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शीघ्रबोध भाग ४ था.
कहांतक व्याख्यान दोगे तो० गुरुके आसनपर शिष्य वैठे तो० गुरुके पाट या विछौनेको ठोकर लगाकर क्षमा न मांगेतो० गुरुसे ऊंचे आसनपर बैठे तो० यह तैतीस आशातना अगर शिष्य करेंगे तो वह गुरु आज्ञाका विराधि हो संसारमें परिभ्रमन करेंगें ।
( ३४ ) तीर्थंकरोंके चौतीस अतिसय--तीर्थकरके केश, नख न बधे सुशोभित रहे० शरीर निरोग० लोहीमांस गोक्षीर जैसा ० श्वासोश्वास पद्म कमलजैसा सुगन्धी, आहार निहार चर्मचक्षुवाला न देखे ० आकाशमें धर्मचक्र चले० आकाश में तीन छत्र धारण रहै ० दो चामर वींजायमान रहे० आकाशमें पादपीठ सहित सिंहासन चले० आकाशमें इन्द्रध्वज चले. अशोकवृक्ष रहे० भामंडल होवे० भूमीतल सम होवे० कांटा अधोमुख होवे ० छहो ऋतु अनुकुल होवे० अनुकूल वायु चले० पांच वर्णके पुष्प प्रगट होवे० अशुभ पुगलका नाश होवे० सुगंध वर्षासे भूमी स्वच्छ होवे ० शुभ पुद्गल प्रगटे० योजनगामिना ध्वनी होवे० अर्ध मागधीभाषा में देशना दे० सर्व सभा अपनी २ भाषा में समझे० जन्मवैर, जातीवैर शांतहो० अन्य मतावलंबी भी आकर धर्म सुने और विनय करे० प्रतिवादी निरूत्तर होवे० पचीस योजनसुधी कोइ किसमका रोग उपद्रव न होवे० मरकी न होवे० स्वचक्रका भय न होवे' परलश्करका भय न होवे० अतिवृष्टि न होवे० अनावृष्टि नहो० दुकाल न पडे ० पहिले हुवा उपद्रव भी शांत होवे ० इन अतिशयों में ४ अतिशय जन्मसे होते है. ११ अतिशय केव लज्ञान होनेसे होते है और १९ अतिशय देवकृत होते है.
( ३५ ) वचनातिशय पैंतीस -- संस्कारवचन, उदात्त गंभीर० अनुनादी० दाक्षिण्यता० उपनीतराग० महा अर्थगर्भित० पूर्वापर अविरुद्ध ० शिष्ट संदेह रहित० योग्य उत्तरगर्भित० हृदयग्राही ०