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(६७) किया तबसे मनुष्य आहार पाणी देना सीखे. भगवान १००० वर्ष छद्मस्थ रह के केवल ज्ञानकी प्राप्ति के लिये पुरीमताल नगरके उद्यानमें आये भगवान को केवल ज्ञानोत्पन्न हुवा. वह बधाइ भरत महाराज को पहुंची उस समय भरत राजाके आयुधशालामें चक्ररत्न उत्पन्न हुषा. एक तरफ पुत्र होनेकी वधाइ आइ, एवं तीनों कार्य बडा महोत्सवका था, परन्तु भरत राजाने विचार कीया कि चक्ररत्न और पुत्र होना तो संसारवृद्धिका कार्य है परन्तु मेरे पिताजीकों केवलज्ञान हुवा वास्ते प्रथम यह महोत्सव करना चाहिये क्रमशः महोत्सव कीया. माता मरूदेवी को हस्ती पर बैठा के लाये माताजी अपने पुत्र ऋषभदेव ) को देख पहले बहुत मोहनी करी फीर आत्म भावना करते हस्तीपर बैठी हुई माताको केवलज्ञान उत्पन्न हुवा और हस्तीके खंधेपरसे ही मोक्ष पधार गये. भगवान के ४००० शिष्य वापिस आगये औरभी ८४ गणधर ८४००० साधु हुवे और अनेक भव्य जीवोंका उद्धार करते हुये भगवान आदीश्वरजी एक लक्ष पुर्व दीक्षा पाल मोक्षमार्ग चालु कर अन्त में १०००० मुनिवरों के साथ अष्टापदजीपर मोक्ष पधार गये. इन्द्रोंका यह फर्ज है कि भगवान के जन्म, दीक्षाग्रहन केवल ज्ञानोत्पन्न और निर्वाण महोत्सवके समय भक्ति करे. इस कर्तव्यानुसार सभी महोत्सव कोये अन्तम इन्द्र महाराजने अष्टापद पर्वत् पर रत्नमय तीनबडे ही विशाल स्तृप कराये और भरत महाराज उन अष्टापद पर २४ भगवान् के २४ मन्दिर बनवा के अपना जन्म सफल कीया था इस बखत तीजा आरा के तीन वर्ष साडा आठ मास बाकी रहा है जोकि युगलीये मरके एक देव गति मेंही जाते थे. अब वह मनुष्य कर्मभूमि हो जाने से नरक नीर्यच मनुष्य देव और केह केइ सिद्ध गतिमें भी जाने लयगये है। तीसरे आरे के अन्तमें क्रोड पूर्वका आयुष्य, पांचसो धनुष्य का