________________
( १०६ )
शीघ्रबोध भाग २ जो.
कारणभूत पाप ही है पाप दुनिया में लोहाकी बेडी समान है अठारा प्रकार से जीव पाप कर्म बन्धन करते है-यथा प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य परपरीवाद, मायामृषावाद और मिथ्या दर्शन शल्य इन अठारा कारणोंसे जीव पाप कर्म बन्ध करते है उनको ८२ प्रकार से भोगवते है यथा
ज्ञानावर्णियकर्म जीवकों अज्ञानमय बना देते है जेसे घाणीका बैटके नेत्रोंपर पाटा बान्ध देनेसे कोसी प्रकारका ज्ञान नही रहता है इसी माफीक जीवोंके ज्ञातावर्णियका पडल छा जानेसे कोसी प्रकारका ज्ञान नही रहता है जिस ज्ञानावर्णिय कर्मको पांच प्रकृति हे- मतिज्ञानावर्णिय श्रुतज्ञानावर्णिय, अवधिज्ञानावर्णिय, मनः पर्यवज्ञानावर्णिय, केवलज्ञानावर्णिय यह पांचो प्रकृति पांचों ज्ञानकों रोक रखती है। दर्शनावर्णियकर्म जैसे राजाके पोलीयाकि माफीक धर्मराजासे मिलने तक न देवे जिस्की नौ प्रकृति है चक्षुदर्शनावर्णिय अचक्षुदर्शनावर्णिय अवधिदर्शनावर्णिय केवलदर्शनावर्णिय निंद्रा ( सुखे सोना सुखे जागना ) निद्रानिंद्रा ( सुखे सोना दुःखे जागना ) प्रचला ( बेठे बेठेकों निंद्रा होना ) प्रचलाप्रचला. ( चलते फोरतेको निंद्रा होना ) स्त्यानद्धि. निंद्रा (दिनको बि. चारा हुवा सर्व कार्य निद्रामे करे वासुदेव जितने बलवाले हो ) असातावेदनीय. मिथ्यात्वमोहनिय (विप्रीतश्रद्धा अतस्व पर रुखी) अनंतानुबन्धी क्रोध ( पत्थर कि रेखा ) मान ( बनका स्थंभ ) माया वांसकी जड) लोभ करमजी रेसमका रंग) घात करे तो समकितनी स्थिति जावजीवको मतिनरककी । अप्रत्याख्यानी क्रोध । तलावकी तड) मान-दान्तका स्थंभ, माया मे डाका श्रृंग. लोभ नगरका कीच । बात करे तो श्रावकके व्रतोंकी