवलोकके देव 11 :: 59 "" 21 77 "" • 99 RAD " 19 ,, ARRA 27 " 59 * 22 AARA " " 22 29 125 "" "" 99 " " 97 37 399 " 77 77 37 " 27 ܕ " "" " ܕܕ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियाधिकार. ( ३२ ) पहला देवलोककी देवी ( ३३ ) पहला देवलोकके देवसे नोट -- नरकादिसे निकल मनुष्यका भव कर मोक्ष जाने कि अपेक्षा है। "" 95 इति मोक्ष तत्व || इति नव तत्व संपूर्ण. सेवंभंते सेवते तमेवसच्चम्. ( १ ) नामद्वार ( २ ) अर्थद्वार ( ३ ) सक्रियाद्वार ( ४ ) क्रिया कीन से करे (५) क्रियाकरतां कोतने कर्म बन्धे. ( ६ ) कर्म बान्धतो क्रिया ( ७ ) एक जीवकों कीतनी ० (८) काइयादि क्रिया ( ९ ) अजोजीया क्रिया (१०) कीती क्रिया करे (११) आरंभीयादि क्रिया ( १२ ) क्रियाका भांगा (१३) प्राणातिपादि ( १४ ) क्रियाका लगना थोकडा नम्बर २. ( श्री पनवणादि सूत्रों से क्रियाधिकार ) ( १३३ ) ( २१ ) जाल (२२) किरिया ( २३ ) भंड वेचे २४ ) ऋषीश्वर " (१५) अल्पाबहुत्व ( १६ ) शरीरोत्पन्न ( १७ ) पांचक्रिया लागे (१८) नौ जीवोंको क्रिया (१९) मृगादि क्रिया ( २० ) अग्नि ( २५ ) अन्त क्रिया (२६) समुदुग्धात (२७) नौ क्रिया "" २८) तेरहा क्रिया (२९) पचवीस क्रिया Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा। ( १३४ ) शीघ्रबोध भाग २ जो. इन थोकडेके सर्व १५४७२ भांगा है। (१) नामबार क्रिया पांच प्रकारकि है यथा-काइया क्रिया, अधिकरणीया क्रिया, पावसिया क्रिया, परितापनिया क्रिया, पाणाइवाइया क्रिया। (२) अर्थद्वार-काइया क्रिया-अव्रतसे लागे तथा अशुभयोगोंसे लागे। अधिगरणीया क्रिया, नयाशस्त्र बनानेसे तथा पुराणा शस्त्र तैयार करानेसे । पावसिया किया-स्वात्मापर द्वेष करना, परमात्मापर द्वेष करना, उभयात्मापरं द्वेष करनासे, परितापनिया क्रिया, स्वात्माकों प्रताप उत्पन्न करना, परआत्माको प्रताप करना, उभयात्माकों प्रताप करना, पाणाइवाइया क्रियास्वात्माकी घात करना परात्माकी घात करना, उभयात्माकी घात करना । उसे प्राणातिपात कहते है. (३) सक्रियद्वार-जीव सक्रिय है या अक्रिय १ जीव सक्रिय अक्रिय दोनों प्रकारका है कारण जीव दो प्रकारके है सिद्धोंके जीव, सांसारी जीव जिस्म सिद्धोंके जीवतों अक्रिय है और संसारी जीवोंके दो भेद है-सयोगि जीव, अयोगिजीव जिस्म अयोगि चौदवे गुणस्थानवाले वह अक्रिय है शेष जीव । संयोगि वह सक्रिय है एवं नरकादि २३ दंडक संयोगि होनेसे सक्रिय है मनुष्य समुच्चय जीवकी माफीक अयोगि है वह अक्रिय है और सयोगि है वह सक्रिय है इति।। (४) क्रिया कीनसे करते है। प्राणातिपातकी क्रिया छे कायके जीवोंसे करते है. मृषावाद की क्रिया सर्व द्रव्यसे करते है। अदत्तादांनकि क्रिया लेने लायक ग्रहन करने योग्य द्रव्योंसे करते है। मैथुनकि क्रिया-भोग उपभोगमे आने योग्य द्रव्य से Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियाधिकार. (१३५) अथवा रूप और रूपके अनुकुल द्रव्योंसे करते है। परिग्रहकि क्रिया सर्व द्रव्य से करते है एवं क्रोध, मान, माय, लोभ, राग, द्वेष, कलह अभ्याख्यान, पैशुन्य परपरीवाद रति अरति माया मृषावाद और मिथ्यादर्शन इन सबकी क्रिया सर्व द्रव्यसे होती है अर्थात् प्राणातीपात, अदत्तादान, मैथुन इन तीन पापकि क्रिया देश द्रव्यी है शेष पंदग पापकी क्रिया सर्व द्रव्यी है। समुच्चय जीवापेक्षा अठारा पापकि क्रिया बतलाइ है इसी माफीक नरकादि चौवीस दंडक भी समझ लेना. इसी माफीक समुच्चय जीवों और नरकादि चौवीस दंडकके जीवों (बहुवचन) का सूत्र भी समझना एवं ५० बोलोकों अठारा गुने करनेसे ९०० तथा १२५ पहले पांच क्रियाके मीलाके सर्व यहांतक १०२५ भांगे हुवें. जीव प्राणातिपातकि क्रिया करता हुवा. स्यात् सात कर्म बान्धे स्यात् आठ कर्म बन्धे एवं नरकादि २४ दंडक। बहुत नीवोंकि अपेक्षा सात कर्म बान्धनेवाला भी घणा, आठ कर्म वन्धनेवाले भी धणा। बहुतसे नारकीके जीवों प्राणातिपातकि क्रिया करते हुवे. सात कर्म तो सदैव बांधते है सात कर्म बान्धने वाले बहुत आठ कर्म बांधनेवाले एक, सात कर्म बांधनेवाले बहुत और आठ कर्म बान्धनेवाले भी बहुत है. इसी माफीक एकेन्द्रिय वर्जके १९ दंडकमे तीन तीन मांगे होनसे ५७ भांगे हुवें, एकेन्द्रिके पांच दंडकमें सात कर्म बन्धनेवाले बहुत और आठ कर्म बान्धनेवाले भी बहुत है । इसी माफीक मृषाबादादि यावत् मिथ्याशल्य अठारे पापकि क्रिया करते हुवे समुञ्चय जीव और चौवीस दंडकके पूर्ववत् सात कर्म ( आयुष्य वर्जके ) तथा आठ कर्मोका बन्ध होते है जिस्के भांगे प्रत्येक पापके ५७ सतावन होते है सतावनकों आठ गुणे करनेसे १०२६ भांगे हुवे । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६ ) शीघ्रबोध भाग २ जो. जीव ज्ञानावर्णिय कर्म बान्धे तो कितनी क्रिया लागे ?. स्वात् तीन क्रिया स्यात् व्यार क्रिया स्यात् पांच क्रिया लागे. कारण दुसरोंके लिये अशुभयोग होनेसे तीन क्रिया लगती है दुसरोंकों तकलीफ होने से प्यार क्रिया लगती हैं अगर जीवोंकि घात होतों पांचों किया लगती है. जब जीव ज्ञानावर्णिय कर्म बान्ध समय पुद्गलोंकों ग्रहन करते है उनी पुद्गल ग्रहन समय जीवोंकों तकलीफ होती है जीनसे किया लगती है । इसी माफीक नरकादि चौवीस दंडक एक वचनापेक्षा स्यात् ३-४५ क्रिया लागे एवं बहुवचनापेक्षा. परन्तु वहां स्यात् नही कहना कारण जब बहुत है इसी वास्ते बहुतसी तीन क्रिया, बहुतसी चार क्रिया बहुतसी पांच क्रिया. समुच्चय जीव और चौबीस दंडक एक वचन । और समुच्चय जीव और चौवीस दंडक बहुवचन ५० सूत्र हुवे जेसे ज्ञानावर्णिय कर्मके पचास सूत्र कहा इसी माफीक दर्शनावर्णिय, वेदनिय मोहनिय, आयुष्य नाम, गौत्र और अंतराय एवं आठों कर्मों के पचास पचास सूत्र होनेसे ४०० भांगा होते है । , एक जीवने एक जीवकि कीतनी क्रिया लागे ? समुच्चय एक जीवने एक जीवकी स्यात् तीन क्रिया, स्यात् च्यार किया. स्यात् पांच किया लागे स्यात् अक्रिय. कारण समुचय जीवमें सिद्ध भगवान्भी सामेल है । एवं घणा जीवोंकि स्यात् ३-४-५-० एवं घणा जीवोंकों एक जीवकी स्यात् ३-४-९-० एवं घणा जी - वने घणा जीवोंकी परन्तु घणी तीन क्रिया घणी व्यार क्रिया घणी पांच क्रिया घणी अक्रिया. एवं एक जीवकों नारकी के जीवकी कीतनी क्रिया लागे ? स्यात् तीन क्रिया. स्यात् च्यार क्रिया. स्यात् अक्रिया. कारण नारकी नोपक्रम होने से मारा हुषा नही मरते इस वास्ते पांचवी क्रिया नही लागे. एवं एक जीवने घणे Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियाधिकार. ( १३७ ) नारकोकी स्यात् ३-४-० । एवं घणा जीवने एक नारकिकी स्यात् ३-४-० एवं घणा जीवोंको घणी नारकी की तीन क्रियाभी घणी प्यार क्रियाभी घणी अक्रियाभी है. इसी माफीक १३ दंडक देवतकाभी समझना तथा पांच स्थावर, तीन विकलेन्द्रि, तीर्यचपांचेन्द्रिय और मनुष्य यह दश दंडक औदाकके समुच्चय जीवकी माफीक ३-४-९-० समझना । समुश्चय जीवसे समुच्चयजीव ओर चौवीस दंडकसे १०० भांगा हुवे । एक नारकीने एक जीवकी कीतनी क्रिया लागे ? स्यात् ३-४-५ किया लागे. एक नारकीने घणा जीवोंकि कीतनी क्रिया ? स्यात् ३-४-५ क्रिया लागे, घणी नारकीने एक जीवकी कातनी क्रिया ? स्यात् ३-४-५ क्रिया लागे, घणी नारकीने घणा जीवोकी कीतनी क्रिया ? घणी ३-४-५ क्रिया लागे. एक नारकीने वैक्रिया शरीवाले १४ दंडक एकेक जीवोंकी स्यात् ३-४ क्रिया लागे. एवं एक नारकीने १४ दंडकके घणा जीवोंकी स्यात् ३-४ क्रिया एवं घणा नारकीने १४ दंडकोंके एकेक जीवोंकी स्यात् ३-४ किया एवं घणा नारकीने १४ दंडकोंके घणा जीवोंकी घणी ३-४ क्रिया लागे. इसी माफीक दश दंडक औदारीकके परन्तु वह स्यात् ३-४-५ क्रिया कहना कारण वैक्रिय शरीर मारा हुवा नही मरते है और औदारीक शरीर मारा हुवा मरभी जाते है । इति नरक १०० भांगा हुवा इसी माफीक शेष २३ दंडक २३०० भांगा समझना परन्तु यह ध्यानमें रखना चाहिये कि मनुष्यका दंडक समुच्चय जीant माफीक कहना कारण मनुष्य में चौदवे गुणस्थान वालोंकों बिलकुल क्रिया हे ही नही इस वास्ते समुश्चय जीवकी माफीक अक्रिय भी कहना एवं समुच्चयजीवके १०० • ओर चौवीस दंडक के २४०० सर्व मील २५०० भांगे हुवे । किया पांच प्रकारकी है काइया. अधिगरणीया पावसीया Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३८) शीघ्रबोध भाग २ जो. परतापनिया. पाणाइवाइया. जीव काइया क्रिया करेसो क्या अ.. धिगरणी या भी करे ? यंत्रसे देखे समुच्चय जीव और चौबीस क्रियाकेनाम काइवा अधिगरणी पावसीया परताप परताप पाणाई निका वाइया काइयाक्रिया नियमा नियमा नियमा भजना भजना अधिगरणिया निगमा नियमा । नियमा भजना मजना | पाषसीया नियमा नियमा। नियमा , भजना भजना | परतापनिका नियमा नियमा नियमा नियमा भजना पाणाइवाइया नियमा नियमा नियमा नियमा नियमा दंडकमें पांच पांच क्रिया होनेसे १२५ भांगा हुवा एकेक भांगे यंत्र मुजब नियमा भजना लगानेसे ६२५ भांगा होते है । यहतों समुच्चय सूत्र हुवा इसी माफीक जीस समय काइयाक्रिया करे उन समय अधिगरणीया क्रिया करे इसकाभी यंत्रकी माफीक ६२५. भांगा कहना अधिकता एक समय ? कि है इसी माफिक जीस देशमें काइया क्रिया करे उन देशमें अधिगरणीया क्रिया करे ? यंत्र माफीक ६२५ भांगा कहना एवं प्रदेशकाभी ६२५ भांगा नीस प्रदेशमें काइया क्रिया करे उन प्रदेशमें अधिगरणीया क्रिया करे समुच्चयके ६२५ समयके ६२५ देश (विभाग ) के ६२५ प्रदेशके ६२५ सर्व मीली २५०० भांगा होते है इसी मा. फीक 'अजोजीया' क्रियाकाभी उपरवत् २५०० भांगा करना. विशेषता इतनी है कि समुच्चयमें उपयोग संयुक्त २५०० भांगा और अजोजीया उपयोग शुन्यके २५०० भांगे है एवं ५००० । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियाधिकार. ( १३९) क्रिया पांच प्रकारकि है काइयाक्रिया अधिगरणीया पायसिया परतापनिया पाणाइवाइ किया समुच्चयजीव और चौवीस दंडकमें पांच पांच क्रिया पावे. एवं १२५ भांगा हुषा. (१) जीवकाइया अधिकरणीया. पावसिया यह तीन क्रिया करे वह परतापनीया पाणाइवाइयाभी करे ( २ ) तीन क्रिया करे वह चोथी क्रिया करे पांचमी नही करे. (३) तीन क्रिया करे वह चोथी पांचवी नभी करे. (४) तीन क्रिया न करे वह चोथी पांचवी क्रियाभी न करे. इसी माफीक च्यार भांगा स्पर्श करनेकाभी समझ लेना. यह समुच्चय जीवों में आठ भांगा कहा इसी माफीक मनुष्य में भी समजना शेष २३ दंडकमें चोथो आठवों भांगो छोडके छे छे भांगा समझना. कुल भांगा १५४ हुवे । क्रिया पांच प्रकारकी है आरंभिया, परिग्रहिया, मायावत्तिया, मिथ्यादर्शन वत्तिया, अपच्चखानिया, समुच्चजीव और चोवीसदंडकमें पांच पांच क्रिया पानेसे १२५ भांगा होते है। समुच्चयजीव आरंभियाक्रिया करे वह परिग्रहीयाक्रिया करते है या नही करते है देखो यंत्रसे क्रियाक नाम. | आरंभी० परिग्रह. मायावति. मिथ्यादर्शन. अपच्चखामि. आरंभिया नियमा भजना नियमा भजना : भजना परिग्रहीया नियमा नियमा भजना भजना । भजना मायाव भजना ! भजना नियमा भजना भजना त्तिया मिथ्या नियमा नियमा नियमा नियमा नियमा अपञ्चखानि नियमा नियमा नियमा, भजना | नियमा Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४०) शीघ्रबोध भाग २ जो. एवं २५ भांगे हुवे । समुच्चय जीव ओर चौवीस दंडकपर पचवीस गुण करनेसे ६२५ भांगे हुवे. जीस समयके ६२५ जीस देशमें के ६२५ जीस प्रदेशके १२५ एवं सर्व २५०० एवं बहुपच नापेक्षा २५०० मीलाके सर्व ५००० भांगे हुवे। जीव प्राणातीपातका विरमण । त्याग ) करे वह छे जीवनी कायासे करे. मृषावाद का त्याग सर्व द्रव्यसे करें. अदत्तादानका • त्याग ग्रहनधरण द्रव्योंसे करे मैथुनका त्याग रूप और रूप के अनुकुल द्रव्योंसे करे परिग्रह के त्याग सर्व द्रव्यसे करे. क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह अभ्याख्यान पैशुन्य परपरीबाद रति अरति मायामृषावाद और मिथ्यादर्शन शल्यका त्याग सर्व द्रव्य से करे. एवं मनुष्य तथा २३ दंडक के जीव सतरा पापों का त्याग नही कर सके मात्र पांचेन्द्रिय के १६ दंडक के जीव मिथ्यादर्शन शल्यका त्याग कर सके है शेष आठ दंडक नही करे एवं समुच्चय जीव और चौवीस दंडक को अठारा गुणे करनेसे ४५० भांगे होते है। ____ समुच्चय जीव प्राणातिपात का त्याग कीया हुवा कोतने कर्म बान्धे ? सात कर्म बान्धे आठ कर्म बान्धे छे कर्म बान्धे एक कर्म बान्धे तथा अबन्धकभी होता है। बहुत जीवोंकि अपेक्षा सात, आठ, छे एक कर्म बान्धनेवाले तथा अबन्धकभी होते है । इसी माफीक मनुष्य में भी समजना शेष तेवीस दंडकमें प्राणा. तिपातका सर्वथा त्याग नही होते है ॥ समुच्चय जीवोंमें सात कर्म वान्धनेवाले तथा एक कर्म बा. न्धनेवाले सदैव सास्वता मीलते है और आठ, छे और अबा. न्धक असास्वता होते है जिनके भांगे २७ होते है। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियाधिकार. (१४१) | ० سه سه ० ० ० سه سد ० ० ० سه سه سه . सात एक के सास्वता आठ कर्म छे कर्म n n n | संख्या ० । अवान्धक ० Gne 03. ० ० . wwwimwww. ० ० ० ० जहांपर तीनका अंक है वह बहु. वचन और एक का अंक है उसे एकवचन समझे जहां (०) हे वह कुच्छभी नही। । समुच्चय जीवकी माफीक मनुष्य में भी २७ भांगे समझना. एवं ५४ एक प्राणातीपातके त्याग के ५४ भांगे हुवे इसी माफीक अठारा पापों के भी ५४-५४ भांगे गीननेसे ५७२ भांगे हवे शेष तेवीस दंडकमें अठारा पापका घिर. माण नही होते है परन्तु इतना विशेष है की मिथ्यादर्शन शल्यका विरमण नारकी देवता और तीर्यच पांचेन्द्रिय एवं १५ दंडक कर सकते है वह जीव सात आठ कर्म वान्धते है बहुत जीवों कि अपेक्षा सात कर्म बान्धनेवाले सदैव सास्वत है आठ कर्म बान्धनेबाले असास्वते है जिस्के भांगे तीन होते है (१) सात कर्म बान्धनेवाले सास्वते (२) सात कर्म बान्धनेवाले बहुत और आठ कर्म बान्धनेवाले एक (३) सात ३ कर्म बान्धनेवाले घणे और आठ कर्म बान्धनेवालेभी बहुत है. एवं पंदरा दंडक के ४५ भांगे होते है सर्व मीलके १०१७ भांगे होते है। समुच्चय जीव प्राणातीपातके त्याग करनेवालों के क्या आरंभकि क्रिया ० ० mm orm سه سه سه سه سه سه سه سه سد سه . سه ० ० amr orm or ० ० or Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ or سه سه سه سه سم au ar an سم m سم ar سم m ( १४२) शीघ्रबोध भाग २ जो. ३ || ३३ लागे ? स्यात् लागे (छटे गुणस्थान ) | स्यात् न भी लागे । अप्रमातादि गुण. स्थान ) परिग्रह, मिथ्यादर्शन, और अप्रत्याख्यानकि क्रिया नही लागे तथा मायावत्तिया क्रिया स्यात् लागे (द. शवे गुणस्थान तक) स्यात न भी लागे ( वीतरागी गुणस्थान ) एवं मृषावादादि यावत् मिथ्यादर्शन शल्यतक अठारा पाप के त्याग किये हुवे कों स. ३/३/ ३ |१| मझना समुच्चय जीवकी माफीक मनु व्य को भी समजना शेष २३ दंडक के जीव १८ पापों के त्याग नही कर सकते है इतना विशेष है कि मिथ्यादर्शन के त्याग नारको देवता तीर्यध पांचेन्द्रिय एवं १५ दंडक के जीव कर सकते है उनों को मिथ्यात्वकी क्रिया नही लगती है । समुच्चय जीव चौवीस दंडक कों अठारा पापसे गुणा करनेसे ४५० भांगे हुवे। __ अल्पा बहत्व-सर्वस्तोक मिथ्यात्व कि क्रियावाले जीव है अप्रत्याख्यानकि क्रियावाले जीव विशेषाधिक है. परिग्रहकि क्रियावाले जीव विशेषाधिक है. आरंभकि क्रियावाले जीव विशेषाधिक है मायावत्तिया क्रियावाले जीवविशेषाधिक है। __ समुच्चय जीव पांच शरीर, पांच इन्द्रिय, तीनयोग उत्पन्न करते हुवे को कितनी क्रिया लगती है ? स्यात् तीन स्यात् च्यार स्यात् पांच क्रिया लगती है इसीमाफोक दशदंडकके जीव औदारीक शरीर, सतरादंडकके जीव वैक्रिय शरीर, एक मनुष्य आहारीक शरीर, चौवीस दंडकके जीव तेजस, कारमण स्पर्शेन्द्रिय और कायाका योग, शोलह दंडकके जीव श्रोत्रेन्द्रिय और मन Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियाधिकार. ( १४३ ) योग, सत्तरा दंडकके जीव चक्षु इन्द्रिय, अठारा दंडकके जीव घ्राणेन्द्रिय उन्नीस दंडकके जीव रसेन्द्रिय, और वचनके योग उत्पन्न करते हुवेको स्यात् तीन क्रिया स्यात् च्यार क्रिया स्यात् पांच क्रिया लगती है । समुच्चय एक जीवकों एक औदारीक शरीर कि कीतनी क्रिया लागे ? स्यात् तीन क्रिया स्यात् व्यार क्रिया स्यात् पांच क्रिया स्यात् अक्रिया, एवं एक जीवने घणा औदारीक शरीरकी घणा जीवोंकों एक औदारीक शरीर की घणा जीवोंकों घणा औदारीक शरीरकी, घणी तीन क्रिया घणी च्यार क्रिया घणी पांच क्रिया घणी अक्रिया । एक नारकीके जीवकों औदारीक शरीरकि स्यात् ३-४-२ क्रिया, एवं एक नारकीने घणा औदारीक शरीरकी घृणा नारकीकों एक औदारीक शरीरकी और घणा नारकीकों घणा औदारीक शरीरकी वणी ३-४-२ क्रिया लागे. एवं चौवीस दंडक मीलाके १०० भांगे हुवे. इसी माफीक जीव और वैक्रिय शरीर परन्तु क्रिया ३-४ एवं आहारीक शरीर क्रिया ३-४ लागे कारण वैक्रिय आहारीक शरीर के उपक्रम लागे नही. तेजस - कारमण शरीरके ३-४-५ क्रिया, एकेक शरीर से समुच्चय जीव और चौवीस दंडक पचवीसकों च्यार गुणा करनेसे १०० सो भांगे हुवे एवं पाच शरीरके ५०० सो भांगे समझना । एक मनुष्य मृगकों मारते हैं उनोकि निष्पत् नौ जीवोंकों पांच पांच क्रिया लगती है जेसे मृग मारनेवाले मनुष्यकों, धनुष्य जो बांस से बना है उन वांसके जोव अन्य गतिमें उत्पन्न हुवे है वह व्रत प्रत्याख्यान नही कीया हो तो उनके शरीर से धनुष्य बना है वास्ते मृग मारने में वह धनुष्य भी सहायक होने से उन नीवोंको भी पांच क्रिया लगती है । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४४ ) शीघ्रबोध भाग २ जो. जीवा जो धनुष्यके अग्र भागमें सुतकी डारी, साका श्रृंग जो धनुष्य के अधोभागमें रखा जाता है. पाणच, चर्म, बाण भालोडी फूदा इन उपकरणोंके जीव जीस गतिमें है उनों सas पांच पांच किया लगती है । कोइ जोव मृग मारनेकों ET तैयार कीया कांन तक खीचके बाण फेंकने कि तैयारी में था इतनेमें दुसरा मनुष्य आके उनका शिरच्छेद किया जीस्के जरिये वह बाण हाथ से छुटा जीनसे मृग मर गया तो कोनसा जीवके पापसे कोन स्पर्श हुवा ? मृग मारनेके परिणामवालोकों मृगका पाप लगा और मनुष्य मारनेवालेके परिणामवालाकों मनुष्यका पाप लगा । एक मनुष्य बांणसे पाक्षी मारनेका विचारमे था. उन बा णसे पाक्षीको मारा पाक्षी निचे गिरता हुवा उनके शरीर से दुसरा जीव मर गया. तो पानी मारनेवाला मनुष्यकों पाक्षीकी पांच क्रिया और दुसरे जीवकि प्यार क्रिया लागे पाक्षीका दुसरा जीवकी पांचो क्रिया लागे । अग्नि - कीसी दुष्टने अनि लगाइ और कीस सुज्ञने अनि बुजाइ जिसमे अग्नि लगानेवालेकों महाश्रव महाकर्म महाक्रिया महावेदना है और अग्नि बुजानेवालेको स्वल्पाश्रव स्वल्पकर्म स्वल्पक्रिया, स्वल्प वेदना है कारण अग्नि लगानेवालेका परिणाम दुष्ट ओर बुजानेवालेका परिणाम विशुद्ध था । अनि जलाने के इरादे से काष्ट कचरा एकत्र किया तथा मृगमारनेकों बाण तैयार कीया मच्छी पकडनेको जाल तैयार करी वर्षादा जानने कों हाथ बाहार निकाला उन सबकों पांच पांच क्रिया लगति है कारण अपना परिणाम खराब होने से ३ क्रिया देख के दुसरे जीवोंकों तकलीफ होना ४ क्रिया इनोंसे जीव मरनेकी भावना होने से पांचो क्रिया लगति है। I Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियाधिकार. ( १४५ ) कीसी याचकके अन्न पाणी वस्त्रादिकी आवश्यक्ता होने से उने तीव्र क्रिया लगति है और कीसी दातारने अपनि वस्तुकि ममत्व उतार उसे देदी तो उन याचक कों पतली क्रिया लगती है और दातारकी ममत्व उतारनेसे उन पदार्थकि क्रिया बन्ध हो गई है। कियाणा - कीसी मनुष्यने क्रियाणा वेचा. कीसी मनुष्यने क्रियाणा खरीद किया, वेचनेवालेकों क्रिया हलकी हुई, और लेनेवालोंको भारी हुइ कारण वेचनेवालोंकों तो संतोष हो गया अब लेनेवालोंको उनका संरक्षण तथा तेजी मंदीका विचार करना पडता है, माल वेचीयों तीकों तोल दीनों रूपैया लीना नहीतों बेचनेवालोंकों दोनों क्रिया हलकी. लेनेवालोकों दोनो क्रिया भारी लगती है । मालतों तोलीयों नही और रूपैया ले लीना इनसे बेचनेवालोंकों क्रिया भारी, खरीदनेवालोंकों रूपैया कि क्रिया हलकी हुइ । माल तोलके रूपैया ले लीना तो रूपैया लेनेवालोंकों रूपैयाकी क्रिया भारी. माल उठानेवालोंकों मालकी क्रिया भारी लगती है । कीसी मनुष्य की दुकान पर से एक आदमि एक वस्तु ले गया उनकी शोधके लिये घरधणी तलास कर रहा, उनोंकों कीतनी क्रिया ? जो सम्यग्दष्टि हो तो च्यार क्रिया. मिथ्यादृष्टि हो तो पाच क्रिया. परन्तु क्रिया भारी लागे और तलास करनेपर वह वस्तु मील जावे तो फीर वह क्रिया हलकी हो जाति है । ऋषि - कोई मनुष्य अश्वगजादि कोइ जीवकों मारेतों उन अश्वगजादिके पाप से स्पर्श करे अगर दुसरा कोइ जीव विचमें मरजावे तो उनके पाप से भी मारनेवाला जरूर स्पर्श करे । एक १० Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियाधिकार. (१४७ ) बज्रक्रिया-अगर कोई गृहस्थ मुनियोंके वास्ते ही मकान कराया है कदाच मुनि उनमें न ठेरे तो गृहस्थ विचार करे कि अपने रहनेका मकांन मुनिकों देदो अपने दुसरा बन्धा लेंगे अगर पसा मकानमें मुनि ठेरे तो उने बज्र क्रिया लागे । महाबज्र क्रिया-कोइ श्रद्धालु गृहस्थ अन्य तीर्थीयोंके लिये मकान बन्धाया है जिसमें भी उनका नाम खोलके अलग अलग मकान बन्धाया हो उनमे तो साधुवोंकों उत्तरना कल्पता ही नहीं है अगर उत्तरे तो महावन यिा लागे । ___सावध क्रिया-बहुतसे साधुवोंके नामसे एक धर्मसालादिक मकान कराया है उनमे मुनि ठेरे तो सावध क्रिया लागे. तथा एक साधुका नामसे मकान बनावे उनमें उतरे तो महा सावध क्रिया लागे । गृहस्थ अपने भोगवने के लिये मकान बनाया है परन्तु साधुवोंके ठेरने के लिये उन मकानकों लीपणसे लिंपावे. छान छवावे, छपरा करावे एसा मकान में साधुवोंको ठेरना नही कल्पे। अगर गृहस्थ अपने उपभोग के लिये मकान बनाया है वह निर्वद्य होनेसे मुनि उन मकानमें ठेरे तो उनोंको कीसी प्रकारकी क्रिया नही लगती है उने अल्प सावध क्रिया कहते है अल्प निषेध अर्थ में माना गया है वास्ते क्रिया नही लगती है ( आचा. रांग सूत्र . क्रिया तेरहा प्रकारकी है अर्थादंड क्रिया अपने तथा अपने संबन्धीयों के लिये कार्य करनेमे क्रिया लगति है उसे अर्थादंड कहेते है अनदिंड याने विगर कारण कर्मबन्ध स्थान सेवन करना । हिंस्यादंड क्रिया हिंस्या करनेसे. अकस्मात् दुसरा कार्य करते विचमे विगर परिणामोंसे पाप हो जावे.दृष्टि विपर्यास Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियाधिकार. ( १४७ ) बज्रक्रिया - अगर कोई गृहस्थ मुनियोंके वास्ते ही मकांन कराया है कदाच मुनि उनमें न ठेरे तो गृहस्थ विचार करे कि अपने रहनेका मकांन मुनिकों देदो अपने दुसरा बन्धा लेंगे अगर पसा मकान में मुनि ठेरे तो उने बज्र क्रिया लागे । महावज्र क्रिया - कोइ श्रद्धालु गृहस्थ अन्य तीर्थीयोंके लिये asia बन्धाया है जिसमें भी उनोंका नाम खोलके अलग अलग मां बन्धाया हो उनमे तो साधुवोंकों उत्तरना कल्पता ही नहीं है अगर उत्तरे तो महावज्र या लागे । सावध किया - बहुतसे साधुवोंके नामसे एक धर्मसालादिक मकान कराया है उनमें मुनि ठेरे तो सावध क्रिया लागे. तथा एक साधुका नामसे मकान बनावे उनमें उतरे तो महा सावद्य क्रिया लागे । गृहस्थ अपने भोगवने के लिये मकांन बनाया है परन्तु साधुवोंके ठेरनेके लिये उन मकानक लीपणसे लिंपावे. छान छव!वे, छपरा करावे एसा मकान में साधुवोंको ठेरना नही कल्पे | अगर गृहस्थ अपने उपभोग के लिये मकांन वनाया है वह निर्वद्य होने से मुनि उन मकानमें ठेरे तो उनोंको कीसी प्रकारकी क्रिया नहीं लगती है उने अल्प सावध क्रिया कहते है अल्प निषेध अर्थ में माना गया है वास्ते क्रिया नही लगती है ( आचारांग सूत्र . क्रिया तेरहा प्रकारकी है अथदंड क्रिया अपने तथा अपने संबन्धीयों के लिये कार्य करनेमे क्रिया लगति है उसे अर्थदंड कहते है अनथदंड याने बिगर कारण कर्मबन्ध स्थान सेवन करना | हिंस्यादंड क्रिया हिंस्या करनेसे. अकस्मात् दुसरा कार्य करते विचमे विगर परिणांमोंसे पाप हो जावे. दृष्टि विपर्यास Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४८) शीघबोध भाग २ जो. हानेसे पाप लागे। मृषाबाद बोलनेसे क्रिया लागे। चोरी कर्म कर नेसे क्रिया लागे । खराब अध्यवसायसे० मित्रद्रोहीपणा करनेसे । मानसे, मायासे, लोभसे, इर्यापथिकी क्रिया. ( सूत्रकृतांग सूत्र ). हे भगवान् कोइ श्रावक सामायिक कर बेठा है उनकों क्रिया क्या संपराय कि लगती है या इर्यावहि कि १ उन श्राप ककों संपराय की क्रिया लगती है किन्तु इर्यापथिकी क्रिया नहा लागे! कारण सामायिक बेठे हुवे श्रावककी आत्मा अधिकरण है यहां अधिकरण दो प्रकारके होते है द्रव्याधिकरण हलशकटादि सोंतों सामायिकके समय श्रावक के पास है नही ओर दुसरा भावाधिकरण जो क्रोध, मान, माया, लोभ. यह आत्म प्रदेशोंमें रहा हुवा है इस वास्ते श्रावकके इर्यावहि क्रिया नही लागे किन्तु संपराय क्रिया लगती है। वृहत्कल्पसूत्र उदेश १ अधिकरण नाम क्रोधका है. वृहत्कल्पसूत्र उदेश ३ अधिकरण नाम क्रोधका है. व्यवहारसूत्र उदेश ४ अधिकरण नाम क्रोधका है. निशिथसूत्र उदेश १३ वा अधिकरण नाम क्रोधका है. भगवतिसूत्र शतक १६उ०१ आहारीक शरीरवाले मुनियोंकी कायाकों भी अधीकरण कहा है. कीतनेक अज्ञलोग कहते है कि श्रावकको खानपान आदिसे साता उपजानेसे शखकों तीक्षण करने जेसा पाप लगता है लेकीन यह उन लोगोंको मूर्खता है कारण श्रावकों को शास्त्रमें पात्र कहा है अम्बड श्रावक छठ छठ पारणा करता था वह एक दिन के पारणाम सो सो घर पारणा करता था ( उत्पातिकसूत्र ) पडिमाधारी श्रावक गौचरी कर भिक्षा लाते है (दशाश्रुत स्कन्ध Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियाधिकार. ( १४९) अगर श्रावककों खान, पान, देने में पाप होतो भगवान ने पडिमाधारी श्रावकोंको भिक्षा लाना क्यों बतलाय । संख श्रावक पोखली श्रावक स्वामिवात्सल्य कर पौषद क्रिया भगवतीसूत्र १२ । १ इस शास्त्र प्रमाणसे श्रावकको रत्नोंकी मालामे सामी. लगीणा गया है इत्यादि। पचवीस क्रिया-काइया, अधिकरणीया, पावसिया, परतावणिया, पाणाइवाइया, आरंभिया, परिगहीया, मायावत्तिया, मिच्छादरसणवत्तिया, अपञ्चखाणवत्तिया, दिठिया, पुछिया पाडुचिया, सामंतवणिया, सहत्थिया, परहत्थिया, अणवणिया, वेदारणीया, अणकक्खवत्तिया, अणभोगवत्तिया, पोग्ग क्रिया, पेज क्रिया, दोस क्रिया, समदांणी क्रिया, इरियावही क्रिया. अलापक-सूत्र-गमा-भांगा-बोल-यह सब एकार्थी है यहांपर बोलोको भांगाके नामसे ही लीखा गया है सर्व भांगा १५४७२ हुवे है। सूत्रोंमें जगह जगह लिखा है कि श्रावकों को " अभिगय जीवाजीव यावत् किरिया अहीगरणीयादि " अर्थात् श्रावकोंका प्रथम लक्षण यह है कि वह जीवाजीव पुन्य पापाश्रव संवर निजेरा बन्ध मोक्ष क्रिया काइयादि का जानपणा करे जब श्रावकों के लिये ही भगवान् का यह हुकम हे तो साधुवों के लिये तो कहना ही क्या इस भागमें नव तत्व और पचवीस क्रिया इतनी तो सुगम रीती से लिखी गई है की सामान्य बुद्धिवाला भी इनसे लाभ उठा सकता है इस वास्ते हरेक भाइयों को इन सब भागों को आद्योपान्त पढके लाभ लेना चाहिये । इत्यलम् ॥ शान्ति शान्ति शान्ति ॥ सेवंभंते सेवंभंते तमेव सच्चम् | इति शीघ्रबोध भाग २ जो समाप्तम् । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला पुष्प नं. २८ अथ श्री शीघ्रबोध नाग ३ जो । थोकडा नम्बर २० सूत्र श्री अनुयोग द्वारादि अनेक प्रकरणोंसे. ( बालावबोध द्वार पचवीस ) १ ) नयसात ( २ ) निक्षेपा च्यार ( ३ ) द्रव्यगुण पर्याय ( ४ ) द्रव्य क्षेत्र काल भाव ( ५ ) द्रव्य भाव ( ६ ) कार्य कारण (७) निश्चय व्यवहार ( ८ ) उपादान निमत्त ( ९ ) प्रमाण च्यार (१०) सामान्य विशेष ( ११ ) गुणगुणी ( १२ ) ज्ञय ज्ञान ज्ञानी (१३) उपनेवा, विघ्नेवा, ध्रुवेवा ( १४ ) अध्येय आधार ( १५ ) आविर्भाव तिरोभाव ( १६ ) गौणता मौख्यत्ता ( १७ ) उत्सर्गोपवाद (१८) आत्मातीन ( १९ ) ध्यान च्यार ( २० ) अनुयोग च्यार (२१) जागृनातीन ( २२ ) व्याख्या नौ ( २३ ) पक्ष आठ ( २४ ) सप्तभंगी (२५) निगोद स्वरूप । इतिद्वार ॥ नय - निक्षेपों के विवेचनमें बडे बडे ग्रन्थ बनचुके है परन्तु उनी ग्रन्थों में विस्तार से विवेचन होनेसे सामान्य बुद्धिवाले सुगमता पूर्वक लाभ उठा नही सकते है तथा विवरणाधिक होने से वह कण्ठस्थ करनेमें आलश्य प्रमाद हुमला कर चैतन्यकि शक्ति रोक देते है इस वास्ते खास कंठस्थ करने के इरादेसेही हमने यह Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयाधिकार. ( १५१ ) संक्षिप्त सार लिख आपसे निवेदन करते है कि इस नयादिकों कण्ठस्थ कर फीर विवेचनवाले ग्रंथ पढो । ( १ ) नयाधिकार ( १ ) नय-वस्तु के एक अंश को गृहन कर वक्तव्यता करना उनकों नय कहते है जब वस्तुमें अनंत ( पर्याय ) अंश है उनोंकि वक्तव्यता करने के लिये नयभी अनंत होना चाहिये ? जीतना वस्तु धर्म (स्वभाव) है उनोंकि व्याख्या करनेको उतनाही नय है परन्तु स्वल्प बुद्धिवालों के लिये अनंत नयका ज्ञानकों संक्षिप्त कर सात नय बतलाया है । अगर नैगमादि एकेक नय से ही एकांत पक्ष ग्रहन कर वस्तुतत्वका निर्देश करे तो उनोंकों नयाभास ( मिथ्यात्वी ) कहा जाता है कारण वस्तुमें अनंतधर्म है उनक व्याख्या एकही नयसे संपुरण नही होसकती है अगर एक नय से एक अंशकि व्याख्या करेंगे तो शेष जो धर्म रहे हुवे है उनका अभाव होगा। इसी वास्ते शास्त्रकारोंका फरमान है कि एक वस्तुमें एकेक नयकि अपेक्षा से अलग अलग धर्मकि अलग अलग व्याख्या करनासेही सम्यक् ज्ञानकि प्राप्ती हो सके उनोंकाही सम्यग्दृष्टि कहाजाते हैं. इसपर हस्ती और सात अंधे मनुष्यका दृष्टान्त - एक ग्राम के बाहार पहले पहलही एक महा कायावाला हस्ति आयाथा उन समय ग्रामके सब लोग हस्ति देखनेकों गये उन मनुष्यों मे सात अन्धे मनुष्य भीथे । उनोंसे एक अन्धे मनुष्यने हस्तिके दान्ताशूलपे हाथ लगाके देखाकि हस्ति मूशल जेसा होता है दूसरेने शुंढपर हाथ लगाके देखा कि हस्ति हडूमान जेसा होता है तीसराने कांनोपर हाथ लगाके देखाकि हस्ति सुपडे जेसा होता है चोथाने उदरपर हाथ लगाके देखाकि हस्ति कोटी जेसा Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५२) शीघ्रबोध भाग ३ जो. होता है पांचवाने पैरोंपर हाथ लगाके देखाकि हस्ति स्तम जेसा होता है छट्ठाने पुच्छपर हाथ लगाके देखाकि हस्ति चम्र जैसा होता है सातवाने कुम्भस्थलपर हाथ लगाके देखाकि हस्ति कुम्भ जेसा है हस्तिकों देख ग्राम के लोग ग्राममें गये और वह सातों अन्धे मनुष्य एक वृक्ष निचे बेठे आपसमें विवाद करने लगे अपने अपने देखे हुवे एकेक अंगपर मिथ्याग्रह करने लगें एक दूसरोंको जूठे बनने लगे इतने में एक सुज्ञ मनुष्य आया और उन सातों अन्धे मनुष्योंकि बातों सुन बोला के भाइ तुम एकेक वातको आग्रहसे तांनते हो तबतों सबके सब झूटे हों अगर मेरे कहने माफीक तु. मने एकेक अंगहस्तिके देखे है अगर सातों जनों सामीलहो विचार करोंगे तो एकेकापेक्षा सातों सत्य हो। अन्धोने कहा की केसे? तब उन सुज्ञ विद्वानने कहाकी तुमने देखा वह हस्तिका दान्ताशूल है दूसराने देखा वह हस्तिकि शृंड हैं यावत् सातवाने देखा वह हस्ति के पुच्छ है इतना सुनके उन अन्ध मनुष्योंको ज्ञान होगया कि हस्ति महा कायावाला है अपने जो देखा था वह हस्तिका एकेक अंग है इसका उपनय-वस्तु एक हस्ति माफीक अनेक अंश (विभाग) संयुक्त है उनको माननेवाले एक अंगको मानके शेष अं. गका उच्छेद करनेसे अन्धे मनुष्योंके कदाग्रह तूल्य होते है अगर संपुरण अंगोंकों अलग अलगअपेक्षासे माना जावे तो सुज्ञ मनुव्यकि माफीक हस्ती ठीकतोरपर समज सकते है इति. नय के मूल दो भेद है ( १ ) द्रव्यास्तिक नय जो द्रव्यकों ग्रहन करते है (२. पर्यायास्तिक नय वस्तुके पर्यायकों गृहन करे। जिस्मै द्रव्यास्तिक नयके दश भेद है यथा नित्य द्रव्यास्तिक. एक द्रव्यास्तिक, सत् द्रव्यास्तिक, वक्तव्य द्रव्यास्तिक, अशुद्ध द्रव्यास्तिक, अन्वय द्रव्यास्तिक, परम द्रव्यास्तिक, शुद्धद्रव्या Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयाधिकार. ( १९३) स्तिक, सत्ताद्रव्यास्तिक, परम भाव द्रव्यास्तिक । पर्यायास्तिकनयके छे भेद है द्रव्य पर्यायास्तिक, द्रव्यवञ्जनपर्यायास्तिक गुणपर्यायास्तिक, गुणवानपर्यायास्तिक, स्वभाव पर्यायास्तिक, विभाषपर्यायास्तिकनय । इन द्रव्यास्तिक पर्यायास्तिक दोनों नयों के ७०० मांगे होते है। ___ तर्कवादि श्रीमान् सिद्धसेनदिवाकरजी महाराज द्रव्यास्ति कनय तीन मानते है नैगमनय, संग्रहनय, व्यवहारनय, और सिद्धान्तवादी श्रीमान् जिनभद्रगणी खमासमणा द्रव्यास्तिनय च्यार मानते है नंगमनय संग्रहनय व्यवहारनय रूजुसूत्र नय । अपेक्षासे दोनों महा ऋषिों का मानना सत्य है कारण ऋजु सूत्र नय प्रणाम ग्रही होनेसे भावनिक्षेपा के अन्दर मानके उसे पर्यायास्तिक नय मानी गई है और ऋजुसूत्रनय शुद्ध उपयोग रहित होनेसे । श्री जिनभद्रगणी खमासमणजीने द्रव्यास्तिक नय मानी है दोनों मत्तका मतलब एक ही है. नैगम, संग्रह, व्यवहार, और रूजुसूत्र, इन च्यार नयको द्रव्यास्तिक नय कहते है अथवा अर्थ नय कहते है तथा क्रियानय भी कहते है और शब्द संभिरूढ और एवंमूत इन तीनों नय को पर्यायास्तिक नय कहते है इन तीनों नयको शब्द नयभी कहते है इन तीनों नयको ज्ञान नयभी कहते है एवं द्रव्यास्तिक नय और पर्यायास्तिक नय दोनों को मीलानेसे सातनय-यथा नैगमनय. संग्रहनय व्यवहारनय ऋजुसूत्रनय. शब्दनय संमिरुढनय. एवंमूतनय. अब इन सातों नयके सामान्य लक्षण कहाजाते है। (१) नैगमनय-जिस्का एक गम ( स्वभाव ) नही है अनेक मान उन्मान प्रमाणकर वस्तुको बस्तुमाने जेसे सामान्यमाने विशेषमाने. तीनकालकि वातमाने. निक्षेपाचार माने. तीनों Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५४) शीघबोध भाग ३ जो. कालमें वस्तुका अस्तित्व भाव माने जिन नैगमनय के तीन भेद. है ( १ ) अंश. (२) आरोप (३) विकल्प । (क) अंश-वस्तुका एक अंशकों ग्रहन कर वस्तुको वस्तुमाने शेष निगोदीये जीवोंकों सिद्ध समान माने कारण निगोदीये जीवों के आठ रूचक प्रदेश+ सदैव निर्मल सिद्धों के माफीक है इस वास्ते एक अंशकों ग्रहन कर नैगमनयवाला निगोदीये जीवोंकोभी सिद्ध ही मानते है। तथा चौदवे अयोगी गुणस्थानधाले जीवों को संसारी जीव माने; कारण उन जीवोंके अभीतक चार अघाति कर्म बाकी है अन्तर महुर्त संसार बाकी है उतने अंशकों ग्रहन कर चौदवे गुणस्थानक वृति जीवोंको संसारी माने यह नैगम न्यका मत है। (ख) आरोप-आरोपके तीन भेद है (१) भूत कालका आरोप (२) भविष्य कालका आरोप (३) वर्तमान कालका आरोप जिस्मेभूत कालका आरोप जेसे भूतकालमें वस्तु हो गइ है उनको वर्तमान कालमें आरोप करना. यथा-भगवान् वीरप्रभुका जन्म चैत्र शुक्ल १३ के दिन हुवा था उनका आरोप, वर्तमान का. लमें कर पर्युषण में जन्म महोत्सव करना उनोंकी मूर्ति स्थापनकर सेवा पूजा भक्ति करना तथा अनंते सिद्ध हो गये है उनोंके नामका स्मरण करना तथा उनोंकि मूर्ति स्थापन कर पूजन करना यह सब भूतकालका वर्तमानमें आरोप है ( २ ) भविष्यकाल में होने वालोका वर्तमान कालमें आरोप करना जेसे श्री पनाम ___+ श्री नन्दीजी सूत्रमें कहा है कि जीवोंके अक्षर के अनन्त में भाग में कर्म दल नही लागे यह ही जीवका चैतन्यता गुण है अगर वहां भी कर्म लग जावे तों जीवका अजीव हो जाते हैं परन्तु यह कभी हुवा नही और होगा भी नही इस वास्ते ८ रुचक प्रदेश सदैव सिद्ध समान गीना जाते हैं Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयाधिकार. ( १५५) तीर्थकर उत्सपिणी कालमें होंगे उनोंको (ठाणायांगजी सूत्र के नौवे ठाणेमें ) तीर्थकर समझ उनोंकी मूर्ति स्थापनकर सेवाभक्ति करना तथा मरीचीयाके भवमें भावि तीर्थकर समझ भरतमहाराज उनको धन्दन नमस्कार कीयाथा. यह भविष्यकालमें होने वालोंका वर्तमानमें आरोप करना (३) वर्तमान में वर्तती वस्तुका आरोप जेसे आचार्योपाध्याय तथा मुनि मत्तंगोंके गुण कीर्तन करना यह वर्तमानका वर्तमानमे आरोप है तथा एक वस्तुमे तीन कालका आरोप जेसे नारकी देवता जम्बुद्विप मेरुगिरी देवलोको में सास्वते चैत्य-प्रतिमा आदि जोजो पदार्थ तीनो कालमें सास्व ते है उनका भूतकालमें थे भविष्यमें रहेंगे वर्तमान मे वर्त रहें हे एसा व्याख्यान करना यह एकही पदार्थ मे तीनों कालका आरोप हो सकते है. (ग) विकल्प-विकल्पके अनेक भेद है जेसे जेसे अध्यवसाय उत्पन्न होते है उनको विकल्प कहेते है द्रव्यास्तिक और पर्यायास्तिक नयके विकल्प ७०० होते है वह नय चक्र सारादि ग्रंथ से देखना चाहिये, उन नैगमनयका मूल दो भेद है ( १ ) शुद्ध नैगमनय (२) अशुद्ध नैगमनय जिसपर वसति-पायली-और प्रदेशका दृष्ठांत आगे लिखाजावेगा उसे देखना चाहिये। (२) संग्रहनय-वस्तुकि मूल सत्ता को ग्रहन करे जेसे जीवों के असंख्यात आत्म प्रदेश में सिद्धो कि सत्ता मोजुद है इस वास्ते सर्व जीवो को सिद्ध सामान्य माने और संग्रह-संग्रह वस्तुको ग्रहन करनेवाले नयकोसंग्रहनय कहते है यथा 'एगे आयो-पगे अणाया' भावार्थ-जीवात्मा अनंत है परन्तु सबजीव सातकर असंख्यात प्रदेशी निर्मल है इसी वास्ते अनन्त जीवोका संग्रह कर 'एगे आया कहते है एवं अनंत पुदगलामें सडन पडण विध्वंसन स्वभाव होनेसे 'एगे अणाया' संग्रह नय वाळा सामान्य माने विशेष नही Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५६) शीघ्रबोध भाग ३ जो. माने तीन कालकीवात माने निक्षेपाचारोमाने एक शब्द में अनेक. . पदार्थ माने जेसे कीसीने कहाको 'वन' तो उसके अन्दर जीतने वृक्ष लता फळ पुष्प जलादि पदार्थ है उन सबको संग्रल नयवाले ने माना तथा कीसी सेठने अपने अनुचरकों कहाकी जावो तुम दान्तण लावा तो उन संग्रह नयके मतवाला अनुचरने दान्तण काच जल झारी वस्त्रादि पोसाक सब लेके आया-इसी माफीक सेठने कहाकी पत्रलिखना है कागद लावो तो उन दासने कागद कल्म दवात दस्तरी आदि सब ले आया. इस वास्ते संग्रहनयवाला एक शब्दमें अनेक वस्तु ग्रहन करते है जिस्के दाय भेद है १) सामान्य संग्रहनय २) विशेष संग्रहनय । (३) व्यवहारनय-बाह्य दीसती वस्तुका विवेचन करे कारण की जीसका जेसा बाह्य व्यवहार देखे वेसाही उनाका व्यवहार करे अर्थात् अन्तः करणको नही माने जेसे यह जीव जन्मा है यह जीव मृत्युकाप्राप्त हुवा है जीव कर्म बन्ध करते है जीव सुख दुःख भोगवते है पुद्गलोका संयोग वियोग होते है इस निमित कारणसे हमारा भला बुरा हो गया यह सब व्यवहार नयका मत है व्यवहार नयवाला सामान्य के साथ विशेषमाने निक्षेपा च्यार माने तीनो कालकी बात माने जेसे व्यवहारमें कोयल श्याम, शुकहरा, मामलीयालाल, हल्दी पीली. हंस सुफेद परन्तु निश्चय नयसे इन पदार्थो में पांचो वर्ण दोगन्ध पांच रस आठ स्पर्श पावे व्यवहार में गुलाब सुगन्ध-मृत्यश्वान दुर्गन्ध सुंठ तिक्त निंब कठुक आम्लाकषायत. आम्र आबिल, साकर मधुर, करवात कर्कश, ता. लुवा मृदुल, लोहागुरु, अकतूल लघु, पाणी शीतल, अमिउष्ण, घृत स्निग्ध, राख ऋक्ष, यह सब व्यवहारमें मौख्यता गुण बतलाये परन्तु निश्चय में गौणतामें सब बोलोंमें वर्णादि वीस वीस बोल Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयाधिकार. ( १५७ ) मीलते है । जिस व्यवहारनयके दो भेद है (१) शुद्ध व्यवहारनय (२) अशुद्ध व्यवहारनय । (४) ऋजुसूत्रनय - सरलता से बोध होना उसे ऋजुसूत्रनय कहते है ऋजुसूत्रनय भूत भविष्यकाल को नही माने मात्र एक वर्तमानकालको ही मानते है ऋजुसूत्रनयवाला सामान्य नही माने विशेष माने. एक वर्तमानकालकि वात माने निक्षेपा एक भाव माने. परवस्तु को अपने लिये निरर्थक माने ' आकाशकुसु मवत् ' जेसे कीसीने कहा की सो वर्षो पहले सूवर्णेक वर्षाद हुइथी तथा सो वर्षों के बाद सूवर्ण कि वर्षाद होगा ? निरर्थक अर्थात् भूत भविष्य में जो कार्य होगा वह हमारे लिये निरर्थक है यह नय वर्तमानकाल को मौरव्य मानते है जेसे एक साहुकार अपने घरमें सामायिक कर बैठा था इतनेमें एक मुसाफर आके उन सेठके लडके की ओरतसे पुछा की बेहन ! तुमारा सुसराजी कहां गये है ? उन औरतने उत्तर दीया कि मेरे सुसराजी पसारोकी दुकांन सुंठ हरडे खरीदने कों गये है वह मुसाफर वहां जाके तलास की परन्तु सेठजी वहांपर न मीलने से वह पीछा सेठजीके घरपर आके पुच्छा तो उन ओरतने कहाकि मेरे सुसराजी मोचीके वहां जुते खरीदनेकों गये है इसपर वह मुसाफर मोचीके वहां जाके तलास करो वहांपर सेठजी न मीले, तब फीर के पुनः सेठजीके घरपे आये इतनेमें सेठजीके सामायिकका काल होजाने से अपनि सामायिक पार उन मुसाफरसे वात कर विदा किया फीर अपने लडकेकी ओरत से पुच्छा कि क्यों बहुजी में सामायिक कर घर के अन्दर बेठाथा यह तुम जानती थी फीर उन मुसाफर को खाली तकलीफ क्यों दीथी बहुजीने कहा क्यों सुसराजी आपका चित दोनों स्थानपर गयाथा Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५८) शीघ्रबोध भाग ३ जो. मा नही ? सेठजीने कहा वात सत्य है मेरा दील दोनों स्थानपर गयाथा इससे यह पाया जाता है कि सेठजी के लडकेकी ओरत ज्ञानवन्त थी इसी माफीक ऋजुसूत्रनय गृहवासमें बेठ हुए के त्याग प्रणाम होनेसे साधु माने और साधुवेश धारण करनेवाले मुनियोंका प्रणाम गृहस्थावासका होनेसे उने गृहस्थ माने । इति इन च्यार नयको द्रव्यास्तिकनय कहते है इन च्यार नयकि समकित तथा देशव्रत सर्वव्रत भव्याभव्य दोनों को होते है परन्तु शुद्ध उपयोग रहीत होनेसे जीवोका कल्याण नही हो सके ! (५) शब्दनय-शब्दनयवाला शब्दपर आरूढ हो सरीखे शब्दोंका एकही अर्थ करे शब्दनयवाला सामान्य नही माने. विशेष माने वर्तमानकालकी वात माने निक्षेपा एक भाव माने वस्तुमें लिंगभेद नही माने जेसे शकेन्द्र देवेन्द्र पुरेन्द्र सूचिपति इन सबको एकही माने । यह शन्दनय शुद्ध उपयोग को माननेवाला है। (६) संभिरूढनय-सामान्य नही माने विशेष माने वर्त. मानकालकी बात माने निक्षेपा भाव माने लिंगमें भेद माने.शब्द का अर्थ भिन्न भिन्न माने जेसे शक्रनाम का सिंहासनपर देवतोकि परिषदामें बेठे हुवे को शक्रेन्द्र माने. देवतोमें बेठा हुवा इन्साफ कर अपनि आज्ञा मान्य करावे उसे देवेन्द्र मानें हाथ में वन ले देवतों के पुरको विदारे उसे पुरेन्द्र माने. अप्सराघोंके महलोमें नाटकादि पांचो इन्द्रियों के सुख भोगवताको सचीपती मान. संभिरूढवाला एक अंश उनी वस्तुको वस्तु माने अर्थात् नो अंश उणा है वह भी प्रगट होनेवाले है उसे संभिरूढ कहा माते है। (७) एवंभूत नयवाला-सामान्य नही माने विशेष माने Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय अधिकार. ( १५९ ) वर्तमान कालकी बात माने निक्षेपा एकभाव माने संपुरण वस्तु को वस्तु माने एक अंशभी कम हों तो एवंभूत नयवाला वस्तु को अस्तु माने । शकादि अपने अपने कार्यमें उपयोग से युक्त कार्यको कार्य माने । इन सातों नयपर अनुयोग द्वार में तीन दृष्टान्त इसी माफीक है । (१) वस्तिका (२) पायलीका (३) प्रदेशका | सामान्य नैगमनयवाले को विशेष नैगमनयवाला पुच्छता है कि आप कहiपर निवास करते है ? सामान्य नयवाला बोला कि में लोकमें रहता हुं. विशेष - लोक तीन प्रकारका है अधोलोक उर्ध्वलोक तीर्यग् लोग है आप कीस लोकमे रहते है ? सामान्य - मे तीर्य गलगमे रहता हुँ । विशेष - तीच्छलोगमे द्विप बहुत तुम कोनसे द्विपमें -रहते हो ? सामान्य - में जम्बुद्विप में नामका द्विपमें रहता हूं. -- वि - जम्बुद्विमें क्षेत्र बहुत है तुम कोनसे क्षेत्रमें रहते हो ? सा- - मे भरतक्षेत्र नामक क्षेत्रमे रहता हूं. वि०- भरत क्षेत्र दक्षिण उत्तर दो है आप कोनसे भरतमे रहते हो ? सा - में दक्षिण भरतक्षेत्र में रहता हूं. वि-दक्षिण भरतमें तीन खंड है तुम कोनसे खंड में रहते हो ? सा - में मध्यखंडमे रहता हूं. वि - मध्यखंड मे देश बहुत है तुम कोनसा देशमे रहते ही ? सा- में मागध देशमे रहता हूं. Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६०) शीघ्रबोध भाग ३ जो. वि-मागध देशमे नगर बहुत है तुम कोनसा नगरमे रहते है? सा-में पाडलीपुर नगरमें निवास करता हुं. वि०-पाडलीपुरमें तो पाडा ( मोहला ) बहुत है तुम० सा०-में देवदत्त ब्राह्मणके पाडामें रहता हु । वि०-वहां तो घर बहुत है तुम कहां रहते हो। सा-में मेरे घरमें रहता हूं-यहांतक नैगम नय है। . संग्रहनयवाला बोलाके घरतों बहुत वडा है एसे कहों कि में मेरे संस्ताराके अन्दर रहता हुँ । व्यवहारनय वाला बोलाकि संस्तारा बहुत बढा है एसे कहो कि में मेरे शरीर में रहता हु. रूजुसूत्रवाला बोलाकी शरीर में हाड, मांस, रौद्र, चरबी बहुत है एसा कहो कि मे मेरे परिणाम वृतिमें रहता हु। शब्दनयवाला बोलाकी परिणाम प्रणमन है उनमें सूक्षमबादर जीवोंके शरीर आदि अवग्गहा है वास्ते एसा कहो कि में मेरे गुणोंमे रहता हु। संभिरूढनयवाला बोला कि में मेरा ज्ञानदर्शन के अन्दर रहताहु। एवंभूतनयवाला बोला की मे मेरे अध्यात्म सत्तामें रमणता करता हु। इसी माकीक पायलीका दृष्टान्त जेसे कोइ सुत्रधार हाथमें कुल्हाडा ले पायलीके लिये जंगलमें काष्ट लेनेकों जा रहाथा इत. नेमें विशेष नैगमनय वाला बोलाकि भाइ साहिब आप कहां जाते हो जब सामान्य नैगमनयवाला बोला कि में पायली लेनेकों जाताहु. काष्ट काटते समय पुच्छने पर भी कहा कि में पायली काटता हु। घरपर काष्ट लेके आया उन समय पुच्छनेपर भी कहा कि में पायली लाया हुं यह नैगमनयका वचन है संग्रहनय सामग्री तैयार करनेसे सत्तारुप पायली मानी। व्यवहारनय Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयाधिकार. ( १६१ ) पायली तैयार करनेपर पायली मानी । रूजुसूत्रनय परिणाम ग्राही होनेसे धान्य भरने पर पायली माने । शब्दनय पायली के उपयोग अर्थात् धान्य भर के उनकि गणीती लगाने से पायली मानी । संभिरूढनय पायली के उपयोगको पायली मानी । एवं मूतनय - सर्व दुनिया उने मंजूर करने पर पायली मानी इति । प्रदेशका दृष्टान्त - नैगमनयवाला कहता है कि प्रदेश छे प्रकारके है यथा-धर्मास्तिकायका प्रदेश, अधर्मास्तिकायका प्रदेश, आकाशास्तिकायका प्रदेश, जीवास्तिकायका प्रदेश, पुद्गलास्तिकाय के स्कन्धका प्रदेश, तस्स देशका प्रदेश, इस नैगमनय वालासे मंग्रहनयवाला बोलाकि एसा मत कहो क्यों कि जो देशका प्रदेश कहा है वहां तों देश स्कन्धका ही है। वास्ते प्रदेश भी स्कन्धका हुवा तुमारा कहने पर दृष्टान्त जेसे कीसी साहुकारका दासने अपने मालक के लिये एक खर मूल्य खरीद कीया तब साहुकारने कहा कि यह दाश भी मेरा ओर खर भी मेरा है इस न्यायसे दाश और खर दोनों साहुकारका ही हुवा इसी माफीक स्कन्धका प्रदेश ओर देशका प्रदेश दोनों पुद्गल द्रव्यका ही हुवा इस वास्ते कहो कि पांच प्रकारके प्रदेश है यथा-धर्मास्तिकायका प्रदेश० अधर्म० प्रदेश- आकाश० प्रदेश, जीवप्रदेश, स्कन्ध प्रदेश, इन संग्रहनयवाले ने पांच प्रदेशमाना इस पर व्यवहारनयवाला बोला कि पांच प्रदेश मत कहो ? क्यों कि पांच गोटीले पुरुषों के पास द्रव्य है वह चान्दी सुवर्ण धन धान्य तो एसा एक गोटीले के अन्दर च्यारों धनका समावेश हो शकेगें इस वास्ते कहो के पांच प्रकारके प्रदेश है यथा धर्मास्तिकायका प्रदेश यावत् स्कन्ध प्रदेश इल माफीक व्यवहारनयवाला बोलने पर ऋजुसूत्रनयवाला बोला कि एसा मत कहो कि पांच प्रकार ११ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६२) शीघबोध भाग ३ जो. के प्रदेश है कारण एसा कहनेसे यह शंका होगी कि वह पांचों प्रदेश धर्मास्तिकायका होगा। यावत् पांचों प्रदेश ‘स्कन्धके होंगे एसे २५ प्रदेशोंकी संभावना होगी. इस वास्ते एसा कहो कि स्यिात् धर्मास्तिकायका प्रदेश यावत् स्यात् स्कन्धका प्रदेश है। इस पर शब्दनयवाला बोला कि एसा मत कहों कारण एता कहनेसे यह शंका होगी कि स्यात् धर्मास्तिकायका प्रदेश है वह स्यात् अधर्मास्तिकायका प्रदेश भी हो सकेगें इसी माफोक पांचों प्रदेशोंके आपसमें अनवस्थित भावना हो जायगी इस वास्ते एसा कहो कि स्यात् धर्मास्तिकायका प्रदेश सो धर्मास्तिकायका प्रदेश है एवं यावत् स्यात् स्कन्ध प्रदेश सो स्कन्धका ही प्रदेश है। इसी माफीक शब्दनयवाला के कहने पर संभिरूढनयवाला बोला कि एसा मत कहो यहांपर दो समास है तत्पुरुष और कर्मधारय जोतत्पुरुषसे कहो तो अलग अलग कहो और कर्मधारसे कहो तो विशेष कहो कारण जहां :धर्मास्तिकायका एक प्रदेश है वहां जीव पुद्गलके अनंत प्रदेश है वह सब अपनि अपनि क्रिया करते है एक दुसरे के साथ मीलते नही है इस पर एवं भूतवाला बोला कि तुम एसे मत कहो कारण तुम जो जो धर्मास्तिकायादि पदार्थ कहते हो वह देश प्रदेश स्वरूप हे हो नही. देश है वह भी कीसीका प्रदेश हे वह भी कोसीके एक समय में स्कन्ध देश प्रदेशकी व्याख्या हो ही नही सक्ती है वस्तु भाव अभेद है अगर एक समय धर्मद्रव्य कि व्याख्या करोगे तो शेष देश प्रदेशादि शब्द निरर्थक हो जायगें तो एसा करते ही क्यो हो एक ही अभेद भाव रखो इति ।। जीवपर सात नय-नैगमनय, जीव शब्दकों ही जीव माने. संग्रहनय सत्तामें असंख्यान प्रदेशी आत्माको जीव मानें इसने अजीवात्माकों जीव नही माना, व्यवहारनय तस थावर के भेद Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयाधिकार. (१६३ ) कर जीव माने, ऋजुसूत्रनय परिणामग्राही होनेसे सुख दुःख वेदते हुवे जीवोंकों जीव माने इसने असंज्ञीकों नही माने, शब्द. नय मायक गुणवालेको जीव माना, संभिरूढनयवाला केवलज्ञानकों जीव माना, एवंमूतनय सिद्धोंको जीव माना। ___सामायिक पर सात नय. नैगमनयवाला, सामायिक के परिणाम करनेवालोंको सामायिक माने. संग्रहनयवाला सामायिकके उपकरण चरवलो, मुखवस्त्रीकादि ग्रहन करनेसे सामायिक माने. व्यवहारनयवाला सामायिक दंडक उचारण करनेसे सामायिक माने. अजुसूत्रनयवाला ४८ मिनीट समता परिणाम रहनेसे सामायिक माने. शब्दनय अन्तानुबन्धी चोक ओर मिथ्यात्वादि मोहनिका क्षय होनेसे सामायिक माने. संभिरूढ नयवाला रागद्वेषका मूलसे नाश होनेपर वीतरागकों सामायिक माने. एवंभूतनय संसारसे पार होना ( सिद्धावस्था ) कों सामायिक माने. धर्म उपर सात नय. नैगमनय धर्मशब्दको धर्म माने, इसने सर्व धर्मवालोंको धर्म माना. संग्रहनय कुलाचारकों धर्म माना. इसने अधर्मकों धर्म नही मानते हुवे नीतिको धर्म माना. व्यवहारनयवाला पुन्यकि करणीकों धर्म माना. भृजुसूत्रनयवाला अनित्यभावनाको धर्म माना इस्म सम्यग्दृष्टिमिश्यादृष्टि दोनोंको ग्रहन कीया. शब्दनयवाला क्षायिकभावकों धर्म माने. संभिरूढ केवलीयोंको धर्म माने. एवंभूतनय संपुरण धर्म प्रगट होने पर सिद्धोंकों ही धर्म माने। बाण पर सात नय. कीसी मनुष्यके बाण लगा तब नैगमनयवाला बाणका दोष समझा. संग्रहनयवाला सत्ताकों ग्रहन कर बाण फेकनेकालाका दोष समझा. व्यवहारनयवाला गृहगोचरका Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६४ ) शीघ्रबोध भाग ३ जो. दोष समझा. ऋजुसूत्रनयवाला अपने कर्मोंका दोष समझा. शब्द नयवाला कर्मोंके कर्ता अपने जीवका दोष समझा, संभिरूढनयवालाने भवितव्यता याने ज्ञानीयोंने अनंतकाल पहले यह ही भाव देख रखाथा एवंभूत कहता है कि जीवकों तों सुख दुःख है ही नही. जीवतों आनन्दघन है । राजा उपर सात नय. नैगमनयवाला कोसीके हाथो पगो में राजचिन्ह रेखा तील मसादि चिह्न देखके राजा माने. संग्रहनय : वाला राजकुलमें उत्पन्न हुवा बुद्धि, विवेक, शौर्यतादि देख राजा माने. व्यवहारनयवाला युवराज पदवालेकों राजा माने. ऋजुसूत्रनयवाले राजकार्य में प्रवृत्तनेसे राजा माने. शब्दनयवाला सिंहासनपर आरूढ होनेपर राजा माने, संभिरूढनयवाला राज अवस्थाकी पर्याय प्रवृत्तनरूप कार्य करते हुवेको राजा माने. एवंभूतनय उपयोग सहित राज भोगवतों दुनियों सर्व मंजुर करे, राजाकी आज्ञा पालन करे, उन समय राजा माने. इसी माफीक सर्व पदार्थोंपर सात सात नय लगा लेना इति नयद्वार । ( २ ) नक्षेपाधिकार. एक वस्तु में जेसे नय अनंत है इसी माफीक निक्षेपा भी अनंत है कहा है कि-" जं जत्थ जाणेजा, निक्खेवा निक्खेषण ठवे; जं जत्थ न जाणेज, चत्तारी निक्खेवण ठवे." भावार्थ- जहां पदार्थ के व्याख्यान में जीतने निक्षेप लगा सके उतने हो निक्षेप से उन पदार्थका व्याख्यान करना चाहिये कारण वस्तुमें अनंत धर्म है वह निक्षेपों द्वारा ही प्रगट हो सके । परन्तु स्वल्प बुद्धिवाले aat अगर ज्यादा निक्षेप नहीं कर सके; तथापि च्यार निक्षेपों के साथ उन वस्तुका विवरण अवश्य करना चाहिये । प्रश्न ) जब नयसे ही वस्तुका ज्ञान हो सकते है तो फीर निक्षेपे कि क्या Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेपाधिकार. ( १६५ ) जरूरत है ? निक्षपाद्वारे वस्तुका स्वरूपकों जानना यह सामान्य पक्ष है और नयद्वारा जानना यह विशेष पक्ष है। कारण नय है सो भी निक्षेपक अपेक्षा रखते है, नयकि अपेक्षा निक्षेपा स्थूल है और निक्षेपक अपेक्षा नय सूक्षम है अन्यापेक्षा निक्षेपे हे सो प्रत्यक्ष ज्ञान है और नय हे सो परोक्ष ज्ञान है इस वास्ते वस्तुतत्व ग्रहण करनेके अन्दर निक्षेप ज्ञानकि परमावश्यक्ता है. नि. क्षेपोंके मूल भेद च्यार है यथा- - नाम निक्षेप, स्थापनानिक्षेप, द्रव्यनिक्षेप और भावनिक्षेप । - ( १ ) नामनिक्षेपा - जेसे जीव अजीव वस्तुका अमुक नाम रख दीया फीर उसी नाम से बोलानेपर उन वस्तुका ज्ञान हो उन नाम निक्षेपाका तीन भेद है. (१) यथार्थ नाम, (२) अयथार्थ नाम, (३) और अर्थशुन्य नाम जिस्मे । यथार्थनाम - जेसे जीवका नाम जीव, आत्मा, हंस, परमात्मा, सच्चिदानंद, आनन्दघन, सदानन्द, पूर्णानन्द, निज्ञानन्द, ज्ञानानन्द, ब्रह्म, शाश्वत, सिद्ध, अक्षय, अमूर्त्ति इत्यादि. अयथार्थनाम- जीवका नाम हेमो, पेर्मो, मूलो, मोती, माणक, लाल, चन्द्र, सूर्य, शार्दुलसिंह, पृथ्वीपति, नागचन्द्र इत्यादि. अर्थशून्यनाम - जेसे हांसी, खांसी, छींक, उभासी, मृदंग, ताल, सतार आदि ४९ जातिके वार्जित्र यह सर्व अर्थशून्य नाम है इनसे अर्थ कुच्छ भी नही निकलते है । इति नामनिक्षेप. ( २ ) स्थापना निक्षेपका- जीव अनीष कीसी प्रकार के पदार्थकि स्थापना करना उसे स्थापना निक्षेपा कहते है. जिस्के दो भेद है ( १ ) सद्भाव स्थापना ( २ ) असद्भाव स्थापना जिसमे सद्भाव स्थापनाके अनेक भेद है जेसे अरिहन्तोका नाम Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६६) शीघ्रबोध भाग ३ जो. और अरिहन्तोंकि स्थापना (मूर्ति ) सिद्धोंका नाम और सि. डोंकि स्थापना एवं आचार्योपाध्याय साधु, ज्ञान, दर्शन, चारित्र इत्यादि जेसा गुण पदार्थ में है वैसे गुणयुक्त स्थापना करना उसे सत्यभाष स्थापना कहते है और असत्यभाव स्थापना जेसे गोल पत्थर रखके भेरूकि स्थापना तथा पांच सात पत्थर रख शीतलामाताकि स्थापना करनी इसमें भेरू और शीतलाका आकार तौ नही है परन्तु नामके साथ कल्पना देवकी कर स्थापना करी है. इस वास्ते ही सुज्ञ जन स्थापना देवकी आशातना टालते है जिस रीतीसे आशातना का पाप लगता है इसी माफीक भक्ति करनेका फल भी होते है उस स्थापनाका दश भेद है (सूत्र अनुयोगद्वार। (१) कठकम्मेवा -काष्टकि स्थापनाजेसेआचार्यादिकि प्रतिमा. (२) पोत्थ कम्मेवा-पुस्तक आदि रखके स्थापना करना. (३) चित्त कम्मेवा-चित्रादिकरके स्थापना करना. (४) लेप्प कम्मेवा-लेप याने मट्टी आदिके लेपसे ।। (५) वेडीम्मेवा-पुष्पोंके बीटसे बीटकों मीलाके स्था० ॥ (६) गुंथीम्मेवा-चीढो प्रमुक को प्रथीथ करना । (७) पुरिम्मेवा-सुवर्ण चान्दी पीतलादि वरतका काम. (८) संघाइम्मेवा-बहुत वस्तु एकत्र कर स्थापना. (९) अखेइवा-चन्द्राकार समुद्र के अक्षकि स्थापना. (१०) बराडवा-संस्ख कोडी आदि की स्थापना. . एवं दश प्रकार की सद्भाव स्थापना और दशप्रकारकी असदभाव स्थापना एवं २० एकेक प्रकार की स्थापना एवं वीस Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेपाधिकार. ( १६७ ) अनेक प्रकार कि स्थापना सर्व मील स्थापना के ४० भेद होते है. इनके अतिरिक्त अन्य प्रकार से भी स्थापना होती है. प्रश्न- नाम और स्थापना में क्या भेद विशेष है ? उत्तर-नाम यावत्काल याने चीरकाल तक रहता है और स्थापना स्वल्पकाल रहती है अथवा नाम निक्षेपाक निष्पत् स्थापना निक्षेपा - विशेष ज्ञानका कारण है जैसे लोक का नाम लेना और लोक कि स्थापना ( नकशा ) देखना. अरिहंतोंकां नाम लेना और अरिहन्तोंकि मूर्त्ति कों देखना. जम्बुद्विपका नाम लेना और नकशा देखना. संस्थान दिशा भांगा इत्यादि अनेक पथार्थ है कि जिनका नाम लेने कि निष्पत स्थापना ( नकशा ) देखने से विशेष ज्ञान हो सकते है इति स्थापना निक्षेप । (३) द्रव्य निक्षेपा - भाव शून्य वस्तु को द्रव्य कहते है जीस वस्तु भूतकाल में भावगुण था तथा भविष्य में भावगुण प्रगट होनेवाला है उसे द्रव्य कहा जाता है जैसे भुतकाल में तीर्थ कर नाम कर्म उपार्जन किया है वहांसे लगाके जहांतक केवल ज्ञान उत्पन्न न हुवे ३४ अतिशय पैंतीस वाणि गुण अष्ट महा प्रतिहार प्राप्त न हुवे वहां तक द्रव्य तीर्थकर कहा जाता है तथा तीर्थकर मोक्ष पधारगये के बाद उनका नाम लेना वह सिद्धों का भाव निक्षेपा है परन्तु अरिहन्तोंका द्रव्य निक्षेपा हे घह भूत भविष्य कालके अरिहन्त वन्दनीय पूजनीय है उन द्रव्य नि. क्षेपाके दो भेद है (१) आगमसे (२) नोआगमसे जिसमे आगमसे द्रव्य निक्षेपा जो आगमों का अर्थ उपयोग शून्यता से करे जिस - पर आवश्यक का दृष्टान्त यथा कोई मनुष्य आवश्यक सूत्र का अध्ययन किया है. जैसे - Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६८) शीघबोध भाग ३ जो. पर्द सिक्खित-पद पदार्थ अच्छी तरफसे पढा हो. ठित-वाचनादि स्वाध्यायमें स्थिर कीया हुवा हो. जितं--पढा हुवा ज्ञानको मूलना नही. सारणा वारणा धारणासे अस्खलित. मितं-पद अक्षर बराबर याद रखना परिजितं-क्रमोत्क्रम याद रखना. नामसमं-पढा हुवा ज्ञान को स्व नामवत् याद रखना. घोस समं-उदात्त अनुदात्त स्वर व्यञ्जन संयुक. अहीण अक्खरं-अक्षर पद हीनता रहीत हो. अणाञ्चअक्खरं-अक्षर पद अधिक भी न बोले. अव्वाद्ध अक्खरं-उलट पुलट अक्षर रहित. अक्खलियं-अखिलत पणसे बोलना. अमिलिय अक्खरं-विरामादि संयुक्त बोलना. अवञ्चामेलियं-पुनरूक्ती आदि दोषरहित बोलना. पडि पुन्नं-अष्टस्थानोच्चारणसंयुक्त. कंठोट्ठविपमुक्कं-बालक की माफीक अस्पष्टता न बोले। गुरुवायणोवगयं-गुरु मुखसे वाचना ली हो उस माफीक सेणं तत्थ वायणाए-सूत्रार्थ की याचना करना. पुच्छणाए-शंका होनेपर प्रश्न का पुच्छना परिअठ्ठणाए-पढा हुवा ज्ञानकि आवृत्ति करना. धम्मकाहाए-उच्चस्थर से धर्मकथाका कहना. इतनि शुद्धताके साथ आवश्यक करनेवाला होनेपर भी "नोअणुपेहाए" नीस लिखने पढने वाचने के अन्दर जीनोंका अनुप्रेक्षा (उपयोग) नही है उन सबको द्रव्य निक्षेपा में माना Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेपाधिकार. ( १६९). गया है अर्थात् जो काम कर रहा है उन काम को नही जानता है तथा उनके मतलब को नही जानता है वह सब द्रव्यकार्य है इति आगमसे द्रव्य निक्षेपा. नोआगमसे द्रव्य निक्षेपा के तीन भेद है (१) जाणगशरीर (२) भविय शरीर (३) जाणग शरीर, भविय शरीर वितिरक्त । जिस्में जाणगशरीर जेसे कोइ श्रावक कालधर्म प्राप्त हुवा उनका शरीर का चन्ह चक्र देख कीसीने कहा कि यह श्रावक आवश्यक जानता था-करता था-जेसे कीसी घत के घडा को देख कहाकि यह घृतका घडा था तथा मधुका घडा था। दूसरा भाविय शरीर जेसे कीसी श्रावक के वहां पुत्र जन्मा उनका शरीरादि चिन्ह देख कीसी सुज्ञने कहा कि यह बच्चा आवश्यक पढेगेकरेगे जेसे घट देख कहाकी यह घट घृतका होगा यह घट मधुका होगा। तीसरा जाणग शरीर भविय शरीरसे वितिरक्तके तीन भेद है लौकीक द्रव्यावश्यक, लोकोत्तर द्रव्यावश्यक, कुप्रवचन द्रव्य आवश्यक । लौकीक द्रव्यावश्यक जो लोक प्रतिदिन आवश्य करने योग्य क्रिया करते है जेसे राज राजेश्वर युगराजा तलवर मांडवी कौटुम्बी सेठ सेनापति सार्थवाह इत्यादि प्रातः उठ स्नान मजन कर केशर चन्दन के तीलक लगाके राजसभाम नावे इत्यादि अवश्य करने योग्य कार्य करे उसे लौकीक द्रव्यावश्यक कहते है और लोकोत्तर द्रव्यावश्यक जेसे.. जे इमे समणगुणमुक्क जोगी-लोकमें गुणरहीत साधु. छक्काय निरण्णु कम्पा-छेकाया के जीवोंकी अनुकम्प रहित. हयाइवउदंमा-विगर लगामके अश्वकी माफीक. गयाइव निरंकुसा-निरंकूश हस्तिकि माफीक. घठा-शरीर पनाविकों वारवार धोवे धोवावे । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७०) शीघबोध भाग ३ जो. मठा-शरीरको तेलादिकसे मालिसपीटी करे. तुपुठा-नागरबेली के पानोंसे होठे को लाल बना रखे. पंटूर पट्ट पाउरणा-उज्वल सुपेद वस्त्री चोलपट्टा पहने। जिणाणमणाणाए-जिनाज्ञाके भंगकों करनेवाले। सच्छंद विहारीउण-अपने छंदे माफीक चलनेवाला । उभओकालं आवस्सयस्स उवदंति “ अण उपओगदव्य" दोनोंबख्त आवश्यक करने पर भी “ उपयोग" न होनेसे द्रव्य. आवश्यक कहते है इति. कुप्रषचन द्रव्यावश्यक जेसे चकचीरीया चर्मखंडा दंडधारी फलाहारी तापसादि प्रात: समय स्नान भजन कर देव सभामें इन्द्रभुवनमें अर्थात् अपने अपने माने हुवे देवस्थानमें जाके उपयोग शून्य क्रिया करे उसे कुप्रवचन द्रव्यावश्यक कहते है । इति द्रव्यनिक्षेपा। (४) भावनिक्षेपा-जीस वस्तुका प्रतिपादन कर रहे हो उनी वस्तुमें अपना संपुरण गुण प्रगट हो गया हो उसे भाव निक्षेप कहते है जेसे अरिहन्तोका भाव निक्षेपा केवलज्ञान दर्शन संयुक्त समवसरणमे विराजमानकों भाव निक्षेप कहते है उन भावनिक्षेप के दो भेद है (१) आगमसे (२) नो आगमसे । जिस्मे आगमसे आगमोंका अर्थ उपयोग संयक्त "उवओगो भावो" दुसरानो आगम भावावश्यक के तीन भेद है (१) लौकीक भावाश्यक (२) लोकोत्तर भावावश्यक ( ३ ) कुप्रषचन भावावश्यक । लौकीक भाषावश्यक जेसे राज राजेश्वर युगराजा तलवर माडम्बी कौटुम्बी सेठ सैनापति आदि प्रातः समय स्नान मजन तीलक छापा कर अपने अपने माने हुवे देवोंकों भाव सहित Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेपाधिकार. ( १७१ ) नमस्कार कर शुभे महाभारत, दोपहरकों रामायण सुने उसे लौकीक भावाश्यक कहते है. लोकोत्तर भावावश्यक जेसे साधु साध्वि श्रावक श्राविकाओ तहमन्ने तहचित्ते तहलेश्या तहअध्यवसाय उपयोग संयुक्त आवश्यक दोनोंवख्त प्रतिक्रमणादि नित्य कर्म करे उसे लोकोतर भावावश्यक कहते है । कुप्रवचन भावावश्यक जेसे चकचीरीयां चर्मखंडा दंडधारा फलाहारा तपसादि प्रातः समय स्नान मज्जन कर गोपीचन्दन के तीलक कर अपने माने हुवे नाग यक्ष भूतादि के देवालय में भावसहित उकार शब्दादिसे देव स्तुति कर भोजन करे उसे कुप्रवचन भावावश्यक कहते है इति भावनिक्षेप | कसी प्रकार के पदार्थ का स्वरूप जानना हो उनोंको पहले च्यारों निक्षेपाओका ज्ञान हांसल करना चाहिये । जैसे अरिहन्तोंके च्यार निक्षेपे - नाम अरिहन्त सो नाम निक्षेपा-स्थापन अरिहन्त - अरिहन्तोंकि मूर्ति द्रव्यारिहंत तीर्थकर नाम गौत्र बन्धा उन समय से केवलज्ञान न हो वहां तक - भाव अरिहन्त समवसरण में विराजमान हो। इसी माफीक जीवपर च्यार निक्षेपा - नाम जीव सो नाम निक्षेपा, स्थापना जीव-जीवकि मूर्ति याने नरककी स्थापना एवं तीर्थच मनुष्य- देव तथा सिद्धोंके जीव हो तो सिद्धोंकि मूर्ति तथा सिद्ध एसा अक्षर लिखना, जीव-जीवपणाका उपयोग शुन्य तथा सिद्धोंका जीव हो तों जहांतक चौदवां गुण स्थान वृत्ति जीव हो वह द्रव्य सिद्ध है । भाव जीव जीवपणाका ज्ञान हो उसे भाव जीव कहते है द्रव्य - इसी माफीक अजीव पदार्थोंपर भी च्यार प्यार निक्षेप लगालेना जैसे नाम धर्मास्तिकाय सो नाम निक्षेपा है धर्मास्ति Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७२ ) शीघ्रबोध भाग ३ जो. कायका संस्थानकि स्थापना करना तथा धर्मास्तिकाय एसा अक्षर लिखना सो स्थापना निक्षेपा है जहां धर्मास्तिकाय हमारे काममें नहीं आति हों वह द्रव्य धर्मास्तिकाय द्रव्य निक्षेप है जहां हमारे चलन में सहायता करती हो उसे भावनिक्षेप भाव धर्मास्तिकाय है इसी माफीक जीतने जीवाजीव पदार्थ है उन सब पर च्यार च्यार निक्षेपा उत्तरादेना इति निक्षेप द्वार । (३) द्रव्य - गुण - पर्यायद्वारद्रव्य-धर्मास्तिकाय द्रव्य, अधर्म द्रव्य, आकाश द्रव्य, जीवद्रव्य पौद्गल द्रव्य-कालद्रव्य इन छे द्रव्यकागुण अलग अलग है जैसे चलत गुण स्थिर गुण अवगाहन गुणउपयोग गुणमीलन पूरणगुण, वर्तनगुण, यह षट् द्रव्यके गुण है इन षद्रव्य के अन्दर जो अगुरु लघु पर्याय है वह समय समय में उस्पात व्यय हुवा करती है दृष्टान्त जेसे द्रव्य एक लड्डु है उनका गुण मधुरता और पर्याय मधुरता में न्यूनाधिक होना. जेसे द्रव्य जीव गुण ज्ञानादि- पर्याय अगुरु लघु तथा पर्यायके दो भेद है (१) कर्म भावी, ( २ ) आत्म भावी - जिसमे कर्म भावी जो नरकादि च्यार यति केजीव अष्टकर्म पाश में भ्रमन करते सुख दुःखकी पर्यायका अनुभव करे और आत्मभावी जो ज्ञानदर्शन चारित्रकों जेला जेसा साधन कारन मीलता रहे वेसी वेसी पर्याय कि वृद्धि होती रहै । ( ४ ) द्रव्य क्षेत्र काल भाव द्वार - द्रव्य जीवा जीव द्रव्यक्षेत्र आकाश प्रदेश, काल समयावलिका यावत् काल-चक्र-भाव वर्ण गन्ध रस स्पर्श-जैसे मेरु पर्वत द्रव्यसे मेरु है क्षेत्रसे लक्ष योजनका क्षेत्र अवगाहा रखा है. कालसे आदि अंत रहित है भाव से अनंतवर्ण पर्यष एवं गन्ध रस स्पर्श पर्यव अनंत है दुसरा टान्त द्रव्य से एक जीव क्षेत्रसे असंख्यात प्रदेशी कालसे आदि Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यक्षेत्रकालभाव. ( १७३ ) अन्त रहात भावसे ज्ञानदर्शन चारित्र संयुक्त इत्यादि सब पदा. पर द्रव्यक्षेत्र काल भाव लगा लेना. इन च्यारोंमे सर्व स्तोक काल है उनसे क्षेत्र असंख्यात गुणा है कारण एक सूचीके निचे जितने आकाश आये है उनको एकेक समय में एकेक आकाशप्रदेश निकाले तो असंख्यात सर्पिणी उत्सर्पिणी व्यतित हो जावे. उनसे द्रव्य अनंत गुणे है कारण एकेक आकाश प्रदेशपर अनंते अनन्ते द्रव्य है उनोंसे भाव अनंत गुणे है कारण एकेक द्रव्य में पर्याय अनंत गुणी है । जेसे कोइ मनुष्य अपने घरसे मन्दिरजी आया जिस्मे सर्व स्तोक काल स्पर्श कीया है उनोंसे क्षेत्र स्पर्श असं. ख्यात गुणे कीया उनोंसे द्रव्यस्पर्श अनंत गुणे कीया उनोंसे भाव स्पर्श अनंतगुण कीया । भावना उपर लिखी माफीक समझना। (५) द्रव्य-भाव-द्रव्य हे सों भावकों प्रगट करने में सहायता भूत है. द्रव्य जीव अमर सास्वता है भावसे जीव असा. स्वता है. द्रव्यसे लोक सास्वता है भावसे लोक असास्वता है द्रव्यसे नारकी सास्वती. भावसे असास्वती. अर्थात् द्रव्य है सो मूल वस्तु है वह सदैव सास्वती है भाव वस्तुकि पर्याय है वह असास्वती है जेसे कीसी भ्रमर ने एक काष्टको कोरा उसमें स्व. भावसे । क) का आकार बन गया वह (क) भ्रमरके लिये द्रव्य ( क ) है और उनी ( क ) को कीसी पंडित देख उन (क) कि पर्याय को पेच्छान के कहा कि वह क ) है भ्रमर के लिये वह द्रव्य ' क ) है ओर उन पंडित के लिये भाव (क) है। ६ कारण कार्य-कारण है सो कार्य को प्रगट करनेवाला है विगर कारण कार्य बन नही सक्ता है। जेसे कुंभकार घट बनाना चाहे तो दंड चक्रादि को सहायता अवश्य होना चाहिये जेसे किसी साहुकार को रत्नद्विप जाना है रहस्तामे समुद्र आ गया Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७४ ) शीघ्रबोध भाग ३ जो. 1 जब नौका कि आवश्यक्ता रहती है रत्नद्विप जाना यह कार्य हैं । और रत्नद्विप में पहुंचने के लिये नौका में बेठना वह नौका कारण है । कीसी जीव को मोक्ष जाना है उनके लिये दान शील तप भाव पूजा प्रभावना स्वामि वात्सल्य संयम ध्यान ज्ञान मौन इत्यादि सब कारण है इन कारणोसे कार्यकी सिद्धि हो मोक्षमें जा सके है। कारण कार्य के च्यार भांगा होते है । (क) कार्य शुद्ध कारण अशुद्ध- जेसे सुबुद्धि प्रधान-दुर्गन्ध पाणी खाइसे लाके उनोंको विशुद्ध बना जयशत्रु राजाको प्रतिवन्ध किया उन कारणमें यद्यपि अनंते जीवोंकि हिंसा हुई परन्तु कार्य विशुद्ध था कि प्रधानका इरादा राजाकोप्रतिबोध देनेका था. (ख) कार्य अशुद्ध हैं और कारण शुद्ध जेसे जमाली अनगार ने कष्ट क्रिया तपादि बहुत ही उच्च कोटी का किया था परन्तु अपना कदाग्रह को सत्य बनाने का कार्य अशुद्ध था आखिर निन्हवों की पंक्ति में दाखल हुवा | (ग) कारण शुद्ध ओर कार्य भी शुद्ध जेसे गुरु गौतम स्वामि आदि मुनिवर्ग तथा आनन्दादि श्रावकवर्ग इन महानुभावों का कारण तप संयम पूजा प्रभावना आदि कारण भी शुद्ध और वीतराग देवोंकी आज्ञा आराधन रूपकार्य भी शुद्ध था. (घ) कारण अशुद्ध ओर कार्य भी अशुद्ध जेसे जीने की क्रियादि प्रवृति भी अशुद्ध है कारण यज्ञ होम ऋतु दानादि भव वृद्धक क्रिया भी अशुद्ध और इस लोक पर लोक के सुखो ff अभिलाषा रूप कार्य भी अशुद्ध है इस वास्ते शास्त्र कारोंने कारण को मौरूयमाना है 1 (७) निश्चय व्यवहार-व्यवहार है सो निश्चय को प्रगट करनेवाला है जिनशासन में व्यवहारकों बलवान माना है करण Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपादान निमत्त. ( १७५) पहला व्यवहार होगा तो फीर निश्चय भी कभी आ जायेंगे। जेसे निश्चयमें जीव अमर है व्यवहार में जीव मरे जन्मे, निश्चयमें कर्मोंका कर्ता कर्म है व्यवहारमें कहेका कर्ता जीव है, निश्चय में जीव अव्याबाध गुणोंका भोक्ता है व्यवहार में जीव सुखदुःख का भोक्ता है निश्चयमें पाणी चवे. व्यवहार में घर चवे. निश्चयमें आप जावे. व्य० ग्राम आवे. नि. बेल चाले. व्य. गाडी चाले. निक पाणी पडे. व्य० पनालपडे इत्यादि अनेक दृष्टान्तोंसे निश्चय व्यवहारको समजना चाहिये. निश्चय कि श्रद्धना और व्यवहार कि प्रवृति रखना शास्त्रकारों कि आज्ञा है । (८) उपादान निमत्त-निमत्त है सो उपादान का साधक बाधक है जेसे शुद्ध निमत्त मीलनेसे उपादानका साधक है अशुद्ध निमत्त मीलना उपादानका बाधक है। जेसे उपादांन माताके निमत्त पिताको पुत्रकि प्राप्ती हुइ-उपादांन गौकों निमत्त गोपालको दुध की प्राप्ती हुइ । उपादांन दुध निमत्त खटाइ दहीकी प्राप्ती हुइ । उपादांन दहीका निमत्त भीलोने का घृतकि प्राप्ती हुइ. उपादान गुरुका निमत्त सुशील शिष्य को ज्ञानकि प्राप्ती हुइ. उपादांन भव्य जीवकों निमत्त ज्ञानदर्शन चारित्र तप ध्यान मौन पूजा प्रभावनादिका जीनसे मोक्षकी प्राप्ती हुई (९) प्रमाण च्यार--प्रत्यक्ष प्रमाण, आगम प्रमाण, अनुमान प्रमाण ओपमा प्रमाण जिस्मे प्रत्यक्ष प्रमाण के दो भेद है (२) इन्द्रिय प्रत्यक्ष प्रमाण (२) नो इन्द्रिय प्रत्यक्ष प्रमाण, इन्द्रिय प्रत्यक्ष प्रमाण के पांच भेद है श्रोत्रंन्द्रिय प्रत्यक्ष प्रमाण, चक्षु इन्द्रिय प्रत्यक्ष प्रमाण, घ्राणेन्द्रिय प्रत्यक्ष प्रमाण, रसेन्द्रिय प्रत्यक्ष प्रमाण, स्पर्शेन्द्रिय प्रत्यक्ष प्रमाण, । नो इन्द्रिय प्रत्यक्ष प्रमाण के दो भेद (१) देशसे २ सर्वसे। जिस्मे देशसेका दो भेद अवधिज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण, मनःपर्यव ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण, सवसेका एक भेद Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६) शीघ्रबोध भाग ३ जो. केवलज्ञान नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष प्रमाण । अर्थात् जिसके जरिये . वस्तुको प्रत्यक्ष जानी जावे उसे प्रत्यक्ष प्रमाण कहा जाते है। (क) आगम प्रमाण-जो पदार्थका ज्ञान आगमोंद्वारा होते है उसे आगम प्रमाण कहते है उन आगम प्रमाण के बारहा भेद है आचारांगसूत्र, सूयगडायांगसूत्र, स्थानायांगसूत्र समवायांगसूत्र भगवतीसूत्र ज्ञातासूत्र उपासकदशांगसूत्र, अंतगढदशांगसूत्र अनुतरोवधाइदशांगसूत्र प्रश्रव्याकरणसूत्र विपाकसूत्र दृष्टिबादसूत्रअर्थ तीर्थकरोंने फरमाया है पुत्र गणधरोने गुंथा है इस वास्ते अर्थ तीर्थकरों के फरमाये हुवे है वह सूत्र गणधरों के अत्तागम है और सूत्रोंका अर्थ गणधरोंके अनंतरागम है और उनके शि. ज्यो के अर्थ परम्परागम है इति आगम प्रमाण (ख) अनुमान प्रमाण-जों वस्तु अनुमानसे जानी जावे उसे अनुमान प्रमाण कहते है उन अनुमान प्रमाणके तीन भेद हे (१) पुव्वं (२) सासव (३) दिट्टि सामन्नं । जिस्मे पुर्व के च्यार भेद है जेसे कीसी माताका पुत्र बच्चपनसे प्रदेश गया वह युवक अवस्थामें पीच्छा घरपर आया, उन लडके को वह माता, पूर्व के चिन्होंसे पेच्छाने जेसे शरीर के तीलसे, ममसे. शिरसे नाकसे आंखसे तथा कीसी प्रकारके चन्हसे माता जाने कि यह मेरा पुत्र है इसी प्रकार बेहनका भाइ, त्रिका भरतार, मित्रका मित्र इनोंको अनुमान चन्हसे पेच्छाना जाय, यह पूर्व प्रमाण है दुसारा सासवं अनुमान प्रमाण के पांच भेद है कन्जेणं कारणेणं, गुणेणं, आसवेणं, अवयवेणं । जिस्मे कजे गंका च्यार भेद है. गुलगुलाट कर हस्ति जाने. हणहणाट कर अश्व जाने, झणझणाट कर रथ जाने, बलबलाट कर मनुष्य समुह जाने अर्थात् इन अनुमानसे उक्त बातों जाण सके । (क) कारणेणं के पांच भेद है यथा घटका कारण मट्टि है Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार. ( १७७) किन्तु मट्टिका कारण घट नही है। पट्टका कारण तंतु है किन्तु तंतुका कारण पट्ट नही है। रोटीका कारण आटा है किन्तु आ. टाका कारण रोटी नही है । सूवर्णका कारण कसोटी है किन्तु कसोटीका कारण सुवर्ण नही है । मोक्षका कारण ज्ञान दर्शन चारित्र है किन्तु ज्ञान दर्शन चारित्रका कारण मोक्ष नही है। (ख) गुणेणके छे भेद है जेसे पुष्पोमें सुगन्धका गुण, सुव. र्णम कोमलताका गुण, दुधमें पौष्टिक गुण, मधुमें स्वादका गुण, कपडामें स्पर्शका गुण, चैतन्यमे ज्ञान गुण, परमेश्वरमें पर उपकारका गुण । इत्यादि। (ग) आसरणका छे भेद है.धुवेंकों देख जाने कि यहां अग्नि होगा, विद्युत् वादलोंकों देख जाने कि वर्षात होगें, बुंद देखके नाने कि यहां पाणी होगें । अच्छी प्रवृत्ति देख जाने कि यह कोइ उत्तम कुलका मनुष्य है । साधुकों देख जाने यह अच्छा शील स. त्यवान होगें | प्रतिमा देख जाने यह परमेश्वरका स्वरूप है। (घ) आवयवेणंके अढारा भेद है। यथा-दान्ताशुल से हस्ति जाने, श्रृंगकर भेसा जाने, शिखासे कुर्कट जाने, तिक्षण दाढोंसे सुवर जाने, विचित्र वर्णवाली पांखो से मयर जाने, स्कन्धकर अश्व जाने, नखकर व्याघ्र जाने, केशकर चमरी गौ जाने, लम्बी पुच्छ कर बंदर जाने, दोपांवसे मनुष्य जाने, च्यार पांवोंसे पशु जाने, बहू पावोसे कानशीलाया जाने, केशरों करके शादलसिंह जाने, चुडीयों से ओरत जाने, हथियार से सुभट जाने, एक काव्यसे कवि जाने, एक शीतकर रांधा हुवा अन्नाजकों जाने । एक व्याख्यान से पंडित जाने, दयाका परिणाम करभव्य जीव जाने, शासनकि रूचीसे सम्यग्दृष्टि जाने प्रतिबिंब देख परमे. श्वर जाने इत्यादि-इतिसासवं अनुमान प्रमाणके पांच भेद हुवे । १२ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७८ ) शीघ्रबोध भाग ३ जो. (३) दिठ्ठिसामन्नके अनेक भेद - जेसे सामान्य से विशेष. जाने, विशेष से सामान्य जाने, एक शिकाका रूपैयाको देख बहुत से रूपयोंको जाने, एक देशके मनुष्यकों देख बहुत से मनुarat जाने इत्यादि । यह भी अनुमान प्रमाण है । और भी अनुमान प्रमाण से तीन कालकि बातोंको जाने. जेसे कोइ प्रज्ञावन्त मुनि विहार करते किसी देश में जाते समय बागबगीचे शुके हुवे देखे, धरती कादे कीचड रहीत देखी, लाटों खलोमें धान के समूह कम देखा, इसपर मुनिने अनुमान कीया कि ative भूतकालमे दुर्भिक्ष था एसा संभव होते है । नगरमें जाने पर वहां बहुत से लोगोंके उंचे उंचे मकान देख मुनि गौचरी गये परन्तु पर्याप्ता आहार न मीलने से मुनिने जाना कि यहां वर्तमान दुर्भिक्ष वर्त रहा संभव होते है. मुनि विहारके दरम्यान पर्वत, पहाड भयंकर देखा, दिशा भयोत्पन्न करनेवाली देखो, आकाश में वादले विजली अमोघे उदगमच्छे धनुष्य बान न देखने से अनुमान कीया कि यहां भविष्य में दुष्काल पडने के चिन्ह दीखाइ देते है। इसी माफीक अच्छे चिन्ह देखने से अनुमान करते है कि sive भूत, भविष्य और वर्तमान कालमें सुभिक्षका अनुमान होते है यह सब अनुमान प्रमाण है । ---- ( ४ ) ओपमा प्रमाणके च्वार भेद है यथा(क) यथार्थ वस्तुकि यथार्थ ओपमा - जेसे पद्मनाभ तीर्थकर केसा होगा कि भगवान वीर प्रभु जेसा । (ख) यथार्थ वस्तु और अनयथार्थ ओपमा जेसे नारकी, देवतोंका पल्योपम सागरोपमका आयुष्य यथार्थ है किन्तु उनके लिये पक योजन प्रमाण कुवाके अन्दर बाल भरना इत्यादि ओ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार. ( १७९) पमा अनयथार्थ है कारण एसा कीसीने कीया नहीं है यह सो केवलीयोंने अपने ज्ञानसे देखा है. जिसका प्रमाण बतलाया है। (ग) अनयथार्थ वस्तु और यथार्थ ओपमा-जेसे दोहा-पत्र पडां तो इम कहै । सुन तरवर वनराय अबके विछडियों कब मीले, दूर पड़ेंगे जाय ॥१॥ तब तरूवर इम बोल्यों, सुन पत्र मुझ वात हम घर यह ही रीत है, एक आवत एक जात ॥२॥ नही तरू पत्र बोलीया, नही भाषा नही विचार वीर व्याख्यानी ओपमा, अनुयोग द्वार मझार ॥३॥ याने तरूवर और पत्रके कहने का तात्पर्य यथार्थ है यह ओपमा यथार्थ परन्तु वस्तुगते वस्तु यथार्थ नही है. (घ) अनयथार्थ वस्तु अनयथार्थ ओपमा अश्वके श्रृंग गदम जेसे है और गर्दभके श्रृंग अश्व जेसे है न तो अश्वके श्रृंग है न गर्दभके श्रृंग है केवल ओपमा ही है इति प्रमाणद्वार । (१०) सामान्य विशेषद्वार-सामान्य से विशेष बलवान है। जेसे सामान्य द्रव्य एक विशेष द्रव्य दो प्रकारके है (१) जीवद्रव्य (२) अजीवद्रव्य. सामान्य जीवद्रव्य एक, विशेष नीवद्रव्य दो प्रकारके (१) सिद्धोंके जीव ( २ ) संसारी जीव. सामान्य सिद्धोंके जीव विशेष सिद्धोंके जीव दो प्रकारके (१) अणंतर सिद्ध (२) परम्पर सिद्ध इत्यादि. सामान्य संसारी जीव एक प्रकार विशेष संयोगी अयोगी एवं क्षीण मोह, उपशान्त मोह. सकषाय-अकषाय-प्रमत्त-अप्रमत्त--संयति--असंयति--असंयति नारकी तीर्यच मनुष्य देवता इत्यादि । जो अजीवद्रव्य हे सो सामान्य एक है विशेष दो प्रकारके है रूपी अजीव द्रव्य, अरूपी अजीव द्रव्य, सामान्य रूपी अजीव विशेष स्कन्ध देश प्रदेश Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८०) शीघ्रबोध भाग ३ जो. परमाणु पुदगल, सामान्य अरूपी अजीवद्रव्य. विशेष धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य, कालद्रव्य इत्यादि सामान्य तीर्थकर विशेष च्यार निक्षेपे नाम तीर्थकर. स्थापना तीर्थकर, द्रव्य ती. थैकर, भाव तीर्थकर सामान्य नाम तीर्थकर विशेष वीस प्रकार से तोर्थकर नाम कर्म बन्धता है, अरिहन्तोंकि भक्ति करने से सावत् समकितका उद्योत करनेसे ( देखो भाग १ लेमें वीस बोल) सामान्य अरिहन्तोंकि भक्ति. विशेष स्तुति गुणकीर्तन पूजा नाद- . क इत्यादि सामान्यसे विशेष विस्तारवाला है. (११) गुण और गुणी-पदार्थमें खास वस्तु है उसे गुण कहा जाते है और जो गुणकों धारण करनेवाले है उसे गुणी कहा जाता है. यथा-गुणी जीव और गुणज्ञानादि, गुणी अजीव गुणवर्णादि । गुणी अज्ञान संयुक्त जीव, गुणमिथ्यात्व, गुणीपुष्प, गुणसुगन्ध, गुणीसुवर्ण, गुणपीलात-कोमलता, गुणी और गुण भिन्न नहीं है अर्थात् अभेद है। (१२) ज्ञेय ज्ञान ज्ञानी-ज्ञेय जो जगतके घटपटादि पदार्थ है उसे ज्ञेय कहते है, उनोंका जानपणा वह ज्ञान और जाननेवाला वह ज्ञानी है. ज्ञानी पुरुषोंके लिये जगतके सर्व पदार्थ वैराग्यका ही कारण है कारण इष्ट अनिष्ट पदार्थ सब शेय-जाननेलायक हैं सम्यक्ज्ञान उनीका नाम है कि इष्ट अनिष्ट पदार्थोंको सम्यक्प्रकारसे यथार्थ जानना. इसी माफीक ध्येय, ध्यान ध्यानी-जी जगतके सर्व पदार्थ है वह ध्येय है, जिस्का ध्यान करना वह ध्यान है और ध्यानके करनेवाला वह ध्यानी है। (१३) उपन्नेवा, विगन्नेवा, धूवेवा-उत्पन्न होना, विनाश होना, ध्रुवपणे रहना. यह जगतके सर्व जीवाजीव पदार्थमें एक समयके अन्दर उत्पात व्यय धूष होते है जेसे सिद्ध भगवान ने Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपन्नेवाधिकार. ( १८१) जो पहले समय भाव देखा था बह उत्पात है. उनी समय जिस पर्यायका नाश हो दुसरी पर्यायपणे उत्पन्न हुवा वह व्यय ही उनी समय है और सिद्धोंका ज्ञान है वह धूव है. जेसे किसीको बाजुबन्ध तोडाके चुडी करानी है तो चुडीका उत्पात बाजुका नाश और सुवर्णका धूवपणा है । जेसे धर्मास्तिकायमें जो पहले समय पर्याय थी वह नाश हुइ, उनी समय नये पर्याय उत्पन्न हुवा और चलनादि गुण प्रदेशमें है वह ध्रुवपणे रहे इसी माफीक सधै द्रव्यके अन्दर समझ लेना। (१४ ) अध्येय और आधार-अध्येय जगतके घटपटादि पदार्थ आधार पृथ्वी अध्येय जीव और पुद्गल आधार आकाश, अध्येय ज्ञानदर्शन आधार जीव इत्यादि सर्व पदार्थमे समझना। । १५ ) आविर्भाव-तिरोभाव-तिरोभाव जो पदार्थ दूर है. आविर्भाव आकर्षित कर नजीक लाना. जेसे घृतकी सत्ता घासके तृणोंमें होती है. यह तिरोभाव है और गायके स्तनोंमें दुध है यह आविर्भाव है। गायके स्तनों में घृत दूर है और दुधमें नजदीक है, दुध घृत दूर है और दही में नजदीक है. दहीमें घृत दूर है और मक्खनमें नजदीक है. इसी माफीक सयोगीको मोक्ष दूर है अयोगीको मोक्ष नजदीक है. वीतरागको मोक्ष नजदीक है, छद्मस्थको दूर है, क्षपकश्रेणिको मोक्ष नजदीक है, उपशमश्रेणिको मोक्ष दूर है. इसी माफीक सकषाइ, अकषाइ, प्रमत्त, अप्रमत्त, संयति-असंयति, सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि यावत् भव्य-अभव्य । (१६ ) गौणता-मौख्यता-जो पदार्थ के अन्दर गुप्तपणे रहा हुवा रहस्यकों गोणता कहते है. जिस समय जिस वस्तु के व्याख्यानकी आवश्यक्ता है, शेष विषयकों छोड उन्ही आवश्यक्ता. वाली वस्तुका व्याख्यान करना उसे मौख्यता कहते है. जेसे Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८२) शीघ्रबोध भाग ३ जो. ज्ञानसे मोक्ष होता है तो ज्ञानको मौख्यता है और दर्शन चारित्र' तप वीर्य क्रियादिकी गौणता है. पुरुषार्थसे कार्यकी सिद्धि होती है. इसमें काल स्वभाव नियत पूर्वकर्मकी गौणता है और पुरुष - र्थकी मौख्यता है. आचारांगादि सूत्रमें मुनिआचारकी मौख्यता बतलाइ है, शेष साधन कारणोंको गौणता रखा है. भगवति सुत्रादिमें ज्ञानकी मौख्यता बतलाई गई है, शेष आचारादि गौणतामें रखा है। जीस समय जीस पदार्थकों मौख्यपणे बतलानेकी आवश्यक्ता हो उसे मौख्यपणे ही बतलाना जेसे कोयलका रंग मौख्यतामें श्यामवर्ण है. शेष च्यार वर्ण, दो गन्ध, पांच रस, आठ स्पर्श गौणता है. इसी माफीक बाह्य दीसती वस्तुका व्याख्यान करे वह मौख्य है और उनके अन्दर अन्य धर्म रहा है वह गौण है । ( १७ ) उत्सर्गपिवाद - उत्सर्ग है सो उत्कृष्ट मार्ग है और अपवाद है सो उत्सर्गमार्गका रक्षक है. उत्सर्गमार्ग से पतित होता है, उन समय अपवादका अवलम्बन कर उत्सर्गमार्गकों अपने स्थानमें स्थिरीभूत कर सकते है. इसी वास्ते महान् रथकों चलामें उत्सर्गोपवाद दोनों धोरी माने गये है । जेसे उत्सर्गमे तीन है उनके रक्षण पांच समिति अपवाद में है, सर्वथा अहिंसा मार्ग में भी नदी उतरना, नौकामें बेठना, नौकल्पी विहार करना यह उत्सर्ग में भी अपवाद है, स्थिवरकल्प अपवाद है. जिनकल्प उत्सर्ग है. आचारांग दर्शवैकालिक प्रश्नव्याकरणादि सूत्रों में मुनि - मार्ग है सो उत्सर्ग है और छेद सूत्रों में मुनि मार्ग है वह अपवाद है " करेमिते सामायिक सव्वं सावज्जं जोगं पञ्चकखामि " यह उत्सर्ग पाठ है " जयंचरे जयंचिट्ठे " यह अपवाद पाठ है " समय गोमा म पाए " यह उत्सर्ग है संस्तारा पौरसीके पाठ अपवाद Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्माधिकार. ( १८३ ) है. परिसह अध्ययन में रोग आनेपर औषधि न करना उत्सर्ग है. भगवतीसूत्र में तथा छेदसूत्रोंमें निर्बंध औषधि करना अपवाद है. इत्यादि इसी माफीक षटूद्रव्य में भी उत्सर्गोपवाद समझना । ( १८ ) आत्मा तीन प्रकारकी है. वाह्यात्मा, अभितरात्मा, परमात्मा जिस्में जो आत्मा धन, धान्य, सुवर्ण, रुपा, रत्नादि द्रव्यकों अपना मान रखा है पुत्रकलत्र, मातापिता, बन्धवमित्रकों अपना मान रखा है. इष्ट संयोगमें हर्ष अनिष्ट संयोगमें शोक पुगल जो परवस्तु है उसे अपनि मान रखी है जो कुच्छ तत्त्व समजते है तो उनी बाह्यसंयोगको ही समजते है वह बाह्यात्मा उसे ज्ञानीयों भवाभिनन्दी मिथ्यादृष्टि भी कहते है । दुसरी अभितरात्मा जीस जवोने स्वसत्ता परसत्ताका ज्ञानकर परसत्ताका त्याग और स्वसत्ता में रमणता कर बाह्य संयोगकों पर वस्तु समज त्यागबुद्धि रखे अर्थात् चोथा सम्यग्दृष्टी गुणस्थानसे लगाके तेरवे गुणस्थान तक के जीव अभितरात्मा के जानना. परमात्म- जीनोंके सर्व कार्य सिद्ध हो चुके सर्व कमसे मुक्त हो लोकके, उग्रभाग में अनंत अव्याबाध सुखोंमे विराजमान है उसे परमात्मा कहते है तथा आत्मा तीन प्रकारके है स्वात्मा परात्मा परमात्मा जिस्मे स्वात्माको दमन कर निज सत्ताको प्रगट करना चाहिये, परात्माका रक्षण करना और परमात्माका भजन करना. यह ही जैनधर्मका सार है । ( १७ ) ध्यान च्यार - पदस्यध्यान अरिहन्तादि पांच पदके गुणोंका ध्यान करना. पिंडस्थध्यान- शरीररूपी पिंडके अन्दर स्थित रहा हुवा अनंत गुण संयुक्त चैतन्यका ध्यान करना अर्थात् अध्यात्मसत्ता जो चैतन्य के अन्दर रही हुई है उन सत्ताके अन्दर रमणता करना । रुपस्थ ध्यान यद्यपि चैतन्य अरुपी है तद्यपि कर्म Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८४ ) शीघबोध भाग ३ जो. संग रहनेसे अनेक प्रकारके नये नये रूप धारण करने पर भी . चैतन्य तो अरूपी है परन्तु छदमस्थोंके ध्यानके लिये कीसीने कीसी आकारकि आवश्यक्ता है जेसे अरिहंत अरूपी है तथपि उनोंकि मूर्ति स्थापन कर उन शान्त मुद्राका ध्यान करना । रूपातित ध्यान जो निरंजन निराकार निष्कलंक अमत्ति अरूपी अ. मल अकल अगम्य अवेदी अखेदी अयोगि अलेशी इत्यादि सच्चिदानन्द बुद्धानन्द सदानन्द अनन्त ज्ञानमय अनंत दर्शनमय जो सिद्ध भगवान है उनोंके स्वरूपका ध्यान करना उसे-रूपातित ध्यान कहते है। (२०) अनुयोग च्यार-द्रव्यानुयोग-जिस्मे जीवाजीव चेतन्य जड कर्म लेश्या परिणाम अध्यवसाय कर्मवन्धके हेतु कारण सिद्धि सिद्धअवस्था इत्यादि स्वरूपकों समजाये गये हो उसे द्रव्या नुयोग कहा जाता है जिस्म क्षेत्र पर्वत पाहड नदी द्रह देवलोक नारकी चन्द्र सूर्य ग्रह इत्यादि गीणत विषय हो उसे गीनतानुयोग कहते है । जिस्मे साधु श्रावकके क्रिया कल्प कायदा आचार व्यवहार विनय भाषा व्यावञ्चादिक व्याख्यान हो उसे चरण करणानुयोग कहते है जिस्के अन्दर राजा महाराजा शेठ सेनापतियोंके शुभ चारित्र हो जिस्मे धर्म देशना वैराग्यमय उपदेश हो संसारकी असारता वतलाइ हो उसे धर्मकथानुयोग कहते है इति । (२१) जागरणा तीन प्रकारको है । बुद्ध जागरणा तीर्थकरोको केवलीयोंकी अबुद्ध जागरण-छदमस्थमुनियोंकी सुदुःख जा. गरण श्रावकोंकी। . ( २२ ) व्याख्या-उपचारनयसे एक वस्तु में एक गुणकों मौख्यकर व्याख्यान करना जिस्का नौ भेद है। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपचाराधिकार. (१८५) (१) द्रव्यमें द्रव्यका उपचार जेसे काष्टमें वंशलोचन. (२) द्रव्यमें पर्यायका उपचार यह जीव ज्ञानवन्त है. (३ द्रव्यमें पर्यायका उपचार यह जीव सरूपवान है. (४) गुणमें द्रव्यका उपचार-अज्ञानी जीव है. (५ गुणमें गुणका उपचार-ज्ञानी होनेपरभी क्षमाबहुतहै. . ६) गुणमें पर्यायका उपचार-यह तपस्वी बडे रूपवन्त है (७) पर्यायमें द्रव्य का उपचार-यह प्राणी देवतोका जीव है (८) पर्याय में गुणका उपचार-यह मनुष्य बहुत ज्ञानी है. ( ९) पर्याय में पर्यायका उपचार-मनुष्य श्यामवर्णका है. (( २३ ) अष्टपक्ष-एक वस्तुमें अपेक्षा ग्रहनकर अनेक प्रका. रकि व्याख्या हो सक्ती है, जेसे नित्य, अनित्य, एक, अनेक, सत् , असत्, वक्तव्य, अबक्तव्य. यह अष्टपक्ष एक जीवपर निश्चय और व्यवहारकि अपेक्षा उतारे जाते है यथा___ व्यवहारनय कि अपेक्षा जीस गतिमें उदासि भावमें वर्तता हुवा नित्य है और समय समय आयुष्य क्षीण होनेकि अपेक्षा अनित्य भी है। निश्चयनयकि अपेक्षा ज्ञान दर्शन चारित्रापेक्षा नित्य है और अगुरु लघु पर्याय समय समय उत्पात व्यय होनेकि अपेक्षा अनित्य भी है। _ व्यवहार नयमें जीस गतिमें जीव उदासिभावमें वर्तता हुधा एक है और दुसरे माता पिता पुत्र खि बन्धबादिकि अपेक्षा आप अनेक भी है। निश्चयनयापेक्षा सर्व जीवोंका चैतन्यता गुण एक होनेसे आप एक है और आत्माके असंख्यात प्रदेश तथा एकेक प्रदेशमें गुण पर्याय अनंता अनंत होनेसे अनेक भी है। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८६) शीघ्रबोध भाग ३ जो. व्यवहार नयकि अपेक्षा जीव जीस गतिमें वर्त रहा है उन गतिमें स्वद्रव्य स्वक्षेत्र स्वकाल स्वभावापेक्षा सत् है और पर. द्रव्य परक्षेत्र परकाल परभावापेक्षा असत् है। निश्चयनयापेक्षा जीव अपने ज्ञानादि गुण अपेक्षा सत है और पर गुण अपेक्षा असत है। व्यवहारन यापेक्षा मिथ्यात्व गुणस्थानसे चौदवां अयोगी केवली गुणस्थान तक कि व्याख्या केवली भगवान को वह वक्तव्य है और जो व्याख्या केवली कह नहीं सके वह अवक्तव्य है । निश्चयन यापेक्षा सिद्धों के अनंतगुणोंसे जितने गुणोकि व्याख्या केवली करे वह वक्तव्य है और जितने गुणोंकि व्याख्या केवलीभी न कर सके वह सब अवक्तव्य है। जीवकि आदि ओर मिट्ठोंका अन्त सबके लिये अवक्तव्य है। (२४) समभंगी-स्यात् अस्ति: स्यात् नास्ति, स्यात् आस्ति नास्ति. स्यात् अवक्तव्य, स्यात् अस्ति अवक्तव्य स्यात् नास्ति अवक्तव्य, स्यात् अस्तिनास्ति युगपात अवक्तव्य यह सप्तभंगी हर कीसी पदार्थ पर उतारी जाती है स्याहाद रहस्य अपेक्षामें ही रहा हवा है एक वस्तुमें अनेक अपेक्षा है। यहांपर सिद्ध भगवान पर वह सप्तभंगी उतारी जाती है यथा-सिद्धों में स्यात् आस्ति. म्यात याने अपेक्षासे सिद्धोंम स्वगुणोंको आस्ति है- स्यान्ना. स्ति अपेक्षासे सिद्धोंमें परगुणोंकि नास्ति है म्यात् अस्ति नास्ति याने सिद्धों में स्वगुणोंकि आस्ति है और परगुणोंकि नास्ति भी है स्यात् अवक्तव्य-आस्तिनास्ति एक समय है किन्तु ममयका काल स्वल्प होनेसे व्यक्तव्यता हो नही सके इस वास्ते अवक्तव्य है स्यात् अस्ति अवक्तव्व. जीन समय आस्ति है किन्तु वह अवक्तव्य है । स्यात् नास्ति अवक्तव्य. परगुणकी नास्ति है वह भी एक समय के लिये अवक्तव्य है स्यात आस्ति नास्ति युगपत् Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निगोदस्वरूपाधिकार. (१८७ ) समय है अर्थात् आस्ति नास्ति एक समय में है परन्तु है अवक्तव्य । कारण वचनके योग से वक्तव्यता करनेमें असंख्यात समय लगते है वास्ते एक समय अस्तिनास्ति का व्याख्यान हो नही सकते है । इसी माफीक जीवादि सर्व पदार्थों पर सप्तभंगी लग सक्ती है । यह बात खास ध्यान में रखना चाहिये कि जहां स्वगुणकी अस्ति होगें वहां परगुणकि नास्ति अवश्य है । इति (२५) निगोदस्वरूपद्वार- निगोद दो प्रकार की है ( १ ) सूक्ष्म निगोद ( २ ) बादर निगोद. जिसमें बादर निगोद जैसे कन्दमूल कान्दा मूला आलु रतालु पींडालु आदो अडवी सूवर्ण कन्द वज्रकन्द सकरकन्द निलण फूलण लसणादि इनोंमे अनन्त जीवोंका पंड है और जो सूक्षम निगोद है सो दो प्रकार कि है (१) व्यवहाररासी (२) अव्यवहाररासी जिसमें अव्यवहाररासी है यह तो अभीतक बादर पाणेका घर देखाही नहीं है उन जीवों की शखकाने कोसी प्रकारकी गणती में व्याख्या करोभी नहीं है जो अठाणु बोलादि अल्पाबहुत्व है उनमें जो जीवोंकि अल्प बहुत्व बतलाइ है वह सब व्यवहाररासी की अपेक्षा है उन व्यवहार रासीसे जीतने जीव मोक्ष जाते है व उतने ही जीव अ हाररासी से निकल व्यवहाररासी में आजाते है वास्ते व्यवहाररासीमें जीव कम नही होते है । व्यवहाररासी कि जो लूक्षम निगोद है उनका स्वरूप इस माफीक है । सूक्षम निगोद के गोले संपूर्ण लोकाकाशमें भरा हुवा है एकभी आकाश प्रदेश पसा नही है कि जीसपर पुक्षम निगोदके गोले न हों. संपूर्ण लोकका एक घन बनाने से सात राज का घन होता है उनसे एकसूची अंगुलक्षेत्र के अन्दर असंख्यात श्रेणि है एकेक श्रेणिमें असंख्या २ परतर है । एकेक परतर में अ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८८) शीघ्रबोध भाग ३ जो. संख्यात २ गोले है | एकेक गोले में असंख्यात २ शरीर है। पकेक शरीर में अनंते अनंते जीव है एकेक जीवों के असंख्यात २ आत्म प्रदेश है. एकेक आत्म प्रदेशपर अनंत अनंत कर्म वर्गणावों है । एकेक कर्म वर्गणा में अनन्ते अनंते परमाणु हैं एकेक परमाणु में अनंती अनंती पर्याय है एकेक परमाणु में अनंतगुण हानि वृद्धि होती है यथा-अनंतभाग हानि असंख्यातभाग हानि संख्यातभाग हानि. संख्यात गुण हानि असंख्यातगुण हानि अनंतगुण हानि । वृद्धि - अनंतभाग वृद्धि असंख्यातभाग वृद्धि संख्यातभाग वृद्धि संख्यातगुण वृद्धि असख्यातगुण वृद्धि अनंतगुण वृद्धि । इसी माफीक द्रव्य में भी समय समय षट्गुण हांनि वृद्धि हुवा क रती है। एक शरीर में निगोद के जीव अनंते है वह एक साथ में साधारण शरीर बांधते है साथ ही में आहार लेते है साथ ही में श्वासोश्वास लेते है साथ ही में उत्पन्न होते है साथही में चवते है उन जीवोंकों जन्ममरणकी कीतनी वेदना होती है जेसे कोइ अंधा पंगु बेहरा मुका जीव हो उनों के शरीर में महा भयंकर सोलहा प्रकार के राजरोग हुवा है वह दुसरे मनुष्य से देखा नही जावे एसा दुःखसे अनंतगुण दुःखों तों प्रथम रत्नप्रभा नरक में है उनसे अनंतगुणा दुःख दुसरी नरक में एवं त्रीजीचोथी पांचमी छठी नरक में अनंतगुण दुःख है छठी नरक करतों भी सातवी नरक अनंतगुणा दुःख है उन सातवी नरक के उत्कृष्ठ ३३ सागरोपम का आयुष्य के जीतने समय ( असंख्यात ) हो उन एकेक समय सातवी नरकका उत्कृष्ट आयुष्य वाला भव करे उन असंख्यात भर्वोका दुःख को एकत्र कर उनों का वर्ग करे उन दुःखसे सूक्षम निगोद में अनंतगुणा दुःख है कारण वह जीव एक महुर्त में उत्कृष्ट भव करे तो ६५५३६ भव करते है संसार में जन्म मरण से अधिक दुसरा कोइ दुःख नही है. Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षद्रव्यांधिकार. ( १८९) हे भव्यजीवों यह अपना जीव अनंतीवार उन सूक्षम बादर मिगोदमें तथा नरकम दुःखों का अनुभव कर आया है इस समय मनुष्यादि अच्छी सामग्री मीली है वास्ते यह परम पवित्र पुरुषोंका फरमाया हुवा स्यावादनय निक्षेप द्रव्यगुण पर्यायादि अध्यात्म ज्ञान का अभ्यास कर अपनि आत्मामें रमणता करों तांके फीर उन दुःखमय स्थानों को देखने का अवसर ही न मीले । सज्जनों ! आधूनिक लोगों को आलस्य प्रमाद बहुत बढजानेसे बडे बडे ग्रन्थों को अलमारी में रख छोडते है इस वास्ते यह संक्षिप्त में सार लिख सूचना करते है कि इस संबन्ध को आप कंठस्थ कर फीर रमणता करे तांके आपकि आत्मा को बढी भारी शान्ति मिलेगी । इति । संवंभंते सेवभते-तमेव सचम् । -kok--- थोकडा नम्बर. २२ (षद् द्रव्यके द्वार ३१) मामद्वार, आदिद्वार, संस्थानद्वार, द्रव्यद्वार, क्षेत्रद्वार, कालद्वार, भावद्वार, सामान्यविशेषद्वार, निश्चयद्वार, नयद्वार, निक्षेपवार, गुणद्वार, पर्यायद्वार, साधारणद्वार, स्वामिद्वार, परिणामिकद्वार, जीवद्वार, मूर्तिद्वार, प्रदेशद्वार, एकडार, क्षेत्र द्वार, क्रियाद्वार, कर्ताद्वार, नित्यद्वार, कारणद्वार, गतिद्वार, प्रवेशद्वार, पृच्छाहार, स्पर्शनाद्वार, प्रदेशस्पर्शनाद्वार, अल्पाबहुत्वद्वार। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९०) शीघ्रबोध भाग ३ जो. (१) नामद्वार--धर्मास्तिकायद्रव्य, अधर्मास्तिकायद्रव्य, आकाशास्तिकायद्रव्य, जीवास्तिकायद्रव्य, पुद्गलास्तिकायद्रव्य और कालद्रव्य. (२) आदिद्वार-द्रव्यकी अपेक्षा षद्रव्य अनादि है. क्षेत्रकी अपेक्षा जो लोकव्यापक षद्व्य है. वह सादि है, एक आकाशानादि है कालकी अपेक्षा षद्रव्य अनादि है और भावापेक्षा षट्द्रव्यमें अगुरु लघु पर्यायका समय समय उत्पात व्ययापेक्षा सादि सान्तहै । यद्यपि यहां क्षेत्रापेक्षा कहते है कि इस जम्बुद्विपके म. ध्यभागमें मेरुपर्वत है उनोंके आठ रूचक प्रदेश है उनके संस्थान निचे च्यार प्रदेश उनोंके आठ उपर विषम याने दो दो प्रदेशपर एकेक प्रदेश रहा रूचक. हुवा है, उन रूचक प्रदेशोंसे धर्मास्तिकायकि दो प्रदेशोंसे /प्रदेशको आदि है और फीर दो दो स्थापना. प्रदेश वृद्धि होती हुइ लोकान्त तक'असंख्यात प्रदेशी चौतर्फ गइ है. एवं अधर्मास्तिकाय. एवं आकाशास्तिकाय परन्तु अलोकमें 'अनंतप्रदेशी भी ह अधो उर्ध्व च्यार च्यार प्रदेशी है जीवका आदि अन्त नहीं है सर्व लाकव्यापक है. पुद्गलास्तिकाय सर्व लोकव्यापक है. कालद्रव्य प्रवर्तन रुप तो आढाइ द्विपमें ही है, कारण आढाइ द्विपके चन्द्र सूर्य चर ह और जीवपुद्गलकी स्थिति पूर्णरुप संपुर्ण लोकमें है! (३) संस्थानद्वार-धर्मास्तिकायका संस्थान गाडाका ओ. धणकी माफीक है कारण दो प्रदेश आगे च्यार, च्यार आगे छे, Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षद्रव्य. ( १९१ ) छे आगे आठ, एवं दो दो प्रदेश वृद्धि होनेसे लोकान्त तक असंख्यात प्रदेशी है. एवं अधर्मास्तिकाय और आका शाfastest संस्थान लोकमें ग्रीवाके आभरण जेसा और अलोकमें गाडाके ओधनाकार है. जीव पुद्गलके अनेक प्रकार के संस्थान है कालका कोइ आकार नहीं है। ( ४ ) द्रव्यद्वार - गुणपर्यायके भाजनको द्रव्य कहते है जिस्मे समय समय उत्पाद व्यय होते रहे-कारण कार्य एकही समयमें हो जो एक समय कार्य में उत्पाद व्यय है उनी समय कारणका उत्पाद व्यय है मूलजों एक द्रव्य है उनका निश्चय दो खंड नही होता है कारण जीवद्रव्य तथा परमाणुद्रव्य इनका विभाग नही होते है । अगर द्रव्यके स्कन्ध देश प्रदेश कहा जाते है यह सब उपचरित नयसे कहा जाते है । द्रव्यके मूल सामान्य छे स्वभाव है । ( १ ) अस्तित्वं - नित्यानित्य परिणामिक स्वभाव | (२) वस्तुत्वं - गुणपर्यायका आधारभूत स्वभाव । (३) द्रव्यस्वं - षद्रव्य एकस्थानमें रहने परभी एकेक द्रव्य अपना अपना स्वभाव मुक्त नही होते हैं अर्थात् एक दुसरे स्वभावमें नही मीलते हुवे अपनि अपनि क्रिया करे । ( ४ ) प्रमेयत्वं - स्वात्मा परात्माका ज्ञान होना यह स्वभाव जीवद्रव्यमें है । शेषद्रव्यमे स्वपर्याय स्वभावक प्रमेयत्वं स्वभाव कहते है । ( ५ ) सत्त्वं उत्पाद व्यय धूव एकही सयय होनेपर भी वस्तु अपने स्वभावका त्याग नही करती है । (६) अगुरुलघुत्वं - समय समय षट्टगुण हानिवृद्धि होने पर भी अपने अपने गुणोमें प्रणमते हैं । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९२ ) शीघ्रबोध भाग ३ जो. द्रव्यके उत्तर सामान्य स्वभाव । (१) अस्तिस्वभाव- द्रव्य-द्रव्यका गुणपर्याय. क्षेत्र जिस : क्षेत्रमें द्रव्य रहा हुवा है-काल द्रव्यमें उत्पात व्यय ध्रुव-२ -भाव एक समय कारणकार्य स्वभाव । जेसे घट घट अस्तित्व' और पटमे पटका अस्तित्वं । ( २ ) नास्तिस्वभाव - एक द्रव्यकि अपेक्षा दुसरे द्रव्य में बह द्रव्य क्षेत्र काल भाव नहि है जेसे घटमें पटक नास्ति पटमें afa नास्ति । (३) नित्यस्वभाव - द्रव्यमें स्वगुणो प्रणमनेका स्वभाव free है. (४) अनित्यस्वभाव - द्रव्य में परगुण प्रणमनेका स्वभाव. अनित्य है । (५) एक स्वभाव - द्रव्यमें द्रव्यत्व गुण एक है. (६) अनेकस्वभाव - द्रव्यमें गुण पर्याय स्वभाव अनेक है (७) भेदस्वभाव--- आत्म परगुणापेक्षा भेद स्वभाववाला है जैसे चैतन्य कर्मसंग परवस्तुकों अभेद मान रखी है तथापि चैतन्य जडत्वमें भेद स्वभाववाले हं मोक्षगमन समय निजगुणोंसे जड भेद स्वभाववाले ह. (७) अभेदस्वभाव-- आत्माके ज्ञानादि गुण अभेद स्वभाववाले है. ( ९ ) भव्यस्वभाव - - आत्माके अन्दर समय समय गुणप afe कारण कार्यपणे प्रणमते रहेना इनकों भव्व स्वभाव कहते है । (१०) अभव्वस्वभाव - आत्माका मुल गुण कीसी हालतमे नही बदलता है याने हरेक द्रव्व अपना मुल गुणकों नही पलटाते है Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षटूद्रव्य. (१९३) उसे अभव्य स्वभाव कहते है। अर्थात् भव्य कि अनेक विवस्थावों होति है और अभव्य कि विवस्था नही पलटती है। (११) वक्तव्य स्वभाव-एक द्रव्यमें अनंत वक्तव्यता है उसमें जीतनि वक्तव्यता कर सके उसे वक्तव्य स्वभाव कहते है। (१२) अवक्तव्य स्वभाव-शेष रहे हुवे गुणोंकि वक्तव्यता न हो उसे अवक्तव्य स्वभाव कहते है। (१३) परम स्वभाव-जो एक द्रव्यम गुण है वह कीसी दुसरे द्रव्य में न मीले उसे परम स्वभाव कहते है।जैसे धर्मद्रव्यमें चलनगुण द्रव्य के विशेष स्वभाव अनंते है। षद्रव्यमें धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य यह एकेक द्रव्य है और जीवद्रव्य, पुदगलद्रव्य अनते अनंते द्रव्य है कालद्रव्य वर्तमानापेक्षा एक समय है वह अनंते जीवपुद्गलोकी स्थिति पुरण कर रहा है वास्ते उपचरितनय से कालद्रव्यको भी अनंते कहते है और मूत भवि. ज्यकालके समय अनंत है परन्तु उने यहांपर द्रव्य नही माना है। (५) क्षेत्रद्वार-जीस क्षेत्र में द्रव्य रहे के द्रव्य कि क्रिया करे उसे क्षेत्र कहते है धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, जीवद्रव्य और पुद. गलद्रव्य यह च्यार द्रव्य लोक व्यापक है। आकाशद्रव्य लोका. लोक व्यापक है कालद्रव्य प्रवर्तन रूप आढाई द्विप व्यापक है और उत्पाद व्यय रूप लोकालोक व्यापक है। (६) कालद्वार-जीस समय में द्रव्य क्रिया करते है उसे काल कहते है धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य आकाशद्रव्य-द्रव्यापेक्षा आदि अन्त रहित है और गति गमनापेक्षा सादि सान्त है। पुद्गलद्रव्य द्रव्यापेक्षा आदि अन्त रहीत है द्विप्रदेशी तीन प्रदेशी या. वत् अनंत प्रदेशी अपेक्षा सादि सान्त है । कालद्रव्य-द्रव्यापेक्षा आदि अन्त रहीत है और वर्तमान समयापेक्षा सादि सान्त है। १३ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९४) शीघ्रबोध भाग ३ जो. (७) भावद्वार-धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य, जीवद्रव्य, कालद्रव्य. यह पांचद्रव्य अरूपी है वर्ण गन्ध रस स्पर्श रहीत है और पुद्गलद्रव्य रूपी-वर्ण गंध रस स्पर्श संयुक्त है तथा जीव शरीर संयुक्त होनेसे वह भी वर्णादि संयुक्त है परन्तु चैतन्य निजगुणापेक्षा अमूत्ति है। (८) सामान्य विशेषद्वार-सामान्यसे विशेष बलवान है जेसे सामान्य द्रव्य एक-विशेष जीवद्रव्य, अजीवद्रव्य. सामान्य धर्मास्तिकाय एक द्रव्य है विशेष धर्मद्रव्यका चलन गुण है सामान्य धर्मद्रव्यका चलन गुण है विशेष चलन गुण कि अनंत अगुरु लघु पर्याय है. इसी माफीक सर्व द्रव्य में समजना। (९) निश्चय व्यवहारद्वार-निश्चय से षद्रव्य अपने अपने गुणों में प्रवृत्ति करते है और व्यवहार में धर्मद्रव्य जीवा. नीव द्रव्यकों गमनागमन समय चलन सहायता करे अधर्मद्रव्य स्थिर सहायता, आकाशद्रव्य स्थान सहायता करते है, जीव व्यवहारसे रागद्वेष में प्रवृति करते है, पुदगल द्रव्य गलन मीलन सडन पडनादि में प्रवृते, काल-जीवाजीव कि स्थितिको पुरण करे। तात्पर्य यह है कि व्यवहार में सहायक हो तो अपने गुगोंसे उसे सहायता करे अगर सहायक न हो तो भी द्रव्य अपने अपने गुणमें प्रवृति करते ही रहते है जेसे अलोक में आकाशद्रव्य है किन्तु वहां अवगाहान गुण लेने के लिये जीवाजीव सहायक नही होने पर भी अवगाहन गुण में षट्गुण हानिवृद्धि सदैव हुवा करती है इसी माफीक सब द्रव्यमे समजना। (१०) नयद्वार-धर्मास्तिकाय-एता तीन काल में नाम होने से नैगमनय धर्मास्तिकाय माने. धर्मास्तिकाय के असंख्यात प्रदेश में चलनगुण सत्ताको संग्रहनयधर्मास्ति माने. धर्मास्तिकाय के स्कन्ध देश प्रदेश रूपी विभागको व्यवहारनय धर्मास्ति Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्रव्याधिकार. ( १९५ ) काय मानेः, जीवाजीवको चलन सहायता देते हुवे को ऋजुसूत्र नय धर्मास्तिकाय माने एवं अधर्मास्तिकाय, परन्तु ऋजुसूत्रनय स्थिर और आकाशास्तिकाय में ऋजुसूत्रनय अवगाहान. पुद गलास्तिकाय में ऋजुसूत्र-गलन मीलन-और कालमें ऋजुसूत्रनय वर्तमान गुणकों काल माने । जीवद्रव्य, नैगमनय नाम जीवकों नीव माने. संग्रहनय असंख्यात प्रदेशकों जीव माने व्यवहारनय त्रस स्थावर जीवोंकों जीव माने. ऋजुसूत्रनय सुख दुःख भोगवते हुवे जीवोंको जीप माने. शद्वनय वाला क्षायक सम्यक्त्व को जीव माने. संभिरूढनय वाला केवलज्ञानीकों जीव माने. एवंभूतनयवाला सिद्धोंको जीव माने । (११) निक्षेपद्वार-धर्मास्तिकायका नाम हे सो नाम निक्षेप है, धर्मास्तिकाय कि स्थापना (प्रदेशों) तथा धर्मास्तिकाय ऐसा अक्षर लिखना उसे स्थापना निक्षेप कहते है जहांपर धर्मास्तिकाय हमारे उपयोगमें अर्थात् सहायता न दे वह द्रव्य धर्मास्तिकाय और हमारे उपभोग में आवे उसे भाव धर्मास्तिकाय कहते है । एवं अधर्मास्तिकाय के भी च्यार निक्षेप परन्तु भावनिक्षेप स्थिरगुणमें वर्ते एवं आकाशास्तिकाय परन्तु भावनिक्षेपअवग्गहान गुणमे वतै। जीवास्तिकाय उपयोग शून्यकों द्रव्यनिक्षेप और उपयोग संयुक्त को भावनिक्षेप एवं पुद्गलास्तिकाय परन्तु गलन मीलन को भाव निक्षेप कहते है एवं काल द्रव्य परन्तु भाव निक्षेपे जीवाजीव कि स्थितिको पुरण करते हुवे को भावनिक्षेप कहते है। (१२) गुणद्वार-पद्रव्यों में प्रत्येक च्यार च्यार गुण है। धर्मास्तिकाय-अरूपी अचैतन्य अक्रिय चलन । अधर्मास्तिकाय , , , स्थिर । आकाशास्तिकाय ,, अवगाहान। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९६ ) जीवास्तिकाय ܕܙ अनंत - ज्ञान पुद्गलास्ति - रूपी काल द्रव्य -अरूपी अचतन्य अक्रिय वर्तन शीघ्रबोध भाग ३ जो. चैतन्य अक्रिय दर्शन चारित्र " (१३) पर्यायद्वार षद्रव्यों कि प्रत्येक च्यार व्यार पर्याय है । धर्मद्रव्य स्कन्ध देश प्रदेश अगुरु लघु अधर्मद्रव्य ܕ " उपयोग । वीर्य अचैतन्य - सक्रिय गलनपूरण " "" आकाशद्रव्य 35 जीवद्रव्य अन्याबाद अनावग्गहान अमूर्त अगुरुलघु पुद्गलद्रव्य वर्ण गन्ध रस स्पर्श भविष्य वर्तमान कालद्रव्य भूत (१४) साधारणद्वार - जो धर्म एक द्रव्यमें है वह धर्म दुसरा द्रव्य में मीले उसे साधारण धर्म कहते है जैसे धर्म द्रव्य में अगुरु लघु धर्म है वह अधर्म द्रव्यमें भी है एवं षटू द्रव्य में अगुरु लघु धर्म साधारण है और असाधारण गुण जो एक द्रव्य मे गुण है वह दुसरे द्रव्य में न मोले । जैसे धर्मद्रव्य में चलन गुण है वह शेष पांचों द्रव्य में नही उसे असाधारण गुण कहते है । एवं अधर्म द्रव्य में स्थिर गुण. आकाश में अवगाहन गुण. जीवमे चैतन्य गुण पुद्गल में मीलन गुण काल मे वर्तन गुण यह सब असाधारण गुण है यह गुण दुसरे कीसी द्रव्य मे नहीं मीलते है। पांच द्रव्य अजीव परित्याग करने योग है एक जीव द्रव्य ग्रहन करने योग्य है । पांच द्रव्य अरूपी है अक पुद्गल द्रव्य रूपी है। " 55 (१६) स्वधर्मीद्वार - षद्द्रव्यों में समय समय उत्पाद व्यय पणा है वह स्वधर्मी है कारण अगुरु लघु पर्यायमें समय समय षट्गुण हानि वृद्धि होती है वह छहों द्रव्योमें होती है। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्रव्याधिकार. ( १९७ ) (१६) परिणामिद्वार - निश्चय नयसे षद्रव्य अपने अपने गुणों में सदैव परिणमते है वास्ते परिणामि स्वभाव वाले ह और व्यवहार नयसे जीव और पुद्गल अन्य अन्य स्वभावपणे परिणमते है जेसे जीव, नरक तीर्यच मनुष्य देवतापणे और पुद्गल हि प्रदेशी यावत् अनंत प्रदेशी पणे परिणमते है । ( १७ ) जीवद्वार - षट् द्रव्य में पांच क्रय अजीब है और एक जीव द्रव्य है सो जीव है वह असंख्यात आत्म प्रदेश ज्ञान दर्शन चारित्र वीर्य गुण संयुक्त निश्चय नयसे कर्मोंका अकर्ता अभक्ता सिद्ध सामान्य है । ---- (१८) मूर्त्तिद्वार - षट् द्रव्य में पांच द्रव्य अमूर्ति याने अरूपी है एक पुद्गल द्रव्य मूर्तिमान है परन्तु जीव जो कर्म संगसे नये नये शरीर धारण करते है उनापेक्षा जीव भी उपचरित नयसे मूर्तिमान है । 1 १९ ) प्रदेश द्वार - षट् द्रव्य में पचि द्रव्य सप्रदेशी है. एक काल द्रव्य अप्रदेशी है कारण धर्म द्रव्य अधर्म द्रव्य असंख्यात प्रदेशी है. एक जीव के असंख्यात्त प्रदेश है और अनंत जीवों के अनंत प्रदेश है. आकाश द्रव्य अनंत प्रदेशी है। पुद्गल द्रव्य निश्चय नयसे तो परमाणु है परन्तु अनंते परमाणु एकत्र होनेसे अनंत प्रदेशी है काल द्रव्य वर्तमान एक समय होनेसे अप्रदेशी है. भूत भविष्य काल अनंत है। ( २० ) एकद्वार - षट् द्रव्योंमें धर्म द्रव्य अधर्मद्रव्य आकाश द्रव्य यह प्रत्येक एकेक द्रव्य हैं जीव. पुद्गल-ओर कालद्रव्य अनंते अनंते द्रव्य है । (२१) क्षेत्रद्वार- एक आकाश द्रव्य क्षेत्र है और शेष पांच Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९८) शीघ्रबोध भाग ३ जो. द्रव्य क्षेत्र में रहनेवाले क्षेत्री है अर्थात् एक आकाश प्रदेशपर धर्मास्ति अधर्मास्ति जीव पुद्गल और काल द्रव्य अपनि अपनि क्रिया करते हुवे भी एक दुसरे के अन्दर नही मीलते है। (२२)-कियाद्वार-निश्चय नयसे षटू द्रव्य अपनि अपनि क्रिया करते है परन्तु व्यवहार नयसे जीव और पुद्गल क्रिया करते है शेष च्यार द्रव्य अक्रिय है। (२३) नित्यद्वार--द्रव्यास्तिक नयसे षट् द्रव्य नित्य शास्वते है और पर्यायास्तिक नयसे (पर्यायापेक्षा ) षट् द्रव्य अनित्य है व्यवहार नयसे जीव द्रव्य और पुद्गल द्रव्य अनित्य है शेष च्यार द्रव्य नित्य है। (२४) कारणबार--पांच द्रव्य है सो जीव द्रव्य के कारण है परन्तु जीव द्रव्य पांचों द्रव्यों के कारण नहीं है। जेसे जीव द्रव्य कर्ता और धर्मास्तिकाय द्रव्य कारण मीलनेसे जीव के चलन कार्य कि प्राप्ती हुइ इस माफीक सब द्रव्य समझना. ( २५ ) कर्ताद्वार-निश्चय नयसे षट् द्रव्य अपने अपने स्व. भाव कार्य के कर्ता है और व्यवहार नयसे जीव और पुदगल कर्ता हे शेष च्यार द्रव्य अकर्ता है । ( २६ ) सर्व गतिद्वार--आकाश द्रव्य कि गति सर्व लोका लोक में है शेष पांच द्रव्य लोक व्यापक होनेसे लोक मे गति है। ( २७ ) अप्रवेश--एक आकाश प्रदेशपर धर्म द्रव्य चलन क्रिया करे. अधर्म द्रव्य स्थिर क्रिया करे. आकाश द्रव्य अव. गाहान, जीव उपयोग गुण पुद्गल गलन मीलन काल वर्तमान क्रिया करे परन्तु एक दुसरे कि गतिको रक सके नहि एक दुसरे मे मील सके नहीं जेसे एक दुकान में पांच वैपारी बैठे हुवे अपनि Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्द्रव्याधिकार. ( १९९ ) अपनि कार रवाइ करे परन्तु एक दुसरेको न तो बादा करे न एक दुसरे से मीले। इसी माफिक षटू द्रव्य समझ लेना । ( २८ ) पृच्छाद्वार - क्या धर्मास्तिकाय के एक प्रदेशकों धर्मास्तिकाय कहते है ? यहां पर एवंभूत नयसे उत्तर दिया जाता है कि एक प्रदेशकों धर्मास्तिकाय नहीं कहा जावे । एवं दो तीन च्यार पांच यावत् दश प्रदेश संख्याते प्रदेश असंख्याते प्रदेश सर्व धर्मास्तिकाय से एक प्रदेश कम होने से भी धर्मास्तिकाय नही कही जावे. तर्क - क्या कारण है ? उ-समाधान खंडे दंडको संपुरण दंड नही कहा जाते है एव खंड छत्र. त्रख चम्र. चक्र इत्यादि जहां तक संपुरण वस्तु न हो वहां तक एवंभूतनय उन वस्तुकों वस्तु नही माने इस वास्ते संपुरण लोक व्यापक असंख्यात प्रदेशी धर्मास्तिकाय को धर्मास्तिकाय कहते हैं एवं अधर्मास्तिकाय एवं आकाशास्तिकाय परन्तु प्रदेश अनंत कह ना एवं जीव पुद्गल और काल समझना । लोकका मध्य प्रदेश रत्नप्रभा नाम पहली नरक १८०००० योजनकी है उनके निचे २०००० योजनकी घणोदधि. असंख्यात योजनाका घणवायु असंख्यात योजनका तनवायु उनोंके निचे जो असंख्यात योजनका आकाश है उन आकाशके असंख्यातमें • भागमें लोकका मध्य प्रदेश है इसी माफीक अधो लोकका मध्य प्रदेश चोथी पङ्कप्रभा नरकके आकाश कुच्छ अधिक आदा चलेजानेपर अधो लीकका मध्य प्रदेश आता है । उर्ध्व लोकका मध्य प्रदेक पांचवा देवलोकके तीजा रिष्टनामका परतर में हैं । तीच्छ 1 लोकका मध्य प्रदेश मेरूपर्वतके आठ रूचक प्रदेशोंमे है । इसी माफीक धर्मास्तिकायका मध्य प्रदेश अधर्मास्ति कामका मध्य प्रदेश, आकाशास्ति कायका मध्य प्रदेश समझना, जीवका मध्य प्रदेश आत्मा के आठ रूचक प्रदेशों मे है, कालका मध्य प्रदेश वर्तमान समय है । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०० ) शीघ्रबोध भाग ३ जो. ( २९ ) स्पर्शना द्वार - धर्मास्तिकाय, धर्मास्तिकायको स्पर्श नही करते है - कारण धर्मास्तिकाय एक ही है । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकायक संपुरण स्पर्श करी है एवं लोकाकाशास्तिकाय कों एवं जीवास्तिकायकों एवं पुद्गलास्तिकायकों. कालको कहां पर स्पर्श कीया है कहांपर न भी कीया है; कारण काल आढाइ द्विपमें ही है । एवं अधर्मास्तिकाय. अधर्मास्तिकायका स्पर्श नही करे शेष धर्मास्तिवत् एवं लोकाकाशास्ति - कारण संपुरण आकाश लोकालोक व्यापक है । अलोकाकाश शेष पांच द्रव्योंकों स्पर्श नहो करते है । एवं जीवास्तिकाय, जीवास्ति कायका स्पर्श नही कीया है, कारण जीवास्तिकायका प्रश्न होने से सब जीव समावेस होगये. शेष धर्मास्तिवत् एवं पुद्मलास्ति काय पुद्गलास्तिकायका स्पर्श नही किया शेष धर्मास्तिवत् एवं काल, कालको स्पर्श नही करे शेष पांच द्रव्योंकों आढाइ द्विप स्पर्श करे शेष क्षेत्रमें स्पर्श नही करे। (३०) प्रदेश स्पर्शनाद्वार-धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश धर्मारिकायके कीतने प्रदेश स्पर्श करे ? जघन्य तीन प्रदेशकारण अलोककि व्याघत आनेसे लोकके चरम प्रदेशपर तीन प्रदेशोंका स्पर्श करे. उत्कृष्ठ छे प्रदेशोंका स्पर्श करे कारण व्यार दिशोंमे च्यार, अधो दिशमें एक, उर्ध्व दिशमें एक । धर्मास्ति काय अधर्मास्तिकाय के जघन्य व्यार प्रदेश स्पर्श करे उ सात प्रदेश स्पर्श करे भावना पूर्ववत् यहां विशेष इतना है कि जहां धर्म प्रदेश है वहां अधर्म प्रदेश भी है वास्ते ४-७ प्रदेश कहा है । धर्मास्तिको एक प्रदेश, आकाशास्तिका ज० सात प्रदेश, और उत्कृष्ट भी सात प्रदेश स्पर्श करे कारण आकाशके लिये अलोक कि व्याघात नही है । धर्म० एक प्रदेश. जीव पुद्गल के अनंत प्रदेश स्पर्श करते है कारण एकेक आकाशपर जीव पुट्गलके अनंत प्रदेश है । एक धर्म० प्रदेश कालके प्रदेशकों स्यात् Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्व्याधिकार. ( २०१ ) 1 स्पर्श करे स्यात् न भी करे कारण आढाइ द्विपके अन्दर जो धर्मास्ति है वह तो कालके प्रदेशको स्पर्श करे वह अनंत प्रदेश स्पर्श करे यहाँ उपचरित नयसे कालके अनंत प्रदेश माना है। और जो आढाइद्विपके बाहार धर्मास्ति है वह कालके प्रदेश स्पर्श नही करते है | इसी माफीक अधर्मास्तिकाय भी समझना स्वकाया पेक्षा ज० तीन प्रदेश उ० ले प्रदेशपर कायापेक्षा धर्मास्तिकाय वत्-आकाशास्तिकायका एक प्रदेश-धर्मद्रव्यका जघ न्य १-२-३ प्रदेश स्पर्श करे उ० सात प्रदेश स्पर्श करे - कारण आकाशास्ति अलोक में भी हैं वास्ते लोकके चरमान्तमें एक प्रदेश भी स्पर्श कर सकते हैं। शेष धर्मास्ति कायवत् जीवका एक प्रदेशधर्मास्तिकायका ज० च्यार उ० सात प्रदेशोंका स्पर्श करते है शेष धर्मास्तिवत् । पुद्गलास्तिकायका एक प्रदेश-धर्मास्तिकायके ज० च्यार उ० सात प्रदेश स्पर्श करते हैं शेष धर्मास्तिकायवत् । कालका एक समय धर्मास्तिकायकों स्यात् स्पर्श करे स्यात् न भी करे जहांपर करते है वहां ज० च्यार उ० सात प्रदेश स्पर्श करे. शेष धर्मास्तिकायवत्। पुद्गलास्तिकाय के दो प्रदेशधर्मास्तिकाय के दुगुणोंसे दो अधिक याने छेप्रदेश उत्कृष्ट पांच गुणोंसे दो अधिक याने बारहा प्रदेश स्पर्श करे एवं तीन च्यार पांच छे सात आठ नौ दश संख्याते असंख्याते अनंते. सब जगह नघन्य दुगुणोंसे दो अधिक उ० पांचगुणोंसे दो अधिक. (३१) अल्पबहुत्वद्वार-द्रव्यापेक्षा सर्व स्तोक धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य आकाशद्रव्य तीनों आपस में तुला है कारण तीनोंका एकेक द्रव्य है उनसे जीवद्रव्य अनंत गुणे है उनसे पुद्गलद्रव्य अनंत गुणे है कारण एकेक जीवके अनंते अनंते पुद्गलद्रव्य लगे हुवे है। उनसे काल द्रव्य अनंत गुणे है इति । प्रदेशापेक्षा, सर्व'स्तोक धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य के प्रदेश है कारण दोनों के प्रदेश असंख्याते २ हैं ( २ ) उनोंसे जीव प्रदेश अनंतगुणे है ! ३) उनोंसे Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०२ ) शीघ्रबोध भाग ३ जो. I पुद्गल प्रदेश अनंत गुणे है ( ४ ) उनोंसे काल प्रदेश अनंतगुणे : है (५) उनोंसे आकाश प्रदेश अनंत गुणे है इति । द्रव्यप्रदेशों की सामिल अल्पाबहुत्व | सर्व स्तोक धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य आकाश द्रव्य इनके आपस मे तूला द्रव्य है ( २ ) उनोंसे धर्मप्रदेश, अधर्म प्रदेश. आपस में तूले असंख्यात गुने है ( ३ ) उनोंसे जीवद्रव्य अनंत गुणे है ( ४ ) उनोसे जीव प्रदेश असंख्यात गुणे है ( ५ ) उनोसे पुद्गलद्रव्य अनंतगुणे. ( ६ ) उनोसे पुद्गल प्रदेश असंख्यातगुणे ( ७ ) उनोसे काल द्रव्यप्रदेश अनंतगुणे ( ८ ) उनो से.. आकाश प्रदेश अनंतगुणे । इति । सेवं भंते सेवं भंते - तमेवसच्चम्. -XC01K थोकडानम्बर २३ ( सूत्र श्री पन्नवणाजी पद ११ वा. ) (भाषाधिकार ) (१) भाषा की आदि जीवसे है अर्थात् भाषा जीवोंके होती है। अजीव के नही अगर कीसी प्रयोगसे अजीव पदार्थों से अवाज आति हो उसे भाषा नही कही जाती है वह तो जीतना पावर भरा हो उतनाही अवाज हो जाते है वह भी जीवोंकीही सत्ता समजना चाहिये । (२) भाषाकी उत्पति - तीन शरीरोंसे है. औदारीक शरीरसे, वैक्रियशरीरसे, आहारीक शरीरसे, और तेजस कारमण यह दो शरीर सूक्ष्म है वास्ते भाषा इनॉसे बोली नही जाती है। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाधिकार. (२०३) (३) भाषाका संस्थान बज्रसा है कारण भाषाका पुद्गल है वह बज्रके संस्थानवाला है. (४) भाषा के पुद्गल उत्कृष्ट लोकान्त तक जाते है। (५) भाषा दो प्रकारकी है पर्याप्तभाषा, अपर्याप्तभाषा, जेसे सत्यभाषा, असत्यभाषा पर्याप्ति है और मिश्रभाषा, व्यवहार भाषा अपर्याप्ति है. (६) भाषा-समुच्चयजीव ओर तसकाय के १९ दंडकों के जीव भाषावाले है और पांच स्थावर तथा सिद्ध भगवान् अभाषक है सर्वस्तोक भाषक जीव, उनोसे अभाषक अनंतगुणे है। (७) भाषा च्यार प्रकार की है सत्यभाषा, असत्यभाषा. मिश्रभाषा, व्यवहार भाषा, समुच्चयजीव और नरकादि १६ दंडकमें भाषा च्यारों पावे. तीन वैकलेन्द्रियमे भाषा एक व्यवहार पावे. पांच स्थावरमें भाषा नही है । एक वोल। (८. भाषा पणे जो जीव पुद्गल ग्रहन करते है वह क्या स्थित पुद्गल याने स्थिर रहा हुवा-अथवा आत्माके अदूर स्थिर पुदगल ग्रहन करते है या-अस्थिर-चलाचल अथवा आत्मासे दूर रहे पुद्गल ग्रहन करते है ? जीव जो भाषापणे पुद्गल ग्रहन करते है वह स्थिर आत्माके नजदीक रहे पुदगलों कों ग्रहन करते है। जो पुद्गल भाषापणे नहन करते है वह द्रव्य क्षेत्र काल भावके। . (क) द्रव्यसे एक प्रदेशी दो प्रदेशी तीन प्रदेशी यावत् दश प्रदेशो संख्यात प्रदेशी असंख्यात प्रदेशी पुद्गल बहुत सूक्ष्म होनेसे भाषा वर्गणा के लेने योग्य नही है अनंत प्रदेशी द्रव्य भाषापणे ग्रहन करते है । एक बोल (ख) क्षेत्रसे अनंत प्रदेशी द्रव्यभी कीतनेकतों अति सूक्षम Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०४ ) araata भाग ३ जो. होने से भाषापणे अग्रहन है जेसे एका आकाश प्रदेश अवगाह्ये एवं दो तीन यावत् संख्यात प्रदेश अवगाये नही लेते है किन्तु असंख्यात प्रदेश अवगाह्या अनंत प्रदेशी द्रव्य भाषापणे लीये जाते है । एक बोल | ( ग कालसे. एक समय कि स्थितिवाले एवं दो तीन यावत् दश समयकि स्थिति संख्यात समयकि स्थिति असंख्यात समयकि स्थिति के पुद्गल भाषापणे ग्रहन करते है । कारण स्थिति है सो सूक्ष्म पुगलों कि भी एक समय यावत् असंख्यात समय कि होती है और स्थुल पुद्गलों की भी एक समय, से असंख्यात समयकि स्थिति होती है। इस वास्ते एक समय से असंख्यात समयकि स्थिति के द्रव्य ग्रहन करते है. एवं १२ बोल । (घ) भावसे. वर्ण गन्ध रस स्पर्श के पुद्गल जीव भाषापणे ग्रहन करते है वह वर्ण मे चाहे. एक वर्ण का हो, चाहे दो तीन च्यार पांच वर्णका हो, एक वर्ण होनेसे चाहे वह श्याम वर्ण हो, चाहे हरा-लाल-पीला- सुपेद वर्णका हो; अगर श्याम वर्णका होनेपर चाहे वह एक गुण श्याम वर्ण हो, दो तीन च्यार यावत् दश गुण श्याम वर्ण संख्यातगुण श्याम वर्ण ११ असंख्यात गुण श्याम वर्ण १२ अनंतगुण श्यामवर्ण १३ हो जैसे एक गुणसे अनंतगुण एवं तेरहा बोलौसे श्याम वर्ण कहा है इसी माफीक पांचों वर्ण के ६५ बोल एवं गन्ध में सुभिगन्ध, दुःभिगन्ध के तेरहा तेरहा बोल २६ रसके तिक्त कटुक कषाय आबिल मधूर के तेरह तेरह बोलोसे ६५ स्पर्श में एक-दो-तीन स्पर्श के द्रव्य भाषापणे नही लेते है किन्तु च्यार स्पर्शवाले द्रव्य भाषापणे लिये जाते है यथा-शीतस्पर्श उष्णस्पर्श, स्निग्ध स्पर्श, ऋक्ष स्पर्श जिसमे एक गुणशीत दो तीन व्यार पाच छे सात आठ नौ दश संख्याते असंख्याते और अनंते गुण शीत स्पर्श के द्रव्य भाषापणे ग्रहन करते है इसी माफीक उष्णके १३ स्निग्धके १३ ऋक्षके १३ एवं Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाधिकार. (२०५) सर्व संख्या. द्रव्यका एक बोल, अनंत प्रदेशी स्कन्ध, क्षेत्रका एक बोल असंख्यात प्रदेशो वगाया. कालके बारहा बोल एक समयसे असंख्यात समय तक एवं १४ भावके वर्णके ६५ गन्धके २६ रसके ६५ स्पर्श के ५२ कुल २२२ बोल हुवे. उक्त २२२ बोलौके द्रव्य भाषापणे ग्रहन करते हे सो(१। स्पर्श कोये हुवे. (२) आत्म अवगाहन कीये हुवे. (३) वह भी परम्पर अवगाहान कीये नही किन्तु अणन्तर अवगाहान कीये हुवे (४) अणुषा-छोटे द्रव्य भी लेवे (५) बादर स्थुल द्रव्य भी लेवे (६) उर्ध्व दिशाका (७) अधोदिशाका (८) तीर्यगदिशाका (९) आदिका (१०) अन्तका (११)मध्यका (१२) स्वविषयका (भाषाके योग्य) (१३) अनुपूर्वी । क्रमशः) (१४ भाषापणे द्रव्य ग्राहन करनेवाले प्रसनाली में होनेसे नियमा छे दिशाका द्रव्य ग्रहन करे (१५) भाषाका द्रव्य सान्तर ग्रहन करे तो जघन्य एक सामय उत्कृष्ट असंख्यात समय का अन्तर महुर्त. (१६) निरान्तर लेवे तो ज० दो समय उ० असंख्यात समयका अन्तरमहुर्त (१७) भाषाका पुदगल प्रथम समय ग्रहन करे. अन्त समय त्याग करे. मध्यम ग्रहन करे और छडता रहै. एवं २२२ के अन्दर १७ बोल मीलानेसे २३९ बोल होते है। समुच्चयजीव और १९ दंडक एवं बीस गुना करनेसे ४७८० बोल हुवे। (९) समुच्चयजीव सत्यभाषापणे पुद्गल ग्रहन करे तो २३९ बोल पूर्ववत् कहना इसीमाफीक पांचेन्द्रियके शालहादंडक एवं सतरेको २३९ गुना करनेसे ४.६३ बोल हुवा इसी माफीक असत्यभाषाकामी ४०६३ इसीमाफीक मिश्रभाषाकामी ४०६३ व्यवहार भाषा मे समुञ्चय जीव और १९ दंडक हे कारण वकले. न्द्रिय में व्यवहार भाषा है वीसको २३९ गुणा करनेसे १७८० बोल हुवे समुच्चयके ४७८० बोल मोलानेसे एक वचनापेक्षा २१७४९ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०६) शीघ्रबोध भाग ३ जो. और बहु वचनापेक्षा भी २१७४९ बोल मीलानेसे ४३४९८ . भाषाके भांगे हुवे. (१०) भाषाके षुदगल मुंहसे निकलते है वह अगर भेदाते हुवे निकलेतों रहस्ते में अनंतगुणे वृद्धि होते होते लो. कान्त तक चले जाते है तथा अभेदाते पुदगल निकले तो संख्याते योजन जाके विध्वंस हो जाते है. (११) भाषाके पुद्गल जो भेदाते ह वह पांच प्रकारसे : भेदाते है. (क) खंडाभेद-पत्थर लोहा काष्टके खंडवत्. (ख) परतरमेद-भोडल. अबरखवत्. (ग) चूर्णभेद-गाहु चीणा मुगमठरवत्. (च) अनुतडियाभेद-पाणीके निचेकी मट्टी शुष्कवत्. (प) उक्करियाभेद-मुग चवलोकि फली तापमें देनेसे फाटे. इन पांचों प्रकारके भेदाते पुद्गलोंकि अल्पाबहुत्व (१) सर्वस्तोक उक्करिये भेद भेदाते पुद्गल ( २) अणुतडिये भेद भेदाते पु० अनंतगुणे (३) चूर्णिय भेद भेदाते पु० अनंतगुणे (४) परतर भेद भेदाने पु० अनंतगुणे (५) खंडाभेद भेदाते पु० अनंत गुणे । एवं समुच्चय जीव और १९ दंडक में जीस दंडक में जोतनी भाषा हो अर्थात् १६ दंडकमें च्यारों भाषा और तीन वैकलेन्द्रियमें एक व्यवहार भाषा सबमें पांचों प्रकारसे पुद्गल भेदाते है। (१२) भाषाके पुद्गलोंकि स्थिति जघन्य एक समय. उत्कष्ट अन्तर महुर्त एवं समुच्चय जोव और १९ दंडकमे. (१३) भाषाकों अन्तर ज० अन्तर महुर्त उ० अनंत काल कारण बनास्पतिमें चला जावे वह जीव अनंत काल वहां हो Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाधिकार. ( २०७ ) परिभ्रमन करे वास्ते अनंत काल तक भाषा पणे द्रव्य लेही न सके एवं समु० १९ दंडक | ( १४ ) भाषाके द्रव्य कायाके योगसे ग्रहन करते हैं (१५) भाषा पुद्गल वचन के योगसे छोड़ते है एवं समु० १९ दंडक । (१६) कारण द्वार मोहनिय कर्म और अन्तराय कर्म के क्षयपशम और वचनके योगसे सत्य और व्यवहार भाषा बोली जाती है । ज्ञानावर्णिय कर्म ओर मोहनियकर्म के उदयसे तथा वचनके योग से असत्यभाषा ओर मिश्रभाषा बोली जाती है एवं १६ दंडक परन्तु केवली जो सत्य ओर व्यवहार भाषा वोलते है उनों के च्यार घातिकर्मका क्षय हुवा है वैकलेन्द्रिय एक व्यवहार भाषा संज्ञारूप बोलते है । ( १७ ) जीव सत्यभाषा पणे द्रव्य ग्रहन करते है वह सत्य भाषा बोलते है । असत्य भाषापणे द्रव्य ग्रहन करते वह असत्य भाषा बोलते है मिश्रपणे ग्रहन करनेवाले मिश्रभाषा बोले ओर व्यवहार पणे द्रव्य ग्रहन करनेवाले व्यवहार भाषा बोले एवं १६ दंडक तथा तीन वैकलेन्द्रिय व्यवहार भाषापणे द्रव्य ग्रहन करे सो व्यवहार भाषा बोले । एक वचन कि माफीक बहुवचन भी समजना भांगा १४२ (१८) वचनद्वार भाषा बोलनेवाले व्याख्यान देनेवाले वार्तालाप करनेवाले महाशयजी को निम्नलिखत वचनोंका जानपणा अवश्य करना चाहिये । ( १ ) एकवचन - रामः देवः - नृपः (२) द्विवचन - रामौ देवौ नृपौ (३) बहुवचन - रामाः देवाः नृपाः ( ४ ) त्रि वचन - नदी लक्ष्मी अम्बा रंभा रामा (५) पुरुषवचन - राजा - देवता ईश्वर भगवान् Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २.०८) शीघ्रबोध भाग ३ जो. . (६) नपुंसकवचन-ज्ञान कमल तृण (७) अध्यवसायवचन-दुसरोंके मनका भाव जानना* (८) वर्णवचन-दुसरों के गुण कीर्तन करना (९) अवर्णवचन-दुसरोंका अवर्णवाद बोलना (१० ) वर्णावर्णवचन-पहले गुण पीछे अवगुण (११) अवर्णवर्ण-पहले अवगुण पीछे गुण करना । (१२) भूतकालवचन-तुमने यह कार्य कीया था (१३) भविष्यकालवचन-आखीर तो करनाही पडेंगें (१४) वर्तमान कालवचन-में यह कार्य कर रहा हूं. (१५) प्रत्यक्ष-स्पृष्टता वचन बोलना. ( १६ ) परोक्ष-अस्पृष्टता वचन बोलना. इनके सिवाय प्रश्न व्याकारण सूत्र में भी कहा है कि काललिंग विभक्ति तहत धातु प्रत्यय वचन आदिका जानकार होना परम आवश्यक्ता है। ( १९ ) सत्यअसत्य मिश्र और व्यवहार यह च्यार भाषा उपयोग संयुक्त बोलता भी आराधिक हो सकते है । कारण कीसी स्थानपर मृगादि जीव रक्षाके लिये जानता भी असत्य बोल सक्ते है परन्तु इरादा अच्छा होनेसे वह विराधि नही होते है श्री आचारांगसूत्रमे" जणमाण न जाणु वयेज" (२०) नाम च्यार भाषाके ४२ नाम है । सत्यभाषाके दश भेद हैं (१) जीस देशमें जो भाषा बोली जाति है उनोंको देश * एक वणिक रूइ का भाव तेज हो जानेपर छोटे गामडे मे रूइ खरीदने कों गया. रहस्तेमें तापके मारे पीपासा बहुत लगी थी ग्राममें प्रवेश करते एक ओरत के घर पर जाके कहा की मुझे पीपासा बहुत लगी है रूई पीलाइये. इतनेपर उस ओरत को ज्ञान हुवा की सहरमें रूइका भाव तेज हुवा है उन वहां ही वेठा अपने पतिकों संकेत कर सब रूइ खरीद करवाली इति। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाधिकार. ( २०६) वासी मान राखी है वह भाषासत्य है जेसे मूर्तिकों परमेश्वर शुककों पोपट-रोटीको भाखरी-पतिको दादीया इत्यादि (२) स्थापना सत्य कीसी पदार्थकी स्थापना कर उसे उनी नामसे बोलावे जेसे चित्रादिकी स्थापना कर आचार्य कहना. मूर्तिकी स्थापनाकर अरिहंत कहना यह भाषा सत्य हे (३) नाम सत्य.जेसे एक गोपालका नाम राजाराम. एक मनुष्यका नाम केशरीसिंह. जेसे मृतिका नाम चिंतामणि पार्श्वनाथ यह सब नाम सत्य है (४) रूप सत्य एक दुसराका रूप बनावे उनोंको रूपसे बतलावे जेसे पत्थरकि मतिको परमेश्वरका रूप बनावे वह रूप सत्य है (५) अपेक्षा सत्य-गुरुकि अपेक्षा शिष्य है उनोंके शिष्यकि अपेक्षा वह शिष्य ही गुरु है, पिताकी अपेक्षा पुत्र है, पतिकि अपेक्षा भार्या है उन के पुत्रकि अपेक्षा वह माता है लघुकि अपेक्षा गुरु इत्यादि (७) व्यवहार सत्य-संसारमे कितनीक वातो व्यवहारमें मानीगह है वह वेसेही संज्ञा पड जानेसे उसे सत्य ही मानी गई है जेसे मार्ग जावे. जीव मरगया जीव जन्मा इत्यादि (८) भाषसत्य-कहनाथा पांच पांच देश परन्तु विस्मृतीसे ज्यादाकम भाषासे निकल गया तद्यपि उनौका भाव तो सत्य ही है कि पांच पांच दश होते है। ( ९ योग सत्य-मन वचन कायाके योग सत्य बरताना ( १० ) ओपमासत्य दरियावकों कटोराकि ओपमा जवारकों मोतियोंकी ओपमा मूर्तिको परमेश्वरकी ओपमा इत्यादि___ असत्य वचनके दश भेद है. क्रोधके वस हो बोलना मानके वस. मायाके वस. लोभके वस. रागके वस. द्वेषके बस हास्यके बस भय के बस. अगर सत्य भी है परन्तु क्रोधादि के घस हो बोलनेसे उसे असत्य ही कहा जाते है कारण आत्माके स्वरूपको १४ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१० ) शीघ्रबोध भाग ३ जो. अज्ञानके बस भूलजाने से क्रोधादि वस सत्य ही असत्य भाषाकि माफीक है और पर- परतापनावाली भाषा तथा जीवोंके प्राण चला जाय एसी भाषा बोलना यह दर्शो असत्यं भाषा है। मिश्र भाषाके दश भेद है-इन नगर में इतने मनुष्यों उत्पन्न हुवे हैं; उन नगर में इतने मनुष्योंका मृत्यु हुवा है, इस नगर में आज इतने मनुष्यों का जन्म और मृत्यु हुवे यह सब पदार्थ जीव है यह सब पदार्थ अजीव है यह सब पदार्थोंमें आदे जीव आदे अजीव है. यह वनस्पति सब अनंतकाय है यह सब परितकाय है कालमिश्र. उठो पोरसी दीन आगये है। लो इतने वर्ष हो गये है भावार्थ जब तक जिस वातका निश्चय न हो जाय यहां तक अगर कार्य हुवा भी हो तो भी वह मिश्रभाषा है जिसमें कुच्छ सत्य हो कुच्छ असत्य हो उसे मिश्रभाषा कहते है । व्यवहार भाषाका बार भेद है (१) आमंत्रण भाषा हे वीर, हे देव. २) आज्ञा देना यह कार्य एसा करो (३) याचना करना यह वस्तु हमे दो ४ प्रश्नादिका पुच्छना ( २ ) वस्तु तत्वकि प्ररूपना करना ( ६ प्रत्याख्यानादि करना (७) आगलेकी इच्छानुसार बोलना 'जहासुखम् ' ( ८ ) उपयोग शुन्य बोलना. ( ९ ) इरादा पूर्वक व्यवहार करना ( १०) शंका संयुक्त बोलना ( ११ ) अस्पष्ट बोलना ( १२ ) स्पष्टतासे बोलना । जिस भाषा में असत्य भी नहीं और पूर्ण सत्य भी नहीं उसे व्यवहार भाषा कही जाति है जेसे जीव मरगया इस्में पूर्ण सत्य भी नही है कारणकि जीव कभी मरता नही है और पूर्ण असत्य भी नही है कारण व्यवहा -र से सब लोगोंने मरना जन्मना स्वीकार कीया है. इत्यादि - (२१) अल्पावहुस्त्रद्वार : १) सर्वस्तोक सत्य भाषा बो 1 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहाराधिकार. (२११) लने वाले (२) मिश्र भाषा बोलनेवाले असंख्यात गुणे (३) असत्य भाषा बोलनेवाले असंख्यात गुणे (४) व्यवहार भाषा बोलनेवाले असंख्यात गुणे (५) अभाषक अनंत गुणे कारण अभाषकमें एकेन्द्रिय तथा सिद्धभगवान है इति । सेवंभंते सेवभंते-तमेव सच्चम् थोकडा नम्बर २४. सूत्र श्री पनवणाजी पद २८ वा उ० १ . ( आहाराधिकार.) (१) आहार तीन प्रकारके है सचिताहार-जीव संयुक्त पदार्थों का आहार करना अचिताहार-जीवरहित पुद्गलोंका आहार करनो, मिश्राहार जीवाजीव द्रव्योंका आहार करना. नारकी देवतोंमें अचित्त पुद्गलोंका आहार है और पांच स्थावर तीन वैकलेन्द्रिय तीर्यचपांचेन्द्रिय और मनुष्य इन दस दंडकोंमें तीन प्रकारका आहार है सचिताहार अचित्ताहार मिश्राहार। (२) नरकादि चौवीस दंडकोंमें आहारकि इच्छा होती है. (३) नरकमे जीवोंकों आहारकी इच्छा कीतने कालसे उत्पन्न होती है ? नरकादि सब जीवों जो अजानपणे आहारके पुद्गल खेचते है वह तो सब संसारी जीव समय समय आहार के पुद्गलोंकों ग्रहन करते है। किन्तु परभव गमन समय विग्रह गति या जीव, केवली समुद्घात और चौदवे गुणस्थानके जीव अनाहारी भी रहते है । जो जीवों को जानपणे के साथ आहार इच्छा होती Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१२) शीघबोध भाग ३ जो.. है उनोंका काल-नरकमें असंख्यात समय के अन्तर महुर्तसे... आहारकी इच्छा उत्पन्न होती है असुरकुमार देवोंके जघन्य एक दिनसे उ० एकहजार वर्ष साधिक से, नागादि नौ काय के देवोंको तथा व्यंतर देवों को ज० एक दिन उ. प्रत्येक दिनोंसे ज्योतिषी देवोंकों जघन्य उत्कृष्ट प्रत्येक दिनोंसे-वमानीक देवोंमें सौधर्म देवलोक के देवोंकों ज० प्रत्येक दिन उ० २००० वर्ष इशान देवलोक के देवों ज. प्रत्येक दिन उ० साधिक २००० वर्ष, सनत्कु. मार देवलोक के देवोंकों ज. २००० वर्ष. उ० ७००० वर्ष महेन्द्र देवोंके ज० साधिक २००० वर्ष, उ० साधिक ७००० वर्ष. ब्रह्मदे. वों को ज० ७००० वर्ष उ०१००० वर्ष लांतक देवों के ज० १०००० उ० १४००० वर्ष महाशुक्र देवोंको ज० १४००० उ० १७००० वर्ष सदखादेवोंकों ज० १७००० उ० १८.०० वर्ष अणत्देवोंके ज. १८००० उ० १९००० वर्ष पणत् ज० १९००० उ० २०००० वर्ष. आरण्य ज० २०००० वर्ष उ० २१००० वर्ष अच्युत देवोंको ज. २१००० उ० २२००० वर्ष. ग्रीवैक प्रथम त्रीक ज० २२००० उ० २५००० वर्ष. मध्यम त्रीक ज० २५००० उ० २८००० उपरको त्रीक को ज० २८००० उ० ३१००० वर्ष च्यार अनुत्तर.वैमानवासी देवों को ज० ३१००० उ० ३३००० वर्ष सर्वार्थ सिद्ध वैमानवासी देवोंकों ज० उ० ३३००० वर्षोंसे आहार इच्छा उत्पन्न होती है। पांच स्थावर कों निरान्तराहार इच्छा होती है. तीन वकलेन्द्रिय कों अन्तर महुर्तसे. तीर्यच पांचेन्द्रि ज० अन्तर महुर्त उ० दो दिनोंसे ओर मनुष्यकों आहार इच्छा ज० अन्तरमहुर्त उ० तीन दिनौसे आहार इच्छा उत्पन्न होती है। (४) नारकी के नैरिये जो आहारपणे पुद्गल ग्रहन करते है वह न्यसे अनंते अनंतप्रदेशी, क्षेत्रसे असंख्यात प्रदेश अवगाहान कीये हुवे, कालसे एक समयकि स्थिति यावत् असंख्यात Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहाराधिकार. (२१३) समयकि स्थिति के पुद्गल, भावसे वर्ण गन्ध रस स्पर्श जेसे भाषाधिकारमें कहा है इसी माफीक. परन्तु इतना विशेष है कि भाषापणे च्यार स्पर्शवाले पुद्गल लेते थे यहां आहारपणे आठों स्पर्शवाले पुद्गल ग्रहन करते है. इस वास्ते पांच वर्ण दोगन्ध पांच रस आठ स्पर्श एवं वीस बोलसे प्रत्येक बोल पर तेरह तेरह बोलोंकि भावना करणी जेसे एक गुण काला पुदगल दोगुण तीनगुण च्यारगुण पांचगुण छगुण सात गुण आठगुण नौगुण दशगुण संख्यातगुण असंख्यातगुण और अनंतगुणकाले इसी माफीक वीसों बोलोकों तेरहा गुणे करनेते २६० बोल हुवे, स्पर्शादि १४ देखो भाषाधिकारमें बोल मीलानेसे १-१-१२-२६०-१५ सर्व २८८ बोलोंका आहार नारकी ग्रहन करते है । अधिकतर नारकी वर्णमें श्याम वर्ण हरावर्ण गन्धर्म दुर्भिगन्ध रसमें तिक्त कटुक रस, स्पर्शमें कर्कश गुरु शीत ऋक्ष स्पर्श के पुद्गलो का आहार लेते है वह ग्रहन कीये हुवे. पुद्गलोंको भी सडाके खराब करके पूर्वका वर्णादि गुणोको विप्रीत कर नये खराब वर्णादि उत्पन्न कर फीर ग्रहन कीए हुए पुदगलों का आहार करे। इसी माफीक देवतों के तेरहा दंडकों में भी २८८ बोलौका आहार लेते है परन्तु वह शुभ द्रव्य वर्णमें पीला सुपेद गन्धर्म सुभिगन्ध रसमे आंबिल मधुर रस स्पर्शमें मृदुल लघु उष्ण स्निग्ध पुद्गलों का आहार करे वहभी उन पुद्गलोंकों पूर्वके खराब गुणो को अच्छा बनाके मनोज्ञ पुद्गलोका आहार करे इसी माफीक पृथ्व्यादि दश दंडकों में बीसों बोलोंके पुद्गलों को ग्रहन कर चाहे उसे अच्छे के खराब बनावे चाहे खराब के अच्छे • बनावे २८८ बोल पूर्ववत् आहार ग्रहन करे परन्तु पांच स्थायरमें दिशापेक्षास्यात् ३-४-५ दिशाका भी आहार लेते है कारण Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१४) शीघ्रबोध भाग ३ जो. जहां अलौक कि व्याघात है वहां ३-४-५ दिशाका ही पुद्गल लेते है शेष छे दिशा सर्व ७२०० बोल हुवे। . (५) नारकी जो आहारपणे पुद्गल ग्रहन करते है वह क्या सर्व आहार करे. सर्वप्रणमें सर्वउश्वासपणे मर्वनिश्वासपणे प्रणमे तथा पर्याप्ता कि अपेक्षा वारवार आहार करे प्राणमें उश्वासे निश्वासे और अपर्याप्ता कि अपेक्षा कदाच आहारे कदाच प्रणमे. कदाच उश्वासे कदाच निश्वासे ? उत्तरमें बारहा बोल ही करे है : एवं २४ दंडकों में बारहा बोल होनेसे २८८ बोल हुवे । ... (६) नारकी के नैरियों के आहार के योग्य पुद्गल है उनोंसे असंख्यात में भाग के द्रव्यों को ग्रहन करते है ग्रहन कोये हुवे द्रव्योंसे अनंतमें भागके द्रव्य अस्वादन में आते है शेष पुदगल विगर अस्वादन कियेही विध्वंस हो जाते है इसी माफीक २४ दंडक परन्तु पांच स्थावरमें एक स्पर्शेन्द्रिय होनेसे वह विगर स्पर्श कीये अनंत भाग पुदगल विध्वंस हो जाते है। . (६) नारकी देवताओ और पांचस्थावर एवं १९ दंडकोंके आहार पणे पुदगल ग्रहन करते है वह सबके सब आहार करते जीव जो है कारण उनोंके रोम आहार है और बेइन्द्रिय जो आहार लेते है वह दो प्रकारसे लेते है एक रोम आहार जो समय समय लेते है वह तो सव के सब पुदगलों का आहार करते है और दुसरा जो कवलाहार है उनीसे ग्रहन कीये हुवे पुद्गलो के असंख्यातमें भागका आहार करते है और अनेक हजारों भागके पुद्गल विगर स्वाद विगर स्पर्श किये ही विध्वंस हो जाते है जिस्कीतरतमत्ता (१) सर्व स्तोक विगर अस्वादन कीये पुद्गल (२) उनोंसे अस्पर्श पुद्गल अनंत गुणें है एवं तेइन्द्रि परन्तु एक विगर गन्धलिये ज्यादा कहना (१) सर्व स्तोक विगर गन्धके पुद्गल (२) विगर अस्थादन किये पुद्गल अनंत गुणे (३) Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहाराधिकार. (२१५) विगर स्पर्श किये पुद्गल अनंतगुणे इसी माफीक चोरिन्द्रिय. पांचेन्द्रिय और मनुष्यभी समझना। (८) नारकी जो पुद्गल आहारपणे ग्रहन करते है वह नारकीके कीस कार्यपणे प्रणमते है ? नारकीके आहार किये हुवे पुद्गल श्रोत्रेन्द्रिय. चक्षुइन्द्रिय घ्राणेन्द्रिय रसेन्द्रिय स्पर्शन्द्रिय अनिष्ट अक्रान्त अप्रिय अमनोज्ञ विशेष अमनोज्ञ अशुभ अनिच्छापणे भेदपणे ऊंचापणे नौं किन्तु निचापणे, सुखपणे नही, किन्तु दुःखपणे, इन सत्तरा बोलोंपणे वारवार प्रणमते है. पांच स्थावर तीनवैकलेन्द्रिय तीर्यच पांचेन्द्रिय और मनुष्य इन दश दंडकोंमें औदारीक शरीर होनेसे अपनि अपनि इन्द्रियोंके सुख और दुःख दोनोंपणे प्रणमते है। देवतोंके तेरह दंडकमें नरकसे उलटे याने सत्तरा बोलोभी अच्छे सुखकारी प्रणमते है अर्थात् नारकीमें आहारके पुद्गल एकान्त दुःखपणे देवतोंमें ए. कान्त सुखपणे और औदारीक शरीरवाले शेषजीवोंके सुख दुःख दोनोंपणे प्रणमते है। (६) नारकीके नैरिय जो पुद्गल आहारपणे ग्रहन करते है वह क्या एकेन्द्रियके शरीर है यावत् क्या पांचेन्द्रियके शरीर है ? पूर्व पर्यायापेक्षातो जो जीव अपना शरीर छोडा है उनोकाही शरीर है चाहे एकन्द्रिय के हो यावत् चाहे पांचेन्द्रियका हो और वर्तमान वह पुद्गल नारकी ग्रहन किये हुवे है वास्ते पांचेन्द्रिय के पुद्गल कहा जाते है एवं १६ दंडक एवं पांच स्थाघर परन्तु वर्तमान एकेन्द्रिय के पुद्गल कहा जाते है एवं बेन्द्रिय तेइन्द्रिय चोरिन्द्रिय अपनि अपनि इन्द्रिय कहना कारण पहले आहार लेनेवाले जीव उन पुद्गलोंकों अपना करलेते है वास्ते उनोंके ही पुद्गल कहलाते है। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१६) शीघ्रबोध भाग ३ जो. (१०) नारकी देवता और पांच स्थावर-रोमाहारी है. किन्तु प्रक्षेप आहारी नही है.तीन वैकलेन्द्रिय. तीर्यच पांचेन्द्रिय और मनुष्य रोमाहारी तथा प्रक्षेपाहारी दोनों प्रकारके होते है। (११) नारकी पांच स्थावर तीन वैकलेन्द्रिय तीर्यच पांचेन्द्रिय और मनुष्य ओजाहारी है और देवता ओज आहारी ओर मन इच्छताहारी भी है कारण देवता मन इच्छा करे वेसे पुद्गलोका आहार कर सके है शेष जीवकों जेसा पुद्गल मीले वेसोंका ही आहार करना पडता है इति । सेवं भंते सेवं भंते-तमेव सच्चम् ।। थोकडा नम्बर. २५ . (सूत्र श्री पनवणाजी पद ७ वा श्वासोश्वास ) नारकीके नैरिया श्वासोश्वास लोहारकि धमणकि माफीक लेते है तीर्यच और मनुष्य बे मात्रा याने जल्दीसे या धीरे धीरे दोनों प्रकारसे श्वासोश्वास लेते है । देवतोंमें असुर कुमारके देव जघन्यसे सात स्तोक कालसे उत्कृष्ट साधिक एक पक्ष ( पन्द्रा. दिन ) से श्वासोश्वास लेते है । नागादि नौ निकायके देव तथा व्यंतर देव ज. सात स्तोक कालसे उ० प्रत्येक महुर्तसे । ज्योतिषीदेव ज. प्रत्येक महूर्त उ० प्रत्येक महुर्त. सौधर्म देवलोकके देव ज० प्रत्येक महुर्त उ० दो पक्षसे ईशानदेव ज० प्रत्येक महुर्त उ० साधिक दो पक्षसे. सनत्कुमारके देव ज.दो पक्ष उ० सात पक्ष. महेन्द्र ज०दो पक्ष साधिक उ० साधिक सात पक्षसे. ब्रह्मदेव ज. सातपक्ष उदशपक्षसे, लांतकदेव, ज० दशपक्ष, उ० चौ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वासोश्वासाधिकार. ( २१७) दापक्ष महाशुक्र देव ज. चौदापक्ष उ० सत्तरापक्ष सहस्रादेव ज. सत्तरापक्ष उ० अठारापक्षसे अणतूदेव ज० अठारापक्ष. उ० उनि. सपक्षसे, पणत्देव ज० उन्निसपक्ष उ० वीस पक्षसे अरण्यदेव म० बीसपक्ष उ० एकवीस पक्षसे अच्युतदेव जः एकवीस पक्ष उ० बा. बीसपक्षसे ग्रीवैकके पहले पीकके देव ज० बावीसपक्ष उ• पचवीस पक्ष दुसरी त्रीकके देव ज० पचवीस पक्ष उ. अठावीस पक्षसे तीसरी त्रीकके देव ज. अठावीस पक्ष उ० एकतीस पक्ष च्यारानुत्तर वमानके देव ज० एकतीस पक्ष उ० तेत्तीसपक्ष सर्वार्थसिद्ध वैमानके देव जघन्य उत्कृष्ट तेत्तीसपक्षसे श्वासोश्वास लेते है। जेसे जेसे पुन्य बडते जाते है वेसे वेसे योगोंकी स्थिरता भी वढती जाती है देवतावोंमें जहां हजारों वर्षोंकि स्थिति है वह सात स्तोक कालसे, पल्योपमकि स्थिति है वह प्रत्येक दिनोंसे और सागरोपमकी स्थिति है वहां जीतने सागरोपम उतनेही पक्षसे श्वासोश्वास लेते है । नोट-असंख्यात समयकि एक आवि. लका संख्याते आविलका, का एक श्वासोश्वास, सात श्वासोश्वासका एक स्तोक काल होते है इति । सेवंभंते सेवभंते-तमेवसच्चम्. --**-- थोकडा नम्बर. २६ (सूत्रश्री पनवणाजी पद ८ वा संज्ञाधिकार) संज्ञा-जीवोंकि इच्छा. वह संज्ञा दश प्रकारकी है आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा, क्रोधसंज्ञा, मानसंक्षा, मायासंज्ञा, लोभसंज्ञा, लोकसंज्ञा, ओघसंज्ञा । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१८) शीघ्रबोध भाग ३ जो. - आहारसंज्ञा उत्पन्न होनेके च्यार कारण है. उदररीता होनेसे क्षुधावेदनिय कर्मोदयसे आहारकों देखनेसे और आहारकि चितवना करनेसे आहार संज्ञोत्पन्न होती है। भयसंज्ञा उत्पन्न होने के च्यार कारण है अधैर्य रखनेसे. भयमोहनिय कर्मोदयसे, भय उत्पन्न करनेवा पदार्थ देखने से और भय कि चिंतवना करने से । हा हा अब क्या करुंगा ? मेथुन संज्ञा उत्पन्न होने के च्यार कारण है. शरीर को पौष्ट : याने हाड मांस रोद्र बढानेसे. वेद मीहनिय कर्मोदयसे, मथुन उत्पन्न करनेवाले पदार्थ स्त्रि आदि को देखने से मैथुन कि चिंत. वना करने से मैथुनसंज्ञा उत्पन्न होती है। __परिग्रह संज्ञा उत्पन्न होने का च्यार कारण है. ममत्वभाव बढाने से. लीभ मोहनिय कर्मोदय से, धनादि के देखने से परिग्रह कि चिंतधना करनेसे" क्रोध संज्ञा उत्पन्न होने के च्यार कारण है. क्षेत्र, खला, बाग. बगेचे. घर, हाट, हवेली. शरीरादि से, धनधान्यादि औपधि से क्रोध उत्पन्न होते है एवं मान, माया, लोभ. __लोकसंज्ञा-अन्य लोकों को देख के आप ही वह क्रिया करते रहै. ओघसंज्ञा-शुन्य चित्तसे विलापात करे खाजखीणे, तणतोडे, धरती खीणे इत्यादि उपयोग शुन्यतासे । ___ नरकादि चौवीसों दंडकों में दश दश संज्ञा पावे. कीसी दंडक में सामग्री अधिक मीलने से प्रवृत्ति रूपमें है कीसी जीवों कों इतनी सामग्री न मीलने से सतारूप में है फीर सामग्री मीलने से प्रवृत्ति रूप में भी प्रवृतेंगे संज्ञा का आस्तित्व छठे गुणस्थान तक है। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संज्ञाधिकार. ( २१९) अल्पाबहुत्व-नरक में (१) स्तोक मैथुनसंज्ञा (२) आहार संज्ञा संख्यातगुणे (३ ) परिग्रहसंज्ञा संख्यातगुणे ( ४ ) भयसंज्ञा संख्थातगुणे-तीर्यच में ( १ ) सर्वस्तोक परिग्रहसंज्ञा. (२) मैथुन संज्ञा संख्यातगुणे, (३) भयतंज्ञा संख्यातगुणे (४) आहारसंज्ञा संख्यातगुणे | मनुप्य में (१) सर्वस्तोक भयसंज्ञा, (२) आहार• संज्ञा संख्यातगुने (३) परिग्रहसंज्ञा संख्यातगुणे (४) मैथुनसंज्ञा संख्यातगुणे । देवतों में ( १ ) सर्वस्तोक आहारसंज्ञा ( २ ) भय. संज्ञा संख्यातगुणे ( ३ मैथुनसंज्ञा संख्यातगुणे (४) परिग्रहसंज्ञा संख्यातगुने. ____नरकम सर्वस्तोक लोभसंज्ञा, मायासंज्ञा संख्यातागुणे मानसंज्ञा संख्या क्रोधसंज्ञा संख्यागु- तीर्यच मनुष्य में सर्वस्तोक मानसंज्ञा, क्रोधसंज्ञा, विशेषाधिक मायासंज्ञा विशेषाधिक, लोभसंज्ञा विशेषाधिक । देवतों में सर्वस्तोक क्रोधसंज्ञा मानसंज्ञा संख्यातगुणे मायासंज्ञा संख्यातगुणे लोभसंज्ञा संख्यातगुणे इति । । सेवभंते सेभंते तमेवसच्चम् ।। थोकडा नम्बर २७ ( सूत्र श्री पनवणाजीपद हवा योनिपद ) जावों के उत्पन्न होने के स्थानों को योनि कही जाती है. वह योनि तीन प्रकार की है। शीतयोनि, उष्णयोनि, शीतोष्ण• योनि । पहली, दुसरी, तीसरो, नरक में शीतयोनि नैरिये है. चोथी नरक में शीतयोनि नैरिये ज्यादा है और उप्ण योनि नैरिये Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२०) शीघबोध भाग ३ जो. कम है पांचवी नरक में शीतयोनि नरिये कम है उष्णयोनि ज्यादा है. छठी सातवी नरक में उष्णयोनि नैरिया है। सर्व देवता तीर्यच पांचेन्द्रिय और मनुष्यों में शीतोष्णायोनि है। च्यार स्थावर तीन वैकलेन्द्रिय में तीनों योनि पावे. और तेउ. काय केवल उष्णयोनि है। सिद्ध भगवान अयोनि है । (१) सर्व. स्तोक शीतोष्ण योनिवाले जीव. (२) उनो से उष्णयोनिवाले जीव असंख्यातगुणे ( ३) अयोनिवाले जीव अनंतगुणे ४) शी. तयोनिवाले जीव अनंतगुणे । योनि तीन प्रकार कि है. सचित्तयोनि, अपित्तयोनि, मिश्रयोनि, नारकी देवता अचितयोनि में उत्पन्न होते है. पांच स्थावर तीन वकलेन्द्रि असंज्ञी तीर्यच, असंज्ञी मनुष्य में योनि तीनों पावे. संज्ञी मनुष्य तीर्यच में एक मिश्रयोनि है. (१) सिद्धभगवान अयोनि है (१)सर्वस्तोक, मिश्रयोनिवाले जीव, २१ अचितयोनि वाले जीव असंख्यातगुणे, (३) अयोनीवाले जीव अनंतगुणे ४) सचित योनिवाले अनंतगुणे. योनि तीन प्रकार की ह संवृतयोनि, असंवृतयोनि, मिश्रयोनि. नारकी देवता और पांच स्थावर के संवृतयोनि है तीन वैकलेन्द्रिय, असंज्ञा तीर्यच मनुष्य के असंवृतयोनि है. संज्ञी तीर्यच संज्ञा मनुष्यो के मिश्रयोनि सिद्ध भगवान् अयोनि है। १) सर्वस्तोक मिश्रयोनिवाले जीव है (२) असंवृतयोनिवाले असंख्यात गुणे(३) अयोनिवाले अनंतगुणे (४)संवृतयोनिनवाले अनंतगुणे है । ___ योनि तीन प्रकार की है कुम्मायोनि. संक्खावर्तनयोनि, वं. सीपत्तायोनि. कुम्मायोनि तीर्थंकरादिके माताकि होती है। संक्खावर्तन योनि चक्रवत्ति के स्त्रि रत्नकी होती है जिसमें जीव पुद्गल उत्पन्न होते है विध्वंसभी होते है परन्तु योनिद्वारा जन्मते Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योनिअधिकार. (२२१) नहीं है। वन्सीपत्तायोनि शेष सर्व संसारी जीवोंकि माताके होती है जीस योनि में जीव उत्पन्न होते हैं वह जन्मते भी है वि. ध्वंस भी होते है । इति सेवंभंते सेवंभते तमेवसच्चम् । थोकडा नम्बर २८. सूत्रश्री भगवतीजी शतक १ उद्देशा १ सर्व जीव दो प्रकार के है उसे आरंभी कहते है (१) आत्मा का आरंभ करे. परका आरंभ करे, दोनों का आरंभ करे. (२) कीसी का भी आरंभ नही करे वह अनारंभीक है. इसका यह कारण है कि जो सिद्धों के जीव है वह तो अनारंभी है और जो संसारी जीव है वह दो प्रकार के है (१) संयति (२) असंयति. जिस्में संयति के दो भेद है. (१) प्रमादि संयति दुसरे अप्रमादि संयति.जो अप्रमादि संयति है वह तो अनारंभी है और जो प्रमादि संयति है उनोंके दो भेद है एक शुभयोगि दुसरा अशुभ योगि जिस्में शुभ योगि है वहतों अनारंभी है और जो प्रमादि संयति अशुभ योगि है वह आत्मा आरंभी है परारंभी है उभया. रंभी है एवं असंयति भी समजना। एवं नरकादि २३ दंडकनों आत्मारंभी परारंभी उभयारंभी है परन्तु अनारंभी नही है और मनुष्य समुच्चय जीवकि माफीक संयति अप्रमादि और शुभ योगवाले तो अनारंभी है ३। शेष आरंभी है. ... लेश्यासंयुक्त जीवोंके लिये वह ही बात है जो संयति अप्र. मादि और शुभ योगवाले है वह तो अनारंभी है शेष आरंभी है Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२२) शीघ्रबोध भाग ३ जो. एवं मनुष्य शेष २३ दंडक के लेश्या संयुक्त जीव आत्मारंभी परा: . रंभी उभयारंभी है. कृष्ण, निल, कापोत, लेश्यावाले समुच्चय जीव ओर बावीस बावीस दंडक के जीव सबके सब आरंभी है कारण यह तीनों अशुभ लेश्या है इनोंके परिणाम आरंभसे वच नहीं सकते है। तेजो लेश्या समुच्चय जीव और अठारा दंडकोमे है जिस्मे समुच्चय जीव और मनुष्य के दंडकमें जो संयति अप्रमादि और सुभयोगवाले तो अनारंभी है शेष सब आरंभी है एवं पद्म लेश्या तथा शुक्ल लेश्या भी समजना परन्तु यह समुच्चय जीव वैमानिक देव ओर संज्ञी मनुष्य तीर्यचमे ही है जिस्मे संयति अप्रमादिपणा मनुष्यमें ही होते है वह अनारंभी है शेष जीव तों आत्मारंभी परारंभी उभय आरंभी होते है वह अनारंभी नही है। आत्मारंभी स्वयं आप आरंभ करे। परारंभी दुसरोसे आरंभ करावे उभयारंभी आप स्वयं करे तथा दूसरोंसे भी आरंभ करावे इति. सेवभंते सेवभंते-तमेवसच्चम् --* *--- थोकडा नम्बर २६. ( अल्पाबहुत्त्व.) संज्ञी,असंज्ञी, तस, स्थावर, पर्याप्ता, अपर्याप्ता, सूक्ष्म और वादर. इन आठ बोलोंके लद्धिया अलद्धिया एवं १६ । (१) सर्वस्तोक संज्ञी के लद्धिया. ( २ ) तस जीवोंके लद्धिया असंख्यात गुणे (३) असंज्ञीके अलद्धिये अनंतगुणे (४) स्थावर के अलद्विये विशेष. (५) बादर के लद्धिये अनंत गु० (६) सुक्ष्मके अलद्धि में विशेषः (७) अप Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपादान निमत्त. (२२३ ) प्तिा के अलद्धिये असंख्यात गुणे (८) पर्याप्ता के अल. द्धिये विशेष. (९) पर्याप्ताके लद्धिया संख्यात गुणे (१०) अपर्याप्ताके अलद्धिये विशेष. (११) सूक्षमके लद्धिये विशेष. (१२) बादरके अलद्धिये वि० (१३) स्थावरके लद्धिये विशे० (१४) त्रसके अलद्विये वि० ( १५ ) असंज्ञीके लद्धिये वि० (१६) संज्ञीके अलद्धिये विशेषाधिक । लद्धिया जेसे संज्ञीके लद्धिये. कहनेसे संज्ञी जीव और संज्ञीके अलद्धिये कहनेसे असंही जीव और सिद्धोंके जीव गीने जाते है इसी माफीक जीसके लद्धिये कहनेसे वह जीव है और जीसको अलद्धिया कहनेसे उन जीवोंके सिवाय शेष जीव अलद्धिये में गीने जाते है इति । चौदाभेद जीवोंकी अल्पाबहुत्व. (१) सर्व स्तोक संज्ञी पांचेन्द्रियका अपर्याप्ता. (२) संज्ञी पांचेन्द्रियके पर्याप्ता संख्यात. गुणे. (३) चौरिन्द्रिय पर्याप्ता संख्या. गु० (४) असंज्ञी पांचे. न्द्रिय पर्याप्ता विशेषः ( ५ ) बेइन्द्रियके पर्याप्ता विशे०। ६) तेहन्द्रियके पर्याप्ता विशेषः । ७ ) असंज्ञी पांचेन्द्रिय के अपर्याप्ता असंख्यात गुणे (८) चौरिंद्रियके अपर्याप्ता विशे० (९) तेइन्द्रियके अपर्याप्ता विशे० (१०) बेइन्द्रियके अपर्याप्ता विशे. : ११) बादर एकेन्द्रियके पर्याप्ता अनंत गुणे ( १२) बादर एकेन्द्रियके अपर्याप्ता असंख्यात गुणे (१३ ) सूक्षम एकेन्द्रियके अपर्याप्ता असंख्यात गुणे ११४) सूक्षम एकेन्द्रिय के पर्याप्ता संख्यातगुणे इति । ... आठ बोलोंकि अल्पाबहुत्व-(१) सर्वस्तोक अभव्य जीव (२) प्रतिपाति सम्यग्द्रष्टि अनंतगुणे ( ३) सिद्धभगवान अनंतगुणे ( ४ ) संसारीजीव अनंतगुणे ५) सर्व पुद्गल अनंतगुणे (६) सर्व काल अनंतगुणे । ७) आकाशप्रदेश अनंतगुणे : ८) • केवलज्ञान केवलदर्शनके पर्यव अनंत गुणे । स्तोक परत्तसंसारी जीव, शुक्लपक्षी जीव अनंतगुणे, कृष्ण Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२४ ) शीघ्रबोध भाग ३ जो. पक्षीजीव अनंतगुणे, अपरत्त संसारी जीव विशेषः । पुनः । स्तोक अपर्याप्ता जीव सुत्ताजीव संख्यातगुणे जागृतजीव संख्यातगुणे पर्याप्ताजीव विशेषः ॥ पुनः ॥ स्तोक समोइ वा मरणवाले जीव. इन्द्रिय बहुता संख्यात गुणे नोइन्द्रिय बहुते विशेषः असमोइये जीव विशेषाः । पुनः। स्तोक बादरजीव, अणाहारी जीव संख्यात गुणे, सूक्ष्मजीव संख्यातगुणे आहारीक जीव विशेषः ॥ पुनः॥ स्तोक बादरके लद्धिये, सूक्षमके अलद्धिये विशेषः सूक्षमके लछिये असंख्यातगुणे बादरके अलद्धिये विशेषः इति । थोकडा नम्बर ३०. स्तोक अभव्य के लद्धिये (२) शुक्लपक्षके लद्धिये अनंत गुणे (३) भव्यके अलद्विये अनंतगुणे ( ४ ) भव्यके लद्धिये अ. नंत गुणे (५) कृष्णपक्षीके लद्धिये विशेषः (६) कृष्णपक्षीके अलद्धिये अनंतगुण (७) शुक्लपक्षीके अलद्धिये विशेषः (८) अभव्य के अलद्धिये विशेषः ॥ पुनः ॥ स्तोक मनुष्यके लद्धिये (२) नारकीके लद्धिये असंख्यातगुणे (३) देवतोंके लद्धिये असं० गु० (४) सोर्यचके अलद्धिये विशेषः (५) तीर्यचके ल. द्धिये अनंतगुणे ( ६ ) देव अलद्धिये वि० ( ७ ) नरक अलद्धिये वि० मनुष्य अलद्धिये विशेषः ॥ _____ स्तोक मिश्रदृष्टि [२] पुरुषवेद असख्यात गुणे [३ | बि. वेद संख्यात गुणे (४ । अवधिदर्शन विशेषः (५) चक्षुदर्शन सं० गु० (६ ) केवलदर्शन अनंतगुणे ( ७) सम्यग्दृष्टि विशेषः (८) नपुंसकवेद अनंतगुणे ( ९ । मिथ्यादृष्टि वि० (१०) अचक्षुदर्शन विशेषः ॥ पुनः॥ स्तोक अचर्मजीव ( २) नोसंज्ञीजीव अनंतगुणे (३ नोमनयोगीजीव विशेषः ४) नोगर्भजजीब विशेषः॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पाबहुत्व. ( २२५) स्तोक मनः बलप्राण [२] वचन बलप्राण असंख्यातगुणे [३] श्रोत्रेन्द्रिय बलप्राण असंख्यात गुणे [४] चक्षुइन्द्रिय बलप्राण विशेषः [५] घ्राणेन्द्रिय बलप्राण विशेषः वि० [६] रसेन्द्रिय बलप्राण वि० (७ ) स्पर्शेन्द्रिय बलप्राण अनंतगुणे [८] काय बल प्राण विशेष: [९] श्वासोश्वास बलप्राण वि० [१०] आयुष्य बलप्राण विशेषः ।। पुनः ॥ स्तोक मनः पर्याप्तिके जीव [२] भाषापर्याप्तिके जीव असंख्यात गुणे [३. श्वासोश्वास पर्याप्ति के जीव अनंतगुणे [४ इन्द्रिय पर्याप्ति० वि० [५] शरीर पर्याप्तिके जीव वि० [६] आहार पर्याप्तिके जीव विशेषः ॥पुनः।। स्तोंक मनुष्य [२] नारकी असंख्यात गुणे [३] देवता असंख्यातगुणं [४] पुरुषवेद विशेषः [५] त्रिवेद संख्यातगुणे [६] नपुंसकवेद अनंत गुणे [७] तीर्यच विशेषाधिक ।। इति थोकडा नम्बर ३१. स्तोक मनुष्यणी [२] मनुष्य असंख्यात गुणे [३] नैरिये असंख्यातगुणे [१] तीर्यचणी असंख्यातगुणी [५] देवता सं. ख्यात गुणे | ६ ] देवी संख्यातगुणी [७] पांचेन्द्रिय संख्यात गुणे [८] चोरिन्द्रिय वि० [९] तेइन्द्रिय वि० [१०] बेइन्द्रिय वि० (११) प्रसकाय वि० [१२] तेउकाय असंख्यात गुणे [१३] पृथ्वी काय वि० [१४] अपकाय बि० [१५] वायुकाय वि० [१६] सिद्ध भगवान अनंतगुणे [१७] अनेन्द्रिय विशेषः [१८] वनास्पति अनंतगुणे [१९] एकेन्द्रिय वि० [२०] तीर्यच विशेषः [२१] सेन्द्रिय वि० [२२] सकाया वि० [२३] समुच्चय जीव विशेषः स्तोक मनुष्य [२] नारकी असंख्यात गुणे [३] देवता असंख्यात गुणे [ ४ ] पुरुषवेद विशेषः (५) स्त्रियोसंख्यातगुणी १५ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२६ ) शीघ्रबोध भाग ३ जो. [६] पांचेन्द्रिय वि० [७] चोरिन्द्रिय वि० [ ८ ] तेइन्द्रिय वि० [ ९ ] बेइन्द्रिय वि० [१०] सकाय वि० [ ११ ] ते काय असंख्यात गुणे [ १२ ] पृथ्वीकाय वि० [१३] अपकाय वि० [१४] वायुकाय विशेष: [१५] वनास्पतिकाय अनंतगुणे [ १६ ] एकेन्द्रिय विशेषः [ १७ ] नपुंसक जीव विशेषः [ १८ ] तीर्थचजीव विशेषः । 2 सर्व स्तोक पांचेन्द्रियके लद्धिये [ २ ] चोरिन्द्रियके लद्धिये विशेषः [ ३ ] तेइन्द्रियके लखिये वि० [ ४ ] बेइन्द्रियके लद्धिये वि० [५] तेउकायके लडिये असं० गु० [६] पृथ्वोकायके ल जिये वि० [७] अपकायके लद्धिये वि० [८] वायुकायके ल. द्विये वि० [९] अभव्य के लद्धिये अनंतगुणे [१०] परत ससारी नीवोंके लद्धिये अनंतगुणे [११] शुक्लपक्षी विशेषः [ १२-१३ ] सिद्धोके लद्धिये और संसार के अलद्धिये आपस में तूला और अनंतगुणे [ १४ ] वनस्पतिकायके अलद्धिये विशेषः [ १५ ] भव्य जीवोंके अलद्धिये विशेषः [ १६ ] परत्तजीवोके अलजिये वि० [ १७ ] कृष्णपक्षीके अलद्धिये वि० [१८] वनस्पतिके लद्धिये अनंतगुणे [ २९ ] कृष्णपक्षीके लद्धिये वि० [२०] अपरत्तजी. के लद्धये वि० [२१] भव्यजीवोंके लद्धिये वि० [ २२-२३ ] संसारी जीवोंके लखिये और सिद्ध के अलद्धिये आपस में तूला वि० [ २४ ] शुक्लपक्षी अलद्धिये वि० [ २५ ]परतजीवोंके अलद्विये वि० [ २६ ] अभव्यजीवोंके अलद्धिये वि० [ २७ ] वायुकाय अलद्धिया वि० [ २८ ] अपकायके अलद्धिये वि० [ २९ ] पृथ्वीका अलद्धिये वि० [३०] तेडकायके अलद्धिये वि० [३१] बेइन्द्रियके अलद्धिये वि० [३२] तेइन्द्रिय के अलखिये वि० [ ३३ ] चोरिद्रियके अलद्धिये वि० [ ३४ ] पांचेंद्रिय के अलद्धिये विशेषाधिकार इति । इति शीघ्रबोध भाग तीजो समाप्तम् 9999994 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला पुष्प नं. २९ श्री सयंप्रभमूरीश्वराय नमः शीघ्रबोध भाग ४ था. थोकडा नम्बर ३२. सूत्र श्री उत्तराध्ययनजी अध्ययन २४. ( अष्ट प्रवचन) ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदान भंडमत्तोवगणसमिति, उच्चारं पासवण जल खेल मैल परिठावणिया समिति, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति इन पांच समिति तीन गुप्तिके अन्दर पांच समिति अपवाद है और तीन गुप्ति उत्सर्ग है जेसे मुनिकों उत्सर्ग मार्गमें गमनागमन करना मना है; परन्तु अपवाद मार्गमें आहार, निहार, विहार और जिनमन्दिर दर्शन करनेकों जाना हो तो इर्यासमितिपूर्वक जावे. उत्सर्ग मार्गमें मु. निको मौन रखना; परन्तु अपवाद मार्गमे याचना पुच्छना, आज्ञा लेना और प्रश्नादि पुच्छाका उत्तर देना इन कारणों से बोलाना पडे तो भाषा समिति संयुक्त बोले उत्सर्ग मार्गमे मुनिको आहार करना ही नहीं अपवादमें संयम यात्रा-शरीरके निर्वाह के लिये आहार करना पडे तो एषणासमिति निर्दोष आहार लाके करे, उत्सर्ग मार्ग में मुनिको निरूपाधि रहना, अपवादमें लज्जा तथा परिसह न सहन हो तो मर्यादा माफिक औषधि राखे, उत्सर्गमें Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२८) शीघ्रबोध भाग ४ था. मल मात्र करे नही, आहार पाणीके अभाव परठे नही; अपवाद मार्गमें निर्वद्य भूमिपर विधिपूर्वक परठे। (१) इर्यासमितिका च्यार भेद है-आलम्बन, काल, मार्ग, यत्ना. जिस्मे आलम्बन-ज्ञान, दर्शन, चारित्र. काल-अहोरात्री. मार्ग-कुमाग त्याग ओर सुमार्ग प्रवृत्ति. यत्नाका च्यार भेद हैद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, द्रव्यसे इर्यासमिति-छे कायाके जीबोंकि यत्ना करते हुवे गमन करे.क्षेत्रसे-च्यार हाथ परिमाण भूमि देखके गमनागमन करे. कालसे दिनकों देखके रात्री में पूंजके चाले. भावसे-गमनागमन करते हुवे वाचना, पुच्छना, परावर्तना, अ. नपेक्षा, धर्मकथा न कहे. शब्द, रूप, गन्ध, रस, स्पर्शपर उपयोग न रखते हुवे इर्यासमिति पर ही उपयोग रखे। (२) भाषासमिति के च्यार भेद-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव. द्रव्यसे-कर्कशकारी, कठोरकारी, छेदकारी, भेदकारी, मर्मकारी, सावध पापकारी, मृषावाद ओर निश्चयकारी भाषा न वोले. क्षेत्र से-गमनागमन करते समय रहस्तेमे न बोले. कालसे-एक पहर रात्री जाने के बाद सूर्योदय हो वहांतक उच्चस्वरसे नही बोले. भावसे-राग द्वेष संयुक्त भाषा नही बोले। (३) एषणासमितिके च्यार भेद--द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव. द्रव्यसे मुनि निर्दोष आहार, पाणी, वस्त्र, पात्र, मकानादिको ग्रहन करे; कारण निर्दोष अशनादि भोगवनेसे चित्तवृत्ति निर्मल रहती है, इसवास्ते फासुक आहार देनेवाले और लेनेवाले दुष्कर बतलाये ह और विगर कारण दोषित आहारादि देनेवाले या लेनेवाले दोनोंको शास्त्रकारोंने चोर बतलाये हैं श्री स्थानांगतूत्र स्थाने ३जे तथा भगवतीसूत्र शतक ५ उ०४ में दोषित आहार देनेसे स्वल्प आयुष्य तथा अशुभ दीर्घायुष्य बन्धते है और भगवतीसूत्र शतक १ उ० ९ में आधाकर्मी आहार करनेवालोंको Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टप्रवचन. ( २२६ ) साताठ्ठ कर्मोंका-बन्ध अनंत संसारी और छे कायाकी अनुकम्पा रहित बतलाये है और निर्दोषाहार करनेवालेको शीघ्र संसार से पार होना बतलाया है । निर्दोषाहार ग्रहन करनेवाले मुनियोको निम्नलिखत दोषोंपर पूर्ण ध्यान रखना चाहिये । ( १ ) आधाकर्मी दोष - जिनोंके पर्याय नाम च्यार है ( १ ) आधाकर्मी - साधुके निमत्त ले काया जीवोंकि हिंस्या कर अशनादि तैयार करे ( २ ) अधोकर्मी एसा दोषिताहार करनेवाले आखीर अधोगतिमें जाते हैं । ३) आत्मकर्मी - आत्माके गुण जो ज्ञान दर्शन चारित्र है उनके उपर आच्छादन करनेवाले है ( ४ ) आत्मन्नकर्मी - आत्मप्रदेशोंके साथ तीव्र कमका बन्ध घन माफिक करनेवाले है । आधाकर्मी आहार लेनेसे आठ जीव प्रायश्चितके भागी होते है यथा- आधाकर्मी आहार करनेवाला, करानेवाला लेनेवाला, देनेवाला, दीरानेवाला, अनुमोदन करनेवाला, खानेवाला, और आलोचना नही करनेवाला. इसवास्ते मुनिको सदैव निर्वाहार ही करना चाहिये । एक मुनि निर्वद्य फाक जल लेके जंगलमें ध्यान करनेको गया था उस जल भाजनको एक वृक्षके नीचे रख आप कुच्छ दूर चले गये थे. पीच्छे से सैन्य हित पीपासा पिडित एक राजा उन वृक्ष नीचे आया. मुनिका शीतल पाणी देख राजाने जलपान कर लिया. पीच्छे से राजाकि सैना आइ, उन मुनिके पात्रमें राजा अपना जल डालके सब लोक चले गये। कुच्छ देरी से मुनि उन वृक्ष नीचे आया; अपना जल समजके जलपान कीया. दोनो पाणीका असर पसा हुवा कि राजाको संसार असार लगने लगा, और योग धारण करने की इच्छा हुई. इधर मुनिकों योगसे रूची हटके संसार कि तर्फ चित्त आकर्षण होने लगा. देखिये सदोष, नि. दोष आहार पानीका कैसा असर है. आखीर समजदार श्रावकोंने Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३० ) शीघ्रबोध भाग ४ था. मुनिजीको जुलाब दीया और अकलमन्द प्रधानोंने राजाको जुलाब दीया. दोनोंके पाणीका अंश निकल जाने से राजा राजमें और मुनि अपने योगमें रमणता करने लगे. [ २ ] उद्देसीक दोष - एक साधुके लिये किसीने आहार बनाया है वह साधु गवेषना करने पर उसे मालुम हुवा कि यह आहार मेरे ही लिये बना है उसे आधाकर्मी समजके ग्रहन नही किया अगर वह आहार कोइ दुसरा साधु ग्रहन न करे तो उनके लिये उद्देसीक दोष है. [३] पूतिकर्म दोष - निर्वद्याहारके अन्दर एक सीत मात्र at marnath मील गइ हो तथा सहस्र घरोंके अन्तर भी Harrier लेप मात्र भी मीला हुवा शुद्धाहार भी ग्रहन करनेसे पूतिकर्म दोष लगते है. श्री सूत्रकृतांग अध्ययन पहले उसे तीजे पूतिकर्मा हार भोगवनेवालोंको द्रव्ये साधु और भावे गृहस्थ एवं दो पक्ष सेवन करनेवाला कहा है । [ ४ ] मिश्रदोष -कुच्छ गृहस्थोंका, कुच्छ साधुका निमित्त से बनाया आहार लेनेसे मिश्रदोष लगता है 1 [५] ठवणा दोष- साधुके निमत्त स्थापके रखे. [ ६ ] पाहुडिय - महेमान - कीसी महेमानोंको जीमाण: हैं. साधुके लिये उनोंकि तीथी फीरा देवे उन महेमानोंके साथ मुनि hi भी मिष्टान्नादि से तृप्त करे। एसा आहार लेना दोषित है। [७] पावर - जहां आघेरा पडता हो वहां साधुके निमित्त. प्रकाश [ बारी ] करवाके आहार देना. [८] क्रिय - क्रियविक्रय. मुनिके निमित्त मूल्य लायके देवे. [९] पामिकचे दोष - उधारा लाके देवे. [१०] परियठे दोष-वस्तु बदलाके देवे. Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टप्रवचन. ( २३१) । ११ अभिहड दोष-अन्यस्थानसे सन्मुख लाके देवे. [१२] भिन्नदोष-छान्दो कीमाडादि खुलवाके देवे. [१३] मालोहड दोष-उपरसे जो मुश्किलसे उतारी जावे एसे स्थानसे उतारके दी जावे। [१४] अच्छीजे दोष-निर्बल जनोंसे सबल जबरदस्ति बलात्कारे दीरावे उसे लेना. [१५] अणिसिछे दोष-दो जनोंके विभागमें हो एकको देने का भाव हो एकके भाव न हो वह वस्तु लेवे तो भी दोषित है. [१६] अजोयर दोष- साधुके निमित्त कमाहार बनाते समय ज्यादा करदे वह आहार लेना। ,, इन १६ दोषोंको उद्गमन दोष कहते है यह दोष जो गृहस्थ भद्रीक साधु आचारसे अज्ञात और भक्तिके नामसे दोष लगाते है. [१७] घाइदोष-धात्रीपणा याने गृहस्थ लोगोंके बालबच्चों को रमाना, ग्वेलाना इनौसे आहार लेना। ., १८ दुइदोष-दूतिपणा इधर उधर के समाचार कह के आहार लेना. । १९! निमित्तदोष-भूत भविष्यका निमित्त कहके आ० ,, [२०] आजीवदोष - अपनि जातिका गौरव बतलाके , [२१] वणिमग्गदोष-रांककि माफिक याचना कर आ०,, [२२] तिगच्छदोष-औषधि वगरह बतलाके आ० , [२३] कोहेदोष-क्रोध कर भय बतलाके आहार लेना. [ २४ ] माणेदाष-मान अहंकार कर आहार लेना. [२५ मायादोष-मायावृत्ति कर आहार लेना. [२६. लोभेदोष-लालच लोलुपता से आहार लेना. ... [२७ ] पुव्वंपच्छसंथुव दोष-आहार ग्रहन करने के पहले या पीच्छे दातारके गुण कीर्तन करके आहार लेना। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३२) शीघबोध भाग ४ था. [२८] विजादोष-गृहस्थोंको विद्या बतलाके अर्थात् रोह णि आदि देवीयोंको साधन करनेकी विद्या ,, [२९] मित्तदोष-यंत्र मंत्र शीखाना अर्थात् हरीणगमेषी आदि देवतोंका साधन करवाना ,, [३०] चून्नदोष-एक पदार्थके साथ दुसरा पदार्थ मीला के एक तीसरी वस्तु प्राप्त करना सीखाके ,, [३१ ] जोगेदोष-लेप वसीकरणादि बताके आ० ,, . [३२] मूलकम्मेदोष-गर्भापात्तादि औषधीयों उपायों बतलाके आहार पाणी ग्रहन करना दोष है. [क] यह सोलह दोष मुनियों के कारण से लगते है वास्ते मोक्षाभिलाषीयोंको अपने चारित्र विशुद्धि के लिये इन दोषोंको टालना चाहिये इन १६ दोषोंको उत्पात दोष कहते है। [३३] संकिए दोष-आहार ग्रहन समय मुनिकों तथा गृ. हस्थोंको शंका हो कि यह आहार शुद्ध है या अशुद्ध है, एसे आहारकों ग्रहन करना यह दोष है। [३४] मंक्खिए दोष-दातारके हाथकि रेखा तथा बाल कञ्चे पाणी से संसक्त होनेपर भी आहार ग्रहन करना। [३५] निक्खित्तिये दोष-सचित्त वस्तुपर अचित्ताहार रखा हुवा आहार ग्रहन करे. [३६] पहियेदोष-अचित्तवस्तु सचित्तसे ढांकी हुइ हो , [ ३७ ] मिसीयेदोष-सचित्त अचित्त वस्तु सामिल हो , [३८] अपरिणियेदोष-शस्त्र पूरा नहीं लागा हो अर्थात् जो नलादि सचित्तषस्तु है उनोंको अग्न्यादि शस्त्र पूरा न लगा हो,, [३९] सहारियेदोष-एक वर्तनसे दुसरे वर्तनमें लेके देवे Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टप्रवचन. ( २३३) यह कटोरी कुडछी लीप्त पडी रहने से जीवोंकि विराधना होती है और धोने से पाणीके जीवोंकी विराधना हो ,, [४०] दायगोदोष-दातार अगोपांगसे हिन हो, अंधा हो जिनसे गमनागमनमें जीव विराधना होती हो,, [४] लीत्तूदोष-तत्कालका लिपा हुवा आंगण हो ,, [४२] छंडियेदोष-घृतादिके छोटे टीपके पडते देवे ,, [ख] यह दश दोष मुनि गृहस्थों दोनोंके प्रयोग से लगते है वास्ते दोनोको ख्याल रखना चाहिये। एवं ४२ दोष श्री आचारांग सूयगडायांग तथा निशिथ सूत्रोंमें और विशेष खुलासा पिंड. नियुक्तिमें है। प्रसंगोपात अन्य सूत्रों से मुनि भिक्षाके दोष लिखे जाते है। श्री आवश्यकसूत्रमें [१] गृहस्थोंके घरका कमाड दरवाजा खुलाके तथा कुच्छ खुला हो उनोंके अन्दर जा के भिक्षा लेना मुनियोंके लिये दोषित है [२] कीतनेक देशोम पहले उत्तरी हुइ रोटी तथा घाट खीच चावल अग्रभागका गौ कुत्तादिकों डालते है वह लेना मुनिको दोषित है [३] देव देवीके बलीका आहार लेना दोषित है [४] विगर देखी हुइ वस्तु लेना दोष है [५] पहले निरस आहार आया हो पीच्छे से कीती गृहस्थोंने सरसा— हारकि आमंत्रण करी हो वह लोलुपतासे ग्रहन करते समय विचार करे कि अगर आहार बड जावेगें तो निरस आहार परठ देगें तो दोषित है. कारण आहार परठनेका बड़ा भारी प्रायश्चित्त है. श्री उत्तराध्ययनजीसूत्र-- [१] अज्ञात कुलकि भिक्षा न करके अपने सजन संबंधी. योंके वहांकि भिक्षा करना दोष है २] मकारण याने विनों कारण आहार करना भी दोष है वह कारण छ प्रकारके है शरीर में रोगादि होने से, उपसर्ग होने से ,, ब्रह्मचर्य न पलता हो तो Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३४) शीघ्रबोध भाग ४ था. जीव रक्षा निमित्त तपश्चर्या निमित्त और अनसन करने नि... मित्त इन छे कारण से आहारका त्याग कर देना चाहिये । और छे कारण से आहार करना कहा है क्षुधा वेदना सहन नही हो सके, आचार्यादिकि व्यावच्च करना हो, इ सोधनेके लिये, संयम यात्रा निर्वाहानेको, प्राणभूत जीव सत्वकि रक्षा निमित्ते, धर्मकथा कहनेके लिये इन छे कारणों से मुनि आहार कर सक्ते है । श्री दशवैकालिक सूत्रमें [१] निचा दरवाजा हो वहां गौचरी जानेमें दोष है का. रण सिरके लग जावे पात्रा विगेरे फूट जानेका संभव है। [२] जहांपर अन्धकार पडता हो वहां जानेमें दोष है. [३] गृहस्थों के घर द्वारपर बकरे बकरी [४] बचे बची [५] श्वान कुत्ते [६] गायोंके वाछरू बेठे हो उनोंको उलंगके जाना दोष है। कारण वह भीडके-भय पामे इत्यादि [७] औरभी कोइ प्राणी हो उनोको उलंघके जानेसे दोष है कारण यहां शरीर या संयमकि घात होनेका प्रसंग आ जाते है। [८] गृहस्थोंके वहां मुनि जानेके पहले देनेकि वस्तुवों आधी-पाछी कर दी हो संघटेकि वस्तुवों इधर उधर रख दो हो वह लेने में दोष है। [९] दानके निमित्त बनाया हुवा भोजन [१०] पुन्यके निमित्त [११] वणिमग्ग-रांकादिके [१२] श्रमण शाक्यादिके निमित्त इन च्यारोक लिये बनाया हवा भोजन मुनि ग्रहन करे तो दोष । अगर गृहस्थ उन निमित्तवालोंको भोजन कराके बचा हुवा आहार अपने घरमें खाते पीते हो तो उनोंके अन्दर से लेना मुनिको कल्पता है कारण वह आहार गृहस्थोंका हो चुका है। [१३] राजाके वहांका बलीष्टाहार तथा राज्याभिशेक स. Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टप्रवचन. . ( २३५) मयका आहार ( शुभाशुभ निमित्त ) या राजाके बचीत आहार में पंडालोगोंके भाग होते है वास्ते अन्तरायका कारण होनेसे दोष है। [१४] शय्यातर-मकानके दातारका आहार लेनेसे दोष. [१५] नित्यपंड-नित्य एक ही घरका आहार लेना दोष. [१६] पृथ्व्यादिके संघटे से आहार लेना दोष है । [१७ ] इच्छा पुरण करनेवाली दानशालाका आहार लेना,, [१८] कम खाने में आवे ज्यादा परठना पडे एसा आहार,, [१९] आहार ग्रहन करने के पहले हस्तादि धोके तथा आ. हार ग्रहन करने के बाद सचित्त पाणी आदिसे हाथ धोवे एसा आहार लेना दोष है। . [२०] प्रतिनिषेध कुल स्वल्पकालके लिये सुवासुतक जन्म मरण वाले कुलमें तथा जावजीव-चंडालादि कुलमें गौचरी जाना मना है अगर जावे तो दोष है। [२१] जास कुलमें ओरतोंका चाल चलन अच्छा न हो एसे अप्रतितकारी कुलमें मुनि गौचरी जावे तो दोष है। [२२] गृहस्थ अपने घरमें आनेके लिये मना करदो हो कि . मेरे घर न आना एसे कुल में गौचरी जाना दोष है। [२३] मदिरापान लेना तथा करना महा दोष है। श्री आचारांगसूत्र - (१) पाहुणों के लिये बनाया आहार जहांतक पाहुणा भोजन नहीं किया हो वहांतक वह आहार लेना दोष है। ( २ ) त्रस जीवका मांस बिलकुल निषेध है। • (३) जिस गृहस्थों के पैदाससे आधा भाग तथा अमुक भाग पुन्यार्थ निकालते हो उनोंसे अशनादि देवे वह भी दोष है । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३६ ) शीघ्रबोध भाग ४ था . ( ४ ) जहां बहुत मनुष्योंके लिये भोजन किया हो तथा न्याति सबन्धी जीमणवार हो वहां आहार ले तो दोष है। (५) जहां पर बहुत से भिक्षुक भोजनार्थी एकत्र हुवे हो उन घरोंमें जा के आहार ले तो दोष [ अविश्वास हो ] (६) भूमिगृह तैखानादिसे निकालके आहार देवे तो दोष [७] उष्णादि आहारको फूंक दे आहार दे तो भी दोष है । [८] वींजणादि से शीतल कर आहार दे तो भी दोष है । श्री भगवती सूत्र में [१ लाये हुवे आहारको मनोज्ञ बनाने के लिये दूसरी दफे जेसे दूध आ जानेपर भी सकरके लिये जाना इसे संयोग दोष कहते है । [ २ ] निरस आहार मीटनेपर नफरत लाके करना इसीसे चारित्र कोलसा हो जाते है [ ऋषका कारण ] [ ३ ] सरस मनोज्ञ आहार मीलनेपर गृद्धि बन जाये तो चारित्रसे धूंवा निकल जावे [ रागका कारण ] [ ४ ] प्रमाणसे अधिकाहार करनेसे दोष, कारण आलस्य प्रमाद अजीर्णादि रोगोत्पत्तिका कारण है। [ ५ ] पहले पहोरमें लाया हुवा आहारादि चरम पेहर भे भोगवने से कालातिकृत दोष लगते हैं । [६] दो कोश उपरान्त ले जाके आहार करने से मार्गातिकृत दोष लगता है । [७] सूर्योदय होनेके पहले और सूर्य अस्त होनेके पीछे अशनादि ग्रहन करना तथा भोगवना दोष है । [८] अटवी विगेरेमें दानशालाका आहार लेना दोष । [९] दुष्कालमें गरीबोंके लिये किया आहार लेना दोष । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टप्रवचन. ( २३७ ) (१०) ग्लोंनोंके लिये किया आहार लेना दोष । (११) बादलों में अनाथोंके लिये बनाया आहार लेना दोष. ( १२ ) गृहस्थ नेताकि तोर कहे कि हे स्वामिन् आज हभारे घरे गोचरीको पधारो इस माफीक जावे तो दोष । श्री प्रश्नव्याकरण सूत्रमें - (१) मुनिके लिये रूपान्तर रचना करके देवे जेसे नुकती दानोंका लड्डु बना देवे इत्यादि तो दोष है । ( २ ) पर्याय बदल के - जेसे दहीका मठ्ठा राइता बनाके देवे (३) गृहस्थों के वहां अपने हाथों से आहार लेवे तो दोष. (४) मुनिके लिये अन्दर ओरडादि से बाहार लाके देवे तो दोष । (५) मधुर मधुर वचन बोलके आहारादिकि याचना करे. श्री निशिथ सूत्र - ( १ ) गृहस्थोंके वहां जाके पुच्छे कि इस वर्तनमें क्या है ? इस्में क्या है एसी याचना करने से दोष है । ( २ ) अटवीमें अनाथ मजुरीके लिये गया हुवा से याचना कर दीनता से आहार ले तो दोष है । (३) अन्यतीर्थी जो भिक्षावृत्ति से लाया हुवा आहार है उनों से याचना कर आहार ले तो दोष है । ( ४ ) पासत्थे शीथिलाचारीयों से आहार ले तो दोष । ( ५ ) जीस कुलमें गोचरी जावे वह लोग जैन मुनियोंकि दुर्गच्छा करे एसे कुलमें जाके आहार ले तो दोष । (६) शय्यातरकों साथ ले जाके उनोंकि दलाली से अशानादिकि याचना करना दोष है । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३८) शीघ्रबोध भाग ४ था. - श्री दशाश्रुतस्कन्ध सूत्रमें (१) बालकके लिये बनाया हुवा आहार मुनि लेवे तो दोष है कारण बालक रोने लग जावे हठ पकड लेवे। (२) गर्भवन्तीके लिये बनाया आहार लेवे तो दोष । । श्री वृहत्कल्पसूत्र में (१) अशांन, पान, खादिम, स्वादिम यह च्यार प्रकारके आहार रात्री में वासी रखके भोमवे तो दोष । एवं ४२-५-२-२३-८-१२-५-६-२-२ सर्व १०६ जिस्में पांच दोष मांडलेके और १०१ दोष गोचरी लानेका है. द्रव्यसे इन दोषोंको टाले। (२) क्षेत्रसे दो कोश उपरान्त ले जाके नही भोगवे (३) कालसे पहिलापहर का लाया चरमपहर में न भोगवे । (४) भावसे मांडलेके पांच दोष. संयोग, अंगाल, धूम, परिमाण, कारण इनी दोषों कों वर्ज के आहार करे उनसमय सरसराट चरचराट न करे स्वादके लिये एक गलाफका दुसरी गलाफमें न लेवे टेरा टीपके न डाले केवल संयम यात्रा निर्वाहने के लिये. गाडा के भांगण तथा गुमडेपर चगती कि माफीक शरीर का निर्वाह करने के लिये ही आहार करे| आहार पाणी के दोष दो प्रकार के होते हे। (१) आम दोष जोकि आम दोषवाला आहार पात्रमें आजावे तो भी परठने योग्य होते है। (२) गन्ध दोष जोकि सामान्य दोषीत आहार अनोपयोगसे आ जावे तो उनोकि आलोचना लेके भोगवीया जाते है । आम दोषवाला आहार बारहा प्रकारके है शेष गन्ध दोषवाला आहार समझना। आधाकर्मी उद्देसीक पूतिकर्म, मिश्र, सूर्योदय पहलेका, सूर्यास्त पीच्छेका, कालातिक्रमका, मार्गातिक्रमका, ओछामें अ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टप्रवचन. ( २३९ ) धिक किया हुवा, शंकावाला, मूल्य लाया हुवा, सचित्त पाणाकी खुन्द जो शीतल आहारमें गीर गइ है वह इति । एषणा समिति । ( ४ ) आदान मत्त भंडोपगरणीय समिति के प्यार भेद है द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव. द्रव्य से संयम यात्रा निर्वाहनेकों वखपात्रादि भंडोमत्तो पगरण रखा जाते है उनोंकि संख्या । (१) रजोहरण - जीवरक्षा निमत्त तथा जैन मुनियोंका वन्ह इनकों शास्त्रकारोने धर्मध्वज कहा है वह आठ अंगुलकि दसीयों चौवीस अंगुल कि दंडी कुल ३२ अंगुलका रजोहरण होनाचाहिये। (२) मुखवत्रिका - मक्खी मच्छरादि त्रस जीवों कि बोलत समय विराधना न हो या सूत्रादिक पर थुक से अशातना न हो. बोलते समय मुंह आगे रखनेकों एकविलस च्यार अंगुल समचोरस होना चाहिये । (३) चोलपट्टा-कटीबन्ध पांच हाथका होता है । (४) चदर - मुनियोंकों तीन साध्वीयोको च्यार । (५) कम्बली - जीवरक्षानिमत्त, गमनागमन समय शरीर आच्छादन करनेकों चतुर्मास में छेघडी, शीतकालमें प्यार घडी, उष्णकालमें दो घडी पाछला दिनसे उक्त काल दिन उगणे के बाद कम्बली रखना चाहिये । (६) दंडो-मुनियोंकों अपने कान प्रमाणे दंडा संयम या शरीर रक्षणनिमित्त रखना चाहिये । (६) पात्रे - काष्टके बेके मट्टीके आहार पाणी लाने के लिये. एक बिलसके चाडे हो तीन विलास च्यारांगुलके परधीवाले । (८) झोली-पात्रे बन्ध जानेके बाद गांठसे च्यारों पले च्यारांगुल ज्यादा रहना चाहिये. आहार लेनेको । (९) गुच्छे उनके गुच्छे पार्थोके उपर नीचे देके जीवरक्षा के लिये पात्रा बन्धनेको रख जाते है । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४०) शीघ्रबोध भाग ४ था. (१०.) रजतान-पात्रे बन्धते समय बिचमें कपडे दिये जाते है जीवरक्षा तथा पात्रोंकी रथा निमित्त । . (११) पडिले-अढाइ हाथके लंबे, आधा हाथसे ज्यादा चोडे घट कपडेके ३-५-७ पडिले गोचरी जाते समय झोलीपर डाले जाते है. जीवरक्षा निमित्ते । (१२) पायकेसरी-पात्रे पुंजनेके लिये छोटी पुंजणी. जीवरक्षा निमित्त। (१३) मंडलो-आहार करते समय उनका वन-पात्रोके नीचे बीछाया जाते है, जिनसे आहार कीसी वरतीपर न गीरे. जीवरक्षाके निमित्त रखते है । (१४ ) संस्तारक-उनका २॥ हाथ लम्बा रात्री में संस्तारा -शयन समय विछाया जाता है। कंचवों और जंघीयों यह साध्वीयोंको शीलरक्षा निमित्त रखा जाते है, इन सिवाय उपग्रहा ही उपगरण जो कि ज्ञाननिमित्त -पुस्तक पाने कागज कल्म सहि आदि। दर्शननिमित्त-स्थापनाचार्य स्मरणका आदि । चारित्रनिमित्त-दंडासन तृपणी लुणा गरणा आदि । (१) द्रव्यसे इन उपगरणोंको यत्नासे ग्रहन करे, यत्नासे रखे, यत्नासे काममें ले-वापरे-भोगवे ।। (२) क्षेत्रसे सब उपकरण यथायोग योग्यस्थानकपर रखे. न कि इधर उधर रखे सो भी यत्नापूर्वक । (३) कालोकाल प्रतिलेखन करे. प्रतिलेखन २५ प्रकारको है जिसमें बारह प्रकारकी प्रशस्त प्रतिलेखन है। १ प्रतिलेखन समय पत्रको धरतीसे उंचा रखे। २ प्रतिलेखन समय वस्त्रको मजबुत पकडे । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टप्रवचन. ( २४१) ३ उतावला-आतुरतासे प्रतिलेखन न करे। ४ वस्त्रके आदि अन्त तक प्रतिलेखन करे। इन च्यार प्रकारको प्रतिलेखनकों दृष्टिप्रतिलेखन कहते है। ५ वरपर जीव चढ गया हो तो उसे थोडासा खंखेरे। ६ खंखेरनेसे न निकले तो रजौहरणसे पुंजे । ७ धन या शरीरकों हीलावे नहीं। ८ पत्रके शल पड जानेपर मसले नही भट न देवे। ९ स्वल्प भी वस्त्र विगर प्रतिलेखन कीया न रखे। १० ऊंचा नीचा तीरछा भित विगेरेके अटकावे नहीं। ११ प्रतिलेखन करते जीवादि दृष्टिगोचर हो तो यत्नापूर्वक परठे। १२ वस्त्रादिको झटका पटका न करे। . इनको प्रशस्त प्रतिलेखन कहते है अन्य अप्रशस्त कहते है, जलदी जलदी करे, वस्त्रकों मसले, उंचा नीचा अटकावे, भीत जमीनका साहारा लेवे, वनको झटकावे, वन इधर उधर तथा प्रतिलेखन किया हुवा-विगर किया हुवा सामिल रखे, वेदिका ठीक न करे याने एक गोडेपर दोनों हाथ रख प्रतिलेखन करे, दोनों हाथ गोडोंसे निचे रखे, दोनों हाथ गोडोंसे उंचे रखे, दोनों हाथ गोडोंके भीतर रखे, एक हाथ गोडोंके अन्दर एक बहार यह पांच वैदिक दोष है । दोनों हाथ गोडोंसे कुच्छ उंचा रखना शुद्ध है ) धनकों अति मजबुत पकडे, वस्त्रको बहुत लम्बा करे. वन जमीनसे रगडे, एक ही वख्त में संपूर्ण वस्त्रकी प्रतिलेखन करे, शरीर वस्त्रकों वारवार हलावे, पांच प्रकारके प्रमाद करता-हुधा प्रतिलेखन करे. इन बाराह प्रकारको प्रतिलेखनकों अप्रशस्त कहते है. एवं २४ प्रतिलेखन करतां शंका पडनेसे Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४२) शीघ्रबोध भाग ४ था. - गीणती करे, उपयोगशुन्य हो एवं २५ प्रकारको प्रतिलेखन हुइ. इससे न्युन भी न करे, अधिक भी न करे, विप्रोत न करे, जिस्के विकल्प आठ है। सं. ज्यादा. कम. विप्रीत. | सं. ज्यादा. कम. विप्रीत. १ नकरे नकरे नकरे ५ करे नकरे नकरे २ करे नकरे करे ६ करे नकरे करे : ३ नकरे करे नकरे । ७ करे करे नकरे ४ नकर करे करे । ८ करे' करे करे इन आठ भांगासे प्रथम मांगा विशुद्ध है, सात भांगा अशुद्ध है. प्रतिलेखन करते समय परस्पर पाते न करे, च्यार प्रकारको विकथा न करे, प्रत्याख्यान न करे न करावे, आगमवाचनालेना, आगमवाचना देना. यह पांव कार्य न करे अगर करे तो छे कायाके विराधक होते है। . (४) भावसे भंड उपगरणादि ममत्वभाव रहित वापरे, संयमके साधन-कारण समझे। (५) परिष्टापनिका समितिके च्यार भेद है. द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव. जिस्में द्रव्यसे मल, मूत्र, प्रलेष्मादि बड़ी चातुर्यसे परठे. कारण प्रगट आहार-निहार करने से मुनि दुर्लभवोधि होता है। (१) कोह आवे नही देखे नही वहां जाके परठे। (२) कोसी जीवोंको तकलीफ या घात न हो वहां परठे। (३) विषम भूमि हो वहांपर न परठे (४) पोली भूमि हो वहां न परठे कारण निचे जीवादि. (५) सचितभूमिका हो वहाँ न परठे। [ होतो मरे । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टप्रवचन. ( २४३) (६) विशाल लम्बी चोडी हो वहां जाके परठे। (७) स्वल्प कालकि अचित भूमि हो वहां न परहे। (८) नगर ग्रामके नजदीक न परठावे । (९) मृषादिके बील हो वहांपर न परठे। (१०) जहां निलण फूलण त्रस प्राणी ही वहां न परठे। इन दशों स्थानोंका विकलप १०२४ होते है जिस्मे १०२३ विकल्प तो अशुद्ध है मात्र १ भांगा विशुद्ध है जहांतक बने वहां तक विशुद्धिकि खप करना चाहिये। (२) क्षेत्रसे मुनियोंकों मल मात्र जंगल नगरसे दुर जाना चाहिये जहां गृहस्थ लोग जाते हो वहां नहीं जाना चाहिये. नगरके बाहार ठेरे होतों नगरमे तथा नगरके अन्दर ठेरे होतों गृहस्थोंके घर में जाके नहीं परठे। (३) कालसे कालोकाल भूमिकाकी प्रतिलेखन करे। (४) भावसे पंजी प्रतिलेखी भूमिकापर टी पैशाब करते समय पहिले आवस्सही तीन दफे कहे 'अणुजाणह जस्सग्गो' आज्ञालेवे परठने के बाद वोसिरामि' तीन दफे कहे पीछा आति बख्त निसिही' शब्द कहे स्थानपर आके इर्यावहि याने आलोचना करे इति समिति. (१) मनोगुप्तिका चार भेद. द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, द्र. व्यसे मनको सावध-सारंभ समारंभ आरंभमे न प्रवर्तावे. क्षेत्रसे सर्वत्र लोकमें. कालसे जाव जीवतक. भावसे मन आते रोद्र वि. षय कषायमें न प्रवावे. (२) बचनगुप्तिका चार भेद. द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, द्रव्यसे चार प्रकारको विकथा न करे. क्षेत्रसे सर्वत्र लोकमें. कालसे जाव जीवतक. भाषसे राग द्वेष विषयमें पचन न प्रववे सावधन बोले. Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४४ ) शीघ्रबोध भाग ४ था. (३) कायगुप्तिका चार भेद. द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, . . द्रव्यसे खाजखुने नहीं. मैल उतारे नहीं. थुक थूके नहीं. आदि शरीरकी शुश्रूषा न करे, क्षेत्रसे सर्वत्र लोकमें. कालसे जावजीव तक. भावसे कायाको सावधयोगमें न प्रवर्तावे. इति तीन गुप्ति, सेवं भंते सेवं भंते-तमेवसचम्. थोकडा नम्बर ३३ (३६ बोलोंका संग्रह) १ ) असंयम, यह संग्रह नयका मत है। । २) बन्ध दो प्रकारका है (१) रागबन्धन (२ द्वेषबन्धन (३) दंड ३ मनदंड, वचनदंड, कायदंड, ३ गुप्ति-मनगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति. ३ शल्य-मायाशल्य, नियाणाशल्य, मिथ्याशल्य. ३ गार्व-ऋद्धिगाव, रसगाव सातागावं. ३ विराधना-ज्ञान विराधना, दर्शन विराधना, और चारित्र विराधना. (४) चार कषाय - क्रोध, मान, माया, लोभ. ४ विकथास्त्रीकथा, राजकथा, देशकथा, भक्तकथा. ४ संज्ञा-आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा. ४ ध्यान-आतेध्यान, रोद्रध्यान, धर्मध्यान, शुक्लध्यान. (५) पांच क्रिया-काईया, अधिगरणिया, पाउसिया, परितापणिया, पाणाईवाईया. पांच कामगुण-शब्द, रुप, गन्ध, रस, स्पर्श । ५ समिमि-इर्यासमिति, भाषासमिति. एषणासमिति, आदान भंडमत निक्षेपणासमिति, उच्चार पासवण जलखेलमेल संघयण परिष्टापनिका समिति । ५ महाव्रत--सव्वाओ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ बोल. (२४५) पाणाईवायाओ वेरमणं, सव्वाओ मृषाओ वायाओ वेरमणं, सव्याओ अदीनादानाओ वेरमणं, सव्वाओ मेहुआणो वेरमणं, सव्वाओ परिगाहो वेरमणं । (६) छे काय-पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, त्रसकाय । छ लेश्या-कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजसलेश्या पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या।। (७) सात भय-आलोक भय, परलोक भय, आदान भय, अंकश मात्र भय, मरण भय, अपयश भय, आजीवका भय । (८) आठ मद-जातीमद, कुलमद, बलमद, रूपमद, तप मद, सूत्रमद, लाभमद, ऐश्वर्यमद। (९) नौ ब्रह्मचर्यगुप्ति-स्त्री पशु नपुंसक सहीत उपाश्रय में न रहे । यथा बिल्ली और मूषकका दृष्टांत १ स्त्रियोंकी कथा वारता न करे । यथा नीबूकी खटाईका दृष्टांत २ स्त्री जिस आसनपर बैठी हो उस आसनपर दो घडीसे पहिले न बठे। अगर बैठे तो तपी हुई जमीन पर ठसे हुवे घृतका दृष्टांत । ३ बीके अंगोपांग इन्द्रिय वगेरहन्न देखे। जैसे कञ्ची आंख और सूर्यका दृष्टांत । ४ विषयभोगादि शद्रोंको भीत, ताटा, कनात आदिके अन्तरसेभी न सुने । यथा गजवीज समय मयूरका दृष्टांत। ५ पर्व (गृहस्थाश्रम ) के कामभोगको याद न करे। इसपर पंथिक और डोकरीके छासका दृष्टांत । ६ प्रतिदिन सरस आहार न करे । अगर करे तो सन्निपातका रोगमे दूध मिश्रीका दृष्टांत । ७ प्रमाणसे अ. धिक आहार न करे। जैसे सेरकी हंडीमें सवासेर पकाना (रा. धना) का दृष्टांत ८ शरीरकी शुश्रुषा विमूषा न करे। अगर करे तो काजलकी कोठरी में सफेद कपडेका दृष्टांत ९ १०) दश यति धर्म-खंते ( क्षमा करना ) मुत्ते (निलो. भता) अज्जवे । सरलता) मद्दवे ( मदरहित) लाघवे (द्रव्य Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४६) शीघ्रबोध भाग ४ था. . भावसे हलका) सच्चे ( सत्य वोले०) संयमे (१७ प्रकार संयम पाले ) तवे (१२ प्रकारका तप करे ) चईए ( ग्लानिमुनिको आहार प्रमुख लादे ) बंभचेरे (ब्रह्मचर्य पाले) (११) इग्यारा श्रावक प्रतिमा ( अभिग्रह विशेष । दर्शन प्रतिमा, व्रतप्रतिमा, आवश्यकप्रतिमा, पौषधप्रतिमा, एकरात्रीप्र. तिमा, ब्रह्मचर्यप्रतिमा, सचित्तप्रतिमा, आरंभप्रतिमा, सारंभ प्रतिमा, अट्ठिभूतप्रतिमा, श्रमणमूतप्रतिमा, विस्तारमें शीघ्रबोध भाग २० वा में. (१२) बाराहों भिक्षुप्रतिमा. क्रमशः सातों प्रतिमा एकेक मासकि है, आठवी प्रथम सात रात्री, नौवी दुसरे सात रात्री, दशवी तीसरे सात रात्रीकी, इग्यारवी दो रात्रीकी, बारहवी एक रात्रीकि महाप्रतिमा इनका भी सविस्तर वर्णन शीघ्रबोध भाग २० पृष्ट में देखो। (१३) तेरहा क्रिया. अर्थदंड क्रिया, अनर्थदंडक्रिया, हिंसादंड, अंकशमात्र, अजत्थदोषवत्तिया, पेजवत्तिया, मित्रदोपवत्तिया, मोसवत्तिया, अदत्तवत्तिया, मानवत्तिया, माया० लोभ० इर्यावहिक्रिया. (१४) जीवके चौदे भेद -सूक्ष्मएकेन्द्री, बादरएकेन्द्री, बेइन्द्री, तेइंद्री, चौरेन्द्रि, असन्नीपंचेन्द्री, सन्नीपंचेन्द्री इन सातों का पर्याप्ता अपर्याप्ता गणने से चौदे भेद हुवे. (१५) पनरह परमाधांमी देवता-आंग्रे, अनरसे, सांवे, सबले, रुद्धे, विरुद्धे, काले, महाकाले, असीपति. घणु, कुंभे, वालु वैतरणी, खरखरे, महाघोषे. (१६) सुयगडांगसूत्रके प्रथम स्कंधका सोलह अध्ययनस्वसमय परसमय, वेताली, उपसर्गप्रज्ञा, श्रीप्रज्ञा, नरक० वीरस्थुई० कुसीलप्रवास. धर्मपन्नति वीर्य० समाधी० मोक्षमार्ग० Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ बोल. ( २४७) समोसरण० यथास्थित० ग्रन्थ अध्ययन० यमतिथि अध्ययन गहा अध्ययन (१७) सतरह प्रकारे संयम-पृथ्विकायसंयम, अप्पकाय तेउकाय वायुकाय० वनस्पतिकोय० बेइन्द्री० तेइन्द्री चौरिंद्री० पंचेन्द्री० अजीव प्रेक्षा० (जयणापूर्वक वर्ते बहुमूल्य वस्तु न वापरे) उपेक्षा. ( आरंभ तथा उत्सूत्रादि न प्ररुपे) पुंजणप्रतिलेखन० परठावणीय मन० वचन० काय० । १८ ) ब्रह्मचर्य १८ प्रकार-औदारिक शरीर संबंधी मैथुन (न सेवे) न करे न दूसरेसे करावे और न करतेको अच्छा समजे मनसे, वचन से, कायासे यह नौ भेद औदारिक से हुवे ऐसे ही नौ वैक्रियसे भी समज लेना एवम् १८ (१९) ज्ञातासूत्रका अध्ययन १९ मेघकुमार, धनासार्थवाह, मोरडीकाईडा, कूर्म-काच्छप, शैलकराजऋषीश्वर, तूंबडीके लेप का, रोहिणीजीका, मल्लीनाथजीका, जिनऋषीजिनपालका, चन्द्र माकीकलाका, दबदबावृक्षका, जयशत्रु राजा और सुबुद्धि प्रधान का, नन्दनमणीयारका, तेतलीप्रधान पोटलासोनारीका, नदीफल वृक्षका, महासती द्रौपदीका, कालोद्वीपके अश्चोंका, सुसमा वालकाका, पुंडरीकजीका. (२०) असमाधीस्थान-बीस बोलोंको सेवन करनेसे सं. यम असमाधी होते है। धमधम करते चले, विना पंजे चले, कहीं पूजे और कहीं चले, मर्यादासे उपरान्त पाट पाटलादिक भोगवे, आचार्योपाध्यायका अवर्णवाद बोले, स्थिवरकी धोत चिंतवे, प्रणमूतकी घात चिंतवे, प्रतिक्षण क्रोध करे, परोक्षे अबगुणवाद बोले, शंकाकारी भाषाको निश्चयकारी बोले, नया क्रोध करे, उपशमे हुधे क्रोधकों फीर उत्पन्न करे, अकालमें सझाय करे, सचित रजयुक्तपांबसे आसनपर बैठे, पेहररात्री पीछे दिन निक Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४८) शीघबोध भाग ४ था. ले वहांतक उंचे स्वरसे उच्चारण करे, मनसे जुंजकरे, वचनसे झुंजकरे, कायसे जुंजकरे, सूर्यके उदयसे अस्त तक लाउंखाउं करे, आहारपानीकी शुद्ध गवेषणा न करे तो असमाधी दोष लगे. ( २१ ) सवला- यह एकवीस दोषका सेवन करनेसे संय. मकी घातरूपी सबला दोष लगे. हस्तकर्म करतो० मैथुन सेवेतो. रात्रिभोजन करेतो० आधाकर्मी आहार करतो. राजपिंड भोगवेतो. पांच+ दोष सहित आहार करतो० वारंवार प्रत्याख्यान भांगेतो० दिक्षा लेकर छे महीना पहिले एक गच्छसे दूसरे गच्छमें जावेतो. एक मासमें तीन नदीका लेप लगावेतो. एक मासमें तीन मायास्थान सेवेतो सिज्ज्ञातरका पिंड (आहार भोगवेतो. आकूटी ( जानकर जीव मारेतो जानकर झूठबोले तो जानकर चोरी करतो. सचित्त पृथिवी उपर वैठे जीवको उपसर्ग करेतो. स्निग्ध पृथिवीपर वैठके जीवको उपद्रव करेतो० प्राण मूत जीव सत्ववाली धरतीपर बैठेतो० दशजातकी हरी वनास्पति खावेतो. एक वर्ष में दश नदीका लेप लगावेतो. एक वर्ष में दश मायास्थान सेवेतो सचित पानी पृथ्वी आदि लगेहुवे हाथसे आहारपांनी लेतो सबला दोष लागे । ( २२ ) वावीस परिसह-क्षुधा, पीपासा, शीत, उष्ण, डांस, ( मच्छर ) अचेल ( वनरहित ) अरति, स्त्री, सिझाय, चर्या ( चलना) निसिया, ( बैठना ) आक्रोश, वद्ध याचना, अलाम, रोग, तृणस्पर्श, जलमेल, सत्कार, प्रज्ञा, अज्ञान, और दर्शन परिसह. (२३) सुयगडांगसूत्र के पहले दूसरे श्रुत स्कंधके २३ अध्ययन जिसमें पहिले श्रुत स्कंधके १६ अध्ययन सोलहये वोलमें लिखआये + पांच दोष-उदेसिक, कृतगड, पामीचे, अलीज, अगिासीटे. Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ बोल. ( २४९) है. और दूसरे श्रुत स्कंधके सात अध्ययन-पुष्करणीवावडीका० क्रियाका० भाषाका० अनाचारका आहारप्रज्ञा० आर्द्रकुमारका. उदक पेडालपुत्रका एवं २३ ( २४ ) चौवीस तीर्थकर-ऋषभदेवजी, अजीत, संभव, अभिनंदन, सुमती, पद्मप्रभु, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभु, सुविधि, शीतल, श्रेयांस, घासुपूज्य. विमल, अनन्त, धर्म, शान्ति, कुन्थु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि, पाव, वर्धमान एवं २४ तथा देवता-दश भुवनपति, आठ वाणव्यंतर, पांच ज्योतिषि, एक वैमानिक. एवं २४ देव। ( २५ ) पांच महाव्रतकी पचवीस भावना (संयमकी पुष्टी ) यथा पहिले महाव्रतकी पांच भावना-ई भावना, मनभावना, भाषाभावना, भंडोपगरण यत्नापूर्वक लेने रखनेकि भावना, आहारपानीकी शुद्ध गवेषणा करना भावना ॥ दूसरे महाव्रतकी पांच भावना-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव देखकर विचार पूर्वक बोले, क्रोधके बस न बोले (क्षमा करे ) लोभवस न बोले, (सन्तोष रखे ) भयवस न बोले ( धैर्य रखे) हास्यवस न बोले ( मौन रखे) ॥ तीसरे महाव्रतकी पांच भावना-विचार कर अ. विग्रह ( मकानादिकी आज्ञा ) ले, आहारपानी आचार्यादिककी आज्ञा लेकर वापरे, आज्ञा लेतां कालक्षेत्रादिककी आज्ञा ले, सा. धर्मीका भंडोपगरण पापरे तो रजा लेकर वापरे, ग्लानी आदिक की वैयावश्च करे ॥ चौथे महाव्रतकी पांच भावना-वारंवार बीके श्रृंगारादिककी कथा वार्ता न करे, वीके मनोहर इन्द्रियों को न देखे, पूर्वमें किये हुवे काम क्रीडाओंको याद न करे, प्रमाण · उपरान्त आहारपानी न वापरे, खीपुरुष नपुंसकवाले मकानमें न रहे ॥ पांचवे महाव्रतकी पांच भावना-विषयकारी शब्द न Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५०) शीघ्रबोध भाग ४ था. सुने, विषयकारीरुप न देखे, विषयकारी गन्ध न ले, विषयकारी रस न भोगवे, विषयकारी स्पर्श न करे. (२६) दशाश्रुतस्कंधकादश अध्ययन, व्यवहारसूत्रका दशअ. ध्ययन, बृहत्कल्पका छे अध्ययन, कुल मिलाकर २६ अध्ययन हुवे. (२७ ) मुनि के गुण सत्तावीस-पांच महाव्रत पाले, पांच इन्द्रिय दमे, चार कषाय जीते, मनसमाधी, वचनसमाधी, काय. समाधी, नाणसंपन्ना, दर्शनसंपन्ना, चारित्रसंपन्ना, भावसच्चे, करणसच्चे, योगसच्चे, क्षमावंत, वैराग्यवंत, वेदनासहे, मरणका भय नही, जीनेकि आशा नहीं. (२८) आचारांग कल्पका २८ अध्ययन-आचारांग प्रथम श्रुतस्कंधका नौ अध्ययन-शस्त्रप्रज्ञा, लोकविजय, शीतोष्ण. समकितसार. लोकसार, धुत्ता, विमुखा, उपाधान, महाप्रज्ञा ॥ दूसरे श्रुतस्कंधका १६ अध्ययन-पंडेषणा, सजाएषणा, इर्याएषणा, भाषापषणा, वस्त्रेषणा, पात्रेषणा, उग्गपडिमा, उच्चारशतकी. या, ठाणशतकीया, निसिहाशतकीया, शब्दशतकीया, रुपशतकीया, अन्योन्यशतकीया, प्रक्रीयाशतकीया, भावना अध्ययन, विमुत्ति अध्ययन ॥ निशिथसूत्रके तीन अध्ययन-उग्धाया ( गुरु प्रायश्चित् ) अनुग्धाया ( लघु प्रायश्चित् । आरोपण (प्रायचित्त देने की विधि पापसूत्र-भूमिकंप, उप्पाए, ( आकाशमें उत्पातादिक) सुपन ( स्वप्ना) अंगे ( अंग स्फुरण) स्वरं ( चन्द्रसूर्यादिक) अंतलिख्खे (आकाशादिम चिन्ह ) व्यंजन ( तिलमसादि) लख्खण ( हस्तादिकी रेखा वगेरे ) ये आठ सूत्रसे, आठ वृत्तिसे और आठ सूत्रवृत्ति दोनोंसे, एवम् चोवीस, विकाणुयोग, विजाणुयोग, मंत्राणुयोग, योगाणुयोग, अणतित्यीय पवत्ताणुयोग २९ ॥ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ बोल. (२५१) ( ३. ) महा मोहनियबंधका कारण तीस-१ स जीवोंकों पानीमें डुबाकर मारनेसे महा मोहनियकर्म बांधे, २ स जीवोंको श्वास रोकके मारे तो०३ स जीवोंकों अग्निमें या धूप देकर मारे तो०४ त्रस जीवों को मस्तकपर चोट देकर मारे तो० ५ त्रस जीवौको मस्तकपर चमडे वगेरेका बंधन देकर मारे तो०६ पागल (घेला) गंगा बावला ( चित्तभ्रम । वगेरेकी हांसी करे तो. ७ मोटा ( भारी ) अपराधको गोपकर ( छिपाकर ) रखे तो० ८ अपना अपराध दूसरेपर डाले तो० ९ भरीसभाम मिश्रभाषा बोले तो० १० राजाकी आती हुइ लक्ष्मी रोके या दाणचोरी करे तो० ११ ब्रह्मचारी न हो और ब्रह्मचारी कहावे तो० १२ बाल ब्रह्मचारी न हो और बालब्रह्मचारी कहावे तो० १३ जिसके प्र. योगसे अपनेपर उपकार हुवा हो उसीका अवगुण बोले तो० १४ नगरके लोगोंने पंच बनाया वह उसी नगरका नुकसान करे तो० २५ स्त्री भरतारको या नौकर मालिकको मारे तो०१६ एक देश के राजाकी घात चिंतवे तो० १७ बहुत देशोंके राजावोंकि घात चिंतवे ता. १८ चारित्र लेनेवालेका परिणाम गिरावे तो० १९ अरिहंतका अवर्णवाद बोले तो० २० अरिहंतके धर्मका अवर्णवाद बोले तो २१ आचार्योपाध्यायका अवर्णवाद बोले तो २२ आचार्योपाध्याय ज्ञान देनेवालेकी सेवाभक्ति यशः कीर्ति न करे तो० २३ बहुश्रुति न होकर बहुश्रुति नाम धरावे तो० २४ तपस्वी न होकर तपस्वी नाम धरावे तो० २२ ग्लानीकी व्यावञ्च टेहल चाकरी ) करनेका विश्वास देकर वैयावच्च न करे तो० २६ चतुर्विधसंघमें छेदभेद करे तो० २७ अधर्मकी प्ररुपणा करे तो० २८ मनुष्य, देवतोंके कामभोगसे अतप्त हो• कर मरे तो० २९ कोई श्रावक मरके देवता हुवा हो उसका अवर्णवाद बोले तो० ३० अपने पास देवता न आते हो और कहे कि मेरे पास देवता आता है तो महा मोहनियकर्म बांधे. Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५२) शीघ्रबोध भाग ४ था. उपरोक्त तीस बोलोंमें से कोई भी बोलका सेवन करनेवाला ७० कोडाकोडी सागरोपम स्थितिका महा मोहनियकर्म बांधे. (३१) सिद्धोंके गुण ३१ ज्ञानावणिय कर्म कि पांच प्रकृति क्षय करे यथा-मतिज्ञानावर्णिय, श्रुतज्ञा० अवधिज्ञा० मनःपर्यव ज्ञा केवलज्ञानावणिय दर्शनावर्णियकर्मकी नौ प्रकृति क्षय करे यथा-चक्षुदर्शणावणिय, अचक्षुद अवधिद० केवलद० निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला, थीणद्धी, वेदनिकर्मकी दो प्रकृति क्षय करे-शाता वेदनिय, अशाता वेदनिय, मोहनियकर्मकी दो प्रकृति-दर्शनमोहनी, चारित्रमोहनी आयुष्यकर्मकी चार प्रकृति-नारकी, तिर्यच. मनुष्य, देवताका आयुष्य नामकर्मकी दो प्रकृति-शुभनाम, अशुभनाम, गोत्र. कर्मकी २ प्रकृति-उच्चगोत्र, निश्चगोत्र और अंतरायकर्मकी पांच प्रकृति-दानांतराय, लाभांतराय, भोगांतराय, उपभोगांतराय, वियाँतराय. एवं ३१ प्रकृति क्षय होनेसे ३१ गुण प्रगट हुवे है. (३२) योगसंग्रह-मोक्षके लिये आलोचना देनी, आलोचन देनेवाले सिवाय दुसरेको न कहना, आपत्तीकालमें भी दृढता धारण करनी, किसीकी सहायता विना उपधानादि तप करना, गृहण आसेवना शिक्षा धारणकरनी, शरीरकी सालसंभाल न करनी, गुप्त तपस्या करनी, निर्लोभ रहना, परिषह सहन करना, सरल भाव रखना, सत्यभाव रखना, सम्यक्दर्शन शुद्ध चित्त स्थिरता० निष्कपटता० अभिमान रहितः धैर्यता संवेग० मायाशल्य रहित० शुद्ध क्रिया० संवरभाव० आत्मनिर्दोष० विषय रहित० मूलगुण धारणा० उत्तरगुण धारणा० द्रव्यभावसे पापकों चोसिरे २ कहना० अप्रमाद कालोकाल क्रियाकरनी० ध्यानसमाधि धरना. मरणांत कष्ट सहन करना प्रतिज्ञा दृढता० प्रायश्चित लेना समाधासे संथारा करना० Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ बोल. ( २५३ ) ( ३३ ) गुरुकी तैंतीस आशातना - गुरुके आगे शिष्य चले तो आशातना, गुरुकी बराबर चलेतो० गुरूके पीछे स्पर्श करता चलेतो एवम् तीन, बैठते समय और तीन खडे रहते समय तीन एवं नौ प्रकार से गुरूकी आशातना होती है गुरूशिष्य एकसाथ स्थंडिल जावे और एक पात्रमें पानी होतो गुरूसे शिष्य पहिले सूचि करे तो, स्थंडिलसे आकर गुरूसे पहिले इरियावही पडि कमेंतो० विदेश से आयेहुवे श्रावकके साथ गुरुसे पहिले शिष्य वार्तालाप करेतो० गुरू कहे कौन सूते है और कौन जागते है. तो जागता हुवा शिष्य न बोलेतो ० शिष्य गौचरी लाकर गुरूसे आलोचना न ले और छोटेके पास आलोचना करेतो' पहिले छोटेको आहार बताकर फिर गुरूको आहार बतावेतो पहले छोटे साधुको आमंत्रण करके फिर गुरुको आमंत्रण करतो० गुरुले विना पुछे दूसरोंको मनमान्य आहार देतो० गुरुशिष्य एक पात्र आहार करे और उसमेंसे शिष्य अच्छा २ आहार करेतोο गुरुके बोलानेपर पीछा उत्तर न देतो० गुरुके बुलानेपर शिष्य आसनपर बैठाहुवा उत्तर देतो० गुरुके बुलानेपर शिष्य कहे क्या कहते हो ऐसा बोलतो० गुरु कहे यह काम मतकरो शिष्य जवाब दे कि तू कौन कहनेवालातो० गुरु कहे इस ग्लानीकी वैयावच करो तो बहोत लाभ होगा इसपर जवाब दे क्या आपको लाभ नहीं चाहिये ऐसा बोलेतो० गुरुको तुकारा हुंकारा दे लापरवाई से बोले ) तो० गुरुका जातीदोष कहेतो० गुरु धर्मकथा करे और शिष्य अप्रसन्न होवेतो० गुरु धर्मदेशना देताही उसवक्त शिष्य कहे यह शब्द ऐसा नहीं ऐसा है तो० गुरु धर्मकथा कहे उस परिषद में छेदभेद करेतो ० जो कथा गुरु परिषदामें कहीहो उसी कथाको उतीपरिषदा में शिष्य अच्छी तरह से वर्णन करती० गुरु धर्मकथा कहते हो और शिष्य कहे गोचरीकी वखत होगई 1 0 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९४ ) शीघ्रबोध भाग ४ था. कहांतक व्याख्यान दोगे तो० गुरुके आसनपर शिष्य वैठे तो० गुरुके पाट या विछौनेको ठोकर लगाकर क्षमा न मांगेतो० गुरुसे ऊंचे आसनपर बैठे तो० यह तैतीस आशातना अगर शिष्य करेंगे तो वह गुरु आज्ञाका विराधि हो संसारमें परिभ्रमन करेंगें । ( ३४ ) तीर्थंकरोंके चौतीस अतिसय--तीर्थकरके केश, नख न बधे सुशोभित रहे० शरीर निरोग० लोहीमांस गोक्षीर जैसा ० श्वासोश्वास पद्म कमलजैसा सुगन्धी, आहार निहार चर्मचक्षुवाला न देखे ० आकाशमें धर्मचक्र चले० आकाश में तीन छत्र धारण रहै ० दो चामर वींजायमान रहे० आकाशमें पादपीठ सहित सिंहासन चले० आकाशमें इन्द्रध्वज चले. अशोकवृक्ष रहे० भामंडल होवे० भूमीतल सम होवे० कांटा अधोमुख होवे ० छहो ऋतु अनुकुल होवे० अनुकूल वायु चले० पांच वर्णके पुष्प प्रगट होवे० अशुभ पुगलका नाश होवे० सुगंध वर्षासे भूमी स्वच्छ होवे ० शुभ पुद्गल प्रगटे० योजनगामिना ध्वनी होवे० अर्ध मागधीभाषा में देशना दे० सर्व सभा अपनी २ भाषा में समझे० जन्मवैर, जातीवैर शांतहो० अन्य मतावलंबी भी आकर धर्म सुने और विनय करे० प्रतिवादी निरूत्तर होवे० पचीस योजनसुधी कोइ किसमका रोग उपद्रव न होवे० मरकी न होवे० स्वचक्रका भय न होवे' परलश्करका भय न होवे० अतिवृष्टि न होवे० अनावृष्टि नहो० दुकाल न पडे ० पहिले हुवा उपद्रव भी शांत होवे ० इन अतिशयों में ४ अतिशय जन्मसे होते है. ११ अतिशय केव लज्ञान होनेसे होते है और १९ अतिशय देवकृत होते है. ( ३५ ) वचनातिशय पैंतीस -- संस्कारवचन, उदात्त गंभीर० अनुनादी० दाक्षिण्यता० उपनीतराग० महा अर्थगर्भित० पूर्वापर अविरुद्ध ० शिष्ट संदेह रहित० योग्य उत्तरगर्भित० हृदयग्राही ० Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ बोल. ( २५५ ) O क्षेत्रकालानुकूल० तत्वानुरूप० प्रस्तुत व्याख्या० परस्पर अविरुद्ध अभिजात अति स्निग्ध० मधुर० अन्य मर्मरहित. अर्थ धर्मयुक्त० उदार परनिंदा स्वश्लाघा रहित० उपगतश्लाघा० अनयमीत० कुतूहल रहित० अद्भूत स्वरूप० विलंब रहित० विमादि दोष रहित विचित्रवचन० आहित विशेष० साकार विशेष० o सत्व विशेष० खेद रहित० अव्युच्छेद• ० ( ३६ ) उत्तराध्ययन सूत्र के ३६ अध्ययन - विनय० परिसह चउरंगिय० असंक्खय० अकाम सकाम मरण० खुड्डानियठि० एल० काविल० नमिपव्वझा० दुमपत्तय वहुस्सुय• हरिएसबल० चित्तसंभू० उसुयार० भिक्खू वंभचेरसमाहि० पावसमण संजईरायः मियांपुती० महानिगंधी० समुद्रपालिय० रहनेमी० केसीगोयमः पवयणमाया० जयघोस विजयघोस० सामायारी० खलुकि० मुक्खमग्गई० समत परिकमिय० तवमगाय० चरणविहीय० पमायठाण० अठकम्मप्पगडी० लेस ० अणगारमग्ग० जीवजीव विभत्ती ० इति । सेवंभंते सेवंभंते - तमेवसच्चम् →→→*@@@*<--- थोकडा नम्बर ३४. श्री भगवतीजीसूत्र श० २५ उ० ६ ( निग्रन्थोंके ३६ द्वार ) पन्नषणा - प्ररूपणा वेय- वेद ३ राग- सरागी २ कप्प-कल्प चारित्र - सामायिकादि ९ डिसेवण-दोष लागेके नहीं ? Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५६) शीघबोध भाग ४ था. ज्ञान-मत्यादि ५, तित्थे-तीर्थमें होवे २, लिंग-स्वलिंगादि शरारऔदारिकादि, खित्ते-किसक्षेत्रमें, काले-किसकालमें, गती-किमगतीमें संयम-संयमस्थान निकासे-चारित्रपर्याय योग सयोगी अयोगी उपयोग-साकार बहुता २ कषाय-सकषाय २ लेसाकृष्णादि ६ परिणाम-हियमानादि ३ बंध-कर्मका वेदय-कर्मवेदे, उदीरणा-कर्मकी, उपसंपझाण-कहांजावे सन्नो सन्नाबहुता, आहार -आहारी २ भव-कितना भव करे आगरेस कितने वख्त आवे काल-स्थिती अंतरा समुद्घात-वेदना ७ क्षेत्र-कितने क्षेत्र में होवे फुसणा-किताक्षेत्रस्पर्श भाव-उदयादि ५ परिणाम-कितनालाधे अल्पाबहुत्व इति ३६ द्वार। ( १ ) पन्नवणा-नियठा ( साधु ) के प्रकारके है (१) पुलाक-दो प्रकारके है। (१) लब्धी पुलाक जैसे चक्रवर्ती आदि कोई जैनमुनी या शासनकी आशातना करे तो उसकी सेना वगेरहको चकचूर करने के लिये लब्धीका प्रयोग करे ( २ ) चारित्र पुलाक-जिसके पांच भेद ज्ञानपुलाक, दर्शन पुलाक, चारित्रपुलाक, लिंगपुलाक, ( विना कारण लिंग पलटावे) अहसुहम्मपुलाक, (मनसेभी अकल्पनीय वस्तु भोगनेकी इच्छा करे । जेसे चावलोंकि सालीका पुला जिस्में सार वस्तु कम और मटी कचरा ज्यादा। (२) बकुश-के पांच भेद है। आभोग ( जानता हुवा दोष लगावे ) अणाभोग, (विनाजाने दोष लगे) संवुडा, (प्रगट दोष लगावे ) असंवुडा, ( छाने दोष लगावे ) अहासुहम्म, हस्त मुख धोवे या आंख आंजे ) जेसे शालका गाइटा जिस्मे खला करनेसे कुच्छ मट्टी कम हुइ है। (३) पडिसेवना–५ भेद-ज्ञान, दर्शन, चारित्र में अति. चार लगावे । लि गपलटावे, आहासुहम, तप करके देवताकी Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निग्रंथाधिकार. . (२५७ ) पदवी यांच्छे । जैसे शालीके गाइठाको उपण-वायुसे बारीक शीणे कचरेको उठा दीया परन्तु बडे बडे डांखले रह गये। (४) कषायकुशील-५ भेद-ज्ञान, दर्शन, चारित्रमें कषाय करे, कषायकरके लिंग पलटा, अहासुहम, ( तप करी कषाय करे ) कचरा रहित शाली। (५) निग्रंथ-५ भेद-प्रथम समय नग्रंथ, ( दशमें गुणस्थानकसे, इग्यारावे गु० बाराहवे गु० वाले प्रथम समयवर्ते । अप्रथम समय, (दो समयसें ज्यादा हो) चर्मसमय, जिसको १ समयका छनस्थापना शेष रहा हो) अचमसमय, (जिसको दो समयसे ज्यादा बाकी हो ) अहासुहम, (सामान्य प्रकारे धर्ते ) शालीको दल छातु निकालके चावल निकाले हुवे । (६) स्नातक-५ भेद-अच्छवी, (योगनिरोध ) असबले, ( अतिचारादि सबला दोष रहित ) अकम्मे, (घातीकर्म रहित) संसुद्ध झानदर्शन धारी केवली, अपरिस्सावी, (अवंधक) ज्ञान दर्शनधारी अरिहंत जिन केवलीजेसे निर्मल अखंडित सुगन्धी चावलोंकी माफीक। .. _ऐसे छे प्रकार के साधु कहे हैं. इनकी परस्पपर शुद्धता शालीका दृष्टांत देकर समझाते हैं। जैसे मट्टी सहित उखाडी हुई शालाकाएला जिसमें सार कम ओर असार जादा. वैसेही पुलाकसाधुमें चारित्रकी अपेक्षा सारकम और अतिचारकी अ. पेक्षा असार ज्यादा है दूसरा शालका गाईठा (खला) पहलेसे इसमें सार जादा है. क्योंके पूलमें जो रेतीथी वह निकल गई वैसेही पुलाकसे बकुशमें सार जादा है. तीसरा उडाई हुई शाली, जो बारीक कचराथा वह हवासे उड गया. वैसेही वकुशसे पडिसे. Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५८) शीवबोध भाग ४ था. सार जादा है. चौथा सर्व कचरा निकाली हुई शाली के समान कषाय कुशील है. पांचवा शालीसे निकाला हुवा चावल इसके समान निग्रंथ है. छठा साफ किया हुवा अखंड चावल जिसमें किसी किस्मका कचरा नहीं वैसे स्नातक साधु The द्वारम्. ( २ ) वेद - पुरुष, स्त्री, नपुंसक, अवेदी० जिसमे पुलाक.. पुरूष वेदी और पुरुष नपुंसकवेदी होते हैं, वकुश पु० स्त्री० न० वेदी होते है. वैसेही पडिसेवनमें तीनो वेद. कषायकुशील. सवेदी, और अवेदी, सवेदी होतो तीनोवेद, अवेदी होतो उपशान्त अवेदी या क्षीण अवेदी. निग्रंथ. उपशान्त अवेदी और क्षीण अवेदी होते है. और स्नातक क्षीणअवेदी होते है. द्वारम्. (३) रागी - सरागी वीतरागा-पुलाक, बुकश, पडिसेवना कषाय कुशील एवं ४ नियंठा सरागी होते है निग्रंथ उपशान्त वीतरागी और क्षाण वीतरागी होते है. स्नातक क्षीण वीतरागी होते है द्वारम्. ( ४ ) कल्प ५ = स्थित कल्प, अस्थितकल्प, स्थिवरकल्प, जिनकल्प, कल्पातीत. -कल्प दश प्रकारके है, १ अचेल, उदेशी, ३ रायपिंड, ४ सेझात्तर, ५ मासकल्प, ६ चौमासीकल्प, ७ व्रत, ८ पडिक्कमण, ९ किर्तीकर्म, १० पुरुषाजेष्ट, यह दशकल्प पहिले और छेहले तीर्थकरोंके साधूवोंके स्थितकल्प होता है. शेष २२ तीर्थंकरोंके शासन में अस्थितकल्प है. उपर जो १० कल्प कहआये है. उसमें ६ अस्थितकल्प है १-२-३-९-६-८ और चार स्थितकल्प है. ४-७-९-१० (३) स्थिवरकल्प वस्त्रपात्रादि शास्त्रोक्त रखे. (४) जिनकल्प जघन्य २ उत्कृष्ट १२ उपगरणरक्खे (५) कल्पातित केवलज्ञानी, मनः पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निग्रन्थाधिकार. (२५९) चौदे पूर्वधर, दश पूर्वधर, श्रुतकेवली, और जातिस्मरणादि. शानी ॥ पुलाक-स्थितीकल्पी, अस्थितीकल्पी, स्थिवरकल्पी, होते है. वकुश, पडिसेषणा पूर्ववत् तीन और जिनकल्प भी होवे. कषायकुशील पूर्ववत् चार और कल्पातीतमें भी होवे. निग्रंथ, स्नातक-स्थित० अस्थित और कल्पातीतमें होवे. द्वारम्. (५) चारित्र ५ सामायिक, छेदोपस्थापनिय, परिहारविशुद्धि, सुक्षमसंपराय, यथाख्यात-पुलाक, वकुश, पडिसेवणमें समायक, छेदो० चारित्र होता है. कषायकुशीलमें सामा छेदो० परि० सूक्ष० चारित्र होते है. और निग्रंथ, स्नातकमें यथाख्यात चारित्र होता है. द्वारम्.. ६) पडिसेवण २ मूलगुणप० उत्तरगुणप० पुलाक, पडिसे. वणी मुलगुणमें (पंचमहाव्रत ) और उत्तरगुणमें ( पिण्डविसुद्वादि) दोषों लगावे बुकश मुलगुणअपडिसेवी उत्तरगुणपडिसेवी वाकी तीन नियंठा अपडिसेषी. द्वारम्. (७) ज्ञान. ५ मत्यादि पुलाक, वकुश, पडिसेवणमें दोज्ञान मति, श्रुति ज्ञान और तीन हो तो मति, श्रुति, अवधि, कपायकुशील, और निग्रंथमें ज्ञान दो. तीन चार पावे. दो हो तो मति, श्रुति. तीनहो तो मति श्रुति, अवधि या मनःपर्यव० चार हो तो मति, श्रुति, अवधि और मनःपर्यव स्नातकमें एक केवलज्ञान और पङनेआश्री पुलाक जघन्य नौ । ९ । पूर्वन्युन उत्कृष्ट नौ (९) पूर्व सम्पूर्ण. वकुश, पडिसेवण जघन्य अष्टप्रवचनमाता उ० दशपूर्व. कषायकुशील ज० अष्टप्रवचनमाता उ०१४ पूर्व. निग्रंथ भी न९ अष्ट प्र० उ० १४ पूर्व पङ स्नातकसूत्र वितिरिक्त. द्वारम्. ( ८ ) तीर्थ-पुलाक, बकुश, पडिसेषण तीर्थमें होवे शेष Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६०) शीघबोध भाग ४ था. तीन नियंठा तीर्थ में और अतीर्थमें भी होते है. तीर्थकर हो और प्रत्येक बुद्धि हो. द्वारम्. (९) लिंग-छेहो नियंठा ( साधु ) द्रव्य लिंग आश्री स्व. लिंग, अन्यलिंग, गृहलिंग तीनोंमें होवे. और भावलिंग आश्री स्वलिंगमें होते है. द्वारम्. (१०) शरीर-५ औदारिक वैक्रिय, आहारक, तेजस, कार्मण, पुलाक. निग्रंथ, स्नातकमें औ० ते० का० तीन शरीर. वकुश. पडिसेवणमें औ० ते० का वै० और कषायकुशीलमें पांचों शरीरवाले मिलते है. द्वारम् । (११) क्षेत्र २ कर्मभूभी, अकर्मभूमी-छे हों नियंठा जन्मआश्री १५ कर्मभूमीमें होवे और संहरणआश्री पुलाककों छोडके शेष ५ नियंठा कर्मभूमी. अकर्मभूमी, दोनोमें होते है. प्रसंगोपात पुलाक लब्धि आहारिक शरीर, सध्वीका, अप्रमादी, उपशम श्रेणीवालेका, क्षपकश्रेणी०, केवलज्ञान उत्पन्न हुवे पीछे, इन सातोंका संहरण नहीं होता द्वारम्. (१२) काल-पुलाक, उत्सर्पिणीकालमें जन्मआश्री तीजे, चौथे आराम जन्मे और प्रवर्तनाश्री ३-४-५ आरामें प्रवते. अव. सर्पिणीकालमें दूजे, तीजे चौथे आरामें जन्मे और तीजे, चौथे आराम प्रवते. नो उत्सर्पिणी नोअवसर्पिणी चौथे पल्ली भाग ( द. षमासुषमा काल महाविदेह क्षेत्रमें ) होवे और प्रवर्ते एसेही निग्रंथ स्नातकमें समझलेना. पुलाकका संहरण नहीं. और निग्रंथ स्नातक संहरणआश्री दुसरे कालमें भी होते है. और वकुश, पडिसेवण, कषायकुशील, अवसर्पिणीकालके ३-४-५ आरेमें जन्मे और प्रवते.उत्सर्पिणीकालमें २-३-४ आरेमें जन्मे और ३-४ आरेमें प्रवर्ते. नो उत्सर्पिणी नोअवसर्पिणी. चौथा पल्ली. भागमें होवे और संहरणआश्री दूसरे पल्ली भागोंमें होवे. द्वारम् Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६१) बोल. ६३ (१३) गति-देखो यंत्रसे. गति. स्थिति. - - नाम. जघन्य. उत्कृष्ट. , जघन्य. . उत्कृष्ट. पुलाक सुधर्म देवलोक सहस्रार दे. प्रत्येक । १८ सागर वकुश , अच्युत दे० ! पल्योपम J२२ सागर पडिसेवण ,, , , कषायकुशाल अनुत्तर वि० ३३ सागर निग्रंथ अनुत्तर वि० सर्वार्थसिद्ध ३१ सागर स्नातक । मोक्ष ३३ सागर देवताओंमें पछि ५ है. इन्द्र, लोकपाल, वायत्रिषक, सामा. निक, अहमइन्द्र, पुलाक, वकुश. पडिसेवणमें पहिलेकी ४ परिमेंसे १ पहिवाला होवे, कषायकुशीलको ५ मेंकी १ पछि होवे, निग्रंथको अहमहन्द्रकी १ पति होवे एवं स्नातक तथा मोक्षमें जावे और जघन्य विराधक हो तो चार जातिका देवता होवे, उत्कृष्ट विराधक चौषीस दंडकमें भ्रमण करे द्वारं. (१४) संयम-संयमस्थान असंख्याते है. पुलाक, वकुश, पडिसेवण, कषायकुशील. इन चारोंके संयमस्थान असंख्याते २ है. निग्रंथ स्नातकका संयमस्थान एक है. अल्पाबहुत्व सर्वस्तोक निग्रंथ स्नातकके संयमस्थान पक है. इनोंसे असंख्यातगुणे पुलाकके संयमस्थान, इनोंसे असं० गुणे वकुशके, इनोंसे असं० गुणे पडिसेवणके, इनोसे असं० गुणे कषायकुशीलके संयमस्थान. द्वारं. (१५) निकासे-(संयमके पर्याय ) चारित्र पर्याय अनंते Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६२) शीघ्रबोध भाग ४ था. है. पुलाकके चारित्र पर्याय अनन्ते एवं यावत्. स्नातक कहना, पुलाकसे पुलाकके चारित्र पर्याय. आपसमें छे ठाणवलिया. यथा १ अनन्तभागहानि, २ असंख्यातभागहानि, ३ संख्यातभागहानि, ४ संख्यातगुणहानि, ५ असंख्यातगुणहानि, ६ अनन्तगुणहानि ।। १ अनन्तभागवृद्धि, २ असंख्यातभागवृद्धि, ३ संख्यातभागवृद्धि, ४ संख्यातगुणवृद्धि, ५ असंख्यातगुणवृद्धि, ६ अनन्तगुणवृद्धि, पुलाक, वकुश पडिसेवणसे अनन्तगुणहीन, कषायकुशील. छे ठाणवलिया. निग्रंथ स्नातकसे अनन्तगुणहीन ॥ वकुश पुलाकसे अनन्तगुणवृद्धि. वकुश वकुशसे छे ठाणवलिया. वकुश, पडिसेवः ण,कषायकुशीलसे छे ठाणवलिया. निग्रंथ, स्नातकसे अनन्तगुणहीन. ।। २ ।। पडिसेवण, वकुश माफिक समजना. ॥ ३॥ कषायकुशील है सो पुलाक, वकुश, पडिसेवण और कषायकुशील, इन चारोंसे छे ठागवलिया. और निग्रंथ स्नातकसे अनन्तगुणहीन. ॥४॥ निग्रंथ प्रथमके चारोंसे अनन्तगुणे अधिक. निग्रंथ स्नातकसे समतुल्य ॥ ५ ॥ स्नातक निग्रंथके माफिक समज ना ॥ ६ ॥ अल्पाबहुत्व- पुलाक और कषायकुशीलके जघन्य चारित्र पर्याय आपसमें तुल्य १ पुलाकका उत्कृष्ट चारित्र पर्याय अनन्त गुणे, २ वकुश और पडिसेवणके जघन्य चारित्र पर्याय आपसमें तुल्य अनन्तगुणे, वकुशका उ चा० पर्याय अनं०४ पडिसेवणका उ० चा पर्याय अनं. ५ कषायकु. उ० चा पर्याय अनं०६ निग्रंथ और स्नातकका जघन्य और उत्कृष्ट चारित्र पर्याय आपसमें तुल्य अनन्तगुणे. द्वारं. (१६) योग ३ मन, वचन, काय-पहलेके पांच नियंठा संयोगी, स्नातक संयोगी और अयोगी. द्वारं. (१७) उपयोग २ साकार, अनाकार-छए नियंठामें दोनों उपयोग मिले. द्वारम् Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ बोल. ( २६३ ) ( १८ ) कषाय ४ पहलेके ३ नियंठामें सकषाय संज्वलका चौक० कषायकुशीलमें. संज्वलका ४-३-२-१ निग्रंथ अकषायी उ पशमकषायी या क्षीणकषायी. स्नातक क्षीणकषायी होते है. द्वारं. ( १९ ) लेश्या ६ पुलाक, वकुश, पडिसेवणमें तीन लेश्या तेजु, पद्म, शुक्ललेश्या पावे. कषायकुशीलमें छेहो लेश्या पावे. निथमें शुक्ललेश्या पावे. और स्नातक शुक्ललेश्या तथा अलेश्या. द्वारं. ( २० ) परिणाम - पहिलेके चार नियंठामें तीनों परिणाम पावे. हियमान, वर्द्धमान, अवस्थित, जिसमें हियमान, वर्द्धमाaat जघन्य स्थिति १ समय उ० अन्तर्मुहुर्त अवस्थितकी ज० १ समय उ ७ समय, निग्रंथ में वर्द्धमान. अवस्थित दो परिणाम पावे. स्थिति ज० १ समय उ० अन्तर्मुहुर्त स्नातक में वर्द्धमान, अवस्थित दो परिणाम वर्द्धमानकी ज० समय उ० अन्तर्मुहुर्त. अवस्थितकी स्थिति ज० अन्तर्मुहुर्त उ० देशोणो पूर्व कोड. द्वारं. (२१) बंध -- पुलाक. आयुष्य छोडके सात कर्म बांधे. वकुश और पडिसेवण सात या आठ कर्म बांधे. कषायकुशील ७-८-६ कर्म बांधे. (आयुष्य मोहनी छोडके) निग्रंथ १ शातावेदनी बांधे और स्नातक १ शातावेदनी बांधे या अबंधक. द्वारं. ( २२ ) वेदे --पहलेके चार नियंठा आठों कर्म वेदे निग्रंथ मोहनी छोडके ७ कर्म वेदे स्नातक चार कर्म वेदे. ( वेदनी, आयुष्य, नाम, गोत्र. ) द्वारं. (२३) उदिरणा - पुलाक आयुष्य मोहनी छोडके ६ कर्मोंकी उदिरणा करे. वकुश और पडिसेवण ७-८ ६ कर्मोंकी उदिरणा करे. ( आयुष्य मोहनी छोडके ) कषायकुशील ७-८-६-५ कर्मोंकी उदिरणा करें. वेदनी विशेष निग्रंथ ५-२ कर्मोंकी उदिरणा करे. पूर्ववत् २ नाम, गोत्रकर्म. स्नातक उणोदरिक. द्वारं. Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६४) शीघ्रबोध भाग ४ था. (२४) उपसंपझणं-पुलाक पुलाकको छोडके कषायकुशोलमें या असंयममें जावे. बुकश बुकशपणा छोडे तो पडिसेवणमें, कषायकुशीलमें या असंयममें या संयमासंयममें जाधे, एवं पडिसेवण भी चार ठीकाने जावे. कषायकुशील छे ठीकाने जावे. (पु० ००प० असंयम संयमासं. निग्रंथ ) निग्रंथ निग्रंथपना छोडे तो कषायकुशील स्नातक और असंयममें जावे और स्नातक मोक्षम जावे. द्वारं. (२५) संज्ञा ४ पुलाक, निग्रंथ, स्नातक, नोसंज्ञावउत्ता बुकश, पडिसेवण और कषायकुशील, संज्ञाबहुत्ता, नोसंज्ञाबहुत्ता. ( २६) आहारी-पहलेके ५ नियंठा आहारीक, स्नातक आहारीक वा अनाहारीक. द्वारं. (२७) भव-पुलाक, निग्रंथ जघन्य १ उ०३ भव करे. बुकश, पडिसेवणा, कषायकुशील ज० १ उ. १५ भवकरे स्नातक तद्भव मोक्ष जावे. द्वारं. (२८) आगरिसं-पुलाक एक भवमें जघन्य १ उ. ३ वार आवे. घणा (बहुत ) भवआश्रयी ज० २ उ० ७ वार आवे. बुकश पडिसेषण और कषायकुशील एक भव. ज.१ उ. प्रत्येक सो वार आवे. घणा भवआश्रयी ज० २ उ. प्रत्येक हजार वार आवे. निग्रंथपना एक भवआश्रयी ज०१ उ. २ वार बहुत भवआश्रयी ज०२ उ०५ वार आवे. स्नातकपना जघन्य उत्कृष्ट एक ही वार आवे. द्वारं. (२९) काल-स्थिति, पुलाक एक जीव आश्रयी जघन्य उत्कृष्ट अन्तर्मुहुर्त बहोतसे जीवों आश्रयी ज०१ समय उ० अन्तरमु. बुकश एक जीवाश्रयी ज० १ समय उ० देशोणा पूर्व कोड बहुत जीवों आश्रयी शाश्वता. एवं पडिसेवण, कषायकुशील वकुशवत् समजना. निग्रंथ एक जीव तथा बहुत जीवों आश्रयी ज. Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ बोल. ( २६५ ) १ समय उ० अन्तर मुहूर्त्त स्नातक एक जीवाश्रवी ज० अन्तर्मु• उ० देशोणा पूर्वकोड बहुत जीवो आश्रयी शाश्वता. द्वारं. C (३०) आंतरा - पहले के पांच नियंठाके एक जीवाश्रयी ज० अन्तर्मु: उ० देशोणा अर्ध पुद्गलपरावर्तन. स्नातकका आंतरा नहीं. बहुत जीवो आश्रयी पुलाकका अंतरा ज० समय उ० संख्यात काल निग्रंथ ज० १ समय उ० छे मास शेष चार नियंठाका आंतरा नहीं. (३१) समुद्घात + पुलाकमें समुद्घात, तीन वेदनी, कषाय और मरणन्ति, बुकशमें पांच वे० क० म० वैक्रिय और तेजस, कषायकुशील में ६ । केवली छोडके ) निग्रंथ में समुद्र नहीं है द्वारं. ( ३२ ) क्षेत्र - पहले के पांच नियंठा लोकके असंख्यात भागमें होवे, स्नातक लोकके असंख्यात में भागमें हो या बहोत से असंख्यात भागमें होवे या सर्व लोकमें होवे. द्वारं. ( ३३ ) स्पर्शना - जैसे क्षेत्र कहा वैसे ही स्पर्शना भी लमजना, स्नातककी अधिक स्पर्शना भी होती है. द्वारं. (३४) भाव - पहले के ४ नियंठा क्षयोपशम भावमें होवे. निग्रंथ उपशम या क्षायिकभाव में होवे, स्नातक क्षायिकभाव में होवे. द्वारं. (३५) परिमाण - पुलाक वर्तमान पर्यायआश्रयी स्यात् मीले स्यात् न भी मीले, मीले तो जघन्य १-२-३ उ० प्रत्येक सौ. पूर्व पर्यायश्री स्यात् मीले स्यात् न मीले अगर मीले तो ज० १-२-३ उ० प्रत्येक हजार मीले. बुकश वर्तमान पर्यायाश्री स्यात् मीले स्यात् न मीले. यदि मीले तो ज० १-२-३ उ० प्रत्येक सो. पूर्व पर्यायाश्री नियमा प्रत्येक सो क्रोड मीले. एवं पडिवणा, कषायकुशील वर्तमान पर्यायाश्री स्यात् मीले स्यात् न मीले. जो + वेदनी, कषाय, मरण, वैकिय, तेजस, आहारिक, केवली. Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६६) शीघ्र बोधभाग ४ थो. मीले तो ज० १-२-३ उ. प्रत्येक हजार मीले, पूर्वपर्यायाधी नियमा प्रत्येक हजार क्रोड मीले. निग्रंथ वर्तमान पर्यायाश्री स्यात् मीले न मीले, अगर मीले तो ज० १-२-३ उ० १६२ मीले. पूर्वपर्यायाश्री स्यात् मीले न मीले. मीले तो ज०१-२-३ उ० प्रत्येक सो मीले. स्नातक वर्तमान पर्यायाश्री जघन्य १-२-३ उ० १०८ मीले पूर्वपर्यायाश्रा नियमा प्रत्येक क्रोड मीले. द्वारं.. (३६) अल्पाबहुत्व (.) सबसे थोडा. निग्रंथ नियंठाका जीव, (२) पुलाकवाले जीव संख्यातगुणे, ३) स्नातकके संख्यातगुणे, (४) पकुशके संख्यातगुणे, (५) पडिसेवणके संख्यातगुणे, (६) कषायकुशील नियंठाके जीव संख्यातगुणे. इति द्वारम। ॥ सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम् ।। - --- थोकडा नम्बर ३५. सूत्र श्री भगवतीजी शतक २५ उद्देशा ७. (संयति) संयति ! साधु ) पांच प्रकारके होते है. यथा सामायिक संयति, छदोपस्थापनिय संयति, परिहार विशुद्ध संयति, सूक्ष्म संपराय संयति, यथाख्यात संयति. इन पांचों संयतियोंके ३६ बारसे. विवरण कर शास्त्रकार बतलाते है। (१) प्रज्ञापना द्वार-पांच संयतिकी प्ररूपणा करते है. (१) सामायिक संयतिके दो भेद है. (१) स्वल्प कालका जो प्रथम और चरम जिनोंके साधुवोंको होता है, उसकी मर्यादा जघन्य सात Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ बोल. (२६७) दिन मध्यम च्यार मास उत्कृष्ट छे मास. (२) बावीस तीर्थंकरों के तथा महाविदेह क्षेत्रमें मुनियों के सामायिक संयम जावजीव तक रहते है. (२) छदोपस्थापनिय संयम, जिस्का दो भेद है. (१) स अतिचार जो पूर्व संयमके अन्दर आठवां प्रायश्चित सेवन करने पर फीरसे छंदो० संयम दिया जाता है (२) तेवीसवे तीर्थकरोका साधु चौवीसवें तीर्थंकरोंके शासनमें आते है उसकों भा छंदो० संयम दिया जाते है वह निरातिचार छंदो० संयम है (३) परिहार विशुद्ध संयमके दो भेद है (१) निवृतमान जेसे नौ मनुष्य नौ नौ वर्षके हो दीक्षा ले वीस वर्ष गुरुकुलवास में रहकर नौ पूर्वका अध्ययन कर विशेष गुण प्राप्तिके लिये गुरु आज्ञासे परिहार विशुद्ध संयमको स्वीकार करे । प्रथम छे मास तक च्यार मुनि तपश्चर्या करे च्यार मुनि तपस्वी मुनियोंकि व्यावञ्च करे एक मुनि व्याख्यान वांचे दुसरे छ मासमें तपस्वी मुनि व्यावच्च करे व्याव वाले तपश्चर्या करे तीसरे छ मास में व्याख्यानवाला तपश्चर्या करे सात मुनी उन्होंकि व्यावञ्च करे, एक मुनि व्याख्यान वांचे । तपश्चर्यका क्रमः उष्णकालमें एकान्तर शीत कालमें छट छट पा. रणा चतुर्मासामें अठम अठम पारणा करे, एसे १८ मास तक तपश्चर्या करे । फीर जिनकल्पको स्वीकार करे अगर एसा न हो तो वापिस गुरुकुल वासाको स्वीकार करे। ( ४ ) सूक्ष्म संपराय संयमके दो भेद है। (१) संक्लेश परिणाम उपशम श्रेणिसे गिरते हुवेके (२) विशुद्ध परिणाम क्षपकश्रेणि छडते हुवेके (५) यथा ख्यात संयमके दो भेद है (११ उपशान्त बोतरागी (२) क्षिणवित. रागी जिस्में क्षिणवितरागीके दो भेद है (१) छदमस्त (२) केवली जिस्में केवलीका दोय भेद है १) संयोगी केवली १२) अयोगी केवली । द्वारम् .. (२) वेद-सामायिक सं० छदोपस्थापनियसं० सवेदी, तथा अवदा भी होते है कारण नौवा गुण स्थानके दो समय शेष र: Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६८) शीघ्रबोध भाग ४ था. हनेपर वेद क्षय होते है और उक्त दोनों संयम नौवा गुणस्थान. . तक है। अगर सवेद होतो त्रिवेद, पुरुषवेद नपुंसकवेद इस तीनों वेदमे होते है । परीहार विशुद्ध मंयम पुरुषवेद पुरुष नपुंसकवे. दमें होते है सुक्ष्म० यथाख्यात यह दोनो संयम अवेदी होते है जिस्मे उपशांत अवेदी ( १०-११-गु० ) और क्षिण अवेदी (१० १२-१३-१४ गुणस्थान ) होते है इति द्वारम् । (३: राग-च्यार संयम सरोगी होते है यथाख्यात सं० वितरागी होते है सो उपशान्त तथा क्षिण वीतरागी होते है। (४) कल्प-कल्पके पांच भेद है। १) स्थितकल्प-पत्रकल्प उदेशीक आहारकल्प राजपण्ह शय्यातरपण्ह मासीकल्प चतुर्मासीक कल्प व्रतकल्प प्रतिक्रमणकल्प कृतकमकल्प पुरुषजेष्टकल्प एवं (१०) प्रकारके कल्प प्रथम और चरम जिनों के साधुवोंके स्थितकल्प है। (२) अस्थित कल्प पूर्वजो १० कल्प कहा है वह मध्यमके २२ तीर्थकरोंके मुनियोंके अस्थित कल्प है क्योंकि (१) शय्यातर व्रत, कृतकर्म, पुरुष जेष्ट, यह च्यार कल्पस्थित है शेष छे कल्प अस्थित है विवरण पर्युषण कल्पमें है। (३) स्थिवर कल्प-मर्यादा पूर्वक १४ उपकरण से गुरुकुल वासो सेवन करे गच्छ संग्रहत रहै । और भी मर्यादा पालन करे। (४) जिनकल्प-जघन्य मध्यम उत्कृष्ट उत्सर्ग पक्ष स्वीकार कर अनेक उपसर्ग सहन करते जंगलादिमें रहे देखो नन्दीसूत्र विस्तार । (५) कल्पातित-आगम बिहारी अतिश्य ज्ञानवाले महात्मा जो कल्पसे वीतिरक्त अर्थात् भूत भविष्यके लामालाभ देख कार्य करे इति। सामा० सं० में पूर्वोक्त पांचों कल्पपावे छेदो० परिहार० में कल्प तीन पावे, स्थित कल्प, स्थिवर कल्प, जिन कल्प, Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टप्रवचन. (२६९) सूक्ष्म० यथाख्या में कल्पदोय पावे अस्थित कल्प और कल्पातित इतिवारम् । (५) चारित्र-सामा० छदो में निग्रंथ च्यार होते है पुलाक बुकश प्रतिसेवन, कषायकुशील। परिहार० सूक्ष्म में एक कषाय कुशील निर्गथ होते है यथाख्यात संयममें निर्गथ और स्नातक यह दोय निग्रन्थ होते है द्वारम् । (६) प्रति सेवना-सामा० छेदो० मूलगुण (पांच महाव्रत) प्रति सेधी । दोष लगावे ) उत्तर गुण (पिंड विशुद्धादि) प्रतिसेवी तथा अप्रतिसेषी शेष तीन संयम अप्रतिसेवीहोते है द्वारम् । (७) ज्ञान-प्रथमके च्यार संयममें क्रमःसर च्यार ज्ञानकि भजना २-३-३-४ यथाख्यातमें पांच ज्ञानकि भजना ज्ञान पडने अपेक्षा सामा० छदो० जघन्य अष्ट प्रवचन उ० १४ पूर्व पड । परिहार. ज. नौवां पूर्व कि तीसरी आचार वस्तु उ० नो पूर्व सम्पुर्ण, सूक्ष्म० यथाख्यात ज. अष्ट प्रवचन उ० १४ पूर्व तथा सूत्र वितिरक्त हो इति द्वारम् । (८) तीर्थ-सामा० तीर्थ में हो, अतीर्थ में हो, तीर्थंकरोंके हो और प्रत्येक बुद्धियोंके होते है। छेदो० परि० सूक्ष्म तीर्थमें ही होते है यथाख्यात० सामायिक संयमवत् च्यारोंमें होते है। इति द्वारम्। (९) लिंग-परिहार विशुद्धि द्रव्वे और भावें स्वलिंगी; शेष च्यार संयम द्रव्यापेक्षा स्वलिंगी अन्यलिंगी गृहलिंगी भी होते है । भावे स्वलिंगी होते इति द्वारम् । (१०) शरीर-सामा० छेदो० शरीर ३-४-५ होते है शेष तीन संयममै शरीर तीन होते है वह वैक्रय आहारीक नही करते है द्वारम् । (११) क्षेत्र-जन्मापेक्षा सामा० सूक्ष्म संपराय, यथाख्यात, Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७०) शीघ्रबोध भाग ४ था. पन्दरा कर्मभूमिमें होते है। छदो० परि० पांच भरत पांच इर भरत एवं दश क्षेत्रों में होते है । साहारणपेक्षा परिहार० का साहा. रण नहीं होते है शेष च्यार संयम कर्ममूमि अकर्मभूमिमें भी मीलते है इतिद्वारम् । (१२) काल-सामा० जन्मापेक्षा अवसर्पिणि कालमें ३-४-५ आरे जन्मे और ३-४-५ आरे प्रवृते । उत्सपिणि कालमें २-३-४ आरे जन्मे ३-४ आरे प्रवृते । नोसपिणि नोउत्सपिणि चोथे पली. भाग (महाविदहे) में होवे । साहारणापेक्षा अन्यपली भाग (३० अकर्मभूमि ) में भी मोल सके । एवं छदो० परन्तु जन्म प्रवृतन तथा सर्पिणि उत्सपिणि विदेहक्षेत्रमें न हुवे, साहारणापेक्षा सब क्षेत्रोंमें मीले। परिहार० अवसपिणि कालमें ३-४ आरे जन्में प्रवृते उत्सर्पिणि कालमें २-३-४ आरे जन्मे ३-४ आरे प्रवृते । सूक्ष्म यथाख्यात अवसर्पिणिकाले ३-४ आरे जन्मे ३-४ आरे प्रवृते । उत्सर्पिणिकालमें २-३-४ आरे जन्मे ३-४ आरे प्रवृते । नो सर्पिणि नोउत्सर्पिणि चोथापली भागमें भी मीले साहारणापेक्षा अन्य पली भागमें लाधे इति द्वारम् । (१३) गतिद्वार यंत्रसे संयमके नाम गति स्थिति - सामा० छेदोप० सौधर्म कल्प अनुत्तर वै०/ २ पल्यो० ३३ सागरो. परिहार सौधर्मः सहस्त्र २ पल्यो १८ सागरो० सूक्षम० अनुत्तर वै० अनुत्तर व० ३१ साग० यथाख्या० अनु० अनु०३१ सा० ३३ सा. ३३ सा. Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयति अधिकार. (२७१) देवतावों में इन्द्र, सामानिक, तावत्रीसका, लोकपाल, और अहमेन्द्र यह पांच पद्वि है। सामा० छेदो० आराधि होतो पांचोंसे एक पहिवाला देव हो. परिहार विशुद्धि प्रथमकि च्यार पहिसे एक पद्विधर हों। सुक्ष० यथा० अहमेन्द्रि पद्विधर हों। जघन्य विराधि होतो च्यार प्रकारके देवोंसे देव होवें । उत्कृष्ट विराधि हो तो संसारमंडल । इतिद्वारम् । (१४) संयमके स्थान-सामा० छेदो० परि० इन तीनों संयमके स्थान असंख्याते असंख्याते है। सूक्षम अन्तर महुर्त के समय परिमाण असंख्याते स्थान है। यथाख्यात के संयमका स्थान एक ही है। जिस्की अल्पाबहुत्व। (१) स्तोक यथाख्यात सं० के संयम स्थान | (२) सूक्ष्म० के संयमस्थान असंख्यातागुने । (३) परिहारके , (४) सामा० छेदो० सं० स्थ० तूल्य असं० गु० (१५) निकाशे-संयमके पर्यव एकेक संयमके पर्यष अनंते अनन्ते है। सामा० छेदो० परिहार० परस्पर तथा आपसमें षटगुन हानिवृद्धि है तथा आपसमे तुल्य भी है। सूक्ष्म यथाख्यातसे तीनों संयम अनन्तगुने न्यून है। सूक्ष्म तीनोंसे अनन्तगुन अधिक है आपसमें षट्गुन हानि वृद्धि, यथाख्यातसे अनन्त गुन न्यून है। यथा० च्यारोंसे अनन्तगुन अधिक है। आपसमें तुल्य है। अल्पाबहुत्व। (१) स्तोक सामा० छेदो० जघन्य संयम पर्यत्र आपसमें तूल्य, (२) परिहार० ज० स० पर्यव अनंतगुने । (३) , उत्कृष्ट " " (४) सा० छ० , , , (५) सू. ज. " " Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७२) शीघ्रबोध भाग ४ था. (७) यथा ज० उ० आपसमें तूल्य अनंतगु० द्वारम् (१६) योग-पहलेके च्यार संयम संयोगि होते है, यथा. ख्यात संयोगि अयोगि भी होते है । द्वारम् (१७) उपयोग-सूक्ष्म० साकारोपयोगवाले, शेष च्यार संयम साकार अनाकार दोनों उपयोगवाले होते है। द्वारम् (१८) कषाय-प्रथमके तीनसंयम संज्वलनके चोकमें होता है। सूक्ष्म संज्वलनके लोभमें और यथाख्यात० उपशान्त कषाय और क्षिण कषायमें भी होता है । द्वारम् (१९) लेश्या-सामा. छेदो० में छेओं लेश्या, परिहार० तेजों पद्म शुक्ल तीनलेश्या, सूक्ष्म एक शुक्ल, यथाख्यात. एक शुक्ल तथा अलेशी भी होते है । द्वारम् (२०) परिणाम-सामा छेदो० परिहार० हियमान वृद्धमान और अवस्थित यह तीनों परिणाम होते है। जिस्में हियमान वृ. द्धमानकि स्थिति ज० एक समय उ० अन्तरमहुर्त और अवस्थि तकि ज एक समय उ० सोत समय । सूक्ष्म परिणाम दोय हियमान वृद्धमान कारण श्रेणि चढते या पडते जीव वहां रहते है उन्होंकि स्थिति ज. उ० अन्तरमहुर्तकि है। यथाख्यात. परिणाम वृद्धमान. अवस्थित जिस्में वृद्धमानकि स्थिति ज. उ० अन्तर महुर्त और अवस्थितकि ज. एक समय उ० देशोनाकोड पूर्व ( केवलीकि अपेक्षा ) द्वारम् । (२१) बन्ध सामा० छदो० परि० सात तथा आठ कर्म बन्धे. सात बन्धे तो आयुष्य नहीं बन्धे । सूक्ष्म० आयुष्य मोहनिय कर्म वर्जके छे कर्मबन्धे । यथाख्यात. एक साता वेदनिय बन्धे तथा अबन्ध । द्वारम् Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . संयमाधिकार. ( २७३) (२२) वेदे प्रथमके च्यार संयम आठों कर्मवेदे । यथाख्यात. सात (मोहनिय वर्जके ) कर्मवेदे तथा च्यार अघातीया कर्म वेदे। (२३) उदिरणा-सामा० छेदो परि० ७-८-६ कर्मउदिरे. सात आयुष्य और छे आयुष्य मोहनीय वर्जके । सूक्ष्म ५-६ कर्म उदिरे पांच आयुष्य मोहनिय वेदनिय वर्जके । यथाख्या०५-२ दोय नाम गौत्र कर्मकि उदिरणा करे तथा अनुदिरणा भी है। (२४) उपसंपझाण-सामा सोमायिक संयमकों छोडे तो. छदोपस्थापनिय सूक्षम संपराय संयमासंयमि (श्रावक ) तथा असंयम में जावे । छेदो० छदोपस्थापनीयकों छोडे तो० सामा० परि० सूक्ष्म असंयम, संयमासंयम में जावे। परि० परिहार विशुद्धिको छोडे तो छेदो० असंयम दो स्थानमें जावे । सूक्ष्म सूक्ष्मसंपराय छोडे तो सामा० छेदो० यथा० असंयममें जावे। यथा यथाख्यातको छोडके सूक्ष्म० असंयम और मोक्षमें जावे सर्व स्थान असंयम कहा है वह संयम कालकर देवतावों में जाते है उस अपेक्षा समझना इतिद्वारम् । (२५) संज्ञा-सामा० छेदो० परि० च्यारो संज्ञावाले होते है तथा संज्ञा रहित भी होते हैं शेष दोनों नो संज्ञा है। (२६) आहार-प्रथमके च्यार संयम आहारीक है यथाख्यात स्यात् आहारीक स्यात् अनाहारीक (चौदवागुण) (२७) भव-सामा• छेदो परि० जघन्य एक उत्कृष्ट ८ भव करे अर्थात् सात देवके और आठ मनुष्यके एवं १५ भव कर मोक्ष जावे सूक्ष्म ज० एक उ. तीन भव करे । यथा० ज० एक उ० तीन भव करे तथा उसी भव मोक्ष जावे । १८ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७४) शीघ्रबोध भाग ४ था. ( २८ ) आगरेस-संयम कितनीवार आते है । संयम नाम. | एकभवापेक्षा. | बहुतभवापेक्षा. - - - - । उत्कृष्ट उत्कृष्ट सामायिक० १ । प्रत्येक सौवार १२ प्रत्येक हजारवार छेदो प्रत्येक सौवार २ साधिक नौसोवार परिहार० १ ! ३ तीनवार २ साधिक नौसोवार सूक्ष्म च्यारवार २' नौवार यथाख्यात दोयवार |२५ वार ( २९ ) स्थिति-संयम कितने काल रहे। संयम नाम. एकजीवापेक्षा. बहुत जीवापेक्षा. सामा० एक समय देशोनकोड पूर्व शाश्वते शाश्वते छेदो० २५० वर्ष ५० क्रो० सा. परिहार० , १९ वर्षोना क्रोडादे.दोसोवर्ष देशोनकोड पूर्व सूक्ष्म० । , अन्तर्मुहुर्त अन्तर्मुहुर्त अन्तर्मुहुर्त यथा० देशोनकोड पूर्व शाश्वते | शाश्वते (३०) अन्तर-एक जीवापेक्षा पांचों संयमका अन्तर ज० अन्तर्मुहुर्ते उ० देशोना आधा पुद्गलपरावर्तन बहुत जीवापेक्षा सा० यथा० के अन्तर नहीं है। छेदो० ज० ६३००० वर्ष परिहार० ज० ८४००० वर्ष उत्कृष्ट अठारा क्रोडाक्रोड सागरोपम देशोना। सूक्ष्म० ज० एक समय उ० छे मास । - Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयमाधिकार. ( २७५ ) (३१) समुद्घात - सामा० छेदो० में केवली समु० वर्जके छे समु० पावे. परिहार० तीन क्रमसर सूक्ष्म० समु० नहीं. एक केवली समुद्घात । यथा० ( ३२ ) क्षेत्र० च्यार संयम लोकके असंख्यातमे भागमें होवे । यथा० लोकके असंख्यात भागमें होवे तथा सर्व लोक में ( केवली समु० अपेक्षा ) ( ३३ ) स्पर्शना - जेसे क्षेत्र है वेसे स्पर्शना भी होती है परन्तु यथाख्यातापेक्षा कुच्छ स्पर्शना अधिक भी होती है । ( ३४ ) भाव -- प्रथमके व्यार संयम क्षयोपशम भावमें होते है और यथाख्यात, उपशम तथा क्षायिक भावमें होता है। ( ३५ ) परिणाम द्वार - सामा० वर्तमानापेक्षा स्यात् मीले स्यात् न मीले अगर मीले तो ज० १-२-३ उ० प्रत्येक हजार मीले । पूर्व पर्यायापेक्षा नियम प्रत्येक हजार क्रोड मीले । एवं छेदो० वर्तमानापेक्षा मीले तो १-२-३ प्रत्येक सौ मीले । पूर्व पर्यायापेक्षा अगर मीले तो ज० उ० प्रत्येक सौ क्रोड मीले। परिहार० वर्तमान अगर मीले तो १-२-३ प्रत्येक सौ पूर्व पर्याय मी तो १-२-३ प्रत्येक हजार मीले। सूक्ष्म० वर्तमानापेक्षा मीले तो १-२-३ उ० १६२ मीले जिस्में १०८ क्षपकश्रेणि और ५४ उपशमश्रेणि चढते हुवे पूर्व पर्यायापेक्षा मीले तो १-२-३ उ० प्रत्येक सौ मीले । यथा वर्तमान अगर मीले तो १-२-३ उ० १६२ । पूर्व पर्यायापेक्षा नियमा प्रत्येक सौ क्रोड मीले (केवली की अपेक्षा) ( ३६ ) अल्पाबहुत्व | (१) स्तोक सूक्ष्म संपराय संयमवाले । ( २ ) परिहार विशुद्ध संयमवाले संख्याते गुने | Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७६ ) शीघ्रबोध भाग ४ था. (३) यथाख्यात संयमवाले संख्यात गुने । (४) छदोपस्थापनिय संयमवाले संख्यात गुने । ( ५ ) सामायिक संयमवाले संख्यात गुने । ॥ सेवंभंते सेवंभंते तमेव सच्चम् ॥ थोकडा नम्बर ३६ श्री दशवैकालिक अध्ययन ३ जा. सूत्र ( ५२ अनाचार ) जिस वस्तुका त्याग कीया हो उन वस्तुको भोगवनेकी इच्छा करना, उनकों अतिक्रम कहते है और उन वस्तुप्राप्तिके लिये कदम उठाना प्रयत्न करना, उनको व्यतिक्रम कहते है तथा उन वस्तुको प्राप्त कर भोगवनेकी तैयारीमें हो उनको अतिचार कहते है और त्याग करी वस्तुकों भोगव लेनेसे शास्त्रकारोंने अनाचार कहा है। यहांपर अनाचारके ही ५२ बोल लिखते है । ( १ ) मुनिके लिये वस्त्र, पात्र, मकान और असनादि व्यार प्रकारका आहार मुनिके उद्देशसे कीया हुवा मुनि लेवे तो अनाचार लागे । ( २ ) मुनिके लिये मूल्य लाइ हुइ वस्तु लेके मुनि भोगवे तो अनाचार लागे । (३) मुनि नित्य एक घरका आहार भोगवे तो अनाचार (४) सामने लाया हुवा आहार भोगवे तो अनाचार " (५) रात्रिभोजन करते अनाचार लागे । 22 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनाचाराधिकार. (२७७) (६) देशस्नान सर्वस्नान करे तो अनाचार लागे । (७) सचित्त-अचित्त पदार्थों की सुगन्धी लेवे तो अना० . ८) पुष्पादिकी माला सेहरा पहेरे तो अनाचार ,, ९) पंखा वीजणासे वायु ले हवा खावे तो अना० (१०) तैल घृतादि आहारका संग्रह करे तो अना० (११) गृहस्थोंके बर्तनमें भोजन करे तो अना० ( १२ ) राजपिंड याने बलिष्ट आहार लेवे तो अना. (१३) दानशालाका आहारादि ग्रहन करे तो अना० : १४ । शरीरका विना कारण मर्दन करे तो अना० (१५) दांतोसे दांतण करे तो अनाचार लागे । (१६) गृहस्थोंको सुखशाता पुच्छे टैल बन्दगी करे तो,, (१७ ) अपने शरीरकों दर्पणादिमें शोभा निमित्त देखे तो, (१८) चोपाट सेतरंजादि रमत रमे तो अनाचार । (१९) अर्थोपार्जन करे तथा जवारमें सठा करे तो अना० ( २० ) शीतोष्णके कारण छत्र धारण करे तो अना० (२१) औषधि दवाइयों बतलाके आजीवीका करे तो अना० (२२) जुत्ते मोजे बुटादि पावोंमें पहरे तो अना० (२३) अग्निकायादि जीवोंके आरंभ करे तो अना० ( २४ ) गृहस्थोंके वहां गादीतकीयों आदि पर बैठनेसे ,, ( २५ ) गृहस्थोंके वहां पलंग मेज खाट पर बैठनेसे ,, (२६) जीसकी आज्ञासे मकान में ठेरे उनोंका आहार भोग बनेसे , । २७) विना कारण गृहस्थोंके वहां बेठना कथा कहनेले, २८) विगर कारण शरीरके पीठी मालीसादिका करनेसे,, Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७८) शीघ्रबोध भाग ४ था. ( २९ ) गृहस्थ लोगोंकि वैयावञ्च करनेसे अनाचार , ( ३० ) अपनि जाति कुल बतलाके आजीविका करे तो , ( ३१ ) सचित्त पदार्थ जलहरी आदि भोगवे तो अना ,, (३२) शरीरमें रोगादि आनेसे गृहस्थोंकि सहायता लेनेसे;. ( ३३ ) मूलादि बनस्पति ( ३४ ) इक्षु ( ३५ ) कन्द ( ३६ ) मूल भोगवे तो अनाचार लागे. ( ३७ ) फल फूल (३८) बीजादि भोगवेतो अनाचार ,, (३९) सचित्तनमक (४०) सिंधु देशका सिंधालुण (४१) सांबर देशका सांबरलुण (४२) धूल खाडिका लुण (४३) समुद्रका लुण (४४) कालानमक यह सर्व सचित्त भोगवे तो अनाचारलागे। (४५) कपडोंको धूपादि पदार्थोंसे सुगन्ध बनानेसे अना० (४६) भोजन कर वमन करने से अनाचार , (४७) विगर कारण जुलाबादिका लेनासे अनाचार ,, (४८) गुंजस्थानको धोना समारनादि करनेसे अना० (४९) नेत्रों में सुरमा अञ्जन लगाके शोभनिक बनावे ,, (५०) दांतोंको अलतादिका रंग लगाके सुन्दर बनावे ,, (५१) शरीरको तैलादिसे उघटनादि कर सुन्दर बनानेसे,, (५२) शरीरकि शुश्रूषा करना रोम नख समारणादि शोभा करनेसे. उपर लिखे अनाचारको मदेव टालके निर्मल चारित्र पालनो चाहिये। सेवं भंते सेवं भंते-तमेव सच्चम्. Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचमहाव्रत. (२७९) थोकडा नम्बर ३७ सूत्र श्री दशवैकालिक अध्ययन ४. ( पांच महाव्रतोंका १७८२ तणावा.) जिस तरह तंबू ( डेरे ) को खड़ा करने के लिये मुल चोब, ( बडी) उत्तर चोब ( छोटी ) बांस और तणावा (खूटीसे बंधी हुई रसी) की जरूरत है, इसी तरह साधूकों संयमरूपी तंबूके खरे (कायम ) रखनेमें पांच महाव्रतादि सात बडी चोबकी जरूरत है. और प्रत्येक चोबकी मजबूतीके लिये सूक्ष्म, बादरादि (४-४-६-३-६-४-६) करके तेतीस उत्तर चोब है. प्रत्येक उत्तर योबको सहारा देनेवाले तीन करण, तीन जोगरूपी नौ २ वांस लगे है (इस तरह ३३ को ९ का गुणा करनेसे २९७ हुए ) और इन वालोंको स्थिर रखने के वास्ते प्रत्येक वांसके दिनरात्रादि, छै २ तणावा है. इस तरह २९७ को छै गुणा करनेसे १७८२ तणांवे हुए वा तणावे चोब वांसादिको स्थिर रखते है. जिससे तंबू खडा रहता है. यदि इनमें से एक भी तणावा.मोहरूपी हवा से ढीला हा जाय तो तत्काल आलोचना रूपी हथोडेसे ठोक कर ममबूत करदे तो संजमरूपी तंबू कायम रह सकता है. अगर एसा न किया जावे तो क्रमसे दूसरे तणावे भी ढीले हो कर तंबू गिर मानेका संभव है. इस लिये पूर्णतय इसको कायम रखनेका प्र. यत्न करना चाहिये. क्योंकि संयम अक्षयसुखका देनेवाला है. - अब प्रत्येक महाव्रतके कितने २ तणावे है सो विस्तार सहित दिखाते है. . (१) महावत प्राणातिपात-सूक्ष्म, बादर, प्रस और स्था. Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८० ) शीघ्रबोध भाग ४ था. वर. इन चार प्रकारके जोवोंको मनसे हणे नहीं, हणावे नहीं, Tara अनुमोदे नहीं एवम् बाराह और बाराह वचनका, तथा वाराह कायासे कुल छत्रीश हुए इनकों दिनकों, रातकों अकेले में, पर्षदा में, निद्रावस्था में, जागृत अवस्था में, ६-इन भागको ३६ के साथ गुणा करने से प्रथम महाव्रतके २१६ तणावे हुए. ( २ ) महाव्रत मृषावाद - क्रोधसे, लोभसे, हास्यसे, और भय से इस तरह चार प्रकारका झूठ मनसे बोले नहीं, बोलावे नहीं बोलतेको अनुमोदे नहीं. एवम् वचन और कायासे गुणतां ३६ हुए इनको दिन, रात्रि अकेले में, पर्षदा में, निद्रा और जागृत अवस्था, ये छै प्रकार से गुणा करने से २१६ तणावा दूसरे महाव्रत के हुए. (३) महाव्रत अदत्तादान - अल्पवस्तु, बहुतवस्तु, छोटो वस्तु, वडी वस्तु, सचित्त, ( शीष्यादि ) अचित्त, (वस्त्र पात्रादि) ये छै प्रकारकी वस्तुको किसीके विना दिये मनसे लेवे नही, लेवावे नही, और लेतेको अनुमोदे नही. एवम् मन वचन और काया से गुणाने से ५४ हुए जिसको दिन, रात्रि आदि ६ का गुणा करने से ३२४ तणावे तीसरे महाव्रतके हुए. ( ४ ) महाव्रत ब्रह्मचार्य - देवी, मनुष्यणी, और त्रीर्यचणी, के साथ मैथुन मनसे सेवे नहीं, सेवावे नहीं, सेवते की अनुमोदे नहीं. एवम् वचन और कायासे गुणातां २७ हुए जिसको दिन रात्रि आदि ६ का गुणा करनेसे १६२ तणावे चौथे महाव्रतके हुए. ( ५ ) महाव्रत परिग्रह - अल्प, बहुत, छोटा, वडा, सचित, अचित, छै प्रकार परिग्रह मनसे रखे नहीं रखा नहीं, राखतेकों अनुमोदे नहीं, एवम् वचन और कायासे गुणातां ५४ हुए जिस को दिनरात्रि आदि ६ का गुणा करनेसे ३२४ तणावे पांचवे महाव्रत हुए. ( ६ ) रात्रिभोजन - अशन, पांण, खादिम, स्वादिम, ये चार Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाव्रताधिकार. ( २८१) प्रकारका आहार मनसे रात्रिको करे नही, करावे नही, करतेको अनुमोदे नही, एवम् वचन और कायासे गुणातां ३६ हुए इनको दिनमे ( पहिले दिनका लाया हुवा दूसरे दिन ) रात्रिम, अके. लेमें, पर्षदामे, निद्राअवस्था, और जागृत अवस्था ६ का गुणां करनेसे २१६ तणावे हुए. (७) छकाय-पृथ्वीकाय, अप्पकाय, तेउकाय, वायुकाय बनास्पतिकाय, और सकायको मनसे हणे नही, हणाधै नही, हणतेको अनुमोदे नही. एवम् वचन और कायासे गुणतां ५४ हुए जिसको दिन रात्रि आदि ६ का गुणा करनेसे ३२४ तणावे हुए. . एवम् सर्व २१६-२१६-३२४-१६२-३२४.०२१६-३२४ सब मिला कर १७८२ तणावा हुए. अब प्रसंगोपात दशवैकालिक सूत्रके छठे अध्ययनसे अठाराह स्थानक लिखते है. यथा पांच महाव्रत, तथा रात्रिभोजन, और छ काय एवं १२ अकल्पनीय वस्त्र, पात्र, मकान और चार प्रकारका आहार १३ गृहस्थके भाजनमें भोजन करना १४ गृहस्थके पलंग खाट आसन पर बैठना १५ गृहस्थके मकानपर बेठना अर्थात् अपने उतरे हुवे मकानसे अन्य गृहस्थके मकान बेठना १६ स्नान देससे या सर्वसे स्नान करना १७ नख केस रोम आदि समारना १८ इन अठाराह स्थान में से एक भी स्थानककों सेवन करनेवा. लोकों आचारसे भ्रष्ट कहा है। गाथा-दश अठ्ठय ठाणाई, जाई बालो वरजा तथ्थ अन्नयरे ठाणे, निग्गंथ ताउ भेसह ___अर्थ-दस आठ अठाराह स्थानक है उनको बालजीव विराधे या अठाराहमसे एक भी स्थान सेवे तो निग्रंथ ( साधु ) उन स्थानसे भ्रष्ट होता है. इस लिये अठाराह स्थानकी सदेव यतना करणी चाहिये. इति. सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम् ।। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८२) शीघ्रबोध भाग ४ था. थोकडा नंबर ३८ श्री भगवती सूत्र श० ८ उद्देसा १० आराधना. आराधना तीन प्रकारकी है. ज्ञान आराधना १, दर्शन आराधना २ और चारित्र आराधना. ज्ञान आराधना तीन प्रकारको है उत्कृष्ट, मध्यम और जधन्य. उत्कृष्ट ज्ञान आराधना. चौदे पूर्वका ज्ञान या प्रबल ज्ञानका उद्यम करे. मध्यम आराधना. इग्यारे अंग या मध्यम ज्ञानका उद्यम करे, जघन्य आराधना, अष्ट प्रवचन माताका ज्ञान. व जघन्य ज्ञानका उद्यम - दर्शन आराधनाके तीन भेद. उत्कृष्ट (क्षायक सम्यक्त्व) मध्यम (क्षयोपशम स० ) जघन्य (क्षयोपशम या सास्वादनस०) चारित्र आराधनाके तीन भेद-उत्कृष्ट (यथाख्यात चारित्र मध्यम ( परिहार विशुद्धादि जघन्य ( सामायिक० ) उत्कृष्ट ज्ञान आराधनामें दर्शन आराधना कितनी पावै ? दो पावै. उत्कृत मध्य० ॥ उत्कृष्ट दर्शन आराधनामें ज्ञान आरा. धना कितनी पावै ? तीनो पावै. उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य. उत्कृष्ट ज्ञान आराधनामें चारित्र आराधना कितनी पाये ? दो पावै. उत्कृष्ट और मध्यम । उत्कृष्ट चारित्र आराधनामें शान आराधना कितनी पावै ? तीनो पाव. उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य. उत्कृष्ट दर्शन आराधनामें चारित्र आराधना कितनी पावै ! Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आराधना. ( २८३ ) तीनो पावे. उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य ॥ उत्कृष्ट चारित्र आराधनामें दर्शन आराधना कितनी पावै ? एक पावै. उत्कृष्ट ॥ उत्कृष्ट ज्ञानआराधना वाले जीव कितने भव करे ? जघन्य एक भव, उत्कृष्ट दोय भव. मध्यम ज्ञान आराधनावाले जीव कितने भव करे ? जघन्य दो. उत्कृष्ट तीन भव करे. जघन्य ज्ञान आराधनावाले जीव कितने भव करे ? जघन्य तीन और उत्कृष्ट पंदराह भव करे || एवम् दर्शन और चारित्र आराधना में भी समझ लेना. एक जीव में उत्कृष्ट ज्ञानआराधना होय, उत्कृष्ट दर्शन आराधना होय और उ० चारित्र आराधना होय. जिसके भांगा नाचे यंत्रमें लिखे हैं. पहिला एक ज्ञान दुसरा दर्शन और तीसरा चारित्र तथा ३ के आंकको उत्कुष्ट २ के आंकको मध्यम और १ के आंकको अघग्य समझना, ३-३-३ ३-३-२ ३-२-२ २-३-३ २-३-२ २-१--२ १-३-१ २-३-१ २-१-१ १-२-२ २-२-२ १-३-३ १-२-१ २-२-१ १-३-२ ११-२ १-१-१ सेवं भंते सेवं भंते - तमेव सच्चम्. Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८४) शीघ्रबोध भाग ४ था. थोकडा नम्बर ३६ श्री उत्तराध्ययनजी सूत्र अध्ययन २६ (साधु समाचारी) श्री जिनेन्द्र देवोंकि फरमाइ हुइ सामाचार को आराधन कर अनन्ते जीष मोक्षमे गये है-जाते है और जायेंगे. दश प्रकारकी समाचारीके नाम (१) आवस्सिय (२) निसि. हिंय ३) आपुच्छणा (४) पडिपुच्छणा (५) छंदणा (६) ईच्छाकार (७) मिच्छाकार (८) तहकार ९ अब्भुठणा (१०) उपसंपया. (१) आवस्सिय-साधु को आवश्य x कारण हो तव ठेरे हुवे उपासरासे बाहर जाना पडे तो जाती वक्त पेस्तर आव. स्सिय ऐसा शब्द उच्चारण करे ताके गुरुवादिको ज्ञात हो जावे की अमुक साधु इस टाइमम बाहर गया है. (२) निसिहि-कार्यसे निवृत्ती पाके पीछा स्थान पर आती वक्त निसिहि शब्द उच्चारण करे ताके गुरुवादिको ज्ञात हो की अमुक साधु बाहरसे आया है यदि कम-ज्यादा टाइम लगी हो तो इस वातका निर्णय गुरु महाराज कर सके है. (३) आपुजणा-स्वयं अपने लिये यचित् भी कार्य हो तो गुरुवादिको पुच्छे अगर गुरु आज्ञा दे तो वह कार्य करे. . (गोचरिआदि.) x साधु चार कारण पा के उपासरा बाहर जाते है सो कारण [१] आहार पानी आदि लानेकों [२] निहार-स्थंडिले मात्र जाना हो तो [३] वीहार-एक ग्रामसे दुसरे ग्राम जाना हो तो [४] जिनप्रासाद जाना हो तो. सिवाय चार कारण के बाहार न जावे अपने स्थानपर हि स्वाध्याय ध्यान में ही मस्त रहे. Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचारी. ( २८५) (४) पडिपुच्छना--अन्य साधुवोंको हरेक कार्य हो तो गुरुसे पुच्छ कर वह कार्य गुरु आदेशसे ही करे । (५) छेदणा-जो गोचरी में आया हवा आहार पाणी गुरुवादि की मरजी माफिक सर्व साधुषोंको संविभाग करे अपने विभागमें आये हुवे आहार की क्रमशः सर्व महा पुरुषोकों आमन्त्रण करे. याने सर्व कार्य गुरु छांदे ( आज्ञा ) से करे । (६) इच्छार-हरेक कार्यके अन्दर गुरुवादिसे प्रार्थना करेकि हे भगवान : आपश्रीकी मरजी हो तो यह कार्य करें या में करुं ( पात्रलेपादि) (७) मिच्छार-यत्किंचित् भी अपराध हुवा हो तो गुरु समीप अपनी आत्मा को निंदनारुप मिच्छामि दुक्कडं देना. आइ. न्दासे में यह कार्य नही करुंगा। (८) तहकार-गुरुवादिका वचन हरवक्त तहत्त करके परिमाण खुश दीलसे. स्व.कार करना। (९) अपभुठणा-गुरुवादि साधुभगवान या ग्लानी तपस्वी आदि की व्यावञ्च के लिये अग्लानपणे व्यावच्च में पुरुषार्थ कर लाभ लेना मेघमुनिकी माफीक अपना क्षणभंगुर शरीर मुनियों की व्यावच्च में अर्पण करना. (१०) उपसंपया-जीवन पर्यन्त गुरुकुल वास सेवन करना क्षण मात्र भी दुर नहीं रहेना । गुरुआज्ञाका पालन करना) (साधुओंका दिन कृत्य.) सूर्योदय होनेसे दिन कहा जाता है, एक दिनकी चार पेहर और एक रात्रिकी चार पेहर एवं आठ पेहरका दिनरात्री होती है . पेहर दीनका प्रमाण बताते है. जीससे साधुओंको टाइमकी घडीयां रखने की जरूरत न पडे. - असाढ सुद १५ कर्के शक्रांत सूर्य दक्षीणायन सर्व अभीत्तर मन्डले चाल चाले तब १८ मूहुर्तका दीन होता है उस वक्त तडका Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८६ ) शीघ्रबोध भाग ३ जो. भ समभूमि पर खड़ा हो कर अपना ढिचणकीं छाया पढे वह दो पग प्रमाण हो तो एक पेहर दीनका परिमाण समझना अथवा aser में विश ( वेथ ) की छाया विलश परिमाण हो तो पेहर दीन समझना और श्रावण कृष्ण सप्तमीकों एक आंगुल छाया वडे, श्रावण कृष्ण अमावास्याको २ अंगुल छाया वडे, श्रवण शुक्ल सप्तमीकों ३ आंगुल छाया वडे, और श्रावण शुक्ल पूर्णमाकों ४ आंगुल छाया वडे ( एक मासमें ४ आंगुल छाया वडे ) श्रावण शुक्ल पूर्णमा २ पग और ४ आंगुल छाया आने से पेहर दीन आया समझना, भाद्रपद शुक्ल पूर्णमा को २ पग ८ आंगुल छाया, आश्वन पूर्णमा ३ पग छाया, कार्तिक पूर्णमा ३ पग ४ आंगुल, मागसर पूर्णिमा ३ पग ८ आंगुल. पोष पूर्णमा १ पग छायाके पेहर दीन समजना, इसी माफक एक एक मासमें ४ आंगुल कम करते आषाढ पूर्णमाको २ पग छायाको पेहर दीन समझना. यह प्रमाण सम भूमिका है वर्तमान विषम भूमि होनेसे कुच्छ तफावत भी रहता than गीतार्थों से निर्णय करे । पोरसी और बहुपडिन्ना पोरसीका यंत्र. जेष्टे पग २-४ भाद्रपद पग ३-८ मार्ग० पग २-८ अंगुल ६x२ - १० अंगुल ८-३-४ अं० १०-४-६ आषाढ पग २ | आश्वन पग ३ पौष पग ४ चैत्र पग ३ अंगुल ६x२ - ६ | अंगुल ८-३-८ | अं० १०-१-१० | अंगुल ८-३-८ श्रावण पग २-४ कार्तिक ३-४ 1 अंगुल ६-२-१० अंगुल ८-४ / फाल्गुन पग ३-४ अं० ८-४ माघ प. ३-८ अं० ० १०-४-६ वैशाख पग २-८ अंगुल ८-२-४ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचारी. ( २८७ ) बहुपडि पूनापोरसीका मान जेष्ठआसाढ श्रावण मासमे जो पेहरकी छाया बताई है जीसमें ६ आंगुल छाया नादा और भाद्रपद आश्वन कार्तिक में ८ आंगुल मगसर पोष माघ में १० आंगुल फाल्गुन चैत वैशाखमें ८ आंगुल छाया बाढानेसे पडिपून्ना पौरसीका काल आते है इस वक्त मुपत्ती वा पात्रादिको फिरसे पडिलेहन की जाती है. ura मास और संवत्सरका मान विशेष जोतीषीयांको rasमें लिखेंगे यहां संक्षेपसे लिखते है. जैन शास्त्रमें संवत्सर की आदि श्रावण कृष्ण प्रतिपदासे होती है. श्रावण मास ३० दोनोंका होता है. भाद्रपद मास २९ दीनोंका जीसमें कृष्णपक्ष १४ दीनोंका और शुक्ल पक्ष १५ दोनोंका होता है आश्वन मगसर माघ चैत जेष्ट मास यह प्रत्येक ३० दीनोंका मास होता है और कार्तिक पोष फाल्गुन वैशाख आषाढ मास प्रत्येक २९ दीन का होता है जो एक तिथी घटती है वह कृष्णपक्ष में ही घठती है. इस सुधर्मा भगवान् के मंत्र को मान देनासे जैनों में पक्खि संवत्सरिका झघडा को स्वयं तिलांजली मिल जावेगी दिनका प्रथम पेहरका चोथा भाग में ( सूर्योदय होनासे दो घडी ) पडिलेहन करे किंचत् मात्र वस्त्रपात्रादि उपगरण विगेरे पडिलेहा न रखे + पडिलेहनकि विधि इसी भागके चतुर्थ समिति में लिखि गइ हे सो देखो. पडिलेहन कर गुरु महाराजकों विधिपूर्वक वन्दन नमस्कार कर प्रार्थना करेकि हे भगवान् अब में कोई साधुवोंकी व्यावच्च करूं या स्वाध्याय करूं? गुरु आदेश करेकि अमुक साधुकि व्यावच्च * यह मान चन्द्र संवत्सरका कहा हैं I + किंचत् मात्रोपधि विगर पडिलेही रखे तो नसिथसूत्र तीजे उद्देशे मासिक प्रायश्चित कहा है. Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८८ ) शीघ्रबोध भाग ४ था . करो तो अग्लानपने व्यावश्थ करे अगर गुरु आदेश करेकी स्वा ध्याय करो तो प्रथम पेहरका रहा हुवा तीन भागमें मुलसूत्रोंकि स्वाध्याय करे अथवा अन्य साधुवकों वाचना देवे स्वाध्याय केसी है की सर्व दुखको अन्त करनेवाली हैं. दिनका दुसरा पहेर में ध्यान करे अर्थात् प्रथम पेहरमें मूल urant स्वाध्याय करी थी उस्का अर्थोपयोग संयुक्त चितवन करे. शास्त्रोंका नया नया अपूर्वज्ञानके अन्दर अपना चित्त रमण करते रहना जीनसे जगत् कि सर्व उपाधीयां नष्ट हो जाती है वही चेतनका मोक्ष है. दिनके तीसरे पेहरमें जब पूर्ण क्षुधा सताने लग जावे अर्थात् छ कारण ( थोकडा नं० ३२ में देखो ) से कोइ कारण हो तो पूर्व पडिलेहा हुवा पात्रा ले के गुरु महाराजकी आज्ञा पूर्वक आतु रता चपलता रहित भिक्षाके लिये अटन करे भिक्षा लानेका ४२ तथा १०१ दोष ( थोकडे नं० ३२ में देखो ) वर्जित निर्वधाहार लावे इरियावहि आलोचना कर गुरुकों आहार दीखा के अन्य महात्मावको आमन्त्रण करे शेष रहा हुवा आहार माण्डलाका पांच दोष वर्ज के क्षणवार भावना भावे धन्य है जो मुनि तपश्चर्या करे बादमे अमुच्छित अगिद्धपणे संयम यात्रा निर्वाहने के लिये तथा शरीरको भाडा रुप आहार पाणी करे। अगर कीसी क्षेत्र में तीसरा पेहरमें भिक्षा न मिलती हो तो जीस बक्तमें मीले उस क् लावे एसा लेख दशवैका लिकसूत्र अ० ५ उ २ गाथा ४ में हैं ) इस कार्य में तीसरी पेहर खतम हो जाति है दिनके चोथे पेहरका चार भागमें तीन भाग तक स्वाध्याय करे और चोथा भागमें विधिपूर्वक पडिलेहन ( पूर्व प्रमाणे ) करे माथमें स्थंडिल भी द्रष्टीसे प्रतिलेखे बादमें दीनके विषय जो लागा हुवा अतिचार जिस्की आलोचना रुप उपयोग संयुक्त प्रतिक्रमण करे. Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचारी. ( २८९) क्रमशः पटावश्यक और साथमें इन्होंका + फल बताते है. षटावश्यकका नाम * यथाः-सावध जोगविरइ उक्ताणगुण पडिवति ॥ खलियस्स निंदवणा तिगिच्छगुण धारणाचेव ॥ १ ॥ तथा सामायिक चउवीसत्थो वन्दना प्रतिक्रमण काउस्सग पञ्चखाण. ( आवश्यकसूत्र ) (१) प्रथम सामायिकावश्यक इरियावहि पडिक्कमे देवसि प्रतिक्रमणठाउ जाव अतिचारका काउस्सग पारके एक नमस्कार कहे वहांतक प्रथम आवश्यक है दीनके अन्दर जीतना अतिचार लगा हो यह उपयोग संयुक्त काउस्सगमें चितवन करना इसका फल सावध योगोंसे निवृती होती है. कर्मानेका अभाव. (२) दुसरा चउवीसत्थावश्यक । इन अब सर्पिणिमें हो गये चोवीश तीर्थंकरोंकी स्तुति रूप लोगस्त कहेना-फल सम्यक्त्व निर्मल होता है. (३) तीसरावश्यक धन्दना--गुरु महाराजको द्वादशावृतनसे वन्दना करना, फल निच गौत्रका नास होता है और उच्च गौत्रकी प्राप्ती होती है. (४) चोथा प्रतिक्रमणावश्यक दिनके विषय लागा हवा अतिचार को उपयोग संयुक्त गुरु साखे पडिक्कमे सो देवसी अति. चारसे लगाके ओयरियोवज्झाया तीन गाथा तक चोथा आव. श्यक हे फल संयम रुपि जो नौका जिस्मे पडा हुवा छेद्रकों दे. - + फल उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २९ मां बताया है। * सूत्र श्री अनुयोगद्वारमें। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९० ) शीघ्रबोध भाग ४ था. ad छेद्रका निरुद्ध करणा, जीनसे असवला चारित्र और अष्ट प्रवचन माताकी उपयोग संयुक्त आराधना (निर्मल) करे. (५) पंचम काउसग्गावश्यक प्रतिक्रमण करतां अना उपयोग रहा हुवा अतिचार रुपि प्रायश्चित जीस्कों शुद्ध करणे के लिये चार लोगस्सका काउस्सग करे एक लोगस्स प्रगट करे फल - भूत और वर्तमान कालका प्रायश्चितको शुद्ध करे जैसे कोई मनुष्यको देना हो या बजन कीसी स्थानपर पहुंचाना हो उनको पहुंचा देवे या देना दे दीया फिर निर्भय होता है इसी माफीक व्रत मे लगा हुवा प्रायश्चितकों शुद्ध कर प्रशस्त ध्यानके अन्दर सुखे सुखे विचरे. -- (६) छठा पञ्चखाणावश्यक - गुरु महाराजको द्वादशा वृतसे २ वन्दना देके भविष्यकालका पञ्चखाण करे। फल आता हुवा आवक रोके और इच्छाका निरुद्ध होनासे पूर्व उपार्जित कर्मोंका क्षय करे. यह षढावश्यक रुप प्रतिक्रमण निर्विघ्नपणे समाप्तं होने पर भाव मंगल रुप तीर्थंकरादि स्तुति चैत्यवन्दन जघन्य ३ श्लोक उत्कृष्ट ७ श्लोक से स्तुति करना । फल ज्ञान दर्शन चारित्रकि आराधना होती है जीससे जीव उन्ही भवमें मोक्ष आवे अथवा विमानक देवतां मे जावे वहांसे मनुष्य होके मोक्षमें जावे उत्कृष्ट करे तो भी १५ भवसे अधिक न करे. रात्रिका कृत्य. जब प्रतिक्रमण हो जावे तव स्वाध्यायका काल आने से काल पडिलेहन करे जेसे ठाणयंग सूत्रका दशमा ठाणा में १० प्रकारकी आकाशकी असज्झाय बताई है यथा तारो तुटे, दीशा लाल, अकालमें गाज वीजली, कडक भूमिकम्प, बालचन्द्र, Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचारी. ( २९१) यक्षचिन्ह, अग्निका उपद्रव, धुधलु ( रजोधातादि ) यह दश प्रकारकी आस्वाध्यायसे कोइ भी अस्वाध्याय न हो तो. + रात्रिके प्रथम पेहरमें मुनि स्वाध्याय (सूत्रका मूल पाठ) करे. रात्रिके दुसरे पेहरमें जो प्रथम पेहरमें मूल सूत्रका पाठ किया था उन्हीका अर्थ चितवनरुप ध्यान करे परन्तु वातों. की स्वाध्याय और सुत्ताका ध्यान जो कर्मबन्धका हेतु है उनको स्पर्श तक भी न करे. स्वाध्याय सर्व दुःखोंका अन्त करती है। रात्रिके तीसरा पेहरमें जब स्वाध्याय ध्यान करतां निंद्राका आगमन हो तो विधिपूर्वक संथारा पोरसी भणा के यत्नापूर्वक संथारा करके स्वल्प समय निन्द्राको मुक्त करे. रात्रिका चोथा पहर-जव निद्रासे उठे उस बखत अगर कोई खराब सुपन विगेरे हवा हो तो उसका प्रायश्चितके लिये काउस्सग्ग करना फिर एक पेहरका ४ भागमें तीन भाग तक मूल सूत्रकी स्वाध्याय करणा वार वार स्वाध्यायका आदेश देते है इसका कारण यह है की श्री तीर्थकर भगवान् के मुखारविंद से निकली हुइ परम पवित्र आगमकी वाणी जिसको गणधर भगवानने सूत्ररुपे रचना करी उस वानीके अन्दर इतना असर भरा हुवा है कि भव्य प्राणी स्वाध्याय करते करते ही सर्व दुःखोंका अन्त कर केवलज्ञानको प्राप्त कर लेते है. इससे हा शास्त्रकार कहते है कि यथा “ सव्वदुःरकविमोरकाणं " - जब पेहरका चोथा भाग (दो घडी) रात्रि रहे तब रात्रि सबन्धी जो अतिचार लागा हो उसकि आलोचना रुप षटावश्यक पूर्ववत् प्रतिक्रमण करना + सूर्योदय होता हि गुरु महाराजको __ + रात्रिका काल पोरसीका प्रमाण नक्षत्र आदिसे मुनि जाने वह जोतीषीयांका अधिकारका थोकडामें लिखा जावेगा. + मुभेका काउस्सगमें तप चिन्तवन करना मुझे क्या तप करना है ? Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९२) शीघ्रबोध भाग ४ था. चन्दन कर पञ्चखांन करना और गुरु आज्ञा माफिक पूर्ववत् दीनकृत्य करते रहेना. इसी माफिक दिन और रात्रिमें बरताव रखना और भी, ज्ञान, ध्यान, मौन, विनय, व्यावञ्च पर्वाराधन तपश्चर्या दीनरात्रिमें सात वेर चैत्यवन्दन चार बार सजाय समिति गुप्ति भाषा पूजन प्रतिलेखनके अन्दर पूर्ण तय उपयोग रखना पंच महाव्रत पंच समिति तीन गुप्ति यह १३ मूल गुण है जीस्मे हमेशा प्रयत्न करते रहेना एक भवमे यदकिंचित् परिश्रम उठाणा पडता है परन्तु भवोभवमें जीव सुखी हो जाता है. , यह श्री सुधर्मास्वामिकी समाचारी सर्व जैनोंको मान्य है वास्ते झघडे की समाचारीयांको तिलाञ्जलि देकं सुधर्म समा. चारीमें यथाशक्ति पुरुषार्थ करे ताके शीघ्र कल्याण हो. शान्तिः . शन्तिः शान्तिः सेवभते-सेवंभंते-तमेवसञ्चम्. V * ॥ इति शीघ्रबोध चतुर्थ भाग समाप्तम् ॥ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला पुष्प नं. ३० श्री रत्नप्रभरि सद्गुरुभ्यो नमः अथ श्री शीघ्रबोध भाग ५ वां. थोकडा नम्बर ४० ( जड चैत्यन्य स्वभाव . ) ataar स्वभाव चैतन्य और कर्मोंका स्वभाव जड एवं ata और कर्मोंका भिन्न भिन्न स्वभाव होने पर भी जैसे धूल में धातू तीलों में तैल दूधमें घृत है, इसी माफीक अनादि काल से ate और कर्मों के संबन्ध है जैसे यंत्रादि के निमित्त कारण सेधूल से धातु तीलोंसे तैल दूधसे घृत अलग हो जाते है इसी माफीक जीवों को ज्ञान, दर्शन, तप, जप, पूजा, प्रभावनादि शुभ निमित्त मीलने से कर्मों और जीव अलग अलग हो जीव सिद्ध पदक प्राप्त कर लेते है. जबतक जीवोंके साथ कर्म लगे हुवे है तबतक जीव अपनि दशाको भूल मिध्यात्वादि परगुण में परिभ्रमन करता है जैसे सुवर्ण आप निर्मल अकलंक कोमल गुणवाला है किन्तु अग्निका संयोग पाके अपना असली स्वरुप छोड उष्णता को धारण करता है फीर जल वायुका निमित्त मीलने पर अग्निको त्यागकर अपने असली गुणको धारण कर लेता है इसी माफीक जीव भी निर्मल Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९४) शीघ्रबोध भाग ५ वां. अकलंक अमूत्ति है परन्तु मिथ्यात्वादि अज्ञान के निमित्त कारण से अनेक प्रकारके रूप धारण कर संसारमें परिभ्रमन करता है परन्तु जब सद्ज्ञान दर्शनादिका निमित्त प्राप्त करता है तब मिथ्यात्वादिका संग त्याग अपना असली स्वरूप धारण कर सिद्ध अवस्थाको प्राप्त कर लेता है. __ जीव अपना स्वरूप कीस कारणसे भूल जाता है ? जसे कोह अकलमंद समजदार मनुष्य मदिरापान करने से अपना भान मूल जाता है फोर उन मदिराका नशा उतरने पर पश्चात्ताप कर अच्छे कार्यमे प्रवृत्ति करता है इसी माफीक अनंत ज्ञान दर्शनका नायक चैतन्यको मोहादि कर्मदलक विपाकोदय होता है तब चैतन्यको वेभान-विकल-बना देता है फीर उन कर्मोको भोगवके निर्जरा करने पर अगर नया कर्म न बन्धे तो चैतन्य कर्म मुक्त हा अपने स्वरूपम रमणता करता हुवा सिद्ध पदको प्राप्त कर लेता है. कर्म क्या वस्तु है ? कर्म एक कीस्मके पुद्गल है जिस पुदगलोम पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस, च्यार स्पर्श है जीवोंके उन पुदगलों से अनादि कालका संबन्ध लगा हुवा है उन कर्मोंकि प्रेरणासे जीवोंके शुभाशुभ अध्यवसाय उत्पन्न होते है उन अध्यवसायोंकी आकर्षणासे जीव शुभाशुभ कर्म पुद्गलोंको ग्रहन करते है। वह पुदगल आत्माके प्रदेशोंपर चीपक जाते है अर्थात् आत्म प्रदेशोंके साथ उन कर्म पुद्गलोंका खीरनिरकी माफीक बन्ध होते है जिनों से वह कर्म पुदगल आत्माके गुणोंको झांखा बना देते है जैसे सूर्यको बादल झांखा बनाता है। जैसे जैसे अध्यवसायोंकी मंदता तीव्रता होती है वैसे वैसे कर्मों के अन्दर रस तथा स्थिति पड जाति है वह कर्म बन्धने के बाद वह कर्म कीतने कालसे विपाक उदय होते है उसकों अबादा काल कहते है जैसे हुन्डीके अन्दर मुदत डाली जाति है। कर्म दो प्रकारसे भोगवीये Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म विषय. (२६५) जाते है (१) प्रदेशोदय (२) विपाकोदय जिस्मे तप, जप, ज्ञान, ध्यान, पूजा, प्रभावनादि करनेसे दीर्घ कालके भोगवने योग्य कर्मोको आकर्षण कर स्वल्प कालमें भोगव लेते है जिसकी खबर छमस्थोंको नहीं पडती है उसे प्रदेशोदय कहते है तथा कर्म विपाकोदय होने से जीवोंको अनेक प्रकारकी विटम्बना से भोगवना पडे उसे विपाकोदय कहते है। अशुभ कर्मोदय भोगवते समय आर्तध्यानादि अशुभ क्रिया करने से उन अशुभ कर्मों में और भी अशुभ कर्म स्थिति तथा अनुभाग रसकि वृद्धि होती है तथा अशुभ कर्म भोगवते समय शुभ क्रिया ध्यान करने से वह अशुभ पुदगल भी शुभपणे प्रणम जाते है तथा स्थितिघात रसघात कर बहुत कर्म प्रदेशों से भोगवके निर्जरा कर देते है ॥ शुभ कर्मोदय भोगवते समय अशुभ क्रिया करनेसे वह शुभ कर्म पुद्गल अशुभपणे प्रणमते है और शुभ क्रिया करनेसे उन शुभ कर्मों में और भी शुभकि वृद्धि होती है वह शुभ कर्म सुखे सुखे भोगवके अन्त में मोक्षपदको प्राप्त कर लेते है। साहुकार अपने धन का रक्षण कब कर सकेंगे कि प्रथम चौर आनेका कारण हेतु रहस्तेको ठीक तोरपर समज लेंगे फीर उन चोर आनेके रहस्तेकों बन्ध करवादे या पेहरादार रखदे तो धन का रक्षण कर सके इसी माफीक शास्त्रकारोंने फरमाया है कि प्रथम चौर याने कर्मों का स्वरूपको ठीक तोरपर समजो फीर कर्म आनेका हेतु कारणको समजो. फीर नया कर्म आनेके रहस्तेकों रोकों और पुराणे कर्मोंको नाश करने का उपाय करों तांके संसार का अन्त कर यह जीव अपने निज स्थान ( मोक्ष को प्राप्त कर सादि अनंत भागे सुखी हो। - कर्मोंकि विषय के अनेक ग्रन्थ है परन्तु साधारण मनुष्योंके लिये एक छोटीसी कीताब द्वारा मूल आठ कर्मोंकि उत्तरकर्म Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९६) शीघ्रबोध भाग ५ वा. प्रकृति १५८ का संक्षिप्त विवरण कर आप.क सेवामें रखी जाति है आशा है कि आप इस कर्म प्रकृतियोंकों कंठस्थ कर आगे के लिये अपना उत्साह बढाते रहेगें इत्यलम् । -----* *थोकडा नम्बर ४१ ( मूल आठ कर्मोकि उत्तर प्रकृति १५८.) (१) ज्ञानावर्णियकर्म-चैतन्यके ज्ञान गुणको रोक रखा है। १२ दर्शनावर्णियकर्म-चैतन्यके दर्शन गुणको रोक रखा है। (३) वेदनियकर्म-चैतन्यके अन्याबाद गुणको रोक रखा है। (४) मोहनियकर्म-चैतन्यके क्षायिक गुणको रोक रखा है। (५) आयुष्यकर्म-चैतन्यके अटल अवगाहाना गुणको रोक रखा है. (६) नामकर्म-चैतन्यके अमूर्त गुणको रोक रखा है। (७) गौत्रकर्म-चैतन्यके अगुरु लघु गुणको रोक रखा है। (८) अन्तरायकर्म-चैतन्यके वीर्य गुणको रोक रखा है। इन आठों कर्मोकि उत्तर प्रकृति १५८ है उनोंका विवरण. (१) ज्ञानावणियकर्म जेसे घाणीका बहल याने घाणीके बहलके नैत्रोंपर पाट्टा बान्ध देनेसे कीसी वस्तुका ज्ञान नही होता है. इसी माफीक जीवोंके ज्ञानावर्णिय कर्मपडल आजानेते वस्तुतस्यका ज्ञान नहीं होता है । जीस ज्ञानावरणीय कर्मकि उत्तर प्रकृति पांच है यथा-(१) मतिज्ञानावर्णिय, ३४० प्रकारके मतिज्ञान है (देखो शीघ्रबोध भाग ६ ठा) उनपर आवरण करना अर्थात् मतिसे कीसी प्रकारका ज्ञान नही होने देना अच्छी बुद्धि Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मोकी उत्तरप्रकृति. ( २९७) उत्पन्न नही होना तत्व वस्तुपर विचार नहीं करने देना. प्रज्ञा नही फेलना-बदलेमें खराब मति-बुद्धि-प्रज्ञा-विचार पैदा होना यह सब मतिज्ञानावर्णियकर्मका ही प्रभाव है (२) श्रुतज्ञानावर्णिय-श्रुतज्ञानको रोके, पठन पाठन श्रवण करतको रोके, .सदृशान होंने नही देवे योग्य मीलनेपर भी सूत्र सिद्धान्त वाचना सुनने में अन्तराय होना-बदलेमें मिथ्याज्ञान पर श्रद्धा पठन पाठन श्रवण करनेकि रूची होना यह सब श्रुतिज्ञानावर्णियकर्मका प्रभाव है (३) अवधिज्ञानावणियकर्म-अनेक प्रकार के अवधिज्ञानकों रोके (४/मन पर्यवज्ञानावर्णियकर्म आते हुवे मनःपर्यवज्ञानको रोके (५ ) केवलज्ञानावर्णियकर्म-संपूर्ण जो केवलज्ञान है उनकों आते हुवेकों रोके इति ॥ (२) दर्शनावर्णियकर्म-राजाके पोलीया जैसे कीसी मनुध्यको राजासे मीलना है परन्तु वह पोलीया मीलने नही देते है इसी माफिक जीवोंको धर्म राजा से मीलना है परन्तु दर्शनाव. र्णियकर्म मोलने नही देते है जीसकि उत्तर प्रकृति नौ है. (१) चक्षु दर्शनावर्णियकर्म प्रकृति उदय से जीवोंको नेत्र ( आँखों) हिन बना दे अर्थात् एकेन्द्रिय बेइन्द्रिय तेइन्द्रिय जातिमें उत्पन्न होते है कि जहां नेत्रोंका बिलकुल अभाव है और चौरिन्द्रिय पांचेन्द्रिय जातिमें नेत्र होने पर भी रातीदा होना, काणा होना तथा बिलकुल नही दीखना इसे चक्षु दर्शनावणियकर्म प्रकृति कहते है (२) अचक्षु दर्शनावर्णियकर्म प्रकृति उदयसे त्वचा जीभ नाक कान और मनसे जो वस्तुका ज्ञान होता है उनोंको रोके जिस्का नाम अचक्षु दर्शनावणिय कहते है ( ३ ) अवधि दर्शनावर्णियकर्म प्रकृति उदयसे अवधिदर्शन नही होने देवे अर्थात अवधि दर्शनको रोके ( ४ ) केवल दर्शनावणिय कर्मोदय, केवल दर्शन होने नहीं देवे अर्थात् केवल दर्शनपर आवरण कर रोक रखे ॥ तथा निंद्रा-निंद्रा निंद्रा दर्शनाधर्णियकर्म प्रकृति उदय से Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९८) शीघ्रबोध भाग ५ वां. निंद्रा आति है परन्तु सुखे सोना सुखे जाग्रत होना उसे निंद्रा । कहते है । और सुखे सोना दुःखपूर्वक जाग्रत होना उसे निंद्रानिंद्रा कहते है । खडे खडेकों तथा बैठे बैठेकों निंद्रा आवे उसे प्रचला नामाकि निंद्रा कहते है । चलते फीरतेको निंद्रा आवे उसे प्रचला प्रचला नामकि निद्रा कहते है। दिनकों या रात्रीमे चितवन . (बिचाराहुघा ) किया कार्य निंद्राके अन्दर कर लेते हो उसको स्त्यानद्धि निद्रा कहते है. एवं च्यार दर्शन और पांच निद्रा मीलाने से नौ प्रकृति दर्शनावर्णियकर्मकि है । (३) वेदनियकर्म-मधुलीप्त छुरी जैसे मधुका स्वाद मधुर है परन्तु छुरीकी धार तीक्षण भी होती है इसी माफीक जीवोंको शातावेदनि सुख देती है मधुवत और असातावेदनि दुःख देती है छुरीवत् जीसकि उत्तर प्रकृति दोय है सातावेदनिय, असाता. वेदनिय, जीवोंको शरीर-कुटुम्ब धन धान्य पुत्र कलत्रादि अनुकुल सामग्री तथा देवादि पौद्गलीक सुख प्राप्ति होना उसे सातावेदनियकर्म प्रकृतिका उदय कहते है और शरीरमें रोग निर्धनता पुत्र कलत्रादि प्रतिकुल तथा नरकादि के दुःखोका अनुभव करना उसे असातावेदनियकर्म प्रकृति कहते है। (४) मोहनियकर्म-मदिरापान कीया हुवा पुरुष बेभान हो जाते है फीर उनकों हिताहितका ख्याल नहा रहते है इसी माफीक मोहनियकर्मोदयसे जीव अपना स्वरूप भूल जानेसे उसे हिताहितका ख्याल नही रहता है जिस्के दो भेद है दर्शनमोहनिय सम्यक्त्व गुणको रोके ओर चारित्रमोहनिय चारित्र गुणको रोके जीसकि उत्तर प्रकृति अठावीस है जिस्का मूल भेद दोय है (१) दर्शनमोहनिय (२) चारित्र मोहनिय जिस्मे दर्शनमोह. निय कर्मकि तीन प्रकृति है (१) मिथ्यात्वमोहनीय (२) सम्यकत्व मीहनिय ( ३) मिश्रमोहनिय-जेसे एक कोद्रव नामका Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कर्मोकी उत्तरप्रकृति. (२९९) अनाज हाते है जिस्को खानेसे नशा आ जाता है उन नशाके मारे अपना स्वरूप भूल जाता है। (क) जिस कोद्रव नामके धांनकों छाली सहित खानेसे बिलकुल ही बेभान हो जाते है इसी माफीक मिथ्यात्व मोहनिय कर्मोदयसे जाव अपने स्वरूपको भूलके परगुणमें रमणता करते है अर्थात् तत्व पदार्थ कि विप्रीत श्रद्धाकों मिथ्यात्व माहनिय कहते है जिस्के आत्म प्रदेशोंपर मिथ्यात्वदलक होनेसे धर्मपर श्रद्धा प्रतित न करे अधर्मकि प्ररूपना करे इत्यादि । ( ख ) उस कोद्रव धानका अर्ध विशुद्ध अर्थात् कुछ छाली उतारके ठीक किया हो उनको खानेसे कभी सावचेती आति है इसी माफीक मिश्रमोहनीवाले जीवोंको कुच्छ श्रद्धा कुच्छ अश्रद्धा मिश्रभाव रहते है उनको मिश्रमोहनि कहते है लेकीन वह है मिथ्यात्वमें परन्तु पहला गुणस्थान छुट जानेसे भव्य है। (ग) उस कोद्रव धानकों छाशादि सामग्रीसे धोके विशुद्ध बनावें परन्तु उन कोद्रव धानका मूल जातिस्वभाव नहीं जानेसे गलछाक बनी रहती है इसी माफीक क्षायक सम्यकत्व आने नही देवे और सम्यक्त्वका विराधि होने नही देवे उसे सम्यक्त्व मोहनिय कहते है । दर्शनमोह सम्यक्त्व घाति है दुसरा जो चारित्र मोहनिय कर्म है उसका दो भेद है (१) कपाय चारित्र मोहनिय (२) नोकषाय चारित्र मोहनिय और कषाय चारित्र मोहनिय कर्मके १६ है । जिस्मे एकेक कषायके च्यार च्यार भेद भी हो सक्ते है जेसे अनंतानुवन्धी क्रोध अनंतानुबन्धी जेसा, अप्रत्याख्यानि जेसा-प्रत्याख्यानि जेसा-और संज्वलन जेसा एवं १६ भेदोंका ६४ भेद भी होते है यहांपर १६ भेद ही लिखते है। अनंतानुबन्धी क्रोध-पत्थरकि रेखा सादृश, मान बनके Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीघ्रबोध भाग ५ वां. स्थंभ सादृश, माया वांसकी जड सादृश, लोभ करमजी रेस्मके रंग सादृश घात करे तो सम्यक्त्वगुणकि स्थिति यावत् जीवकि, गति करें तो नरककि || अप्रत्याख्यानि क्रोध तलावकि तड, मान दान्तकास्थंभ, माया मंढाका श्रृंग, लोभ नगरका कीच, घात करे तो श्रावकके व्रतोकि स्थिति एक वर्षकि. गति तीर्यच कि ॥ प्रत्याख्यानि क्रोध गाडाकी लीक, मान काष्टका स्थंभ, माया चालता बैलकामूत्र, लोभ नेत्रोंके अञ्जन घात करे तो सर्व व्रतकि, स्थिति करे तो च्यार मासकि, गति करें तो मनुष्यकी ॥ संज्वलनका क्रोध पाणीकी लीक, मान तृणका स्थंभ, मायावांसकी छाल लोभ हलदिका रंग, घात करे तो वीतरागपणाकों, स्थिति क्रोधकी दो मास. मानकी एक मास, मायाकी पन्दरा दिन, लोभकी अन्तर मुहुर्त. गति करे तो देवतावोंमें जावें. इन सोलह प्रकारकी कषायकों कषाय मोहनिय कहते है नौ नोकषाय मोहनिय-हास्य-कतृ हल मश्करी करना । भय-डरना विस्मय होना। शोक-फीकर चिंता आर्तध्यान करना। जुगुप्सा-ग्लानी लाना नफरत करना। रति आरंभादिकार्योंमें खुशी लाना। अरति-संयमादि कार्योंमे अरति करना । स्त्रीवेदजिस प्रकृतिके उदय पुरुषोंकि अभिलाषा करना । पुरुषवेद जिस प्रकृतिके उदय स्त्रियोंकि अभिलाषा करना। नपुंसक वेद जिस प्रकृति के उदय खि-पुरुष दोनोंकि अभिलाष करना ॥ एवं २८ प्रकृति. मोहनियकर्मकी है। (५) आयुष्य कर्मकि च्यार प्रकृति है यथा-नरकायुष्य, तीर्यचायुष्य, मनुष्यायुष्य, देवायुष्य । आयुष्यकर्म जेसे कारागृ. हकी मुदत हो इतने दिन रहना पड़ता है इसी माफीक जोस गतिका आयुष्य हो उसे भोगवना पडता है। (६) नामकर्म चित्रकार शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मोंकि उत्तरप्रकृति. ( ३०१ ) चित्रोंका अवलोकन करता है इसी माफीक नामकर्मोदय जीवोंकों शुभाशुभ कार्य में प्रेरणा करनेवाला नामकर्म है जीसकी एकसोतीन ( १०३ ) प्रकृतियों है । ( क ) गतिनामकर्म किं च्यार प्रकृतियों है नरकगति, तीर्थचगति, मनुष्यगति. देवगति । एक गतिसे दुसरी गतिर्मे गमनागमन करना उसे गतिनाकर्म कहते है ( ख ) जातिनाम कर्म कि पांच प्रकृति है एकेन्द्रिय जाति, बेइन्द्रिय तेइन्द्रिय० चोरिन्द्रिय० पंचेन्द्रिय जाति नाम । ( ग ) शरीर नामकर्मकि पांच प्रकृति है औदारिक शरार afar आहारीक तेजस० कारमण शरीर० । प्रतिदिन नाशविनाश होनेवालोंकों शरीर कहते है । ० (घ) अंगोपांग नामकर्मकि तीन प्रकृति है. औदारिक शरीर अंग उपांग, वैक्रिय शरीर अंगोपांग, आहारीक शरीर अंगोपांग, शेष तेजस कारमण शरीरके अंगोपांग नही होते है । (ङ) बन्धन नामकर्मकि पंदरा प्रकृति है - शरीरपणे पौल ग्रहन करते है फीर उनोंकों शरीरपणे बन्धन करते है यथाऔदारीक औदारीकका बन्धन, औदारीक तेजसका बन्धन, २ औदारीक कारमणका बन्धन, ३ औदारीक तेजस कारमणका बन्धन, ४ वैक्रिय वैक्रियक्ता बन्धन, ५ वैक्रिय तेजसका बन्धन, ६ कारणका बन्धन. ७ वैक्रिय तेजस कारमणका वन्धन ८ आहारीक आहारीकका बन्धन९ आहारीक तेजसका बन्धन. १० आहारीक कारमणका बन्धन. ११ आहारीक तेजस कारमणका बन्धन १२ तेजस तेजसका बन्धन. १३ तेजस कारमणका बन्धन. १४ कारमणकारमणका बन्धन १५ एवं १५ । (च) संघातन नाम कर्म कि पांच प्रकृति है जो पौद्रल शरीरपणे ग्रहन कीया है उनोंकों यथायोग्य अवयवपणे, मजबुत बनाना । Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०२ ) शीघ्रबोध भाग ५ वा. जैसे औदारिक संघातन, वैक्रियसंघातन, आहारीक संघातन, तेजस संघातन, कारमण संघातन । (छ) संहनन नामकर्मकि छे प्रकृति है. शरीरकि ताकत और हाsकि मजबुतिकों संहनन कहते है यथा वज्र ऋषभनाराच संहनन । वज्रका अर्थ है खीला. प्रभका अर्थ है पाट्टा, नाराचका अर्थ है दोनों तर्फ मर्कट याने कुंटीयाके आकार दोनो तर्फ हडी जुडी हुई अर्थात् दोनो तर्फ हड्डीका मीलना उसके उपर एक ester पट्टा और इन तीनोंमें एक खीली हो उसे वज्रऋषभ नाराच संहनन कहते है । नाराच संहनन- उपरवत् परन्तु बीचमें खीली न हो. नाराच संहनन- इसमें पट्टा नही हैं । अर्द्ध नाराच संहनन - एक तर्फ मर्कट बन्ध हो दुसरी तर्फ खीली हो । किलीका संहनन- दोनो तर्फ अंकुडाकि माफीक एक हडीमें दुसरी हडी फसी हुइ हो । छेवयुं संहनन - आपस में हड्डीयों जुडी हुई है ॥ (ज) संस्थाननामकर्मकि छे प्रकृतियों है - शरीर की आकृतिकों संस्थान कहते हैं समचतुरस्र संस्थान- पालटीमार के ( पद्मासन ) बेठने से चोतर्फ बराबर हो याने दोनों जानुके बिच में अन्तर है इतना ही दोनों स्कन्धों के बिचमें। इतना ही एक तर्फसे जानु और स्कन्धके अन्तर हो उसे समचतुरस्र संस्थान कहते है । निग्रोध परिमंडल संस्थान नाभीके उपरका भाग अच्छा सुन्दर हो और नाभीके निचेका भाग हिन हो । सादि संस्थान - नाभीके निचेका विभाग सुन्दर हो, नाभीके उपरका भाग खराब हो । कुब्ज संस्थाम- हाथ पैर शिर गर्दन अवयव अच्छा हो परन्तु छाती पेट पीठ खराब हो । वामन संस्थान - हाथ पैरादि छोटे छोटे अवयव खराब हो । हुंडक संस्थान - सर्व शरीर अवयव खराब अप्रमाणीक हो । ( झ ) वर्णनामकर्म कि पांच प्रकृति है - शरीर के जो पुद्गल लागा है उन पुद्गलोंका वर्ण जैसे कृष्णवर्ण, निलवर्ण, रक्तवर्ण, Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मोकि उत्तर प्रकृति. (३०३ ) पेतवर्ण, श्वेतवर्ण जीवोंके जिस वर्ण नाम कर्मोदय होते है वेसा वर्ण मीलता है। ( अ ) गन्ध नामकर्मकि दो प्रकृति है-सुर्भिगन्धनाम कर्मोदयसे सुर्भिगन्धके पुद्गल मीलते है दुर्मिगन्धनाम कर्मोदयसे दुर्भिगन्धके पुद्गल मीलते है। ( ट ) रस नामकर्मकि पांच प्रकृति है-पूर्ववत् शरीरके पुद्गल तिक्तरस, कटुकरस, कषायरस, अम्लरस, मधुररस, जैसे रस कर्मोदय होता है वेसे ही पुद्गल शरीरपणे ग्रहन करते है। (ठ) स्पर्श नामकर्मकि आठ प्रकृति हे जिस स्पर्श कर्मका उदय होता है वैसे स्पर्शके पुद्गलोंकों ग्रहन करते है जैसे कर्कश, मृदुल, गुरु, लघु, शित, उष्ण, स्निग्ध, रुक्ष । (ड) अनुपूर्वि नामकर्मकि च्यार प्रकृतियों है एक गतिसे मरके जीव दुसरी गतिमें जाता हुवा विग्रह गति करते समयानुपूर्वि, प्रकृति उदय हो जीवकों उत्पत्तिस्थान पर ले जाते है जैसे बेचा हुवा वहलकों धणी नाथ गालके लेजावे जीस्का च्यार भेद नरकानुपूर्वि, तीर्यचानुपूर्वि, मनुष्यानुपूर्वि, देवआनुपूर्वि । (ढ) विहायगति नामकर्म कि दो प्रकृतियों है जिस कर्मादयसे अच्छी गजगामिनी गति होती है उसे शुभ विहायगति कहते है और जिन कर्मोदयसे उंट खरवत् खराब गति होती है उसे अशुभ विहायगति कहते है । इन चौदा प्रकारकि प्रकृतियोंके पिंड प्रकृति कही जाती है अब प्रत्येक प्रकृति कहते है। पराघातनाम-जिस प्रकृतिके उदयसे कमजोरकों तो क्या परन्तु बडे बडे सत्वषाले योद्धोंको भी एक छीनको पराजय कर उश्वासनाम-शरीरकि बाहीरकि हयाको नासीकाहारा Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०४ ) शीघ्रबोध भाग ५ वा. शरीरके अन्दर खींचना उसे श्वास कहते है और शरीर के अन्दरकी हवा बाहर छोडना उसे निश्वास कहते है । आतपनाम - इस प्रकृतिके उदयसे स्वयं उष्ण न होनेपर भी दुसरोंको आतप मालुम होते है यह प्रकृति 'सूर्य' के बैमानके जो बादर पृथ्वीकाय है उनके शरीरके पुद्गल है वह प्रकाश करता है, यद्यपि अग्निकाय के शरीर भी उष्ण है परन्तु वह आतप नाम नही किन्तु उष्ण स्पर्श नामका उदय है । उद्योतनाम - इस प्रकृतिके उदयसे उष्णता रहीत - शीतल प्रकृति जेसे चन्द्र ग्रह नक्षत्र तारोंके वैमानके पृथ्वी शरीर है तथा देव और मुनि वैक्रिय करते है तब उनोंका शितल शरीर भी प्रकाश करता है । आगीया- मणि - औषधियों इत्यादिको भी उद्योत नामकर्मका उदय होता है । अगुरुलघुनाम - जीस जीवोंके शरीर न भारी हो कि अपने से संभाला न जाय न हलका हो कि हवामें उड जावे याने परिमाण संयुक्त हो शीघ्रता से लिखना हलना चलनादि हरेक कार्य कर सके उसे अगुरुलघु नाम कहते है । जिननाम -- जिस प्रकृतिके उदय से जीव तीर्थंकर पद को प्राप्त कर केवलज्ञान केवलदर्शनादि ऐश्वर्य संयुक्त हो अनेक भव्यात्माका कल्याण करे । निर्माणनाम - जिस प्रकृतिके उदय जीवोंके शरीर के अंगोपांग अपने अपने स्थानपर व्यवस्थित होते हो जेसे सुतार चित्रकार, पुतलोयोंके अंगोपांग यथास्थान लगाते है इसी माफीक यह कर्म प्रकृति भी जीवोंके अवयव यथास्थान पर व्यवस्थित बना देती है । उपघातनाम -- जिस प्रकृतिके उदयसे जीवों को अपने ही Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मोकि उत्तर प्रकृति १५८. (३०५) अवयव से तकलीफों उठानी पडे जेसे मस नसूर दोजीभों अधिक दान्त होठों से बाहार निकल जाना अंगुलीयों अधिक इत्यादि । इन आठ प्रकृतियोंको प्रत्येक प्रकृति कहते है अब प्रसादि दश प्रकृति बतलाते है। प्रसनाम-जिस प्रकृति के उदयसे त्रसपणा याने बेइन्द्रियादिपणा मोले उसे प्रसनाम कहते है । बादरनाम-जिस प्रकृतिके उदयसे बादरपणा याने जिसको छदमस्थ अपने चरमचक्षुसे देख सके यद्यपि बादर पृथ्वीकायादि पकेक जीव के शरीर दृष्टिगोचर नहीं होते है. तथपि उनोंके बादर नाम कर्मोदय होनेसे असंख्याते जीवोंके शरीर एकत्र होनेसे दृष्टिगोचर हो सकते है परन्तु सूक्ष्म नामकर्मो. दयवाले असंख्यात शरीर एकत्र होनेपर भी चरमचभुवालों के दृष्टिगोचर नहीं होते है। पर्याप्त नाम-जिस जातिमें जितनि पर्याप्ती पाती हो उनोंकों पूरण करे उसे पर्याप्तनाम कहते है पुद्गल ग्रहन करनेकि शक्ति पुद्गलोको परिणमानेकि शक्तिको पर्याप्ति कहते है। . प्रत्येक शरीर नाम-एक शरीरका एक ही स्वामी हो अर्थात् एकेक शरीरमें एकेक जीव हो उसे प्रत्येक नाम कहते है । साधारण वनस्पति के सिवाय सब जीवोंको प्रत्येक शरीर है. - स्थिर नाम-शरीर के दान्त हड्डी ग्रीवा आदि अवयव स्थिर मजबुत हो उसे स्थिरनामकर्म कहते है। शुभनाम-नाभी के उपरका शरीरको शुभ कहते है जैसे हस्तादिका स्पर्श होनेसे अप्रीति नहीं है किन्तु परोंका स्पर्श होते ही नाराजी हाति है । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०६) शीघ्रबोध भाग ५ वा. __ सुभाग नाम-कोसीपर भी उपकार किया विगर ही लोगों के प्रीतीपात्र होना उसको सुभागनाम कर्म कहते है। अथवा सौभाग्यपणा सदैव बना रहना युगल मनुष्यवत्. सुस्वर नाम-मधुर स्वर लोगोंको प्रीय हो पंचमस्वरवत् आदेय नाम--जिनोंका वचन सर्वमान्य हो आदर सत्कारसे सर्व लोन मान्य करे। यशकीर्ति नाम-एक देशमे प्रशंसा हो उसे कोर्ति कहते है और बहुत देशों में तारीफ हो उसे यशः कहते है अथवा दान तप शील पूजा प्रभावनादिसे जो तारीफ होती है उसे कीर्ति कहते है और शत्रुवोंपर विजय करनेसे यशः होता है। अब स्थावरकि दश प्रकृति कहते है। स्थावर नाम-जिस प्रकृतिके उदय से स्थिर रहे याने शरदी गरमीसे बच नहीं सके उसे स्थावर कहते है जेसे पृथ्व्यादि पांच स्थावरपणे में उत्पन्न होना ! सूक्ष्म नाम-जिस प्रकृति के उदयसे सूक्ष्म शरीर-जो कि छद्मस्थोंके इष्टिगोचर होवे नहीं कोसीके रोकने पर रूकावट होवे नहो. खुदके रोका हुवा पदार्थ रूक नही सके । वैसे सूक्ष्म पृथ्व्यादि पाँच स्थावरपणेमें उत्पन्न होना। अपर्याप्ता नाम-जिस जातिमें जितनी पर्याय पावे उनसे कम पर्यायवान्धके मर जावे, अथवा पुद्गल ग्रहन में असमर्थ हो । ___ साधारण नाम अनंत जाव एक शरीरके स्वामि हो अर्थात् एक ही शरीर में अनंत जीव रहते हो. कन्दमूलादि. ___ अस्थिर नाम-दान्त हाड कान जीभ ग्रीवादि शरीरके अव. यवों अस्थिर हो-चपल हा उसे अस्थिर नाम कर्म कहते है।। अशुभनाम-नाभीके नीचे का शरीर पैर विगेरे जोकि दुस Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मोकि उत्तर प्रकृति १५८. (३०७) रोंके स्पर्श करतेही नाराजी आवे तथा अच्छा कार्य करनेपरमा नाराजी करे इत्यादि। दुर्भागनाम-कोसीके पर उपकार करनेपरभी अप्रीय लगे तथा इष्टवस्तुओंका वियोग होना। दुःस्वरनाम-जिस प्रकृतिके उदयसे ऊंट, गर्दभ जेसा खराब स्वर हो उसे दुःस्वरनाम कर्म कहते है । अनादेयनाम-जिसका वचन कोइभी न माने याने आदर करनेयोग्य वचन होनेपरभी कोइ आदर न करे। अयशःकीर्तिनाम-जिस कर्मोदयसे दुनियों में अपयश-अकीर्ति फैले, याने अच्छे कार्य करनेपरभी दुनियों उनोंकों मलाइ न देके बुराइयोंही करती रहै इति नामकर्मकी १०३ प्रकृति है। (७) गोत्रकर्म-कुंभकार जेसे घट बनाते है उसमें उच्च पदार्थ घृतादि और निच पदार्थ मदीरा भी भरे जाते है इसी माफीक जीव अष्ट मदादि करनेसे निच गोत्र तथा अमदसे उच्च गोत्रादि प्राप्त करते है जीसकि दो प्रकृति है उच्चगोत्र, निश्चगोत्र जिस्में इक्ष्वाकुवंस हरिवंस चन्द्रवंसादि जिस कुलके अन्दर धर्म और नीतिका रक्षण कर चीरकालसे प्रसिद्धि प्राप्ति करी हों उच्चकार्य कर्त्तव्य करनेवालोंकों उच्च गोत्र कहते है और इन्होंसे वप्रीत हो उसे निचगोत्र कहते है। १८ ) अन्तरायकर्म-जैसे राजाका खजांनची-अगर राजा हुकमभी कर दीया हो तो भी वह खजांनची इनाम देने में विलम्ब करसता है इसी माफीक अन्तराय कर्मोदय दानादि कर नहा सक्ते है तथा वीर्य-पुरुषार्थ कर नही मके जीसकि पांच प्रकृति है (१) दानअंतराय-जेसे देनेकि वस्तुओं मौजुद हो. दान लेनेवाला उत्तम गुणवान पात्र मौजुद हो. दानके फलोंकों जानता Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०८) शीघ्रबोध भाग ५ वां. हो, परन्तु दान देने में उत्साह न बढे वह दानांतराय कर्मका उदय है. दातार उदार हो दानकी चीजों मौजूद हो आप याचना करनेमें कुशल हो परन्तु लाभ न हो तथा अनेक प्रकारके व्यापारादिमें प्रयत्न करने पर भी लाभ न हो उसे लाभान्तराय कहते है । भोगवने योग्य पदार्थ मौजुद है उस पदार्थोंसे वैराग्यभाव भी नही है न नफरत आति है परन्तु भोगान्तराय कर्मोदयसे कीसी कारण से भोगव नहीं सके उसे भोगान्तराय कहते है जो वस्तु एक दफे भोगमें आति हो असानादि । उपभोगान्तराय - जो खि व भूषणादि वारवार भोगने में आवे एसी सामग्री मोजूद हो तथा त्यागवृत्ति भी नहो तथापि उपभोग में नहीं ली जावे उसे उपाभोगान्तराय कहते है । र्यान्तराय-रोग रहीत शरीर बलवान सामर्थ्य होने पर भी कुच्छभी कार्य न कर सके अर्थात् वीर्य अन्तराय कर्मोदयसे पुरुषार्थ करने में वीर्य फोरने में कायरोंकी माफीक उत्साह रहित होते है उठना बैठना हलना चलना बोलना लिखना पढ़ना आदि कार्य करने में असमर्थ हो वह पुरुषार्थं कर नही सकते है उसे वीर्य अन्तरायकर्म कहते है इन आठ कर्मोंकी १५८ प्रकृतिको कंठस्थ कर फीर आगे थोकडेमें कर्मबन्धनेका कर्म तोडने के हेतु लिखेंगे उसपर ध्यान दे कर्मबन्धके कारणोंको छोडनेका प्रयत्न कर पुरांणे कर्मकों क्षय कर मोक्षपद प्राप्त करना चाहिये इति । सेवते सेवंभंते तमेवसचम् -X()*+ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मबन्ध हेतु. थोकडा नम्बर ४२ ( ३०९ ) ( कर्मो के बन्धहेतु ) कर्मबन्धके मूल हेतु चार है यथा-मिथ्यात्व (५) अवृति (१२) कषाय (२५) योग (१५) एवं उत्तर हेतु ५६ जिसद्वारा कर्मोंके दल एकत्र हो आत्मप्रदेशोंपर बन्धन होते हैं यह विशेष पक्ष है परन्तु यहां पर सामान्य कर्मबन्धहेतु लिखते है । जेसे ज्ञानावर्णिय कर्मबन्धके कारण इस माफीक है 1 ज्ञान या ज्ञानवान् व्यक्तियोंसे प्रतिकूळ आचरणा या उनोंसे वैर भाव रखना । जीसके पास ज्ञान पढा हो उनका नाम को गुप्त रख दुसरोंका नाम कहना. या जो विषय आप जानता हो उनकों गुप्त रख कहना कि में इस बातको नहि जानता हूं । ज्ञानीयांका तथा ज्ञान और ज्ञान के साधन पुस्तक विद्या मन्दिर पाटी पोथी ठवणी कल्मादिका जलसे या अग्निसे नष्ट करना या उसे विक्रय कर अपने उपभोगमें लेना । ज्ञानीयोंपर तथा ज्ञानसाधन पुस्तकादिपर प्रेम स्नेह न करके अरुची रखना । विद्यार्थीयोंके विद्याभ्यास में विघ्न पहुंचाना जैसे कि विद्यार्थीयोंके भोजन वख स्थानादिका उनको लाभ होता हो तो उसे अंतराय करना या विद्याध्ययन करते हुवों को छोडा के अन्य कार्य करवाना। ज्ञानीयोंकि आशातना करना करवाना जैसे कि यह अध्यापक निच कूल है या उनके मर्म की बातें प्रकाश करना ज्ञानीयांको मरणान्त कष्ट हो एसे जाल रचना निंधा करना इत्यादि । इसी मा फीक निषेध द्रव्य क्षेत्र काल भावमें पढना पढानेवाले गुरुका .. विनय न करना जुटा हाथोसे तथा अंगुलीके थुक लगाके पुस्तकोंके पत्रको उलटना ज्ञानके साधन पुस्तकादिके पैरोंसे हटाना · Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१०) शीघ्रबोध भाग ५ वां. पुस्तकोंसे तकीयेका काम लेना। पुस्तकों को भंडारमें पडे पडे सड़ने देना किन्तु उनोंका सद्दउपयोग न होने देना उदरपोषणके लक्षमे रखकर पुस्तके वेचना इनोंके सिवाय भी ज्ञान द्रव्यकि आमंदको तोडना ज्ञानद्रव्यका भक्षण करना इत्यादि कारणांसे ज्ञानावर्णीय कर्मका बन्ध होता है अगर उत्कृष्ट बन्ध हो तो तीस कौडाकोड सागरोपम के कर्म बन्ध होनेसे इतनेकाल तक कीसी कीस्मका ज्ञान हो नहीं सकते है वास्ते मोक्षार्थी जावोंको ज्ञान आशातना टालके ज्ञानको भक्ति करना-पढनेवालोंकों साहिता देना पढनेवालोंको साधन वस्त्र भोजन स्थान पुस्तकादि देना। (२ दर्शना वरणीय कर्मबन्धका हेतु-दर्शनी साधु भगवान् तथा जिनमन्दिर जैनमूर्ति जैन सिद्धान्त यह सब दर्शनके कारण है इनोंकी अभक्ति आशातना अवज्ञा करना तथा साधन इन्द्रियों का अनिष्ट करना इत्यादि जसे ज्ञानविर्णिय कर्म बन्धके हेतु कहा है इसी माफीक स्वल्पही दर्शनावर्णियकर्मका भी समजना । बन्ध ओर मोक्षमें मुख्य कारण आत्मा के परिणाम है वास्ते ज्ञान ओर ज्ञानसाधना तथा दर्शनी (साधु ) ओर दर्शन साधनोके सन्मुख अप्रीती अभक्ति आशातना दीखलाना यह कर्मबन्धके हेतु है वास्ते यह बन्धहेतु छोडके आत्माके अन्दर अनंत ज्ञानदर्शन भरा हुवा है उनको प्रगट करने का हेतु है उनसे प्रेमस्नेह और अन्त में रागद्वेषका क्षयकर अपनि निज वस्तुवोंके प्राप्त कर लेना यहही विद्वानों का काम है (३) वेदनियकर्म दो प्रकारसे बन्धता है (१) साताबे. दनिय (२) असातावेदनिय-जिस्मे लातावेदनियकर्मबन्धके हेतु जैसे गुरुओंकी सेवा भक्ति करना अपनेसे जा श्रेष्ट है वह गुरु जैसे माता पिता धर्माचार्य विद्याचार्य कलाचार्य जेष्ट भ्रातादि क्षमा करना याने अपनेमे बदला लेनेकी सामर्थ्य होनेपर भी Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मबन्ध हेतु. ( ३११) अपने साथ बुरा वरताप करनेवालेको सहन करना । दया-दीन दुःखीयोंके दुर करने कि कोसीस करना। अनुव्रतोंके तथा महा. व्रतोंका पालन करना अच्छा सुयोगध्यान मौन ओर दश प्रकार साधु समाचारीका पालन करना कषायोंपर विजय प्राप्त करनाअर्थात् क्रोध मान माया लोभ राग द्वेष ईर्षा आदिके वेगोंसे अपनि आत्माको बचाना-दान करना-सुपात्रोंको आहार वस्त्रादिका दान करना-रोगीयोंके औषधि देना जो जीव भयसे व्याकूल हो रहे है उने भयसे छुडाना विद्यार्थीओंके पुस्तके तथा विद्याका दान करना अन्य दानसे भी बढके विद्यादान है । कारण अन्नसे क्षणमात्र तृप्ती होती है। परन्तु विद्यादानसे चीरकाल तक सुखी होता है-धर्ममें अपनि आत्माको स्थिर रखना बाल वृद्ध तपस्वी और आचार्यादिकि वैयावञ्च करना इत्यादि यह सब सातावेदनिय बन्धका हेतु है। इन कारणोंसे विप्रीत वरताव करनेसे असातावेदनिय कर्मको बन्धे है जैसे कि गुरुवाको अनादर करे अपने उपर कीये हुवे उपकारोंका बदला न देके उलटा अपकार करे क्रूर प्रणाम निर्दय अविनय क्रोधी व्रत खंडित करना कृपण सामग्री पाके भी दान न करे धर्मके बारेमें बेपरवा रखे हस्ती अश्व बेहेलों पर अधिक बोजा डालने वाला अपने आपको तथा औरोंको शोक संतापमें डालनेवाला इत्यादि हेतुओंसे असातावेदनिय कर्मका बन्ध होता है। (४) मोहनियकर्मबन्धके हेतु-मोहनियकर्मका दो भेद है (१) दर्शनमोहनिय (२) चारित्रमोहनिय जिसमें दर्शन मोहनीयकर्म जैसे-उन्मार्गका उपदेश करना जिनकृयासे सं'सारकि वृद्धि होती है उनकृत्योंके विषयोंमें इस प्रकारका उपदेश करना कि यह मोक्षके हेतु है जैसेकि देवी देवोंके सामने पशुवोंकी हिंसा करनेसे पुन्यकार्य मानना। एकान्त ज्ञान या Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१२ ) शीघ्रबोध भाग ५ वा. क्रियासे ही मोक्षमार्ग मानना मोक्षमार्गका अल्पा करना याने नास्ति है इस लोक परलोक पुन्य पाप आदिकी. नास्ति करना खाना पीना ऐस आराम भोग विलास करनेका उपदेश करना इत्यादि उपदेश दे भद्रीक जीवोंको सन्मार्गसे पतितकर उन्मार्ग के सम्मुख करवा देना. जिनेन्द्र भगवानकी या भगवानके मूर्त्तिकि तथा चतुर्विध संघकि निंदा करने समवसरण - चम्र छत्रादिका उपभोग करनेवाले वीतरागत्य हो ही न सके इत्यादि कहना - जिनप्रतिमाकी निंदा करना पूजा प्रभावना भक्तिके हानि पहुंचना सूत्र सिद्धान्त गुरु या पूर्वाचार्योंकी तथा महान् ज्ञानसमुद्र जैसे ग्रन्थोकी निंदा करना यह सर्व दर्शन मोहनियकर्म बन्धक हेतु है जिनोंसे अनंतकाल तक वीतरागका धर्म मोलनाभी असंभव हो जाता है। चारित्र मोहनिय कर्म बन्धके हेतु-जैसे चारित्रपर अभाव लाना. चारित्रवन्त कि निंदा करना मुनि के मल-मलीन गात्र aa देख दुगंच्छा करना खराब अध्यावसाय रखना. व्रत करके खंडन करना विषय भोगों कि अभिलाषा करना यह सब चारित्र मोहनीयकर्म बन्धका हेतु है जिस चारित्र मोहनियका दो भेद है (१) कषाय चारित्र मोहनिय (२) नोकषाय चारित्र मांहनीय - जिस्मे कषाय चारित्र मोहनिय जैसे अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभ करनेसे अनन्तानुबन्धी आदिका बन्ध एवं अप्रत्याख्यानी - प्रत्याख्यानी और संज्वलन इनोंके करने से कषाय चारित्र मोहनीय कर्मबन्धता है तथा भांड जैसी कुचेष्टा करना हाँसी करना कतूहल करना दुसरोंकी हाँसी विस्मय कराना इत्यादि इनोंसे हास्य मोहनिय कर्मबन्ध होता है। आरंभ में खुशी माननेवाला, मेला खेला देखनेवाला चक्षुलोलुपी देशदेशके नया नया नाटक देखना चित्रचित्रामादि खींचना प्रेमसे दुसरोंके Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मबन्ध हेतु. मन अपने के आधिन करना इत्यादिसे रति मोहनिय कर्म ब. न्धता है। ईर्षालु-पापाचरणा-दुसरोंके सुख में विघ्न करनेवाले बुरे कर्म में दूसरेको उत्साही बनानेवाला संयमादि अच्छा कायमें उत्साहा रहित इत्यादि हेतुबोसे अरति मोहनिय कर्मबन्ध होते है ! खुद डरे औरोंके डरावे त्रास देनेवाला दया रहित मायावी पापाचारी इत्यादि भयमोहनिय कर्मबन्ध करता है। खुद शोक करे दुसरोको शोक करावे चिंता देनेवाला विश्वास घात स्वामिद्रोही दुष्टता करनेवाला--शोकमोहनियकर्म वन्धता है। सदाचारकि निंदा करे चतुर्विध संघकि निंदा करे जिन. प्रतिमाकि निंदा करनेवाला जीव जुगप्सा मोहनिय कर्म वन्धता है । विषयाभिलाषी परखि लंपट कुचेष्टा करनेवाला हावभावसे दुसरोंसे ब्रह्मचर्य से भृष्ट करनेवाला जीव त्रिवेद बन्धता है। सरल स्वभावी-स्वदारा संतोषी सदाचारवाला मंद विषयवाला जीव पुरुषवेद बन्यता है । सतीयोका शील खंडन करनेवाला तीव्र विषयाभिलाषी कामकीडामें आसक्त त्रि-पुरुषोंके कामकि पुरण अभिलाषा करनेवाला नपुंसक वेद मोहनियकर्म बन्धता है इन सब कारणोंसे जीव मोहनीयकर्म उपार्जन करता है। (५) आयुष्य कर्मबन्धके कारण- जेसे रौद्र प्रणामी महारंभ. महा परिग्रह पांचेन्द्रियका घाती. मांसाहारी, परदाराग मन विश्वासघाती, स्वामिद्रोही इत्यादि कारणोंसे जीव नरकका आयुष्य बान्धता है.। मायावृत्ति करना गुढ माया करना कुडा तोल माप जूटे लेख लिखना, जूटी साख देना परजीवोंकों तक लीफ पहुचाना दुसरेका धन छीन लेना इत्यादि कारणोंसे जीव तीर्यचका आयुष्य बान्धता है। प्रकृतिका भद्रीक होना विनयवान् होना-स्वभावसेही जिनोंका क्रोध मान माया लोभ पतला हो दुसरोंकि संपत्ति देख इयां न करे भद्रीक दयावान् कोमलता Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१४ ) शीघ्रबोध भाग ५ वां. गांभीर्य सर्व जनसे प्रिति गुणानुरागी उदार परिणामि इत्यादि कारणोंसे जीव मनुष्यका आयुष्य बन्धता है। सराग संयम, संयमासयम अकाम निर्जरा बाल तपस्वी देवगुरु मातापितादिका विनय भक्ति करे देव पूजन सत्यका पक्ष गुणोंका रागी निष्कपटी संतोषी ब्रह्मचर्य व्रत पालक अनुकम्पा सहित श्रमणोपासक शास्ररागी भोग त्यागी इत्यादि कारणोंसे जीव देवायुष्य बान्धता है। (६) नामकर्मकि दो प्रकृति है (१) शुभनामकर्म (२) अशुभ नामकर्म जिस्मे सरल स्वभावी-माया रहित मन वचन काया वैपार जिस्का एकसा हो वह जीव शुभनामको बन्धता है गौवरहित याने ऋद्धिगौर्व रसगौर्व, सातागौवं इन तीनों गौर्वसे रहित होना पापसे डरनेवाला क्षमावान्त मर्दवादि गुणोंसे युक्त परमेश्वरकि भक्ति गुरु वन्दन तत्वज्ञ राग द्वेष पतले गुणगृहो हो एसे जीव शुभ नामकर्म उपार्जन कर सकते है। दुसरा अशुभ नामकर्म-जैसे मायावी जिनोंके मन वचन कायाकि आचारणा में और वतलाने मे भेद है। दूसरों के ठगनेवाले जूटी गवाही देनेवाले। घृत में चरबी दुद्ध में पाणी या अच्छी वस्तु में बुरी वस्तु मीला के वेचने पाले । अपनि तारीफ और दूसरोंकी निंदा करनेवाले वैश्यावों के वस्त्रालंकार दे दुसरे को ब्रह्मव्रत से पतित बनानेवाले इत्यादि देवद्रव्य ज्ञानद्रव्य साधारणद्रव्य खानेवाले विश्वासघात करने वाले इत्यादि कारणों से जीव अशुभ नामकर्म उपार्जन कर सं. सार में परिभ्रमन करते है. (७) गौत्रकर्म कि दो प्रकृति है ।१) उच्चगौत्र २) निचगौत्रजिस्मे किसी व्यक्ति में दोषों के रहते हुवे भी उनका विषय में उदासीन सिर्फ गुणो को ही देखनेवाले है । आठ प्रकार के मदों से रहित अर्थात् जातिमद, कुलमद, बलमद, चोथो रुपमद, श्रुत Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मबन्ध हेतु. (३१५) मद ऐश्वर्यमद लाभमद तपमद इन मदों का त्याग करे अर्थात् यह आठों प्रकार के मद न करे । हमेशां पठन पाठन में जिनका अनुराग हे देवगुरु की भक्ति करनेवाला हो दुःखी जीवों को देख अनुकम्पा करनेवाला हा इत्यादि गुणोंसे जीव उच्चगौत्र का बन्ध करता है और इन कृत्यों से विपरीत वरताय करने से जीव निच्च गोत्र बन्धता है अर्थात् जिनमें गुणष्टि न होकर दोषदृष्टि है जाति कुलादि आठ प्रकार के मद करे पठन पाठन में प्रमाद आलस्य-घणा होती हे आशातना का करनेवाला हे एसे जीव निश्चगोत्र उपार्जन करते है (८' अंतराय कर्म के बन्ध हेतु-जो जीव जिनेन्द्र भगवान् कि पूजा में विघ्न करते हो-जैसे जल पुष्प अग्नि फल आदि चढाने में हिंस्या होती है वास्ते पूजा न करना ही अच्छा है तथा हिंस्या ऋट चौरी मैथुन रात्रीभोजन करनेवाले ममत्वभाव रखनेवाले हो तथा सम्यक् ज्ञानदर्शन चारित्ररूप मोक्षमार्ग में दोष दिखलाकर भद्रीक जीवों को सदमार्ग से भ्रष्ट बनानेवाले हो दुसरों को दान लाभ-भोग उपभोग में विघ्न करनेवाले हो। मंत्र यंत्र तंत्र द्वारा दुसगे कि शक्ति को हरन करनेवाले हो इत्यादि कारणों से जीव अंतराय कर्म उपार्जन करते है उपर लिग्वे माफीक आठ कर्मों के बन्ध हेतु के सम्यक् प्रकारे समज के मदेव इन कारणों से बचते रहना और पूर्व उपार्जन कीये हुवे कर्मों को तप जप संयम ज्ञान ध्यान सामायिक प्रभावना आदि कर हटा के मोक्ष की प्राप्ति करना चाहिये। संवं भंते सेवं भंते-तमेव सच्चम् . Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१६) शीघ्रबोध भाग ५ वा. थोकडा नम्बर ४३ ( कर्म प्रकृति विषय. ) ज्ञानगुण दर्शनगुण चारित्रगुण और वीर्यगुण यह च्यार चैतन्य के मूल गुण है जिस्कों कोनसी कर्म प्रकृति चैतन्य के सर्व गुणों कि घातक है और कोनसो कर्म प्रकृति देश गुणों कि घातक है बह इस थोकडा द्वारा बतलाते है। . . कैवल्यज्ञानावर्णिय कवल्य दर्शनावर्णिय मिथ्यात्व मोहनिय, निद्रा, निंद्रा निंद्रा, प्रचलानिंद्रा, प्रचलाप्रचलानिंद्रा, स्त्या. नद्धि निद्रा अनंतानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोमअप्रत्याख्यानि क्रोध-मान-माया-लोभ, प्रत्याख्यानि क्रोध-मान-माया-लोम. एवं २० प्रकृति सर्व घाती है। ___ मतिज्ञानावणिय श्रुतिज्ञानावर्णिय अवधिज्ञानाणिय मनः पर्यवज्ञानावणिय-चक्षुदर्शनावणिय अचक्षुदर्शनावणिय अवधि दर्शनावर्णिय संज्वलनका क्रोध-मान-माया लोभ-हास्य भय शोक जुगप्सा रति अरति त्रिवेद पुरुषवेद नपुंसकवेद दांनान्तराय लाभान्तराय भोगान्तराय उपभोगान्तराय वीर्यान्तराय एवं २५ प्रकृति देशघाती है तथा मिश्रमोहनिय. सम्यक्त्वमोहनिय यह दो प्रकृति भी देशघाती है ! शेष प्रत्येक प्रकृति आठ, शरीरपांच, अंगोपांगतीन, संहनन छे, संस्थान छे, गतिच्यार, जातिपांच, विहायोगति दो, अनुपूर्वी आयुष्यच्यार सकिदश, स्थावरकिदश, वर्णादिच्यार, गौत्रकि २ प्रकृति एवं ७३ प्रकृति अघाती है। थोकडा नम्बर ४१ में आठ कर्मो कि १५८ प्रकृति है जिसमें Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म प्रकृति विषय. ( ३१७ ) १३२ प्रकृतियोंका उदय समुच्चय होते है जिसमे २० प्रकृति सर्व घाती है २७ प्रकृति देशघाती है ७३ प्रकृति अघाती है इस्कों लक्षमें लेके उदय प्रकृतिकों समझना चाहिये । उदय प्रकृति १२२का विपाक अलग २ कहते है । ( १ ) क्षेत्र विपाकी प्यार प्रकृति है जोकि जीव परभव गमन करते समय विग्रह गतिमें उदय होती है जिसके नाम नरकानुपूर्व तीर्यचानुपूर्वी मनुष्यानुपूर्वी और देवानुपूर्वी । ६ ( २ ) जीव विपाकी. जिस प्रकतियोंके उदयसे विपाकरत जीवकों अधिकांश भोगवते समय दुःख सुख होते है । यथा - ज्ञाना. वर्णिय पांच प्रकृति, दर्शनावर्णिय नौप्रकृति. मोहनिय अठाबीस प्रकृति अन्तरायकि पांच प्रकृति गौत्र कर्म कि दो प्रकृति. वेदनिय कर्मकि दो प्रकृति - सातावेदनिय - असातावेदनिय तीर्थकर नामकर्म सनाम बादरनाम पर्याप्तानाम स्थावरनाम सूक्षमनाम अपर्याप्तानाम सौभाग्यनाम दुर्भाग्यनाम सुस्वरनाम दुःस्वरनाम आदेयनाम अनादेयनाम यशः कीर्तिनाम अयशः कीतिनाम उश्वासनाम एकेन्द्रिय जातिनाम बेइन्द्रय जातिनाम तेइन्द्रिय० चोरेिंद्र पांचेन्द्रियः नरकगतिनाम तीर्यंचगतिनाम मनुष्य गतिनाम देवगतिनाम सुबिहागतिनाम असुविधागतिनाम एवं ७८ प्रकृति जीवविपाकी है । G (३) भवविपाक जैसे नरकायुष्य तीर्थचायुष्य मनुष्यायुष्य और देवायुष्य एवं च्यार प्रकृति भवप्रत्यय उदय होती है। (४) पुद्गलविपाकी प्रकृतियों । यथा-निर्माण नाम स्थिर नाम अस्थिर नाम शुभनाम अशुभ नाम वर्णनाम गन्धनाम • रसनाम स्पर्शनाम अगारु लघु नाम औदारोक शरीर नाम वैक्रयशरीर नाम आहारीक शरीर नाम तेजस शरीर नाम कारमण Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१८) शीघबोध भाग ५ वा. शरीर नाम तीन शरीरके आंगोपांग नाम छ संहनन छे संस्थान उपघात नाम साधारण नाम प्रत्येक नाम उद्योत नाम आताप नाम पराघात नाम एवं ३६ प्रकृतियां पुद्गल विपाकी है एवं ४-७.-४-३६ कुध १२२ प्र० उदय । परावर्तन प्रकृतियों-एक दुसरे के बदले में बन्ध सके-यथा शरीरतीन आंगोपांगतीन संहनन छे संस्थान छे जातिपांच गतिच्यार विहागतिदो अनुपूर्वीचार वेदतीन दोयुगलकि च्यार कषायशोला उद्योत आताप उच्चगौत्र निश्चगौत्र वेदनिय-साता-असाता निद्रापांच त्रसकीदश स्थावरकीदश नरकायुष्य तीर्यचायुष्य मनुघायुष्य देवायुष्य एवं ९१ प्रकृति परावर्तन है। शेष ५७ प्रकृति अपरावर्तन याने जीसकी जगह वह ही प्र. कति बन्धती है उसे अपरावर्तन कहते है । शेष आगे चोथा कर्मग्रंथाधिकारे लिखा जावेगा सेवं भंते सेवं भने–तमेव सच्चम्. -*थोकडा नंबर ४४ ( कर्म ग्रंथ दूसरा) मूल कर्म आठ है जिनकी उत्तर प्रकृति १४८४ जिनके नाम योकडा नं० ४२ में लिख आये हैं वहां देख लेना उन १४८ प्रकृतियों में से बंध, उदय, उदीरणा, और सत्ता किस ५ गुणस्थान में कितनी २ प्रकृतियाकी है सो लिखते है. (प्र) गुणस्थानक किसे कहते है ? x श्री प्रज्ञाप्ना सूत्रानुस्वार १४८ प्रकृति है और कर्मग्रन्धानुस्वार १५८ परन्तु दोनु मत्तानुसार बन्ध प्रकृति १२० है वह ही अधिकार यह बतलावेंगे । Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म अधिकार. (३१९) ( उत्तर ) जिस तरह शिव ( मोक्ष ) मंदिर पर चठने के लिये पावडिया ( सीढी ) है उसी तरह कर्म शत्रु को विदारने के लिये जीव के शुद्ध. शुद्धतर, शुद्धतम अध्यवसाय विशेष. यद्यपि अध्यवसाय असंख्याते है. परन्तु स्थूल याने व्यवहार नयसे १४ स्थान कहे है यथा मित्थ्यात्व १ सास्वादन २ मिश्र ३ अविरति सम्यकदृष्टि ४ देशविरति ५ प्रमत्त संयत ६ अप्रमत्त संयत ७ निवृति बादर ८ अनिवृत्ति बादर ९ सूक्ष्म संपराय १० उपशांत मोह वीतराग ११ क्षीणमोह वीतराग छद्मस्थ १२ सयोगी केवली १३ और अयोगी केवली १४ यह चवदे गुणस्थानक है पहिले वताई हुई १४८ प्रकृतियों में से वर्णादिक १६ पांच शरीरका बंधन ५ संघातन ५ और मिश्र मोहनीय! सम्यक्त्व मोहनीय १ एवम् २८ प्रकति कम करनेसे शेष १२० प्रकृतिका समुचय बंध है। (१) मिथ्यात्व गुणस्थानक में १२० प्रकृतियों में से तीर्थकर नामकर्म १ आहारक शरीर २ आहारक अंगोपांग ३ तीन प्रकृतियोंका बंध विच्छेद होनेसे बाकी ११७ प्रकृतियोंका बंध है. (२) सास्वादन गुणस्थानक मे नरक गति १ नरकायुष्य २ नरकानुपूर्षी ३ एकेन्द्रि ४ बेइन्द्री ५ तेइन्द्री ६ चौरिन्द्री ७ स्था.घर ८ सूक्ष्म ९ साधारण १० अपर्याप्ता ११ हुंढक संस्थान १२ आतप १३ छेवटुं संघयण १४ नपुंसक वेद १५ मिथ्यात्व मोहनीय १६ ये सोला प्रकृति का वंध विच्छेद होनेसे १०१ प्रकृति का बंध है. (३) मिश्र गुणस्थानको पूर्वकी १०१ प्रकृति में से घियचगति १ त्रिर्यचायुष्य २ त्रिर्यंचानुपूर्वी ३ निद्रा निद्रा ४ प्रचला प्रचला ५ थीणद्धी ६ दुर्भाग्य ७ दुःस्वर ८ अनादेय ९ अनंतातुंबन्धी क्रोध १० मांन ११ माया १२ लोभ १३ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२०) शीघबोध भाग ५ बां. ऋषभ नाराच संघयण १४ नाराचसंघयण १५ अर्द्ध नाराच सं० १६ कीलिका सं० १७ न्यग्रोध संस्थान १८ सादि संस्थान १९ वामन सं० २० कुज सं० २१ नीचगोत्र २२ उद्योत नाम २३ अशुभविहायोगति २४ स्त्री वेद २५ मनुष्यायु २६ देवायुः २७ सत्ताईस प्रकृति छोडकर शेष ७४ का बंध होय. (४) अविरति सम्यकष्टि गुणस्थानक में मनुष्यायुष्य १ देवायुष्य २ तीर्थकर नाम कर्म ३ यह तीन प्रकृतियोंका बंध वि. शेष करे इस वास्ते ७७ प्रकृति का बंध होय. (५) देशविरति गुणस्थानक पूर्व ७७ प्रकृति कही उसमें से बज्रऋषभनाराचसंघयण १ मनुष्यायु २ मंनुप्यजाति ३ मनुध्यानुपूर्वी ४ अप्रत्याख्यानी क्रोध ५ मोन ६ माया ७ लोभ ८ औदारिक शरीर ९ ओदारिक अंगोपांग १० इन दश प्रकृतियों का अबंधक होने से शेष ६७ प्रकृति बांधे. (६) प्रमत्त मयत गुणस्थानक में प्रत्याख्यानी क्रोध मान २ माया ३ लोभ ४ का विच्छेद होनेसे शेष ६३ प्रकृति बांधे. (७) अप्रमत्त संयत गुणस्थानक में ५९ प्रकृतिका बंध है. पूर्व ६३ प्रकृति कही जिससे शोक १ अरति २ अस्थिर ३ अशुभ ४ अयश ५ असाता वेदनीय ६ इन छ: प्रकृतियों का बंध विच्छेद करे और आहारक शरीर १ आहारक अंगोपांग २ विशेष बांधे एवम् ५९ प्रकृतिका बंध करे. अगर देवायुष्य न बांधे तो ५८ प्रकृतिका बंध क्योंकि देवायुष्य छट्टे गुणस्थान कसे वांधता हुवा यहां आवे. परन्तु सातवें गुणस्थानकसे आयुष्यका बन्ध शुरु न करे. ८) निवृति बादर गुण स्थानक का सात भाग है जिसमें प. हिले भागमें पूर्ववत् ५८ का बंध. दजे भागमें निद्रा १ प्रचला २ का वध विच्छेद होनेसे ५६ का बंध हो. एवम् तीजे, चौथे, पांचव और Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मबन्धाधिकार. ( ३२१) छठे भाग में भी ५६ प्रकृतिका बंध है. सातवें भागमें देवगति १ दे. बानुपूर्वी २ पंचेन्द्री जाति ३ शुभविहायोगति ४ घसनाम ५ बादर ६ पर्याप्ता ७ प्रत्येक ८ स्थिर ९ शुभ १० सौभाग्य १६ सुःस्वर १२ आदेय १३ वैक्रिय शरीर १४ आहारक शरीर १५ तेजस शरीर १६ कार्मण शरीर १७ वैक्रिय अंगोपांग १८ आहारक अंगोपांग १९ समचतुःस्र संस्थान २० निर्माण नाम २१ जिन नाम २२ वरण २३ गंध २४ रस २५ स्पर्श २६ अगुरुलघु २७ उपधात २८ परा. धात २९ और उश्वास ३० एवम् तीस प्रकृति का बंध विच्छेद हीने से बाकी २६ प्रकृति बांधे. (९) अनिवृत्ति गुणस्थानक का पांच भाग है. पहिले भाग में पूर्ववत् २६ प्रकृतिमेंसे हास्य १ रति २ भय ३ जुगुप्सा ४ ये चार प्रकृतिका बंध विच्छेद होकर बाकी २२ प्रकृति बांधे दुसरे भाग में पुरुषवेद छोडकर शेष २१ बांधे. तीजे भाग में संज्वलन का क्रोध १ चौथे भाग में संज्वलन का मान २ और पांचवे भाग में संज्वलनकी माया ३ का बंध विच्छेद होने से १८ प्रकृति का बंध होता है. (१०) सूक्षम सम्पराय गुणस्थानक में संज्वलन के लोभका अबंधक है इसवास्ते १७ प्रकृतिका बंध होय. (११) उपशांत मोह गुणस्थानक में १ शाता वेदनीय का बंध है. शेष ज्ञानावरणीय ५ दर्शनावरणीय ४ अंतराय ५ उच्च. गोत्र १ यशःकिर्ति १ इन १६ प्रकृतिका बंध विच्छेद हो. . (१२) क्षीणमोह गुणस्थानक में १ शाता वेदनीय बांधे.." (१३) सयोगी केवली गुणस्थानक १ शाता वेदनीय बांधे. (१४) अयोगी गुणस्थानक में ( अबंधक ) बंध नहीं. इति बंध समाप्त. सेवंते सेवभंते तमेव सच्चम्. --* * Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२२) शीघ्रबोध भाग ५ वां. थोकडा नं. ४५ (उदय) समुच्चय १४८ प्रकृति में से १२२ प्रकृति का ओघ उदय है. बंधकी १२० प्रकृति कही उसमें से समकित मोहनीय १ मिश्रमो. हनीय र ये दो प्रकृति उदयमें ज्यादा है क्योंकि इन दो प्रकृतियों का बंध नहीं होता परन्तु उदय है।। (१) मिथ्यात्व गुणस्थानक में १२७ का उदय होय क्योंकि सम्यक्त्व मोहनीय १ मिश्रमोहनीय २ जिन नाम ३ आहारक शरीर ४ आहारक अंगोपांग ५ ये पांच का उदय नहीं है. (२) सास्वादनगुण ११२ प्र० का उदय है. मिथ्यात्व में ११७ का उदय था उसमें से सूक्ष्म १ साधारण २ अपर्याप्ता ३ आताप ४ मिथ्यात्व मोहनीय ५ और नरकानुपूर्वी ६ इन छ प्रकृतियोंका उदय विच्छेद हुवा.. (३) मिश्रगुण० में १०० प्रकृतिका उदय होय क्योंकि 'अनंतानुबन्धी चौक ४ एकेंद्री ५ विकलेंद्री ८ स्थावर ९ तिर्यंचानुपूर्वी १० मनुष्यानुपूर्वी ११ देवानुपूर्वी १२ इन बारे प्रकृतियोंका उदय विच्छेद होने से शेप ९९ प्रकृति रही. परन्तु मिश्रमोहनीय का उदय होय इस वास्ते १०० प्रकृतिका उदय कहा। . (४) अविरती सम्यक् दृष्टी गुण में १०४ का उदय होय. क्योंकि मनुष्यानुपूर्वी १ त्रियंचानुपूर्वी २ देवानुपूर्वी ३ नरकानु पूर्षी ४ और सम्यक्त्व मोहनीय ५ इन पांच प्रकृतिका उदय विशेष होय और मिश्रमोहनीय का उदय विच्छेद होय. इस वास्ते १०४ प्रकृतिका उदय कहा. (५) देशविरति गुण में ८७ प्रकृतिका उदय हाय क्यों Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मोदयाधिकार. (३२३) कि प्रत्याल्यानी चौक ४ त्रियंचानुपूर्वी ५ मनुष्यानुपूर्वी ६ नरक गति ७ नरकायुष्य ८ नरकानुपूर्षी ९ देवगति १० देवायुमक ११ देवानुपूर्वी १२ वैक्रिय शरीर १३ वैक्रिय अंगोपांग १४ दुर्भाग्य १५ अनादेय १६ अयश १७ इन सतरे प्रकतिया का उदय नहीं होता. (६) प्रमात्त संयतगुण में प्रत्याख्यानी चौक ४ प्रियंचमति ५ प्रियंचायुष्य ६ निचगात्र ७ एवं आठ का उदय विच्छेद होने से शेष ७९ प्रकृति रही. आहारक शरीर १ आहारक अंगोपांग २ इन दो प्रकृतिका उदय विशेष होय इस वास्ते ८१ प्रकृतिका उदय होय. (७) अप्रमत्त संयत गुण में. थीणद्धी त्रिक ३ आहारक द्विक ५ इन पांचका उदय न होय. शेष ७६ प्रकृति का उदय होय. (८) निवृति बादर गुण में सम्यक्त्व मोहनीय १ अर्द्ध नाराच सं० २ कीलिका सं० ३ छेवटु सं० ४ इन चार को छोडकर शेष ७२ प्रकृति का उदय होय. (९) अनिवृति बादर गु० में हास्य १ रति २ अरति ३ शोक ४ जुगुप्सा ५ भय ६ इनका उदय विच्छेद होने से शेष ६६ प्रकृति का उदय होय. (१०) सूक्ष्म संपराय गुण में पुरुषवेद १ स्त्रीवेद २ नपुंसक वेद ३ संज्वलना क्रोध ४ मान ५ माया ६ इन छः का उदय वि. छछेद होने से बाकी ६० प्रकृति का उदय होय. (११) उपशांत मोह गुण में संज्वलन लोभ का उदय विच्छेद हो बाकी ५९ का दय हो. - (१२) क्षीण मोह गुणों के दो भाग है पहिले भाग में ऋषभ नाराच और नाराच संघयण तथा दूसरे भाग में निद्रा Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२४ ) शीघ्रबोध भाग ५ वां. और निद्रा निद्रा एवम् ४ प्रकृति का उदय विच्छेद होने से शेष ५५ का उदय होय. (१३) सयोगी केवली गुण० में ज्ञानावरणीय ५ दर्शनावरft ४ अन्तराय ५ एवम् १४ प्रकृति का उदय विच्छेद होने से ४१ प्रकृति और तिर्थंकर नाम कर्म को मिलाकर ४२ प्रकृति का उदय होय. (१४) अयोगी गुण० में १२ प्रकृति का उदय होय मनुष्यगति १ मनुष्यायु २ पंचेन्द्री ३ सौभाग्य नाम कर्म ४ त्रस ५ बादर ६ पर्याप्ता ७ उच्चैगौत्र ८ आदेय ९ यशकीर्ति १० तिर्थकर नाम ११ वेदनी १२ ये बारे प्रकृतियों का उदय चरम समय विच्छेद होय. ॥ इति उदयद्वार समाप्तम् ॥ अब उदीरणा अधिकार कहेते हैं. पहिले गुण स्थानक से छ गुणस्थानक तक जैसे उदय कहा वैसे ही उदीरणा भी क हनी. और सात में गुण स्थानक से तेरमें गुण स्थानक तक जो २ उदय प्रकृति कही है उसमें से शाता वेदनीय १ अशाता वेदनीय २ और मनुष्यायु ३ ये तीन प्रकृति कम करके शेष प्रकृति रहे तो हरेक जगह कहना. चौदमें गुण स्थानकमें उदीरणा नहीं. ॥ इति उदीरणा समाप्तम् ॥ -**@** थोकडा नं. ४६ ( सत्ता अधिकार ) (१) मिथ्यात्व गुण ० में १४८ प्रकृति की सत्ता. ( २ ) सास्वादन गुण० में जिन नाम कर्म छोडकर १४७ प्रकृतिकी सत्ता रहती है. Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मसत्ताधिकार. ( ३२५) (३) मिश्र गुणों में पूर्ववत् १४७ प्र० की सत्ता होय. चौथे अविरति सम्यकदृष्टि गु० से ११ वे उपशांत मोह गु. तक संभव सत्ता १४८ प्रकति की है. परन्तु आठवें गु० से ११ धे गु० तक उपशम श्रेणी करनेवाला अनंतानुबंधी ४ नरकायु ५ त्रि. यंचायु ६ इन छै प्रकृतियों की विशंयोजना करे इस वास्ते १४२ प्रकृति को सत्ता होय. . क्षायक सम्यक्दृष्टिअचरम सरीरी चौथे से सातवे गु० तक अनंतानुबंधी ४ सम्यक्त्वमोहनीय ५ मिथ्यात्वमोहनीय ६ मिश्रमोहनीय ७ इन सात प्रकृतियों को खपावे शेष १४१ प्रकृति सत्ता में होय, क्षायक सम्यक्दृष्टि चरम शरीरी क्षपक श्रेणी करनेवालों के चौथे से नवमें ( अनिवृति ) गुरु के प्रथम भाग तक १३८ प्रकृति की सत्ता रहे. क्योंकि पूर्व कही हुइ सात प्रकृतियों के सिबाय नरकायु १ प्रियंचायु २ देवायु ३ ये तीन भी सत्ता से विच्छेद करना से। क्षयोपशम सम्यक्त्व में वर्तता हुआ चौथे से सातवें गुण तक १४५ प्रकृति की सत्ता होय क्योंकि चरम शरीरी है इसलिये नरकायु १ त्रयंचायु २ देवायु की सत्ता न रहे। : नवमे गुण के दुसरे भागमें १२२ की सत्ता स्थावर ? सूक्ष्म २ त्रियंच गति ३ त्रियंचानुपूर्वी ४ नरकगति ५ नरकानुपूर्वी ६ माताप ७ उद्योत ८ थीणद्धी ९ निद्रा निद्रा १० प्रचला प्रचला ११ एकेन्द्री १२ बेइन्द्री १३ तेरिन्द्री १४ चौरिन्द्री १५ साधारण i६ इन सोले प्रकृतियों की सत्ता विच्छेद होय. ___ नवमें गुण० के दुसरे भागमें ११४ प्रकृति की सत्ता प्रत्याख्यानी ४ और अप्रत्याख्यानी ४ इन ८ प्रकृति की सत्ता विच्छेद होय. . नवमें गु० के चोथे भाग में ११३ प्रकृति की सत्ता. नपुंसकवे. दका विच्छेद हो. Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२६) शीघ्रबोध भाग ५ वा. नवमें गु० के पांचवें भाग में ११२ प्र० की सत्ता. श्रीवेद का विच्छेद हो. - नवमें गु० के छ? भाग; १०६ प्र० की सत्ता. हास्य १ रति २ अरति ३ शोक ४ भय ५ जुगुप्सा ६ इन प्रकृतियों का सत्ता विच्छेद होय. - नवमें गु० के सातवें भाग में १०५ प्र० की सत्ता. पुरुषवेद निकला.. नवमें गु० के आठवें भागमे १०४ प्र० की सत्ता संज्वलन का क्रोध निकला. ' नवमें गुरु के नवमें भाग में 1.३ प्र० की सत्ता. संज्वलन का मान निकला. दशमें गु० १०२ की सत्ता हो. यहां संज्वलन कि माया का विच्छेद हुआ. इग्यारमें गु० में १०१ की सत्ता हो. यहां संज्वलन के लोभकी सत्ता विच्छेद हुई. बारमें गुण में १०१ की सत्ता विचरम समयतक रहे है पीछे निद्रा प्रचंला २ इन दो प्रकृतियों को क्षय करे चरम समय ९९ की सत्ता रहै। - तेरमें गुणस्थानक में ८५ की सत्ता होय चक्षुदर्शनावर्णीय १ अचक्षुदर्शनावर्णीय २ अवधिदर्शनावर्णीय ३ केवलदर्शनावर्णीय ४ ज्ञानावर्णीय ५ अंतराय ५ इन चौदे प्रकृति की विच्छेद हुई. चौदमें गुण में पहिले समय ८५ की सत्ता रहै. पीछे देव गति । देवानुपूर्वी २ शुभ विहायोगति ३ अशुभविहायोगति । गंधतिक ६ स्पर्श १४ वर्ण १९ रसे २४ शरीर २९ बंधन ३४ संघा तेन ३९ निर्माण ४० संघर्यण ४६ अस्थिर ४७ अशुभ ४८ दुःर्भाग्य Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्माबाधाकाल. ( ३२७ ) ४९ दुस्वर ५० अनादेय ५१ अयशः कीर्ति ५२ संस्थान ५८ अगुरू लघु ५९ उपघात ६० पराघात ६१ उश्वास ६२ अपर्याप्ता ६३ वेदनी ६४ प्रत्येक ६५ स्थिर ६६ शुभ ६७ औदारिक उपांग ६८ वैक्रिय उपांग ६९ आहारक उपांग ७० सुस्वर ७१ नीच्चगोत्र ७२ इन बोहत्तर प्रकृतियों की सत्ता टलने से १३ की सत्ता रहै. फिर मनुष्यानुपूर्वी के विच्छेद होने से १२ प्रकृति की सत्ता चरम समय होय. इनकों उसी समय क्षय करके सिद्ध गति को प्राप्त हो । बारह प्रकृतियों के नाम- मनुष्य गति १ मनुष्यायु २ त्रस ३ बादर ४ पर्याप्ती ५ यशः कीर्ति ६ आदेय ७ सौभाग्य ८ तीर्थकर ९ उच्चगौत्र १० पंचेन्द्री ११ और वेदनी १२ इति सत्ता समाप्ता सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम्. -- -1101K थोकडा नं. ४७, श्री पन्नवणाजी सूत्र. पद २३ ( अबाधाकाल. ) कर्मकी मूल प्रकृति आठ है, और उत्तर प्रकृति १४८ है .x कौन जीव किस २ प्रकृतिको कितने २ स्थितिकी बांधता है, और बांधनेके बाद स्वभावसे उदयमें आवे तो, कितने कालसे आवे, यह सब इस थोकडेद्वारा कहेंगे. अबाधाकाल उसे कहते हैं. जैसे हुंडीकी मुदत पकजानेपर + कर्म ग्रन्थ में पांच शरीर के बन्धन १५ कहा है वास्ते १५८ प्रकृति मानी गई हैं. Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२८ ) शीघ्रबोध भाग ५ बां. रुपिया देना पडता है, वैसेही कर्मका अबाधाकाल पूर्ण होने पर कर्म उदयमें आते हैं. उस वरूत भोगना पडता है. हुंडीकी मुदत पकने के पहिलेही रुपिया दे दिया जाय, तो लेनदार मांगने का नहीं आता. इसी तरह कर्मोंके अबाधाकालसे पूर्व तप संयमादिसे कर्म क्षय कर दिये जाय तो कर्मविपाकों भोगने नहीं पढते. ( अर्जुन मालीयतू ) अबाधाकाल चार प्रकारका है. यथा. ( १ ) जघन्य स्थिति और जघन्य अवाधाकाल. जैसे दशमें गुणस्थानक अंतरमुहूर्त स्थितिका कर्मबंध होता है. और उसका rararate भी अंतरमुहूर्तका है. ( २ ) उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अवाधाकाल. जैसे मोहनीयकर्म उ० स्थिति ७० कोडाकोडी सांगरोपमकी है. और अबाधाकाल भी ७००० वर्षका है. ( ३ ) जघन्य स्थिति और उत्कृष्ट अबाधाकाल. जैसे मनुष्य तिर्यंच, क्रोड पूर्वका आयुष्यवाला क्रोड पूर्वके तीसरे भाग में मनुष्य या तिर्थच गतिका अल्प आयुष्य बांधे. तो कोड पूर्व के तीजे भागका अबाधाकाल और अंतर महुर्तका आयुष्य. ( ४ ) उत्कृष्ट स्थिति और जघन्य अबाधाकाल. जैसे अंत (छेले ) अंतरमुहूर्त में ३३ सागरोपमका उ० नरकका आयुष्य बांधे. मूल कर्म आठ ज्ञानावरणीय १ दर्शनावरणीय २ वेदनीय ३ मोहनीय ४ आयुष्य ५ नाम ६ गोत्र ७ अंतराय ८ समुचय जीव और २४ दंडक के जीवोंके आठ कर्म है. मूल आठो कर्मोकी उत्तर प्रकृति १४८ यथा ज्ञानावरणीय ५ दर्शनावरणीय ९ वेदनीय २ मोहनीय २८ आयुष्य ४ नामकर्म ९३ गोत्रकर्म २ और अंतराय कर्मकी ५ एवम् १४८. जीम्मे Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्माबाधाकाल. (३२९) मोहनीय कर्मकी २८ प्रकृतिमेंसे सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्र मोहनीयका बंध नही होता. बाकी १४६ प्रकृति बंधती है. - उत्तर प्रकृति १४६ की जघन्य उत्कृष्ट स्थिति और अबाधाकाल कितना २ तथा बंधाधिकारी कौन २ है ! मतिज्ञानावरणीय १ श्रुत ज्ञानावरणीय २ अवधिज्ञानावरणीय ३ मनःपर्यध ज्ञानावरणीय ४ केवल ज्ञा० ५ चक्षुद० ६ अचक्ष ६० ७ अवधि द. ८ केवल ६०९ दानांतराय १० लाभा० ११ भोगा० १२ उपभोगा० १३ वीर्या० १४ इन चौदा प्रकृतियोंको समुख्य जीव बांधे तो जघन्य अंतरमुहूर्त तथा निद्रा १ निद्रानिद्रा २ प्रचला ३ प्रचला प्रचला ४ थीणद्धी ५ और अशातावेदनीय ६ यह छै प्रकृति समुश्चय जीव बांधे तो, जघन्य १ सागरोपमका सातिया. तीन भाग पल्योपमके असंख्यातमें भाग उणा । न्यून : और उत्कृष्ट स्थितीबंध इन वीसों प्रकृतियोंका ३० कोडाकोडी सागरोपम और अबाधाकाल ३००० वर्षका है. यही बीस प्रकृति एकेंद्री बांधे तो जघन्य १ सागरोपम पल्योपमके असंख्यातमें भाग ऊंणी. बेइन्द्री जघन्य २५ सा. पल्यो के असं० भाग ऊणी. तेइन्द्री ५० सा० पल्यो के असं० भाग ऊंणी. चौरिद्री १०८ साग० पल्यो के असं० भाग ऊंणी. और असंझी पंचेन्द्री १ हजार साग० पल्योपमके असंख्यातमें भाग ऊंणी बांधे. तथा उत्कृष्ट स्थिति एकेन्द्री १ मागरोपम, बे. इन्द्री २५ साग० तेइन्द्री ५. साग० चौरिन्द्री १०० साग० असंझी पंचेंद्री १ हजार साग० और संज्ञी पंचेंन्द्री जघन्य १४ प्रकृति अंतरमुहूर्त और ६ प्रकृति अंत: कोडाकोडी सागरोपमको बांधे. उत् कृष्ट वीसो प्रकृतिकी स्थिति और अबाधाकाल समुच्चय जीववत् । ____एक कोडाकोडी सागरोपमकी स्थिति पीछे सामान्यसे १ सौ वर्षका अबाधाकाल है. एसेही एकेन्द्रियादिक सबमें समझ लेना. Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३०) शीघ्रबोध भाग ५ वा. अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानी कोष; ' मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानी क्रोध, मान, माया, लोभ, और संज्वलन क्रोध, मान,माया, लोभ, इन सोलह प्रकृतियोंमेसे प्रथमकी १२ प्रकति समुच्चय जीव बांधे तो, जघन्य १ सागरोपमका सा तिया ४ भाग पल्योपमके असंख्यातमें भाग ऊंणी. और संज्वलमका क्रोध २ महीना. मान । महोना, माया १५ दिन और लोभ अंतर मुहर्तका बांधे. उत्कष्ट १६ प्रकतिका स्थितिबंध ४०कोडाकोडी सागरोपम. और अबाधाकाल ४ हजार वर्षका है । यही सोलह प्रकृति एकेन्द्री जघन्य १ साग० बेहन्द्री २५ सा० तेइन्द्री ५० साग चौरिंद्री १०० साग असंही पंचेन्द्री १ हजार साग० पल्योपमके असंख्यातमें भाग ऊंणी सर्व स्थान और उत्कष्ट सब जीध पूरी २ बांधे, संज्ञी पंचेन्द्री १२ प्रकृति जघन्य अंतः कोडा. कोडी सागरोपम तथा ४ प्रकृति पहिले लिखी उस मुजब बांधे. और उत्कृष्ट सोलहो प्रकृतिका स्थितिबंध तथा अबादाकाल समु. पय जीववत् समझना। भय १ शोक २ जुगुप्सा ३ अरति ४ नपुंसक वेद ५ नरकगति ६ तिर्यचगति ७ एकेन्द्री ८ पंचेन्द्री ९ औदारिक शरीर १० " बंधन ११ अंगोपांग १२ और संघातन १३ क्रियशरीर १४ बन्धन १५ अंगोपांग १६ तथा संघातन १७ तैजस शरीर १८" बंधन १९ संघातन २० कारमण शरीर २१ कारमण शरीरका बंधन २२ तस्य संघातना २३ छेवठ्ठसंहनन २४ हुंडक संस्थान २५ कष्ण वर्ण २६ तिक्तरस २७ दुरभिगंध २८ करकश स्पर्श २९ गुरु स्पर्श ३० सीत स्पर्श ३१ रुक्ष स्पर्श ३२ नरकानुपूर्वी ३३ तियेचानुपूर्वी ३४ अशुभगति ३५ उश्वास ३६ उद्योत ३७ आतप ३८ पराघात ३९ उपघात ४० अगुरु लघु ४१ निर्माण ४२ स ४३ बादर ४४ पर्याप्ता ४५ प्रत्येक ४६ अस्थिर ४७ अशुभ ४८ दुर्भाग्य ४९ दुःस्वर ५० अयश ५१ अनादेय ५२ स्थावर ५३ और नीच गोत्र Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्माबाधाकाल. ( ३३१) ५४ एवम् चौपन प्रकृति समुच्चय जीव बांधे तो, जघन्य १ सागरो पमका सातीया २ भाग पल्योपमके असंख्यातमें भाग उंणी और उत्कष्ट २० काडाकोडी सागरोपम अबाधाकाल २ हजार वर्षका हो. यही प्रकृति एकेन्द्री जघन्य १ साग बेइन्द्री २५ साग तेइन्द्री ५० साग० चौरिन्द्री १०० साग० अमंझी पंचेन्द्री १००० साग० पल्योपमके असंख्यातमें भाग उणी. सर्व स्थान और उत्कर पूरी बांधे. संझी पंचेन्द्री जघन्य अंतः कोडाकोडी साग० उत्कृष्ट समुचयपत्. हास्य रति २ पुरुषवेद ३ देवगति ४ वज्रऋषभ नाराच संघयण ५ समचतुरस्र संस्थान ६ लघु स्पर्श ७ मृदुस्पर्श ८ उप्ण स्पर्श ९ स्निग्ध स्पर्श 10 श्वेतवर्ण 11 मधुरस १२ सुरभि गंध १३ देवानुपूर्वी १४ सुभगति १५ स्थिर १६ शुभ १७ सोभाग्य 1८ सुस्वर १९ आदेय २० यशःकीर्ति २१ उच्चैर्गोत्र २२ एवम् २२ प्रकृति जिसमें पुरुषवेद ८ वर्षका, यशः कीर्ति और उच्चैर्गोत्र इन दोनों प्रकतियोंकी जघन्य स्थिति ८ मुहूर्त शेष १९ प्रकृतियोंकी ज० स्थिती एक सागरोपमका सातिया 1 भाग पल्योपमके असंख्यातमें भाग ऊंणी, और २२ प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति 10 कोडाकोडी सागरोपमकी बांधे, अबाधाकाल १ हजार वर्ष ॥ एकेन्द्रीसे यावत् असंही पंचेन्द्री पूर्ववत् १-२५-५० १००-१००० साग० प० अ० उणी. संझी पंचेन्द्री ३ प्रकृति समु. यवत्, और १९ प्रकृति अंतः कोडाकोडी सागरोपम तथा उत्कृष्ट स्थिति २२ प्रकृतिकी दश कोडाकोडी सागरोपम अबाधाकात एक हजार वर्षका है। खीवेद १ +सातावेदनीय २ मनुष्यगति ३ रक्तवर्ण ४ कषाय. रम ५ मनुष्यानुपूर्वी ६ इन छः प्रकृतियोमेसे शातावेदनीयका जष. शातावेदनीय २ प्रकारकी १ इर्यावही पहेले समय बांधे दूसरे समय वेदे, और तीजे समय निर्जर संपायकी समुच्चयवत् । Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३२ ) शीघ्रबोध भाग ५ वा. न्यबन्ध १२ मुहुर्त और शेष पाँच प्रकृतियोंका जघन्यं स्थितिबन्ध १ सागरोपमका सातिया १ || भाग प० अ० उंणी. उत्कृष्ट छ प्रकृतिका बन्ध १५ कोडाकोडी सागरोपम और अबाधाकाल १५ सो वर्षका है. एकेन्द्री यावत् असंज्ञी पंचेन्द्री पूर्ववत् १-२५-५० १००-२००० सा० और संज्ञी पंचेन्द्री शातावेदनीय जघन्य १२ मुहुर्त शेष पांच प्रकृति जघन्य अंतः कोडाकांडी साग० को बांधे. उत्कष्ट बंध समुच्चयवत् ? | बेइन्द्रिय १ तेइन्द्रिय २ चौरिन्द्रिय ३ सूक्ष्म ४ साधारण ५ अपर्याप्ता ६ कीलिकासंहनन ७ और कुब्जसंस्थान ८ ये आठ प्रकृतिका समुच्चय जीव जघन्य १ सागरोपमका पैतीसीया ९ भाग पल्योपमके असंख्यात में भाग उणी. और उत्कृष्ट १८ कोडाकोडी सागरोपमकी बांधे. अबाधाकाल १८०० वर्षका । एकेन्द्री यावत् असंज्ञी पंचेन्द्री पूर्ववत् १-२५-५० १०० १००० सागरोप प० संज्ञी पंचेन्द्री जघन्य अंतः कोडाकोडी सागरोपम उत्कृष्ट समुच्चयवत्. न्यबन्ध १२ मुहूर्त्त और शेष पांच प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध १ सागरोपमका सातिया || भाग प० अ० उंणी. उत्कृष्ट छ 1 आहारक शरीर १ तस्य बंधन २ अंगोपांग ३ संघातन ४ और जिननाम ५ ये पांच प्रकृति समुच्चय बांधे तो, जघन्य अंतरमुहुर्त उत्कृष्ट अंतः कोडाकोडी सागरोपम, एवम् संज्ञी पंचेन्द्री || मिथ्याव मोहनी समुच्चयजीव बांधे तो, जघन्य बंध १ सागरोपम उत्कृष्ट ७० कोडाकोडी सागः अ० काल ७ हजार वर्ष. केन्द्री यावत् पचेन्द्री पूर्ववत्. और संज्ञी पंचेन्द्री जघन्य अंतः कोडाकोडी सागरोपम. उत्कृष्ट समुच्चयवन्. ऋषभनाराच संहनन ९ न्यग्रोध संस्थान २ ये दो प्रकृति समुच्चय जीव बांधे तो, जघन्य १ सागरोपमका पैतीसिया ६ भाग पल्योपमके असंख्यातमें भाग ऊंणी. उत्कृष्ट १२ कोडाकोडी सागरोपमकी बांधे. अबाधाकाल १२०० वर्ष एकेन्द्री यावत् असंज्ञी Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्माबाधाकाल. (३३३ ) पंचेन्द्री पूर्ववत्. संज्ञी पंचेन्द्री जघन्य अंतः कोडाकोडी सागरोपम. उत्कृष्ट समुच्चयवत्. नाराच संहनन १ और सादि संस्थान २ ये दो प्रकृति जो समुच्चय जीव बांधे तो जघन्य १ सागरोपम के पेतीसिया ७ भाग उत्कृष्ट १४ कोडाकोड सागरोपम अबाधाकाल १४०० वर्ष एकेन्द्री यावत् असंझी पंचेन्द्री पूर्ववत् संज्ञी पंचेन्द्री जघन्य अन्तः कोडा. कोड सागरोपम उत्कृष्ट पूर्ववत् । अर्द्ध नाराच संहनन और बांमन 'सस्थान ए दो प्रकृति समुच्चयजीव वांधे तो ज०१ सागरोपम के पैतीसीय ८ भाग. उ. १६ कोडाकोड सागरोपम-अबाधा काल १६०० वर्ष शेष पूर्ववत् । नील वर्ण और कटुक रस ए दो प्रकृति समु० जीव बांधे तों जघन्य एक सागरोपम के अठावीसीया ७ भाग उ० १७|| कोडा कोड सागरोपम अबाधा काल १७५० वर्ष शेष पूर्ववत् । पेत्त वर्ण और आंबिल रस ए दो प्रकृति समु० जीव बांधे तो जघन्य एक सागरोपम के अठावीसीया ५ भाग उ० १२ कोडकोड सागरोपम अबाधाकाल १२५० बर्ष शेष पूर्ववत् । ___नरकायुष्य और देवायुष्य ए दो प्रकृति, पंचेन्द्री बांधे तो जघन्य १८००० वर्ष उ०३३ सागरोपम अबाधाकाल ज० अन्तर महुर्त उ० कोड पूर्व के तीजे भाग । तीर्यचायुष्य और मनुष्यायुष्य ए दो प्रकृति बांधे तो जघन्य अन्तर मुहुर्त उ०३ पल्योपम अबाधाकाल ज० अन्तर० उ. कोड पूर्व के तीजे भाग इसी को कण्ठस्थ करों और बिस्तार गुरुमुखसे सुनो। . सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम्. Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३४) शीघ्रबोध भाग ५ वा. थोकडा नं. ४८. .. श्री भगवतिसूत्र शतक ८ उ० १० (कर्म विचार.) लोकके आकाशप्रदेश कितने है ! असंख्यात है. एक जीषके आत्मप्रदेश कितने है! , . असंख्याते है. ( जितने लोकाकाशके प्रदेश है, उतनेही एक जीवके आत्मप्रदेश है.) कर्मको प्रकृति कितनी है ? आठ-यथा ज्ञानावर्णीय, दर्शनावर्णीय, वेदनी, मोहनी, आयुष्य, नाम, गोत्र, और अंतराय, नरकादि चोवीस दंडकके नीवोंके आठ कर्म है. परंतु मनुष्योंमे आठ, सात, और चार भी पाये जाते है. (वीतराग केवली कि अपेक्षा) ज्ञानावर्णीय कर्म के अविभाग पलीछेद (विभाग) कितने है? अनंत है. एवम् यावत अंतरायकर्म के नरकादि चोवीस दंडकमें कहना. एक जीवके एक आत्मप्रदेशपर ज्ञानावर्णीय कर्मकी कितनी अवेडा पवेडी (कर्मका आंटा जैसे ताकलेपर सूतका आंटा) है ? कितनेक जीवोंके है और कितनेक जीवोंके नहीं है ( केवलीके नहीं.) जिन जीवोंके है, उनके नियमा अनंती २ है. एवम् दर्शनावर्णीय, मोहनी, और अंतरायकर्मभी यावत् आत्माके असंख्यात प्रदेशपर समझ लेना. Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मोकि नियमा भजना. (३३५ ) एक जीवके एक आत्मप्रदेशपर वेदनी कर्मकी कितनी अवेडी पवेडा है ? सर्व संसारी जीवोंके आत्मप्रदेशपर नियमा अनंता २ है. एवम् आयुष्य, नामकर्म, और गोत्रकर्मभी है. यावत् अमख्यात आत्मप्रदेशपर है. इसी माफीक २४ दंडकोंमे समझ लेना. कारण जीव और कर्मके बंधनका सम्बंध अनंत कालसे लगा हुवा है. और शुमाशुभ कार्य कारणसे न्यूनाधिक भी होता रहता है. - जहां ज्ञानावर्णीय है, वहां क्या दर्शनावरणीय है. एवम् यावत् अतराय कर्म? . नीचेके यंत्रद्वारा समझलेना. जहां (नि) हो वहां नियमा और ( भ ) हो वहां भजना (हो या न भी हो) समझना. इति कर्ममार्गणा ज्ञाना. दर्श. वेदनी | मोह. आयु. नाम. गोत्र. | अंतराय. शानावरणीय दर्शनावरणीय वेदनीय मोहनीय आयुष्य नामकर्म गोत्रकर्म अंतराय कममागणा २ - * में जब . २० सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम् Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३६) शीघ्रबोध भाग ५ वां. थोकड़ा नं० ४६ . ( सूत्र श्री पन्नवणाजी पद २४ ) ( बांध तो बांधे ) मूल कर्म प्रकृति आठ है यथा ज्ञानावर्णीय, दर्शनावर्णीय, घेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम कर्म, गोत्र कर्म अन्तराय कर्म ॥ वेदनीय कर्मका बंध प्रथम से तेरहवा गुणस्थान तक है । ज्ञनावर्णीय, दर्शना; नामकर्म, गोत्र, और अन्तराय ए पांच काँका बंध प्रथम से दशवां गुणस्थान तक है ॥ मोहनीय कर्मका बंध प्रथम से नवमा गुणस्थान तक है ॥ आयुष्य कर्मका बंध प्रथम से सातमा गुणस्थान तक है । समुच्चय एक जीव ज्ञानावर्णीय कर्म बांधता हुवा सात कर्म ( आयुः वर्ज ) बाँधे-आठ कर्म बांधे, छ कर्म बांधे ( आयुः मोहनी वर्जके ) एवं मनुष्य भी ७-८-६ कर्म बांधे । शेष नरकादि २३ दंडक सात कर्म बांधे आठ कर्म बांधे । इति । ___ समुच्चय घणा जीव ज्ञानावर्णीय कर्म बांधते हुवे ७-८-६ कर्म बांधे जिसमे ७-८ कर्म बांधणेवाला सास्वता और छे कर्म बान्धनेवाले असास्वता जिस्का भांगा ३. (१) सात-आठ कर्म बांधनेवाले घणा ( सास्वता) (२) सात-आठ कर्म बांधनेवाले घणा और छ कर्म बांधनेवाला एक। (३) सात-आठ कर्म बांधनेवाले घणा और छे कर्म बांधने वाले भी घणा ॥ घणा नारकीका जीव ज्ञानावर्णीय कर्म वांधता ७.८ कम बांधे जिसमें सात कर्म बांधनेवाले सास्वते और आठ कर्म बां Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म बान्धतों बान्धे. (३३७) (३३७) धनेवाले असास्वता भांगा ३। (१) सात कर्म बांधनेवाले घणा (सास्वता है) (२) सात कर्म बांधनेवाले घणा और आठ कर्म बांधनेवाला एक । (३) सात कर्म बांधनेवाले घणा और आठ कर्म बांधनेवाले भी घणा इसी माफिक १० भुवनपति, ३ विकलेंद्री, तीर्यच पांचेंद्री, व्यंतर देव, जोतीषि, और वैमानीक एवं १८ दंडक का ५४ भांगा समझना। पृथ्व्यादि पांच स्थावर में ज्ञानावर्णीय कर्म बांधतां सात कर्म बांधनेवाले घणा और आठ कर्म बांधनेवाले भी घणा । भांगा नहीं उठता है। । घणा मनुष्य ज्ञानावर्णीय कर्म बांधे तो ७-८-६ कर्म बांधे जिसमें सात कर्म बांधनेवाले सास्वता ८-६ कर्म बांधनेवाले असास्वते जिसका भांगा ९. | सात कर्म आठ कर्म छ कर्म | सात कर्म आठ कर्म छ कर्म ३ (घणा) ० ० ३ , १ १ m ~ Wwww M ३ , ३ एवं ९ भांगा हुवा. समुच्चय जीवोंका भांगा ३ अठारे दंडकका भांगा ५४ और मनुष्यका भांगा ९ सर्व मीलके ज्ञानावर्णीय कर्मका ६६ भांगा हुवा इति। एवं दर्शनावर्णीय, माम, गोत्र, अन्तराय. एवं चार कर्म झानावर्णीय साश होनेसे पूर्ववत् प्रत्येक कर्मका ६६ छाष्ट भांगा गीणनेसे ३३० भांगा हुवा । २२ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३८) शीघ्रबोध भाग ५ वा. समुच्चय एक जीव वेदनीय कर्म बांधता हुवा ७-८-६-१ कर्म बांधे. इसी माफिक मनुप्य भी ७-८-६-१ कर्म बांधे. शेष २३ दंडकके एक एक जीव ७-८ कर्म बांधे। समुच्चय घणा जीव वेदनीय कर्म बांधता ७-८-६-१ बांधे. जिसमें ७-८-१ कर्म बांधनेवाले सास्वता और ६ कर्म बांधनेवाले असास्वता जिसका भांगा३।। (१) ७-८-१ कर्म बांधनेवाला घणा ( सास्वता) (२) ७-८-१ का घणा और छ कर्म बांधनेवाला एक । (३) ७-८-१ का घणा और छै कर्म बांधमेवाले घणा। घणा नारकीका जीव वेदनीय कर्म बांधता ७-८ कर्म बांधे, जिसमें ७ कर्म बांधनेवाले सास्वते और ८ कर्म बांधनेवाले असास्वते जिसका भांगा ३। (१) सात कर्म बांधनेवाले घणा। (२) सात कर्म बांधनेवाले घणा और ८ कर्म बांधनेवाला एक । (३)सात कर्म बांधनेवाले घणा ८ कर्म बांधनेवाले घणा । एवं १० भुवनपति ३ विकलेंद्री, तिर्यंच, पंचेंद्री, व्यंतर, ज्योतिषी, वै. मानिक, नरकादि १८ दंडकमें तीन भांगा गीणतां५४ भांगा हुवा। पृथ्व्यादि पांच स्थावरमें सात कर्म बांधनेवाले घणा और ८ कर्म बांधनेवाले भी घणा वास्ते भांगां नहीं उठते है। घणा मनुष्य वेदनीय कर्म बांधता ७-८-६-१ कम वांधे जिसमें ७-१ कर्म बांधनेवाले घणा जिसका भाग ९ ७-१ का । ८ । ६ ७-१ का । ८ । ६ ३ (घणा) ० .३ १ १ ur orm mr mr or mr m m ३ . ३ एवं ९ भांगा Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मबन्धाधिकार. (३३९) समुश्चय नीवका भांगा ३ अठारे दंडकका ५४ मनुष्यका ९ सर्व ६६ भांगा हुवा इति । समुच्चय एक जीव मोहनीय कर्म बांधता ७-८ कर्म बांधे एवं २४ दंडक। समुच्चय घणा जीव मोहनीय कर्म बांधतां ७-८ कर्म बांधे जिसमें ७ कर्म बांधनेवाले घणा और आठ कर्म बांधनेवाले भी घणा इसी माफिक ५ स्थावर भी समझ लेना। ___ घणा नारकीका जीव मोहनीय कर्म बांधतां ७-८ कर्म बांधे जिसमें ७ कर्म बांधनेवाले सास्वता ८ का असास्वता जिसका भांगा। । १) सात कर्म बांधनेवाले घणा ( सास्वता) (२) , , ,, आठ बांधनेवाला एक (३) " " , घणा एवं पांच स्थावर वर्जके १९ दंडकमें समझ लेना ५७ भांगा हुषा। समुच्चय एक जीध आयुष्य कर्म बांधतां नियमा ८ कर्म बांधे एवं नरकादि २४ दंडक इसी माफिक पणा जीव आश्रयी समुच्चय जीव और २४ दंडकमें भी नियम ८ कर्म बांधे इति । भांगा ३३०-६६-५७ सर्व मीली ४५३ भांगा हुवा। सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम्. Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४०) शीघबोध भाग ५ बां. थोकडा नम्बर ५० . (मूत्र श्री पन्नवणाजी पद २५) (बांधतो वेदे) मूल कर्म प्रकृति आठ यावत् पद २४ के माफिक समझना । समुच्चय एक जीव ज्ञानावर्णीय कर्म बांधतो हुवो नियमा आठ कर्म वेदे कारण ज्ञानावरणीय कर्म दशमा गुणस्थान तक बांधे है वहां आठ ही कर्म मौजूद है सो वेद रहा है एवं नरकादि २४ दंडक समझना। समुच्चय घणा जीव ज्ञानावर्णीय कर्म बांधते हवे नियमा आठ कर्म वेदे यावत् नरकादि २४ दंडकमें भी आठ कर्म वेदे। एवं वेदनीय कर्म वर्जके शेष दर्शनावर्णीय, मोहनीय, आ. युष्य. नाम, गोत्र, अन्तराय कर्म भी ज्ञानावर्णीय माफिक समझना। समुच्चय एक जीव वेदनीय कर्म बांधे तो ७-८-४ कर्मवेदे कारण वेदनोय कर्म तेरहवांगुणस्थान तक बांधते है। एवं मनुष्य भी समझना शेष २३ दंडक नियमा ८ कर्म वेदे। __ समुच्चय घणा जीव वेदन। कर्म बांधते हुवे ७ ८-४ कर्म वेदे एवं मनुष्य । शेष २३ दंडक के जीव नियमा आठ कर्म वेदे। समुच्चय जीव ७-८-४ कर्म वेदे जिसमें ८-४ कर्म वेदनेवाले सास्वता और ७ कर्म वेदने वाले असास्वता जिसका भांगा ३ __(१) आठ कर्म और चार कर्म वेदनेवाले घणा (२)८-४ कर्म वेदनेवाले घणे सात कर्म वेदनेवाला एक (३) आठ-चार कर्म वेदनेवाले घणा और सात कर्म वेदनेवाले घणा एवं मनुष्यमें भी ३ भांगा समज्ञना सर्व भांगादहुआ इति। सेवंभंते सेवंभंते तमेवसचम् Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवेदतों बान्धे (३४१) थोकडा नम्बर ५१ सूत्र श्री पनवणाजी पद २६ ( वेदता बांधे ) . मूल कर्म प्रकृति आठ है यावत् पद २४ माफिक समजना समुख्य एक जीष ज्ञानावर्णीय कर्म वेदतों हुषों ७-८-६-१ कर्म बांधे (कारण ज्ञानावरणीय बारहायों गुण स्थानक तक वेदे है) एवं मनुष्य शेष २३ दंडक ७-८ कर्म बांधे। समुख्य घणाजीव ज्ञानावर्णीय कर्म वेदतो ७-८-६-१ कर्म बांधे जिसमें ७-८ कर्म बांधनेवाला सास्वता और ६-१ कर्म बांधवाला असास्थता जिसका भांगा ९ ७-८ । ६ । १ ७-८ । ६ । . . به هه . . له سه .. ३ एवं ९ मांगा। .. एकेंद्रीका पांच दंडक और मनुष्य वर्जके शेष १८ दंडक में शानावर्णिय कर्म वेद तो ७-८ कर्म वांधे जिसमें ७ का सास्थता ८ का असास्वता जिसका मांगा ३ (१) सातका घणा (२)सातका घणा, आठको पक (३) सातका धणा और आठका भी घणा एवं १८ दंडक का भांगा ५४ एकेन्द्री में ७ का भी घणा और आठ कर्मबांधनेवाला भी Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४२.) शीघ्रबोध भाग ५ वा. घणा मनुष्य में ज्ञानावर्णीय कर्म वेद तो ७-८-६-१ कर्म बांधे जि. समें ७ कर्म बांधने वाला सास्वता शेष ८-६-१ का असास्वता जिसका भागा २७ ७ कर्म । ८ कर्म । ६ कर्म । १ कर्म ७ क.। । ६।१। ० M ० o ० ० m wwwwww ० mm ० or (२१)३ ० w m or m orm or mum mr m (१४)३ ३ . १ एवं भांगा २७ एवं दर्शनावर्णीय और अन्तराय कर्म भी समझना । समु० एक जीव वेदनीय कर्म वेदतो७-८-६-१-० (अबाध) कर्म बान्धे एवं मनुष्य । शेष २३ दंडक ७-८ कर्म बांधे । समु० घणा जीव वेदनीय कर्म घेदता ७-८-६-१-० जिसमें ७-८-१ का सास्थता और छ कर्म तथा अबांधे का असास्वता हिसका भागा ९। Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवेदतों बान्धे ७-८-२ । ६ । अबाध : ७-८-१। .. ३(घणा) १. ३ (३४३ ) ६ । अबांध १ . १ .ww ३ एवं भांगा ९ . नारकी का जीव वेदनीय कर्म वेदता ७-८ कर्म बांधे जिसमें का सास्वते और ८ कर्म बांधने वाले असास्वते जिसका भांगा ३। (१) सात का घणा ( २ सात का घणा आठको एक (३) सोत का घणा और आठ कर्म बांधने वाले भी घणा । एवं एकेन्द्री का ५ दंडक और मनुष्य वर्ज के १८ दंडक में समजना मांगा ५४ । एकेन्द्रियमें मांगा नहीं है। चा मनुष्य वेदनोय कर्म वेदता ७-८-६-१-० ( अबांध ) जिसमें ७-१ कर्म वांधने वाले सास्वते और ८-६- का असास्वते जिसका भांगा २७ । ७-१। ८। ६ ० (८)३ .१ . (१) ३ (घणा) . . . (९) ३ . १ ३ . (२) ३, १ ८ (१०)३ ., ३ १ . ما سه م • • • • • w سه . . .. .w..wwww ० (५) ३ ., (६) ३, ३ . . ३ . . ० १ (१३) ३ (१४) ३ , , ३ . १ . Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४४) शीघ्रबोध भाग ५ बां. (१६) ३ ,, ० (१७) ३ , ० १ १ १ ३ (२३) ३ ;, १ (२४) ३ ,, ३. २५) ३ ,, ३ . ३ १ १ ३ १ ३ (२१) ३ ,, १ १ ३ एवं भांगा २७+ (२२) ३ , १ ३ १ समु० एक जीव मोहनीय कर्म वेदतों ७-८-६ कर्म बांधे एवं मनुष्य शेष २३ दंडक ७-८ कर्म बांधे। ___ समुः घणा जीव मोहनीय क्रर्म वेदतां ७-८-६ कर्म बांधे जिस्मे ७-८ कर्म बांधने वाले सास्वते ६ कर्म बांधने वाले असास्वते जिसका मांगा। (१) ७-८ कर्म बांधने वाले घणा। - (२) ,, ,, छ कर्म बांधने वाले एक (३) , , घणा घणा नारकी मोहनी कर्म वेदता ७-८ कर्म बांधे जिसमें कर्म बांधने वाले सास्वते ओर ८ कर्म बांधने वाले असास्वते जिसका भांगा३। (१) सात का घणा (२) सात का घणा आठ को एक (३) सात का घणा आठ का भी घणां एवं मनुष्य तथा एकेंद्री वर्ज १८ दंडकोंका भांगा ५४ समजना. एकेद्री में सात कर्म बांधने वाला घणा और आठ कर्म बांधने वाला भी घणा । धणा मनुष्य में मोहनी कर्म वेदतां ७-८-६ कर्म वांधे जिसमें x जेसे वेदनीय कर्म वैसे ही आयुष्य, नाम, गोत्र, समझना । Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्माबाधाकाल. ( ३४५ ) ७ कर्म बांधने वाले सास्वते और ८-६ कर्म बांधने वाले असास्वते मिसका भांगा ९ । ७ कर्म ३ घणा ३ ३ " " ८ कर्म । ० १ ३ ६ कर्म ० ३ " " ३ " एवं भांगा १ १ " ३ सर्व भांगा ज्ञानावर्णीय कर्म का ९-५४-२७ सर्व ९० इसी -माफिक ७ कर्म का ६३० और मोहनीय कर्म का ३-५४-९ सर्व ६६ भांगा हुवे । वेदते हुवे बांधे जिसका कुल भांगा ६९३ भांगा हुबा इति । सेवं भंते सेवं भंते - तमेव सच्चम्. थोकडा नंबर ५२ ( सूत्र श्रीपन्भवणाजी पढ़ २७ ) [ वेद तो वेदे ] मूल कर्म प्रकृति आठ यावत् पद २४ से समझना । समु० एक जीव ज्ञानावर्णीय कर्म वेदतो ७-८ कर्म वेदे एवं मनुष्य शेष २३ दंडक में नियमा ८ कर्म वेदे । समु० घणा जीव ज्ञानावर्णीय कर्म वेदता ७-८ कर्म वेदे जिसमे ८ कर्म वेदने वाले सास्वते और ७ कर्म वेदने वाले असास्वता जिसका भांगा ३. Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४६) शीघ्रबोध भाग ५ वा. - (१) आठ कर्म वेदने वाले घणा, ,, सात का एक. , घणा. मनुष्य वर्ज के शेष २३ दंडकमे नियमा ८ कर्म वेदे और मनुष्य में समुच्चय जीवकी माफिक भांगा ३ समजनां इसी माफि. कदर्शनावर्णीय और अन्तराय कर्म भी समझना. समु० एक जीव वेदनीय कर्म वेदतो ७-८-४ कर्म वेदे एवं मनुष्य शेष २३ दंडक का जीव नियमा ८ कर्म वेदे. समु० घणा जीव वेदनीय कर्म वेदना ७-८-४ कर्म वेदे जिसमें ८.४ कर्म वेदने वाले सास्वता और ७ कर्म वेदने वाले असास्वता भांगा३ (१) ८-४ का घणा (२)८-४ का घणा ७ को एक (३॥ ८-४ का घणा ७ का भी घणा एवं मनुष्य में भी ३ भांगा सम. झना. शेष २३ दंडक में वेदनीय कर्म वेदता नियमा ८ कर्म वेदे. वेदनीय कर्म की माफिक आयुष्य; नाम गोत्र कर्म भी समझना. समु एक जीव मोहनीय कर्म वेदतों नियमा ८ कर्म वेदे एवं २४ दंडक समझना इसी माफिक घणा जीव भी ८ कर्म वेदे. सर्व भांगा ज्ञानावर्णीयादि सात कर्म में समुच्चयजीवका तीन तीन और मनुष्य का तीन तीन एवं ४२ भांगा हुवा इति. सेवं भन्ते सेबं भन्ने तमेव मञ्चम्. च्यारो थोकडे के मांगा ४५३ बांधतां बांधे का भांगा ६९६ वेदता बांधे का मांगा ६ बांधतो वेदे का मांगा ४२ वेदता वेदे का भांगा Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४७ ) ५० बोलोंकि बन्धी. थोकडा नम्बर ५३ (श्री भगवतीजी मत्र शः ६.३) ५० बोल की बांधी-द्वार १५ वेद ४ (पुरुष १ स्त्री २ नपुंषक ३ अवेदी ४) संयति ४ (संयति १ असंयति २ संयता संयति ३ नोसंयति नो संयति नोसंयता संयति ४) दृष्टि, ३ (सम्यक्त्व दृष्टि १ मिथ्या दृष्टि २ मिश्र दृष्टि ३ सन्नी, ३ (संज्ञी १ असंज्ञी २ नोसंज्ञानोअसंज्ञी ३ भव्य. ३ भव्य १ अभव्य २ नोभव्यामव्य ३ ) दर्शन, ४ (चक्षुदर्शन १ अचक्षु दर्शन २ अवधिदर्शन ३ केवलदर्शन ४) पर्याप्ता ३ (पर्याप्ता १ अपर्याप्ता २ नो पर्याप्तापर्याप्ता ३) भाषक, २ (भाषक १ अभाषक २ परत्त ३, (परत १ अपरत्त २ नो परत्तापरत्त ३) ज्ञान, ८ मतिज्ञान श्रुतज्ञान अवधिज्ञान मनःपर्यवज्ञान केवलज्ञान मतिअज्ञान श्रुतिअज्ञान विभंगशाम, योग, ४ (मनयोग वचनयोग काययोग अयोगी) उपयोग २ (साकार अनाकार) आहार २ (आहारी अनाहारी) सूक्षमः सूक्ष्मबादरनो सूक्ष्मनो बादर चरम २(चरम १ अचरम २) एवम् ५० (१४) स्त्रीवेद १ पुरुषवेद २ नपुंसक वेद ३ असंयति ४ संयतासंयति ५ मिथ्यादृष्टि ६ असंज्ञी ७ अभव्य ८ अपर्याप्ता ९ अपरत्त १० मतिअज्ञान ११ श्रुतिअज्ञान १२ विभंगज्ञान १३ और सूक्ष्म १४ इन चौदाबोलों में ज्ञानावर्णियादि सातो कर्मोको नियमा बांधे, आयुष्य कर्म बांधे ने की भजना (स्यात् बांधे स्यात् न बांधे ). (१३ ) संज्ञी १ चक्षुदर्शन २ अचक्षुदर्शन ३ अवधिदर्शन ४ भाषक ५ मतिज्ञान ६ श्रुतिज्ञान ७ अवधिज्ञान ८ मनःपर्यव ज्ञान ९ मनयोग १० वचनयोग ११ काययोग १२ और आहारी १३ इन Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४१) शीघ्रबोध भाग ५ वा. तेरह बोलों में वेदनी कर्म बांधने की नियमा शेष साता कर्म ' ' बांधने की भजना. (११) संयति १ सम्यक्त्व दृष्टि २ भव्य ३ अभाषक ४ पर्या सा ५ परत ५ साकारोपयोग ७ अनाकारोपयोग ८ बादर ९ चरम १० और अचरम ११ इन ग्यारे बोलों में आठो कर्म बांधने की भनना. (६) नो संयतिनोअसंयतिनोसंयतासंयति १ नो भव्या. भव्य २ नोपर्याप्तानोअपर्याप्ता ३ नो परत्तापरत्त ४ अयोगी ५ और नो सुक्ष्म नो बादर ६ एवम् छै बोलोंमें किसी कर्मका बंध नहीं है ( अबंधक ) (३) केवलज्ञान १ केवल दर्शन २ नो संज्ञी नो असंज्ञी ३ इन तीनों में वेदनीय कर्म बांधनेकी भजना. बाकी सातों कर्मों का अबंध. (२) अवेदो १ अणाहारी २ इन दोनों में सात कर्म वांधने की मजना. आयुष्य कर्मका अबंधक और (१) मिश्रष्टि में सातो कर्म बांधे आयुष्य न बांधे इति । सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम् थोकडा नंबर ५४ ( श्री भगवतीजी मूत्र श० ८ उ०८) कौका बंध कोका बंध जाणने से ही उसको तोडनेका उपाय सरल. तासे कर सकते है इसवास्ते शिष्य प्रश्न करता है कि Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इर्यावहिबन्ध. (३४९) हे भगवन् ! कर्म कितने प्रकारसे बंधता है ! दो प्रकारसे-यथा ? इर्यावहि ( केवल योगोंकि प्रेरणा से ११-१२-१३ गुणस्थानक में बंधता है ) २ संप्राय ( कषाय और योगों से पहिले गुणस्थानक से दसवें गुणस्थानक तक बंधता है। इर्यावहि कर्म क्या नारकी, के जीव बांधे तीर्यच, तीर्थचणी मनुष्य. मनुष्यणी देवता, देवी बांधते है! नारकी, तीर्यच, तीर्यचणी देवता, देवी न वांधे शेष मनुष्य, और मनुष्यणी, बांधे. भूतकाल में बहुत से मनुष्य और मनुष्यणीयों ने इर्यावहि कर्म बांधा था और वर्तमान काल का भांगा ८ यथा १ मनुष्य एक २ मनुष्यणी एक३ मनुष्य बहुत ४ मनुष्णी बहुत ५ मनुष्य एक और मनुष्यणी एक ६ मनुष्य पक और मनु. व्यणी बहुत ७ मनुष्य बहुत और मनुष्यणी एक ८ मनुष्य बहुत और मनुष्यणीया बहुत। इर्यावहि कर्म क्या एक खी बांधे या एक पुरुष बांधे या एक नपुंसक बांधे! एसेही क्या बहुत से स्त्री, पुरुष, नपुंसक बांधे। . उक्त ६ ही बोलवाले जीव नहीं बांधे। क्या इर्यावहि कर्मनोत्री, नोपुरुष, नोनपुंसक बान्धे ( पहिलेवेदका उदयथा तब खी पुरुषादि कहलाते थे फीर वेदके क्षयहोने से नोखी नोपुरषादि कह जाते है । ( उत्तरमें) - हां, बांधे मूतकाल में बांधा वर्तमान में बांधे और भविष्यमें बांधेगे. जिसमें वर्तमान बंध के भांगा २६ यथा असंयोगभांगा ६ एक नोखी बांधे बहुतसी नो बीयां बांधे २ एक नो पुरुष बांधे ३ बहुत से नोपुरुष बांधे ४ एक नो नपुंसक बांधे ५ बहुत से नो नपुंसक बांधे। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५० ) शीघ्रबोध भाग ५ वां. द्वीसंयोगी भांगा १२ नोस्त्री नो नपुंसक | नो पुरुष नो नपुंसक नोस्त्री नोपुरुष - 5 - mm चिन्ह (१) एक वचन (३) बहुवचन समजना त्रिक संयोगी भांगा ८। नोस्त्री. नो पुरुष नोनपुंसक । नोखा. नोपुरुष नोनपुंसक इति २६ भांगा घणा भव आश्री इर्यावही कर्म जो ८ भांगे नीचे लिखे है उनका बंध कहां २ होता है ? कोण सा जीव इण भांगा का अधिकारी है। (१) । वांधाथा, | बांधता है, बांधेगा, बांधाथा, | बांधता है, नबांधेगा, (३) । बांधाथा, नहीं बांधता है, बांधेगा, बांधाथा, नहीं बांधता है, नबांधेगा, (५) | नबांधाथा, बांधता है, वांधेगा, (६) | नबांधाथा, | बांधता है, नबांधेगा, (७) | नबांधाथा | नबांधता है, | वांधेगा, (८) | नबांधाथा,| नबांधता है, | नबांधेगा, Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इर्यावहिबन्ध. (३५१) - (पहिला) भांगा उपशम श्रेणी वाले जीव में मिले. जैसे उपशम श्रेणी १ भवमें १ जीव जघन्य एक वार और उत्कृष्ट २ वार करता हे कीइ जीव १ वार उपशम श्रेणी करके पीछा गीरा तो पहिले उपशम श्रेणी करीथी इसलिये इर्यावही कर्म वांधा था और वर्त. मानकाल में दवारा उपशमश्रेणी वरतता है इसलिये इर्यावही कर्म बांध रहा है. और उपशम श्रेणीवाला अवश्य पीछा गिरेगा. परन्तु फिरभी नियमा मोक्ष जानेवाला है इस वास्ते भविष्य में इर्यावही कर्म बांधेगा. (दुसराभांगा पहिले उपशम श्रेणी की थी तव इर्यावही कर्म बांधा था. वर्तमान में क्षपक श्रेणी पर वरतता है इसलिये बांधता है आगे मोक्ष चला जायगा इस वास्ते न बांधेगा. (तीसरा भांगा पहिले उपशम श्रेणी करके बांधा था वर्त मानमें नीचे के गुणस्थानक पर वर्तता है इसलिये नहीं बांधता और मोक्षगामी है इसलिये भविष्य में बांधेगा. ( चोथा ) भांगा चौदमा गुणस्थानक या सिद्धों के जीवों (पांचमां ) भांगा भूतकाल में उपशम श्रेणि नहीं की इसलिये नहीं वांधा था वर्तमान में उपशम श्रेणी पर है इसलिये बांधता है भविष्य में मोक्षगामी है इसलिये बांधेगा। . (छठा ) भांगा प्रथम हो क्षपक श्रेणी करने वाला भूतकाल में न बांधा था, वर्तमान में बांधे है भविष्यमें मोक्ष जावेगा वास्ते न बांधेगा। ( सातमा) भांगा भूतकाल और वर्तमानमें उपशम श्रेणी या क्षपक श्रेणी नहीं की इसलिये नहीं बांधां और नहीं बांधता है परन्तु भव्य है इसलिये नियमा मोक्ष जायगा तब बांधेगा। . ( आठमा ) भांगा अभव्य प्रथमगुणस्थानकवर्गों में मिलता Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५२) शीघ्रबोध भाग ५ वां. है एवं एक भवापेक्षी ७ भांगोका जीव मिले छठा भांगों शून्य है समय मात्र बंधभावापेक्षा है। इर्यावहि कर्म क्या इन चार भांगो से बांधे ? १ सादिसांत २ सादि अनंत: अनादि सांत ४ अनादि अनंत १ सादि सांत मांगे से बांधे. क्यों कि इर्यावहि कम ११-१२-१३ बे गुणस्थानक के अंत समय तक बंधता है इसलिये आदि है और चौदमे गुणस्थानक के प्रथम समय बंध विच्छेद होने से अंत भी है बाकी तीन मांगे शून्य है. इर्यावहि कर्म क्या देश (जीवकाएकदेश) से दश ( इयांवहि केएकदेश) बांधे १ या देस से सर्व २ या सर्व से देश ३ या सर्व से सर्व बांधे ४? ___ हां सर्व से सर्वका बंध हो सका है बाकी-तीनों भांगे शुन्य है. इति इर्यावहि कर्मबन्ध ॥ ___ सम्प्राय कर्म क्या नारकी. तिर्यंच, तिर्यंचणी मनुष्य मनुष्यणी, देवता. देवी, बांधे ४. - हां बांधे क्योंकि सम्प्राय कर्म का बंध पहिले गुणस्थानक से दशमे गुणस्थानक तक है. ___सम्प्राय कर्म क्या स्त्री, पुरुष नपुंसक या बहुत से स्त्री, पुरुष, नपुंसक बांधे. हां सब बांधे भूतकाल मे बहुत जीवोंने बांधा था, वर्तमान में बांधते है और भविष्य में कोइ बांधेगा कोई न बांधेगा कारण मोक्षमे जानेवाले है. सम्प्राय कर्म क्या अवेदी (जिनकावेदक्षय होगयाहो) बांधे ? हां, मूतकालमें बहुतसे जीवोंने बांधाथा. और वर्तमान Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्प्रायकर्म. ( ३९३) में भांगे २६ से इर्यावही कर्मवत् बांधे. क्योंकि अवेदी नवमें गुणस्थानक के २ समय बाकी रहने पर ( वेदोंका क्षय होते है ) होजाते हैं और सम्प्राय कर्मका बंध दशवें गुणस्थानक तक है सम्प्राय कर्म क्या इन चार भांगों से वांधे १ सादि सांत, २ सादि अनंत, ३ अनादिसांत, ४ अनादि अनंत, तीन भांगों से बाँधे, और १ मांगा शुन्य, यथा. १ सादिसांत भांगों से बांधे सम्मायकर्मबांधनेकी जीवों के आदि नहीं है. परन्तु यहां अपेक्षायुक्त वचन है जैसे कि जीव उपशम श्रेणी करके ग्यारह गुणस्थानक वर्तता हुवा इर्यावही कर्म बांधे परंतु इग्यारमें गुणस्थानक से नियमा गिरकर सम्प्राय कर्म बांधे इस अपेक्षा से सम्प्राय कर्मकी आदि है और क्षपक श्रेणीकर के बारमें गुणस्थानक अवश्य जावेगा. वहां सम्प्राय कर्म का बंध नहीं है इसलिये अतभी है २ सादि अनंत मांगा शन्य है क्योंकि ऐसा कोई जीव नहीं है कि जिसके सम्प्राय कर्मकी आदि हो. यदि उपशम श्रेणी की अपेक्षा से कहोगे तो वह नियमा मोक्षभी जायगा तो अन्त पणाकी बाधा आवेगी वास्ते यह भांगा शास्त्रकारोंने शन्य कहा है. ३ अनादि सांत. भांगा भव्य जीवोंकी अपेक्षा से. क्योंकि जीवके सम्प्राय कर्मकी आदि नहीं है परंतु मोक्ष नायगा इसवास्ते अंत है। .. ४ अनादि अनंत अभव्य जीवकी अपेक्षासे जिसके सम्प्राय कर्म की आदि नहीं है और न कभी अंत होगा. ___सम्प्राय कर्म क्या इन चार भांगों से बांधे १ देश (जीवका) से देश (सम्प्राय कर्मका )२ देशसे सर्व ३ सर्व से देश ४ सर्व से सर्व. .. Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९४) शीघ्रबोध भाग ५ वा. . सर्व से सर्ष. इस भांगे से सम्प्राय कर्मबांधे बाकी तीनों भांगे शुन्य सम्प्रायकर्म जगतमे रुलाने वाला है और इर्यावही मोक्ष नगर में पहुंचाने वाला है दोनुं बंध छूटने से जीव मोक्ष मे जाता है इति-समाप्तम् सेवं भंते सेवं भंते तमेव सञ्चम् ॥ थोकडा नं० ५५ (श्री भगवतीजी सूत्र० २६ उ० १) (४७ बोल की बांधी) इस शतक में कमों का अति दुर्गम्य सम्बन्ध हैं. इस वास्ते गणधरों ने सूत्रदेवता को पहिले नमस्कार करके फिर शतक को प्रारंभ किया है. गाथा-जीवय १ लेश्या ६ पक्खिय २ दिछी ३ नाण ६ अनाण सत्राओ५ वेय ५ कसाये ६ जोगे ५ उवओगे २ एकारसवि. ट्ठाणे ॥१॥ अर्थ-समुच्चय जीव १॥ कृष्णादि लेश्या ६ अले शी७ सलशी ८॥ पक्ष० कुष्णपक्षी १ शुक्लपक्षी २।। दृष्टी० सम्यक्त्वदृष्टि १ मिश्र. दृष्टि २ मिथ्यादृष्टि ३ ॥ मत्यादि ज्ञान ५ सनाणी ६ ॥ अज्ञान ३ अनाणी ॥ मंज्ञा ४ नोसंज्ञा ५॥ वेद३॥ संवेदी ४ अवेदी ५ ॥ कषाय.४ सकषाय ५ अकषाय ६॥ योग० ३ सयोगी अयोगी ५ ॥ उपयोग० साकार १॥ अनाकार २॥ एवम् ४७ चौवीसों दंडकों में से कौन २ से दंडक में कितने २ भेद पावे वह नीचे के यंत्र द्वारा समजलेना। Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं नाम दंडक १३ १ नारकी |१२|| भुवन पति १० वाण व्यंतर १ ज्योतिषी १ वे देवलोक १-२ देवलोक ३ से १२ १४ मा नि ग्रैवेक क ४७ बोलोंकि बन्धी. अनुत्तर ५ पृ. पाणी वन० ३ तेऊ वायु २ बिकलेन्द्री ३ तीर्यच, पंचेन्द्री | १७ 12 १२२ २३ १२४/ मनुष्य जी ले प ह ज्ञा १ ४ २ ३ १५:२,३ ४ m १ ६ २ ३ ६ ४ ५ ५ ६ ५ २४७ MY १ * ४ • अज्ञा ४ ४ ४ |२| ५|४| २ |३५| ܡ १ २ २ १ २ २ १२ २ १।२।२ १ २ ।१ १ १५ ।२ १ ४ २ ।१ १ ४ २ २ ३ ३ ४ १ S २ /३ ४ ४ ४ ४ १ ८ २ 3 ६ । ४ । ५ ५ तीजे, चौथे और पांच में, देवलोकमें एक पद्मलेश्या और छठ्ठे, से बारमें देवलोक तक एक शुक्ल लेश्या है इस लिये प्रत्येक 'देवलोक में एक १ लेश्या है। A 4. -- O ० ३ ܘ ܡ ܡ ܡ ܡ ܡ ܡ ܡ वद ४ ४ ३ ५ ४ २ ३७ * M ४ ४ २ ४ ( ३५५ ) v N N 0 ES. NEW ५ । ४।२ ४ ५ ५ ४ ४ ४ ४ २ ५ ४ २ १५ Jo २ ३४ | २ ३३ २ ३२ २ २६ २ ५ १ २ २ २७ २ २६. ป ५ ४ २ ४० २ ५.३ । २ ६ ५ २ ४७ बंधाका भांगा ४ है. इसपर विशेष ध्यान रखने की आवश्यकता है । (१) कर्म बांधा, बांधे, बांधसी, (२) कर्म बांधा, बांधे, न बांधली, (३) कर्म बांधा न बांधे बांधली, (४) कर्म बांधा, बांधे, न बांधली, न आठ कर्म है. जिसमें ४ घाती कर्मों को एकांत पाप कर्म माना है ( ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, और अंतराय, ) और इनमें मोहनीय कर्म सब से प्रबल माना गया है. Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५६) शीघ्रबोध भाग ५. वा. शेष वेदनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र, ये चार अघाती कर्म है ( पाष पुण्य मिश्रित) इसलिये शास्त्रकारों ने प्रथम समुचय पापकर्म की पृच्छा अलग की है उपरोक्त ४७ बोलोमेसे कौन २ से बोलके जीव इन चार भागों में से कौन २ से मांगों से पाप कर्म को बांधे. इस म मोहनीय कर्मकी प्रबलता है इसलिये उसके बंध विच्छेद होने से शेष कर्मों के विद्यमान होते हुए भी उनके बंध की विवक्षा नहीं की.क्योंकि उववाई पनवणा सूत्र में भी मोहनीय कम परही शास्त्रकारों ने ज्यादा जोर दिया है कारण कि मोहनीय कर्म सर्व कर्मों का राजा है. उस के क्षय होने से शेष तीन कर्मों का किंचित् भी जोरं नहीं चलता, उपरोक्त सैतालीस बोलों में से समुच्चय जीव की पृच्छा करते है समुच्चयजीव १ शुक्ललेशी २ संलेशी ३ शुक्ल पक्षी ४ सज्ञानी ५ मतिज्ञानी ६ श्रुतज्ञानी ७ अवधिज्ञानी ८ मनःपर्यवज्ञानी ९ सम्यकदृष्टि १० नों संज्ञा ११ अवेदी १२ सकषायी १३ लोभ कषायी १४ सयोगी १५ मनयोगी १६ वचनयोगी १७ काययोगी १८ साकार उपयोगी १९ अनाकार उपयोगी २० इन वीस बोलों के जीवां में चारों भांगों मिलते है यथाः(१) बांधा, बांधे, बांधसी, मिथ्यात्वादि, गुणठाणों अभव्य जीव. भूतकालमें बान्धा-बान्धे-बान्धसी. (२) बांधा, बांधे, न बाधसी, क्षपक श्रेणी चढता हुआ नवमें गु० तक. बान्धे फीर मोक्ष जायगा-न बन्धसी. (३) बांधा, न बांधे, बांधसी, उपशम श्रेणी. दशमें, इग्यार में गु० तक. वर्तमानमें नहीं बान्धते है. (४) बांधा, न बांधे, न बांधसी, क्षपक श्रेणी दशमें गुण तद्भव मोक्षगामी. (२१) मिश्रदृष्टि दो भांगा से मीलता है. १-२ जो। यथा Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ बोलोंकि बन्धी. ( ३५७) (१) बांधा, बांधे बांधसी, यह सामान्यता से कहा है. बहुत भवपेक्षा. (२) बांधा बांधे, न बांधसी, यह विशेष व्याख्या है. क्योंकि भव्य जीव है व तद्रव मोक्ष जायगा तब (न बांधसी.) ( २२ अकषायी में दो भांगा यथा-३-४ था. (३) बांधा, न बांधे, बांधसी, उपशम श्रेणी दशमें, इग्यारमें गुण वर्तता हुआ भूत कालमें बांधा वर्तमान् ( न बांधे) परन्तु नियमा पीछा गिरेगा. तब (बांधसी) (४) बांधा, न बांधे, न बांधसी.क्षपक श्रेणी वाले अकषायी है (२५) अलेशी, केवली और अजोगी, म भांगा १ बांधा, न बांधे, न बांधसी. बन्ध अभाष । (४७) लेश्या पांच, कृष्णपक्षी, अज्ञाना चार, वेद चार, संज्ञा चार, कषाय तीन, और मिथ्यात्वदृष्टि इन बाइस बोलों के जीवों में भांगा २ मिलते है यथा । १-२ जो। (१) बांधा, बांधे, बांधसी, अभव्य की अपेक्षा से. (२) बांधा, बांधे, न बांधसी, भव्य की अपेक्षा से. यह समुश्चय जीव की अपेक्षा से कहा. जैसे ही मनुष्य के दंडक में समझ लेना. शेष तेवीस दंडक के जीव में दो भांगा मिलते है यथा. १-२ जो. .. (१) बांधा, बांधे, न बांधसी, अभव्य की अपेक्षा विशेष व्याख्या न करके सामान्यता से. (२) बांधा, बांधे, न बांधसी, यह विशेष व्याख्या है क्योंकि भव्य जीव है वह भविष्य में निश्चय मोक्ष जायगा तब (न बांधसी) यह समुच्चय पापकर्म की व्याख्या की है. अब आठों कर्म Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५८) शीघ्रबोध भाग ५ वा. की भिन्न २ व्याख्या करते है जिसमें मोहनीय कर्भ समुच्चय पाप कर्मवत् समझ लेना. ज्ञानावरणीय कर्म को पूर्व कहे हुए बीस बोलोंमें से सकपायी और लोभ कषायी, यह दो बोलों को छोडकर शेष अठारा बोलोंके जीव पूर्वोक्त चारो भांगोंसे बांधे (पूर्वमें जो कुछ कह आये है. और आगे जो कुछ कहेंगे, यह सब बातें गुणस्थानक से संबध रखती है. इसलिये पाठकों को हरेक बोल पर गुणस्थानक का उपयोग रखना अति आवश्यक है, विना गुणस्थानक के उपयोगी वाते समझ में आना मुश्किल है. ) अलेशी, केवली, और अयोगी, में भांगा १ चोथा. बांधा, न बांधे, न बांधसी. मिश्रदृष्टि में मांगा २ पहिला और दूसरा पूर्ववत् अकषायी में भागा २ तीसरा और चौथा पूर्ववत् शेष चौवीस बोलों ( बावीस पापकर्म की व्याख्या में कहा वह और सकषायी, लोभ कषायी ) में भागा २ पहिला और दूसरा पूर्ववत् थह समुच्चय जीव की अपेक्षा से कहा. इसी तरह मनुष्य दंडक में समझ लेना. शेष तेवीस दंडक के जीवों में दो मांगों (पहिला और दूसरा ) जैसे ज्ञानावरणीय कर्म बांधे. एवम् दर्शनावरणीय नाम कर्म, गोत्रकर्म और अंतराय कर्म का भी बंध आश्रयी भांगा लगालेना-संबन्ध सादृश है । ___ समुच्चय जीवों की अपेक्षा से वेदनीय कर्म को, समुच्चय जीव, सलेशी, शुक्ललेशी, शुक्लपक्षी, सम्यकदृष्टि, संज्ञानी केवल ज्ञानी. नोसंज्ञा, अवेदी, अकषायी, साकार उपयोगी, और अनाकार उपयोगी, इन (१२) बारहा बोलों के जीवो में तीन भांगा Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ बोलोंकी बन्धी. (३५९) मिलता है पहिला, दूसरा और चौथा भांगा और बांधा. न बांधे बांधसी, इस तीसरे भांगों में पूर्वोक्त बारहा बोलों के जीव नहीं मिलते. क्योंकि यह भांगा वर्तमानकाल में वेदनीय कर्म न बांधे. और फीर बांधेगा यह नहीं होसक्ता. कारण वेदनीय कर्म का बंध तेरवा गुणस्थानक के अंत समय तक होता है. ___अलेशी, अजोगी, में भांगो १ चौथो. बांधा, न बांधे, न बांधसी, शेष तेतीस बोलों में भांगा २ पहिला और दूसरा. एवम् मनुष्य दंडक में भी भांगा ३ समुच्चयवत् समझ लेना शेष तेवीस दंडक में भांगा २ पहिला और दूसरा. समुच्चय जीवोंकी अपेक्षा से आयुष्य कर्ममें. अलेशी, के वली और अयोगी, ये तीन बोलों के जीवोंमें केवल चौथा भांगा पावे. कृष्णपक्ष में मांगा २ पहिला और तीसरा. मिश्रदृष्टि, अवेदी और अकषायी में २ भांगा. तिसरा और चौथा, मन: पर्यव ज्ञानी, नोसंज्ञा में ३ भांगा. पहिले तीसरा और चौथा. शेष अडतीस बोलों के जीवों में चारों भांगा से आयुष्य कर्म बांधे, अब चोवीस दंडकों की अपेक्षा आयुष्य कर्म के बंध के भांगे कहते है नारकी के पूर्वोक्त ३५ बोलोमेंसे कृष्ण पक्षी और कृष्ण लेशी में भांगा दो पावे. पहिला और तीसरा. मिश्रदृष्टि में भांगा दो पावे तीसरा और चौथा. शेष बत्तीस योलों के जीव चारो भांगो से आगुष्य कर्म बांधे. देवताओं में भुवनपति से यावत् बारहावे देवलोक तक के देवताओंमें पूर्वोक्त कहे हुए बोलोंमें से कृष्णपक्षी, ओर कृष्णलेशी (जहां पावे वहांतक) में दो भांगा पहिला और दूसरा मिश्रदृष्टिमें दो भांगा तीसरा और चौथा, शेष बोलों के जीवों में मांगा चारो पावे। नव ग्रैवेक के देवताओं में पूर्वोक्त ३२ बोलोंमें से कृष्णपक्षीमें Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६०) शीघ्रबोध भाग ५ वा. भांगा दो पावे. पहिला और तीसरा. शेष ३१ बोलों में चारों भांगा पावे. ॥ चार अनुत्तर विमानों के देवताओं में पूर्वोक्त २६ बोलोमें भांगा चारों पाधे ।। सर्वार्थ सिद्ध विमानके देवताओं में पूर्वोक्त २६ बोलो में भांगा ३ पावे. दुसरा, तीसरा, और चौथा. पृथ्वीकाय, अप्पकाय, और वनस्पतिकाय के जीवों में पूर्वोक्त २७ बोलो में से तेजोलेशी, में भांगा एक पावे. तीसरा शेष २६ बोलों के जीव चारों भांगो से आयुष्य कम बांधे ॥ तेजसकाय और वायुकाय के जीवो के पूर्वोत्त २६ बोलो में भांगा २ पावे पहिला और तीसरा। तीनों विकलेन्द्री जीवों के पूर्वोक्त ३१ बोलों में से सज्ञानी. मतिज्ञानी. धृतज्ञानी, और सम्यकदृष्टि इन चार बोलों के जीवों में भांगा तीसरा पावे शेष २७ बोलो में मांगा २ पहिला और तीसरा. तीर्यच पंचेन्द्री जीवों के पूर्वोक्त ३५ बोलों में से कृष्णपक्षी में भांगा २ पहिला और तीसरा. मिश्रदृष्टि में दो भांगा तीसरा और चौथा. और सज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी तथा अवधिज्ञानी और सम्यकदृष्टि में भांगा ३ पावे पहिला, तीसरा, और चौथा. शेष २८ बोलों में भाँगा चारों पावे. मनुष्य के दंडक में पूर्वोक्त ४७ बोलों में से कृष्णपक्षी में भांगा दो पावे. पहिला और तीसरा. मिश्रदृष्टि, अधेदी. और अकषाइ में मांगा दो पावे तीसरा और चौथा. अलेशी, केवली, और अजोगी मे एक भांगा चौथा, नोसंज्ञा, चार ज्ञान, सज्ञानी और सम्यकदृष्टि में तीन भांगा पहिला तीसरा और चौथा. शेष तेतीस बोलो में मांगा चारो पावे. इस छव्वीसवे शतक के प्रथम उद्देशाका जितना विस्तार किया जाय उतना हो सक्ता है परन्तु ग्रन्थ बढजाने से कंठस्थ करणा में प्रमाद होने के कारण से यहां संक्षेप में वर्णन किया है. इस को कंठस्थ कर विस्तार गुरुगम से धारों. इति ॥ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ बोलोंकि बन्धी. ( ३६१) थोकडा नं. ५६. ( श्री भगवती सूत्र शतक २६ उ ०२ ) अणंतर उववन्नगादि अंतरा रहितमोप्रथम समय उत्पन्न हुआ है उसकी अपेक्षा यह उद्देशा कहेंगे इसी शतक के पहिले उद्देशे में जो ४७ बोल प्रथम कह आये है उनमें से नीचे लिखे १० बोल प्रथम समय उत्पन्न हुआ है उसमें नहीं मिलते क्योंकि उत्पन्न होने के प्रथम समय में इन १० बोलों की प्राप्ति नहीं होसक्ती । यथा (१: अलेशी (२) मिश्रदृष्टि ( ३ ) मनःपर्यव ज्ञानी ( ४ ) केवलझानी ( ५) नो संज्ञा ( ६ ) अवेदी (७) अकषायी । ८) अयोगी (९ मनयोगी ( १० ) वचनयोगी शेष ३७ बोल समुच्चय जीवों में मिले. . नरकादि दंडकों में नारकी से लेकर बारह देवलोक तक पूर्वोक्त कहे हुए बोलो में से मिश्रदृष्टि, मनयोगी, और वचन योगी. यह तीन बोल कम करके शेष बोलो में प्रथम समय का उत्पन्न हुआ जीव मिले. नव ग्रैवेक तथा पांच अनुसर विमानों में पूर्वोक्त कहे हुए ३२ और २६ बोलो में से मनयोगी और वचनयोगी कम करके शेष बोलों में प्रथम समय का उत्पन्न हुआ जीव मिले। तिर्यच पंचेन्त्री में पूर्वोक्त कहे हुये ४० बोलों में से मिश्रष्टि, मनयोगी, और वचनयोगी, यह तीन बाल कम करके शेष ३७ बोलों में प्रथम समय का उत्पन्न हुवा जीव मिले ॥ मनुष्य दंडक में समुच्चयवत् ३७ बोलों में प्रथम समय का उत्पन्न हुवा जीव मिले। Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६२) शीघ्रबोध भाग ५ वा. - चौवीस दंडकों में प्रथम समय उत्पन्न हुए जीवों के जो जो घोल कह आए है उन बोलों के जीव समुच्चय पापकर्म और ज्ञा. नावरणीय आदि सात कर्मों ( आयुष्य छोड कर ) को पूर्वोक्त "बांधा, बांधे, बांधसी '' इत्यादिक चार भांगा में से केवल दो भांगो से बांधे ( बांधा बांधे बांधसी, बांधा, बांधे न बांधसी.) ____ आयुष्य कर्मको मनुष्य छोडकर शेष तेवीस दंडकों में पूर्वोक्त कहे हुऐ बोलों में “वांधा न बांधे. वांधसी"। का १ भांगा पावे. क्योंकि प्रथम समय उत्पन्न हुवा जीव आयुष्य कर्म बांधे नहीं, भूत कालमें बांधा था और भविष्य में बांधेगा. , मनुष्य दंडक में पूर्वोक्त ३७ बोलों में से कृष्ण पक्षी में मांगा १ तीसरा शेष छत्तीस बोलों में भागा २ पावै. तीसरा और चौथा इति द्वितीयोदेशकम्. शतक २६ उददेशो ३ जो परम्परोवनगा. उत्पत्ति के दूसरे समय से यावत् आयुष्य के शेष काल को "परम्पर उववन्नगा," कहते हैं. इसी शतक के प्रथम उद्देसे में ४७ बोलों में से जितने २ बोल प्रत्येक दंडक के कह आये हैं. उसी माफक परमपर उववन्नगा जावों के समुच्चय जीवादि दंडको में भी कहना. तथा बांधी का भांगा चारोसर्व अधिकार प्रथम उसे के माफक कहना. बांधी के भांगों के साथ " परम्पर उववन्ना" का सूत्र नरकादि सर्व दंडक के साथ जोड लेना. इति तृतीयों देशकम्. श्री भगवती सूत्र श० २५ उ० ४ अणंतर ओगाडा. जीव जीस गति में उत्पन्न हुवा है उसगति के आकास प्रदेश अवगधा ( आलंबन किये ) को एक ही समय हवा है उसको अणंतर ओगाडा कहते है. इसके बोल और बांधी के मांगों का सर्वाधिकार अणंतर उववन्नगा द्वितीय उद्देसे के माफक कहना. और अणंतर उववन्नगा की जगह पर अणंतर ओगाडा का सूत्र Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंतरोत्पात. ( ३६३) मरकादि सब जगह विशेष कहना. इति चतुर्थोद्देशकम् . श्री भगवती सूत्र श० २६ उ० ५ परम्पर ओगाडा. जीव जीस गति में उत्पन्न हुवा है उस गति के आकास प्रदेश अवगायां को २ समय से यावत् भवांतर काल हुआ हो उसको परमपर ओगाडा कहते है. इसका सर्वाधिकार इसा शतक के प्रथम उसे वत् कहना परन्तु “परम्पर ओगाडा" का सूत्र सब जगह विशेष कहना. इति पंचमोदेशकम्. श्री भगवती सूत्र श० २६० उ०६ अणंत्तर आहारगा. जिस गति में जीव उत्पन्न हुआ है. उस गति में जो प्रथम समय आहार लिया. उसको अणंतर आहारगा कहते है. इसका सर्वाधिकार अणंतर उववन्नगा जो दूसरे उसे माफक समझना परन्तु अणंतर उववन्नगा की जगह पर “ अणंतर आहारगा का सूत्र कहना. इति षष्टमोददेशकम्.. श्री भगवती सूत्र श० २० उ०७ परम्पर आहारगा. जिस गति में जीव उत्पन्न हुवा है. उस गति का आहार द्वितीय समय से भवांतर तक ग्रहण करे उसको परम्पर आहा. रगा कहते हैं. इसका सर्वाधिकार प्रथम उद्देशा वत् समजना परन्तु "परम्पर आहारगा का सूत्र सब जगह विशेष कहना. इति सप्तमोददेशकम्. श्री भगवती सूत्र श० २६० उ० ८ अणंतर. पझत्तगा. जिस गति में जीव उत्पन्न हुआ है उस गति की पर्याप्ति बांधने के प्रथम समय को अणंतर पझत्तगा कहते हैं. इसका सर्वाधिकार इसी शतक के दूसरे उद्देशा वत्. परन्तु अणंतर उववन्नगा की जगह पर “ अणंतर पझत्तगा" का सूत्र कहना. इति अष्टमोदेशकम्. . श्री भगवती सूत्र श० २६ उ० ९ परम्पर पझत्तगा. पर्याप्ति के दूसरे समय से यावत् आयुष्य पर्यंत को परंपर Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६४) शीघ्रबोध भाग ५ वा. पझसगा कहते हैं. इसका सर्वाधिकार प्रथम उद्देशे वत् समझना. परन्तु परंपर पझत्तगा का सूत्र विशेष कहना. इति नवमोद्देशकम् . श्री भगवती सूत्र श० २६ उ० २० चरमोदेशो, जिस जीव का जिस गति में चरम समय शेष रहा हो उसको चरमोदेशो कहते है. इसका सर्वाधिकार प्रथम उद्देशावत् परन्तु "चरमोददेशो"का सूत्र विशेष कहना. इति दशमोददेशकम् श्री भगवती सूत्र श० २६ उ० ११ अचरमोददेशो. अचरमोददेशो प्रथम उददेशे के माफक है. परन्तु १७ बोलो में अलेशी, केवली, अयोगी ये तीन बोल कम करना. भांगा ४ में चौथो भांगो और देवता में सर्वार्थसिद्ध को बोल कम करना. शेष प्रथम उदेशे के माफक कहना. इति श्रीभगवती सूत्र श०२६ समाप्तम्. सेवं भंते सेवं भंते तमेव सचम् थोकडा नं. ५७. ॥श्री भगवती सूत्र श० २७ ।। शतक २६ उदेशा १ में जो ४७ बोल कह आये है. उसपर जो "बांधा, बांधे, बांधसी" इत्यादिक ४ मांगों का विस्तार पूर्वक वर्णन किया है उसी माफक यहां भी "कर्म किरिया, करे, करसी'' इत्यादिक नीचे लिखे ४ भांगों का अधिकार पूर्ववत् ११ उद्देशों बंधी सादृश ही समज लेना. (१) कर्म किरिया, करे, करसी, (२) किरिया, करे, न करसी । ३) किरिया, न करे, करसी (४) करिया, न करे न करसी. Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ बोलोंका अधिकार. (३६५ ) (प्र) जब अधिकार सादृश है तो अलग २ शतक कहने का क्या कारण है ? (उ) कर्म, करिया, करे, करसी. यह क्रिया काल अपेक्षा सामान्य व्याख्या है और कर्म बांधा वांधे बांधसी. यह बंध कोल अपेक्षा विशेष व्याख्या है. शेषाधिकार बन्धी शतक माफीक समजना. इति शतक २७ उद्देशा ११ समाप्त. थोकडा नं. ५८ श्री भगवती सूत्र श० २८ पूर्षात ४७ बोलों के जीव पापादि कर्म कहां के बांधे हुए कहां भोगवे १ इसके भांगे ८ है यथा (१) तीर्यचमें बांधा तीर्यच में ही भोगवे (२) तीर्यच में बांधा नरको भोगवे (३) तीर्यचमें बांधा मनुष्य में भोगवे (४) तीर्यच में बांधा देवता में भोगवे (५) तीर्यच में बांधा नारकी और मनुष्य में भोगवे (६) तीर्यच में बांधा नारकी और देवता में भोगवे (७) तीर्यच में बांधा मनुष्य और देवता में भोगवे. (८) तीर्यच में बांधा नारको मनुव्य देवता तीनों में भोगवे एवम् भांगां ८ । पहिले जो शतक २६ उद्देशा १ में जो ४७ बोलों का प्रत्येक दंडक पर बर्णन कर आये है. उन सब बोलों में समुच्चय पाप कर्म ओर ज्ञानावरणीयादी ८ कर्मों में भांगा आठ आठ पाये. इति प्रथमोद्देशः . पूर्वोक्त बांधी शतक के ११ उदेशावत इस शतक के भी ११ उदेशे है और प्रत्येक उदेशे के बोलों पर उपर लिखे मुजब साठ २ भांगे लगा लेना. इस शतकसे अव्यवहाररासी मानना भी • सिद्ध होता है और प्रज्ञापना पद ३ बोल ९८ तथा जुम्माधिकारसे देखो. . .' इति शतक २८ उददेशा ११ समाप्त. -+000 Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६६) शीघ्रबोध भाग ५ वा. थोकडा नं.५६ ( श्री भगवती सूत्र श० २६) ४७ बोल प्रत्येक दंडक पर शतक २६ उद्देशे पहिले में विष. रण करचूके है. उनबोलों के जीव ( १ ) एक साथे कर्म भोगवणा मांडिया ( सुरूकिया ) और एक साथे पूरण किया (२) एक साथे भोगवणा मांडिया और विषमता से पूराकिया (३) विषम भोगवणा मांडिया और विषम पूराकिया (४) विषम भोगवणा मांडिया और साथे पूरा किया. यह चारो भांगे कहना क्योंकि नीव ४ प्रकार के है यथा (१) सम आयुष्य और साथे उत्पन्न हुआ. (२) सम आयुष्य और विषम उत्पन्न हुआ (३) विषम आयुष्य और साथे उत्पन्न हुआ. (४) विषम आयुष्य और विषम उत्पन्न हुआ. यह चार प्रकार के जीवोंमें कौंन २ सा भांगा पाबे सो दिखाते है. (१) सम आयुष्य और साथे उत्पन्न हुआ जिसमें भांगा पहिला स० स० (२) सम आयुष्य और विषम उत्पन्न हुआ जिसमें भांगा दूसरा स० वि० (३) विषम आयुष्य और साथे उत्पन्न हुआ जिसमें भांगा तीसरा. वि. स. (४) विषम आयुष्य और विषम उत्पन्न हुआ जिसमें भांगा चोथा, वि. वि० । यह आयुष्य कर्म की अपेक्षा से चार भांगा होता है. इति प्रथमोदेसा। दूसरा उदेशा अणंतर उववन्नगा का है. जिसमें भांगा २ पहिला और दूसरा यहां प्रथम समय की अपेक्षा है. इसी माफक चौथा, छठ्ठा, और आठमां उद्देशा भी समझ लेना. शेष १-३-५७-९-१०-११ यह सात उद्देशों की व्याख्या सश है (चारो भांगा . पावे ) इति श० २९ शतक ११ उदेसा समाप्तम्. - Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समौसरणाधिकार. थोकडा नं. ६० श्री भगवती सूत्र श० ३० समौसरण - अधिकार. ( ३६७ ) समौसरण चार प्रकार के कहा है यथा १ क्रियावादी २ अक्रियावादी ३ अज्ञानवादी और ४ विनयवादी क्रियावादी के सूडांग सूत्र में जो १८० भेद कहे है वह केवल मिध्यादृष्टि है और दशाश्रुत स्कंध में जो क्रियावादी कहे है उन्होंने पेस्तर मिथ्यादृष्टि में आयुष्य बांधा था उसके बाद में सम्यक्त्व प्राप्त किया है और यहां जो क्रियावादी कहे है वह सम्यकूदृष्टि है. समुच्चयजीव में पूर्व जो ४७ बोल २६ वां शतक में कह आये है उसमें कृष्णपक्षी १ अज्ञानी ४ मिथ्यादृष्टि १ एवम् छै बोल में समौसरण ३ अक्रियावादी, अज्ञानवादी, और विनयवादी, इन तीनों समौसरण के जीव चारों गति का आयुष्य बांधे. और इनमें भव्य, अभव्य, दोनों होवे. ज्ञान ४ और सम्यकदृष्टि १ इन पांचो बोलों में समौसरण १ क्रियावादी आयुष्य जो नारको, देवता, बांधे तो मनुष्य का और मनुष्य, तीर्थच बांधे तो वैमानिक का और नियमा भव्य है. मिश्रदृष्टिमें समौसरण २ अज्ञानवादी और विनयवादी. आयुष्य का अबंधक और नियम भव्य हो. मनः पर्यव ज्ञान और नोसंज्ञा में समौसरण १ क्रियावादी. आयुष्य बांधे तो वैमानिक का और नियमा भव्य होय. कृष्ण, नील, कापोत, लेशीमें समौ० चार पावे. जिसमें क्रिया Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीघ्रबोध भाग ५ बां. वादी आयुष्य मनुष्य का बांधे और नियमा भव्य होय. शेष तीन समौ० आयुष्य चारोंगति का बांधे, और भव्याभव्य दोनों होय । तेजो, पद्म, शुक्ल लेशी में समौ० चार पावे जिसमें क्रियावादी आयुष्य मनुष्य वैमानिकको बांधे और नियमा भव्य होय. शेष तीन समौ० नारकी वर्ज के तीनगति का आयुष्य बांधे और भव्याभव्य दोनों होय. अलेशी, केवली, अयोगी, अवेदी, अकषायी, इन पांच बोलों में समौसरण १ क्रियावादी आयुष्य अबंधक और नियमा भव्य होय. शेष २२ बोलों में समौसरण चारों जिसमें क्रियावादी आयु. व्य-मनुष्य और विमानिक का बन्धे और तीन समौ० वाले जीव आयुष्य चारों गति का बांधे. क्रियावादी नियमा भव्य होय बाकी तीनो समोसरण में भव्य अभव्य दोनों होय. नारकी के पूर्वोक्त ३५ बोलों में कृष्णपक्षी १ अज्ञानी ४ और मिथ्यादृष्टि १ में समौसरण ३ पूर्ववत्. आयुष्य मनुष्य तीर्यच का बांधे और भव्य अभव्य दोनों होय-ज्ञान ४ और सम्यष्टि में समौसरण १ क्रियावादी आयुष्य मनुष्य का बांधे और निश्चय भव्य होय, मिश्रद्रष्टि समुच्चयवत्. शेष तेवीस बोल में समौसरण चार और आयुष्य मनुष्य तीर्यच दोनोंका वांधे । क्रियावादी नियमा भव्य-बाकी तीनो समौसरण के भव्य अभव्य दोनों होय इसी माफक देवताओं में नवग्रैवेक तक पूर्वोक्त जो जो बोल कह आये है उन सब बोलो में समौसरण नारकीवत् लगा लेना. पांच अनुत्तरविमान के बोल २६ में समौसरण १ क्रियावादी आयुष्य मनुष्य का बांधे और नियमा भव्य होय. पृथ्वीकाय, अप्पकाय, और वनास्पतिकाय, में पूर्वोक्त २७ बोलों के जीव में दो समौसरण पावे अक्रियावादी, और अज्ञान Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समौसरणाधिकार. (३६९ ; घादी. तेजोलेश्याम आयुष्य न बांधे. शेष बोलो में आयुष्य. मनुष्य और तीर्यच का बांधे भव्य अभव्य दोनों होय. एवम् तेउ. काय. वायुकाय के २६ बोलों में समौसरण २ आयुष्य तीर्यच का बांधे और भव्य अभव्य दोनों होय. तीन विकलेन्द्री के ३१ बोलों में समोसरण २ अक्रियावादी और अज्ञानवादी. तीन ज्ञान और मम्यक ष्टि आयुष्य न बांधे शेष बोलों में मनुष्य तीर्यच दोनो का आयुष्य बांधे तीन ज्ञान और सम्यक्दृष्टिमें स० एक क्रियावादी आयुष्यका अबन्ध नियमा भव्य शेष बोलोंमें स. दो आयु म तीर्यचका और भव्य अभव्य दोनों होय । तीर्यच पंचेन्द्रींक ४० वालों में से कृष्णपक्षी 1 अज्ञानी और भिथ्यादृष्टि में समौसरण ३ अक्रियावादी, अज्ञानबादी और विनयवादी, आयुष्य चारों गति का बांधे भव्य अभव्य दोनों होय ज्ञान और सम्यकदृष्टि में समौमरण १ क्रियावादी, आयुष्य बैमानिकका बांधे और नियमाभव्य होय. मिश्रदृष्टिमें समौसरण २ विनयवादि और अज्ञानवादि आयुष्यका अबंधक और नियमा भव्य होय । कृष्णलेशी, नील लेशी, कापोत लेशीमें समोसरण चारो पावे. जिसमें क्रियावादी आयुष्य का अबंधक और नियमा भव्य होय । शेष तीन समौसरणमें चागंगतिका आयुष्य बांधे और भव्य अभव्य दोनों होय । तेजोलेशी पद्मलेशी शुक्ललेशीम समौसरण चारो जिसमें क्रियावादी वैमा निक का आयुष्य बांधे और नियमा भव्य होय । शेष तीन समौमरण नारकी छोड कर तीन गतिका आयुष्य बांधे और भव्य अभव्य दोनों होय शेष बाईस बोलोमे समौसरण ४ जिसमें क्रियावादी वैमानिक का आयुष्य बांधे और नियमा भव्य होय बाकी तीन ममौमरण चारी गतिका आयुष्य बांधे भव्य अभव्य दोनो होय. मनुष्य दंडक में पूर्वोक्त जो ४७ बोल कह आये है जिसमें कृष्ण पक्षी. चार अज्ञानी, और मिथ्याष्टि में क्रियावादी Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७०) शीघ्रबोध भाग ५ वां. छोडकर शेष तीन समौसरण आयुष्य चारों गति का बांधे और भव्य अभब्य दोनो होय. चार ज्ञान और सम्य क. दृष्टि में समौसरण, क्रियावादी आयुष्य वैमानिक देवता का बांधे और नियमा भव्य हाय। मिश्रदृष्टिमें समौसरण दो विनयवाद। और अज्ञानवादी. आयुष्यका अबंधक और नियमा भव्य होय.। मनःपर्यव ज्ञान और नो संज्ञा में समौसरण एक क्रियावादी आयुष्य वैमानिक देवता का बांधे और नियमा भव्य होय.। कृष्णादि ३ लेश्या में समोसरण ४ पावै जिसमें क्रियावादी आयुष्य का अबंधक और नियमा भव्य होय । शेष तीनो समौसरण चारो गति का आयुष्य बांधे और भव्याभव्य दोनो होय तेजो आदि ३ लेश्या में समौसरण चारो पावै जिसमें क्रियावादी आयुष्य वैमानिक का बांधे और नियमा भव्य होय । शेष तीनो समौसरण नरक गति छोडकर तीनो गतिका आयुष्य बांधे और भव्याभव्य दोनो होय. अलेशी, केवली, अजोगी, अवेदी, और अकाई में समौसरण क्रियावादी का आयुष्य अबंधक और नियमा भव्य होय. शेष बाइस बोलो में समौसरण चारों पावै जिसमें क्रियावादी आयुष्य वैमानिकका बांधे और नियमा भव्य होय । शेष तीनो समौसरण आयुष्य चारो गति का बांधे और भव्याभव्य दोनों होय. इति तीसवां शतकका प्रथम उदेसा समाप्त । , बांधी शतक २६ वा उद्दसा दूसरा अणंतर उववन्नगा का पूर्व कह आये है उसी माफक चौवीस दंडको के ४७ बोल इस उद्देस में भी लगा लेना. और समोसरण का भांगा प्रथम उद्देसावत् कहना परन्तु सब बोलो में आयुष्य का अबंधक है क्योंकि यह उद्देसा उत्पन्न होने के प्रथम समय की अपेक्षा से कहा गया है और प्रथम समय जीव आयुष्य का अबंधक होता है. एवम् चौथा Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्याधिकार. (३७१) छठा, आठवा, ये तीन उसे इस दूसरे उद्देसे के सहश है. शेष ३-५-७-९-१०-११ ये छओ उद्देसा प्रथमोद्देशावत् समझ लेनाइति श्री भगवती सूत्र शतक ३० उद्देसा ११ समाप्त. सेवं भंते सेवं भंते समेव सच्चम् । . - REथोकडा नं०६१ श्री उत्तराध्ययन सूत्र अ० ३४ (छ, लेश्या.) लेश्या उसे कहते है जो जीव के अच्छे या खराब अध्यवसाय से कर्मदलद्वारा जीव लेशावै. यह इस थोकडेद्वारा ११ बोलो सहित विस्तारपूर्वक कहेंगे यथा १ नाम २ वर्ण ३ गंध ४ रस ५ स्पर्श ६ परिणाम ७ लक्षण ८ स्थान ९ स्थिति १० गति ११ च्यवन इति । (१) नामद्वार-कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या ते. जोलेश्या, पन्नलेश्या, शुक्ललेश्या, (२) वर्णद्वार कृष्णलेश्याका श्यामवर्ण, जैसे पानी से भरा हुआ बादल, भैसा का सींग, अरीठा, गाडेका खंजन, काजल, आंखों की टीकी, इत्यादि ऐसा वर्ण कृष्णलेश्या का समझना नीललेश्या-नीलावर्ण, जैसे अशोक पत्र, शुक की पांखे, वैडूर्यरत्न इत्यादिवत् समझना कापोतलेश्या-सु/ लिये हए कालारंगजैसे अलसी का पुष्प, कोयल की पांख, पारेवाकी ग्रीवा, इत्या. Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७२) शीघ्रबोध भाग ५ वां. दिवत् तेजोलेश्या-रक्तवर्ण जैसे हींगलू, उगता सूर्य, तोतेकी चोंच , . दीपककी शीखा, इत्यादिवत् पालेश्या- पीतवर्ण, जैसे हरताल, हलद, हलदका टुकडा सण वनास्पतिकावर्ण इत्यादिवत् पीला शुक्ललेश्या-श्वेत वर्ण जैसे संख, अंकरत्न मचकुंद वनस्पति, मोती का हार, चांदी का हार, इत्यादिवत्. (३) रसद्वार-कृष्ण लेश्या का कटुक रस, जैसे कडवा तूंबा का रस, नींब का रस, रोहिणी वनास्पति का रस, इनसे अनंत गुण कटु । नीललेश्या का-तीखा रस-जैसे सोंठका रस, पीपर का रस, कालीमिरच, हस्ती पीपर, इन सबके स्वाद से अनंतगुणा तीखा रस । कापोतलेश्या का खट्टा रस-जेसे कच्चा आम्र, तुंबर बनास्पति, कच्चा कबीठ की खटाइ से अनंतगुणा खट्टा । तेजोलेश्या का रस-जैसे पकाहुवा आम्र, पकाहुवा कवीठ के स्वाद से अनंतगुणा । पद्मलेश्या का रस-जैसे उत्तम वारुणी का स्वाद और विविध प्रकार के आसव के अनेतगुणा | शुक्ल लेश्या का रस-जैसे खजूर का स्वाद, द्राखका स्वाद, खीर सक्कर, इन से अनंतगुणा. ( ४ ) गंधद्वार-कृष्ण, नील कापोत; इन तीन लेश्याओं की गंध जैसे मृतक गाय, कुत्ता, सर्प से अनंतगुणी दुर्गध और तेजो, पद्म, शुक्ल, इन तीन लेश्याओं की गंध जैसे केवडा प्रमुख सुगन्धी वस्तु को घिसने से सुगन्ध हो उस से अनंतगुणी।। (५) स्पर्शद्वार-कृष्ण, नील कपोत, इन तीन लेश्याओं का स्पर्श जैसे करोत : आरी ) गाय बैल की जिह्वा साक वृक्ष के पत्र में अनंत गुणा और तेजो, पद्म, शुक्ल, इन तीनों लेश्याओं का स्पर्श जैसे बूर नामा वनास्पति, अक्खन सरसों के पुष्प से अनंतगुणा. (६) परिणामद्वार-छे लेश्या का परिणाम आयुष्य के तीजे Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्याधिकार. ( ३७३ ) माग, नवमे भाग, सत्ताईसमेंभाग इक्यासीमें भाग, दोसौतयालीसमेंभाग में जघन्य उत्कृष्ट समजना. (७) लक्षणद्वार-कृष्णलेश्या का लक्षण पांच आश्रय का सेवन करनेवाला, तीन गुप्तीसे अगुप्ती. छकायका आरंभक, आरंभमे तीव्रपरिणामी सर्व जीवोंका अहित अकार्य करनमें साहसिक इसलोक परलोक की संका रहित, निर्वस परिणामी जीव हणतां लग रहित, अजितेन्द्रिय, ऐसे पाप व्यापार युक्त हो तो कृष्णलेश्या के परिणाम वाला समजना. नीललेश्याका ‘लक्षण-इर्षावत्, कदाग्रही. तपरहित, भली विद्यारहित पर जीव को छलने में होसियार, अनाचारी, निर्लज विषयलंपट. द्वेषभावसहित, धूर्त, आठों मदसहित, मनोज्ञ स्वादका लंपट, सातागवेषी आरंभ से न निवत्तै सर्व जीवों को अहितकारी, विना सोचे कार्य करनेवाला ऐसे पाप व्यापार सहित होय उसको नीललेश्या वाला समझना. कापोतलेश्या-वांका बोले, वांका कार्य करे, निबुढ माया (कपटाइ) सरलपणारहित अपना दोष ढांके, मिथ्यादृष्टि. अनार्य दूसरे को पीडाकारी बचन बोले, दुष्टवचन बोले, चोरी करे, दुसरे जीवोंकी सुख सम्पत्ति देख सके नहीं, ऐसे पापव्यापार युक्त को कापोत लेश्या के परिणामवाला समझना. - तेजोलेश्या-मान, चपलता, कौतूहल और कपटाईरहित विनयवान, गुरुकी भक्ति करनेवाला, पांचेन्द्री दमनेवाला, श्रद्धा वान. सिद्धांत भणे तपस्या (योग वहन ) करे, प्रियधर्मी, दृढधर्मी, पापसे डरे, मोक्षकी वांछाकरे, धर्मव्यापार युक्त ऐसे परिणाम वाले को तेजोलेश्या समझना. पद्मलेश्या का लक्षण-क्रोध मान, माया, लोभ पतला (कमती) है आतमा को दमे, राग द्वेष से शांत हो. मन, वचन काया के Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७४ ) शीघ्रबोध भाग ६ वा. योग अपने वसमें हों. सिद्धांत पढता हुआ तप करे. थोडा बोले, जितेन्द्रिय हो ऐसे परिणाम वाले को पद्मलेशी समझना। शुक्ललेश्या का लक्षण-आर्त, रौद्र, ध्यान न ध्यावे धर्म ध्यान शुक्ल ध्यान ध्यावे प्रशस्त चित्त रागद्वेष रहित पंच समिति समिता त्रण गुप्तिए गुप्ता. सरागी हो या वीतरागी ऐसे गुणोंसहितको शुक्ल लेशी समझना । (८) स्थान द्वार-छ हो लेश्याकास्थान असंख्यात है वह अवसर्पिणी उत्सर्पिणी का जितना समय हो अथवा एक लोक जैसा संख्याता लोक का आकाश प्रदेश जितना हो उतने एक २ लेश्या के स्थान समझना ।। (९) स्थितिद्वार-१ कृष्णलेश्या जघन्य अंतर मुहूर्त उत्कृष्ट ३३ सागरोपम, अंतर मुहूर्त अधिक नारकी में जघन्य १० साग. रोपम पल्योपम के असंख्यात में भाग अधिक उत्कृष्ट ३३ सागरोपम अंतर मुहूर्ताधिक तिर्यच पृथ्व्यादि ९ दंडक । और मनुष्य मे जघन्य उत्कृष्ट अंतर मुहूर्त. देवताओं में जघन्य दसहजार वर्ष उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यात में भाग । २ नीललेश्या की समुच्चय स्थिति जघन्य अंतर मुहूर्त उ. त्कृष्ट १० सागरोपम पल्योपम के असंख्यात में भाग अधिक, ना. रकी में जघन्य तीन सागरोपम पल्योपमके असंख्यात में भाग अधिक, उत्कृष्ट १० सागरोपम पल्योपम के असंख्यात में भाग अधिक तिर्यच-मनुष्य में जघन्य उत्कृष्ट अंतर मुहूर्त देवताओं में नधन्य पल्योपमके असंख्यात में भाग याने कृष्णलेश्या क्ता उत्कृष्ट स्थितिसे १ समय अधिक उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यात में भाग. ३ कापोतलेश्याको समुच्चयस्थिति जघन्य अंतरमुहुर्त. उत्कृष्ट तीन सागरोपम पल्योपम के असंख्यात में भाग अधिक, नारकी में जघन्य दस हजार वर्ष उत्कृष्ट तीन सागरोपम पल्योपम के Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्याधिकार. ( ३७५) असंख्यात में भाग अधिक, मनुष्य, तिर्यंच, में जघन्य उत्कृष्ट अंतर मुहुर्त, देवतामे जघन्य पल्योपम के असंख्यातमें भाग याने नील लेश्या की उत्कृष्ट स्थिति से एक समय अधिक उत्कृष्ट पल्योपमके असंख्यातमे भाग. ४ तेजोलेश्या की समुच्चय स्थिति जघन्य अंतरमुहुर्त, उत्कृष्ट दो सागरोपम पल्योपम के असंख्यातमें भाग अधिक मनुष्य, तिर्यंच में जघन्य उत्कृष्ट अंतरमुहुर्त, देवताओं में जघन्य दश हजार वर्ष उत्कृष्ट दो सागरोपम पल्योपम पल्योपम के असंख्यात में भाग अधिक बैमानिक की अपेक्षा. ५ पालेश्या की समुच्चय स्थिति जघन्य अंतरमुहुर्त उत्कृष्ट दश सागरोपम अंतरमुहुर्त अधिक. मनुष्य, तिर्यंच में जघन्य उत्कृष्ट अन्तरमुहुर्त. देवतों में जघन्य दो सागरापम पल्योपम के असंख्यात में भाग अधिक ( तेजोलेश्या की उत्कृष्ट स्थिति से एक समय अधिक ) उत्कृष्ट दश सागरोपम अन्तरमुहुर्त अधिक. ६ शुक्ललेश्या की समुच्चय स्थिति जघन्य अन्तरमुहुर्त उत्कृष्ट ३३ सागरोपम अन्तरमुहुर्त अधिक मनुष्य, तिर्यचमें जघन्य उत्कृष्ट अन्तरमुहुर्त और मनुष्यों में केवलीकी जघन्य स्थिति अन्तरमुहुर्त. उत्कृष्ट नव वर्ष ऊंणा पूर्व क्रोड वर्ष. देवताओं में जघन्य दश सागरोपम अंतरमुहुर्त अधिक ( पडलेश्या को उत्कृष्ट स्थिति से १ समय अधिक) उत्कृष्ट ३३ सागरोपम अन्तर मुहूर्त अधिक. (१०) गतिद्वार कृष्णलेश्या, नोललेश्या, कापोतलेश्या, ये तीनों अधर्म लेश्या है दुर्गतिमें उत्पन्न होय । तेजो पन और शुक्ल लेश्या ये तीनों धर्मलेश्या कहलाती है. सुगति में उत्पन्न हों. • ' (११ च्यवनद्वार. सब संसारी जीवों को परमव जिस गति में जाना हो उसे मरते वरूत उस गति की लेश्या अन्तरमु Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७६) शीघ्रबोध भाग ५ वा. हुर्त पहिले आती है. और उसकी स्थिति के पहिले समय और छेल्ले समय में मरण नहीं होता और विचले समयों में मरण होता है जैसे पहिले आयुष्य बंधा हुआ हो तो उसी गति की लेश्या आवे. अगर आयुष्य न बांधा हो तो मरण पहिले अंतरमुहुर्त स्थिति में जो लेश्या वर्तती है. उसी गतिका आयुष्य बांधे जिस गति में जाना हो उसी के अनुसार लेश्या आने के बाद अन्तरमुहुर्त वह लेश्या परिणमे और अन्तरमुहूर्त बाकी रहे जब जीव काल करके परभव में जावे इति। हे भव्य आत्माओ, इन लेश्याओं के स्वरूपको विचार कर अपनी २ लेश्या को हमेशा प्रशस्त रखने का उपाय करी इति. सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम् 90 थोकडा नवर ६२ (श्री भगवर्ताजी मुत्र श० १ ०२) ( सचिट्ठण काल ) सचिट्ठण काल कितने प्रकार का है ? च्यार प्रकार का यथा-नारकी सचिट्ठणकाल, तीर्यच स०, मनुष्य स०. देवता स०. नारकी सचिठ्ठणकाल कितने प्रकार का है ? तीन प्रकार का. यथा-सून्यकाल, असून्यकाल, मिश्रकाल, सून्यकाल उसे कहते है कि नारकी का नेरिया नारकी से निकल कर अन्य गति में ना कर फिर नारकी में आवे और पहिले जो नारकी में जीव थे उसमें का १ भी जीव न मीले तो. उसे सून्यकाल Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संचिठ्ठणकाल. ( ३७७ ) और जिन जीवों को छोडकर गया था वे सब जीब वहीं मिले एक भी कम ज्यादा नहीं उसको असून्यकाल कहते हैं और कई जीव पहिलेके और कई जीव नये उत्पन्न हुवे मिलें तो उसको मिश्रकाल कहते है । तीर्यचमे सचिट्ठनकाल दो प्रकारका है असम्यकाल और मिश्रकाल, मनुष्य और देवताओं में तीनों प्रकारका नारकीवत् समझ लेना । अल्पाबहुत्व नारकी में सबसे थोडा असून्यकाल उनसे मिश्रकाल अनंतगुणा और सून्यकाल उनसे अनंतगुण एवम् मनुष्य देवता, तीयैच में सबसे थोडा असून्यकाल उनसे मिश्रकाल अनंतगुणा. चार प्रकार के सचिट्ठणकाल में कौनसी गतिका भव ज्यादा कमती किया जिसका अल्पाबहुत्व सबसे थोडा मनुष्य सचिट्ठणः काल उनसे नारकी सचिट्ठणकाल असंख्यातगुणा उनसे देवता चिठ्ठणकाल असंख्यातगुण और उनसे तीर्थंच सचिठ्ठणकाल अनंतगुणा । तात्पर्य भूतकाल में जीवो ने चतुर्गति भ्रमण किया उसका frera जीवों के हित के लिये परम दयालु परमात्मा ने कैसा समझाया है कि जो हमेशां ध्यान में रखने लायक है देखो, अनंत भव तीयैचके असंख्याते भष देवताओं के और असंख्याते भव नारकी के करने पर एक भव मनुष्यका मिला. ऐसे दुर्लभ और कठिनतासे मिले हुए मनुष्य भवकों हे ! भव्यात्माओं ! प्रमादवश बूबा मत खोओ जहां तक हो सके वहांतक जागृत होकर ऐसे काय में तत्पर हो कि जिससे चतुर्गति भ्रमण टले. इत्यलम् सेवं भते सेवं भंते तमेत्र मच्चम् Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७८ ) शीघ्रबोध भाग ५ वा. थोकडा नम्बर ६३ (स्थिति बन्धका अल्पाबहुत्व) १ सबसे स्तोक संयतिका स्थिति बन्ध २ बादर पर्याप्ता एकेन्द्रिका जघन्य स्थिति बन्ध असं. गु० ३ सुक्ष्म पर्याप्ता एकेन्द्रिीका नधन्य स्थिति बन्ध वि. ४ बादर एकेन्द्री अप० का जघ० स्थिति वि० ५ सुक्ष्म एकेन्द्री अप० का जघ० स्थिति० वि० ६ सुक्ष्म एकेन्द्री अप० (७) बादर पकेन्द्री अप० वि० ८ सुक्ष्म एकेन्द्री पर्या०वि० ९ बादर एकेन्द्री पर्याप्ताका उत्कृष्ट स्थिति बन्ध अनुक्रमे वि. १० बेरिन्द्री पर्याप्ता० जघन्य स्थिति सं० ११ बेरिन्द्री अप० जघन्य स्थिति वि० १२ बेरिन्द्री अप० उ. स्थि० वि० . ५३ बेरिन्द्री पर्या० उ० स्थिति० वि० १४ तेरिन्द्री पर्या० ज० स्थि० सं० गु० १५ तेरिन्द्री अप० ज. स्थि.वि. १६ तेरिन्द्री अप० उ० स्थि० वि० १७ तेरिन्द्री पर्या० उ० स्थि० वि० १८ चौरिन्द्री पर्या० ज० स्थि० सं० १९ चौरिन्द्री अप० ज० स्थि. वि० २० चौरिन्द्री अप० उ० स्थि० वि० २१ चौरिन्द्री पर्या० उ. स्थि. वि० २२ असंज्ञी पंचेन्द्रि पर्या० ज० स्थि० सं० गु० २३ असंझी पंचेन्द्री अप० ज० स्थि० वि० Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धाधिकार. २४ असंज्ञी पंचेन्द्री अप० उ० स्थि० वि० २५ असंज्ञी पंखेन्द्री पर्या० उ० स्थि० वि० २६ संयती का उत्कृष्ट स्थि० सं० गु० २७ देशव्रत्तीका ज० स्थि० सं० गु० २८ देशप्रतीकाका उ० स्थि० सं० गु० २९ सम्यक्त्वी पर्या० का जघन्यस्थि० सं० गु० ३० सम्यक्त्वी अप० जघन्यस्थि० सं० गु० ३१ सम्यक्त्वी अप० का उत्कृष्टस्थि० सं० गु० ३२ सम्यक्त्वी पर्या० का उ० स्थि० सं गु० ३३ संझी पंचेन्द्री पर्या० का ज० स्थि० सं० गु० ३४ संज्ञी पंचेन्द्री अप० का ज० स्थि० सं० गु० ३५ संज्ञी पंचेन्द्री अप० का उ० स्थि० सं० गु० ३६ संज्ञी पंचेन्द्री पर्या० का उ० स्थि० सं. गु० ( ३७९ ) सेवं भन्ते सेवं भन्ते तमेव सच्चम्. see G66666666666 इति शीघ्रबोध भाग ५ वां समाप्तम्. 1999999999999999999999999999999656 समाप्त. Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र लिजिये अपूर्व लाभ. (१) शीघ्रबोध भाग १-२-३-४-५ वां रु. १॥) A (२) शीघ्रबोध भाग -8-१०-११-१२ र १३-१४-१५-१६, ७-२४-२५ रू. ३॥) ए (३) शीघ्रबोध भाग १७-१८-१६-२०-२१-२२ जिस्में बारहा सूत्रों का हिन्दि भाषान्तर है रु. ४) पुस्तकें मीलनेका पत्ता- . श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला । मु० फलोधी-( मारवाड) श्री सुखसागर ज्ञानप्रचारक सभा। मु० लोहावट-( मारवाड) SXSXSXSXSXES Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्री जैन नवयुवक मित्रमंडल. . मुः लोहावट-जाटावास ( मारवाड.) पूज्य मुनि श्री हरिसागरजी तथा मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज साहिब के सद्उपदेशसें सं. १६७६ का चैत वद 8 शनिश्चरवार को इस मंडलकी शुभ स्थापना हुइ है । मित्र मंडलका खास उद्देश समाजसेवा और ज्ञानप्रचार करनेका है । पेस्तर यह मंडल नवयुवकोंसे ही स्थापित हुवा था परन्तु मंडलका कार्यक्रम अच्छा होनेसे अधिक उम्मरवाले सजन भी मंडल में सामिल हो मंडलके उत्साहमें अभिवृद्धि करी है। पार्षीक चन्दा. मुबारीक नामावली. पिताका नाम. निवासग्राम. ११) (१) श्रीमान् प्रेसिडेन्ट छोगमलजी कोचर चुतर्भुजजी लोहावट ११) () श्रीमान् वाइस प्रेसिडेन्ट इन्द्रचंद्रजी पारख रावलमलनी ५) (३) श्रीमान् नायब प्रेसिडेन्ट खेतमलजी कोचर पीरदांननी ११) (४) श्रीमान् चीफ सेक्रेटरी रेखचंदजी पारख हजारीमलजी ७) (५) श्रीमान् जोइन्ट सेक्रेटरी पुनमचंदजी लुणीया रत्नालालजी (६) श्रीमान् जोइन्ट सेक्रेटरी इन्द्रचंदजी पारख चोनणमलजी (७) श्रीमान् सेक्रेटरी माणकलालजी पारख हीरालाजजी ५) (८) आसिस्टंट सेक्रेटरी श्रीमान रीषभमलजी सिंधी । कुचेरावाला Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३) (९) श्रीयुक्त मेम्बर अगरचंदजी पारख २) (१०) श्रीयुक्त मेम्बर पृथ्वीराजजी चोपडा २) (११) श्रीयुक्त मेम्बर जीतमलजी भन्साली ३) (१२) श्रीयुक्त मेम्बर हस्तीमलजी पारख २) (१३) श्रीयुक्त मेम्बर मेरूलालजी चोपडा ३) (१४) श्रीयुक्त मेम्बर जुगराजजी पारख ३) (१५) श्रीयुक्त मेम्बर मनसुखदासजी पारख ३) (१६) श्रीयुक्त मेम्बर कुंनणमलजी पारख २) (१७) श्रीयुक्त मेम्बर कुंनणमलजी कोचर ३) (१८) श्रीयुक्त मेम्बर भभूतमलजी पारख २) (१९) श्रीयुक्त मेम्बर हीरालालजी चोपडा ३) (२०) श्रीयुक्त मेम्बर जमनालालजी पारख २) (२१) श्रीयुक्त मेम्बर रेखचंदजी पारख ३) (२२) श्रायुक्त मेम्बर भभूतमलजी पारख २ ) ( २३ ) श्रीयुक्त मेम्बर सुखलालजी चोपडा ३) (२४) श्रीयुक्त मेम्बर फूलचंदजी पारख २) (२५) श्रीयुक्त मेम्बर घेवरचंदजी गडीया २) (२६) श्रीयुक्त मेम्बर जेठमलजी डाकलीया २) (२७) श्रीयुक्त मेम्बर कुंनणमलजी पारख ३) (२८) श्रीयुक्त मेम्बर जमनालालजी बोथरा आइदांनजी खूबचंदजी तुलसीदासजी रात्रलमलजी रेखचंदजी : रावलमलजी हजारीमलजी होरालालजी हीरालालमो श्रीचंदजी मोतीलालजी रावलमलजी मोतीलालजी करणीदांनजी हीरालालजी • कैवलचन्दजी जुहारमलजी प्रतापचंदजी सहजरामजी अलसीदासजी लोहावट ?? " >> >> "" ........ >> "" मथाणीया. लोहावट "" >> Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयु लोहावट ३) (२९) श्रीयुक्त मेम्बर नेमिचन्दजी चोपडा २) (३०) श्रीयुक्त मेम्बर कुंनणमलजी चोपडा २) (३१) श्रीयुक्त मेम्बर पुखराजजी चोपडा ३) (३२) श्रीयुक्त मेम्बर कुंवरलालजी पारख २) (३३) श्रीयुक्त मेम्बर चुनिलालजी पारख ३) (३४) श्रीयुक्त मेम्बर सुखलालजी पारख १) (३५) श्रीयुक्त मेम्बर सीमरथमलजी चोपडा ३) (३६) श्रीयुक्त मेम्बर अलसीदासजी कोंचर ३) (३७) श्रीयुक्त मेम्बर इन्द्रचंदजी वेद २) (३८) श्रीयुक्त मेम्बर ठाकुरलालजी चोपडा २) (३९) श्रीयुक्त मेम्बर घेवरचंदजी बोथरा २) (४०) श्रीयुक्त मेम्बर कन्यालालजी पारख ३) (४१) श्रीयुक्त मेम्बर संपतलालजो पारख ३) (४२) श्रीयुक्त मेम्बर नेमिचंदजी पारख २) (४३) श्रीयुक्त मेम्बर हेमराजजी पारख २) (४४) श्रीयुक्त मेम्बर भभूतमलजी कोचर २) (४५) श्रीयुक्त मेम्बर भीखमचंदजी कोचर ३) (४६) श्रीयुक्त मेम्बर गोदुलालजी सेठीया ३) (४७) श्रीयुक्त मेम्बर जोरावरमलजी वैद ३) (४८) श्रीयुक्त मेम्बर खेतमलजी पारख २) (४९) श्रीयुक्त मेम्बर गणेशमलजी पारख पुनमचंदजी मालचंदजी ताराचंदजी सेरचंदजी सीवलालजी मोतीलालजी हीरालालजी पुनमचंदजी सीवलालजी रेखचंदनी रावलमलजी जमनालालमी इन्दरचंदनी हीरालालजी चांनणमलजी हस्तिमलनी मेघराजनी छोगमलजी वदनमलजी हजारीमलजी मनसुखदासजी फलोधी लोहावट Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2) (50) श्रीयुक्त मेम्बर संपतलालजी पारख 2) (51) श्रीयुक्त मेम्बर सहसमलजी पारख 2) (52) श्रीयुक्त मेम्बर तनसुखदासजी कोचर 3) (53) श्रीयुक्त मेम्बर भीखमचंदजी पारख 2) (54) श्रीयुक्त मेम्बर सुगनमलजी पारख 2) (55) श्रीयुक्त मेम्बर जुगराजजी पारख 3) (56) श्रीयुक्त मेम्बर जमनालालजी पारख 2) (57) श्रीयुक्त मेम्बर खेतमलजी कोचर 2) (58) श्रीयुक्त मेम्बर माणकलालजी कोचर 2) (59) श्रीयुक्त मेम्बर मीसरीलालजी कोचर 2) (60) श्रीयुक्त मेम्बर घेवरचंदजी कोचर 1) (61) श्रीयुक्त मेम्बर नथमलजी पारख 2) (62) श्रीयुक्त मेम्बर नेमिचंदजी पारख 2) (63) श्रीयुक्त विजयलालजी हीरालालजी छोगमलजी जेठमलजी मुलचंदजी चुनिलालजी रतनलालजी मुलचंदजी प्रभुदानजी दलीचंदजी खेतमलजी ज्ञानमलजी हंसराजजी मनसुखदासजी छगनमलजी