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समाचारी.
( २९१) यक्षचिन्ह, अग्निका उपद्रव, धुधलु ( रजोधातादि ) यह दश प्रकारकी आस्वाध्यायसे कोइ भी अस्वाध्याय न हो तो.
+ रात्रिके प्रथम पेहरमें मुनि स्वाध्याय (सूत्रका मूल पाठ) करे. रात्रिके दुसरे पेहरमें जो प्रथम पेहरमें मूल सूत्रका पाठ किया था उन्हीका अर्थ चितवनरुप ध्यान करे परन्तु वातों. की स्वाध्याय और सुत्ताका ध्यान जो कर्मबन्धका हेतु है उनको स्पर्श तक भी न करे. स्वाध्याय सर्व दुःखोंका अन्त करती है।
रात्रिके तीसरा पेहरमें जब स्वाध्याय ध्यान करतां निंद्राका आगमन हो तो विधिपूर्वक संथारा पोरसी भणा के यत्नापूर्वक संथारा करके स्वल्प समय निन्द्राको मुक्त करे.
रात्रिका चोथा पहर-जव निद्रासे उठे उस बखत अगर कोई खराब सुपन विगेरे हवा हो तो उसका प्रायश्चितके लिये काउस्सग्ग करना फिर एक पेहरका ४ भागमें तीन भाग तक मूल सूत्रकी स्वाध्याय करणा वार वार स्वाध्यायका आदेश देते है इसका कारण यह है की श्री तीर्थकर भगवान् के मुखारविंद से निकली हुइ परम पवित्र आगमकी वाणी जिसको गणधर भगवानने सूत्ररुपे रचना करी उस वानीके अन्दर इतना असर भरा हुवा है कि भव्य प्राणी स्वाध्याय करते करते ही सर्व दुःखोंका अन्त कर केवलज्ञानको प्राप्त कर लेते है. इससे हा शास्त्रकार कहते है कि यथा “ सव्वदुःरकविमोरकाणं " - जब पेहरका चोथा भाग (दो घडी) रात्रि रहे तब रात्रि सबन्धी जो अतिचार लागा हो उसकि आलोचना रुप षटावश्यक पूर्ववत् प्रतिक्रमण करना + सूर्योदय होता हि गुरु महाराजको
__ + रात्रिका काल पोरसीका प्रमाण नक्षत्र आदिसे मुनि जाने वह जोतीषीयांका अधिकारका थोकडामें लिखा जावेगा.
+ मुभेका काउस्सगमें तप चिन्तवन करना मुझे क्या तप करना है ?