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( २५२) शीघ्रबोध भाग ४ था. उपरोक्त तीस बोलोंमें से कोई भी बोलका सेवन करनेवाला ७० कोडाकोडी सागरोपम स्थितिका महा मोहनियकर्म बांधे.
(३१) सिद्धोंके गुण ३१ ज्ञानावणिय कर्म कि पांच प्रकृति क्षय करे यथा-मतिज्ञानावर्णिय, श्रुतज्ञा० अवधिज्ञा० मनःपर्यव ज्ञा केवलज्ञानावणिय दर्शनावर्णियकर्मकी नौ प्रकृति क्षय करे यथा-चक्षुदर्शणावणिय, अचक्षुद अवधिद० केवलद० निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला, थीणद्धी, वेदनिकर्मकी दो प्रकृति क्षय करे-शाता वेदनिय, अशाता वेदनिय, मोहनियकर्मकी दो प्रकृति-दर्शनमोहनी, चारित्रमोहनी आयुष्यकर्मकी चार प्रकृति-नारकी, तिर्यच. मनुष्य, देवताका आयुष्य नामकर्मकी दो प्रकृति-शुभनाम, अशुभनाम, गोत्र. कर्मकी २ प्रकृति-उच्चगोत्र, निश्चगोत्र और अंतरायकर्मकी पांच प्रकृति-दानांतराय, लाभांतराय, भोगांतराय, उपभोगांतराय, वियाँतराय. एवं ३१ प्रकृति क्षय होनेसे ३१ गुण प्रगट हुवे है.
(३२) योगसंग्रह-मोक्षके लिये आलोचना देनी, आलोचन देनेवाले सिवाय दुसरेको न कहना, आपत्तीकालमें भी दृढता धारण करनी, किसीकी सहायता विना उपधानादि तप करना, गृहण आसेवना शिक्षा धारणकरनी, शरीरकी सालसंभाल न करनी, गुप्त तपस्या करनी, निर्लोभ रहना, परिषह सहन करना, सरल भाव रखना, सत्यभाव रखना, सम्यक्दर्शन शुद्ध चित्त स्थिरता० निष्कपटता० अभिमान रहितः धैर्यता संवेग० मायाशल्य रहित० शुद्ध क्रिया० संवरभाव० आत्मनिर्दोष० विषय रहित० मूलगुण धारणा० उत्तरगुण धारणा० द्रव्यभावसे पापकों चोसिरे २ कहना० अप्रमाद कालोकाल क्रियाकरनी० ध्यानसमाधि धरना. मरणांत कष्ट सहन करना प्रतिज्ञा दृढता० प्रायश्चित लेना समाधासे संथारा करना०