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कर्मोकि उत्तर प्रकृति १५८. (३०७) रोंके स्पर्श करतेही नाराजी आवे तथा अच्छा कार्य करनेपरमा नाराजी करे इत्यादि।
दुर्भागनाम-कोसीके पर उपकार करनेपरभी अप्रीय लगे तथा इष्टवस्तुओंका वियोग होना।
दुःस्वरनाम-जिस प्रकृतिके उदयसे ऊंट, गर्दभ जेसा खराब स्वर हो उसे दुःस्वरनाम कर्म कहते है ।
अनादेयनाम-जिसका वचन कोइभी न माने याने आदर करनेयोग्य वचन होनेपरभी कोइ आदर न करे।
अयशःकीर्तिनाम-जिस कर्मोदयसे दुनियों में अपयश-अकीर्ति फैले, याने अच्छे कार्य करनेपरभी दुनियों उनोंकों मलाइ न देके बुराइयोंही करती रहै इति नामकर्मकी १०३ प्रकृति है।
(७) गोत्रकर्म-कुंभकार जेसे घट बनाते है उसमें उच्च पदार्थ घृतादि और निच पदार्थ मदीरा भी भरे जाते है इसी माफीक जीव अष्ट मदादि करनेसे निच गोत्र तथा अमदसे उच्च गोत्रादि प्राप्त करते है जीसकि दो प्रकृति है उच्चगोत्र, निश्चगोत्र जिस्में इक्ष्वाकुवंस हरिवंस चन्द्रवंसादि जिस कुलके अन्दर धर्म और नीतिका रक्षण कर चीरकालसे प्रसिद्धि प्राप्ति करी हों उच्चकार्य कर्त्तव्य करनेवालोंकों उच्च गोत्र कहते है और इन्होंसे वप्रीत हो उसे निचगोत्र कहते है।
१८ ) अन्तरायकर्म-जैसे राजाका खजांनची-अगर राजा हुकमभी कर दीया हो तो भी वह खजांनची इनाम देने में विलम्ब करसता है इसी माफीक अन्तराय कर्मोदय दानादि कर नहा सक्ते है तथा वीर्य-पुरुषार्थ कर नही मके जीसकि पांच प्रकृति है (१) दानअंतराय-जेसे देनेकि वस्तुओं मौजुद हो. दान लेनेवाला उत्तम गुणवान पात्र मौजुद हो. दानके फलोंकों जानता