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शीघ्रबोध भाग ५ वां.
अकलंक अमूत्ति है परन्तु मिथ्यात्वादि अज्ञान के निमित्त कारण से अनेक प्रकारके रूप धारण कर संसारमें परिभ्रमन करता है परन्तु जब सद्ज्ञान दर्शनादिका निमित्त प्राप्त करता है तब मिथ्यात्वादिका संग त्याग अपना असली स्वरूप धारण कर सिद्ध अवस्थाको प्राप्त कर लेता है.
__ जीव अपना स्वरूप कीस कारणसे भूल जाता है ? जसे कोह अकलमंद समजदार मनुष्य मदिरापान करने से अपना भान मूल जाता है फोर उन मदिराका नशा उतरने पर पश्चात्ताप कर अच्छे कार्यमे प्रवृत्ति करता है इसी माफीक अनंत ज्ञान दर्शनका नायक चैतन्यको मोहादि कर्मदलक विपाकोदय होता है तब चैतन्यको वेभान-विकल-बना देता है फीर उन कर्मोको भोगवके निर्जरा करने पर अगर नया कर्म न बन्धे तो चैतन्य कर्म मुक्त हा अपने स्वरूपम रमणता करता हुवा सिद्ध पदको प्राप्त कर लेता है.
कर्म क्या वस्तु है ? कर्म एक कीस्मके पुद्गल है जिस पुदगलोम पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस, च्यार स्पर्श है जीवोंके उन पुदगलों से अनादि कालका संबन्ध लगा हुवा है उन कर्मोंकि प्रेरणासे जीवोंके शुभाशुभ अध्यवसाय उत्पन्न होते है उन अध्यवसायोंकी आकर्षणासे जीव शुभाशुभ कर्म पुद्गलोंको ग्रहन करते है। वह पुदगल आत्माके प्रदेशोंपर चीपक जाते है अर्थात् आत्म प्रदेशोंके साथ उन कर्म पुद्गलोंका खीरनिरकी माफीक बन्ध होते है जिनों से वह कर्म पुदगल आत्माके गुणोंको झांखा बना देते है जैसे सूर्यको बादल झांखा बनाता है। जैसे जैसे अध्यवसायोंकी मंदता तीव्रता होती है वैसे वैसे कर्मों के अन्दर रस तथा स्थिति पड जाति है वह कर्म बन्धने के बाद वह कर्म कीतने कालसे विपाक उदय होते है उसकों अबादा काल कहते है जैसे हुन्डीके अन्दर मुदत डाली जाति है। कर्म दो प्रकारसे भोगवीये