________________
आत्माधिकार.
( १८३ )
है. परिसह अध्ययन में रोग आनेपर औषधि न करना उत्सर्ग है. भगवतीसूत्र में तथा छेदसूत्रोंमें निर्बंध औषधि करना अपवाद है. इत्यादि इसी माफीक षटूद्रव्य में भी उत्सर्गोपवाद समझना ।
( १८ ) आत्मा तीन प्रकारकी है. वाह्यात्मा, अभितरात्मा, परमात्मा जिस्में जो आत्मा धन, धान्य, सुवर्ण, रुपा, रत्नादि द्रव्यकों अपना मान रखा है पुत्रकलत्र, मातापिता, बन्धवमित्रकों अपना मान रखा है. इष्ट संयोगमें हर्ष अनिष्ट संयोगमें शोक पुगल जो परवस्तु है उसे अपनि मान रखी है जो कुच्छ तत्त्व समजते है तो उनी बाह्यसंयोगको ही समजते है वह बाह्यात्मा उसे ज्ञानीयों भवाभिनन्दी मिथ्यादृष्टि भी कहते है । दुसरी अभितरात्मा जीस जवोने स्वसत्ता परसत्ताका ज्ञानकर परसत्ताका त्याग और स्वसत्ता में रमणता कर बाह्य संयोगकों पर वस्तु समज त्यागबुद्धि रखे अर्थात् चोथा सम्यग्दृष्टी गुणस्थानसे लगाके तेरवे गुणस्थान तक के जीव अभितरात्मा के जानना. परमात्म- जीनोंके सर्व कार्य सिद्ध हो चुके सर्व कमसे मुक्त हो लोकके, उग्रभाग में अनंत अव्याबाध सुखोंमे विराजमान है उसे परमात्मा कहते है तथा आत्मा तीन प्रकारके है स्वात्मा परात्मा परमात्मा जिस्मे स्वात्माको दमन कर निज सत्ताको प्रगट करना चाहिये, परात्माका रक्षण करना और परमात्माका भजन करना. यह ही जैनधर्मका सार है ।
( १७ ) ध्यान च्यार - पदस्यध्यान अरिहन्तादि पांच पदके गुणोंका ध्यान करना. पिंडस्थध्यान- शरीररूपी पिंडके अन्दर स्थित रहा हुवा अनंत गुण संयुक्त चैतन्यका ध्यान करना अर्थात् अध्यात्मसत्ता जो चैतन्य के अन्दर रही हुई है उन सत्ताके अन्दर रमणता करना । रुपस्थ ध्यान यद्यपि चैतन्य अरुपी है तद्यपि कर्म