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कर्मबन्ध हेतु.
(३१५)
मद ऐश्वर्यमद लाभमद तपमद इन मदों का त्याग करे अर्थात् यह आठों प्रकार के मद न करे । हमेशां पठन पाठन में जिनका अनुराग हे देवगुरु की भक्ति करनेवाला हो दुःखी जीवों को देख अनुकम्पा करनेवाला हा इत्यादि गुणोंसे जीव उच्चगौत्र का बन्ध करता है और इन कृत्यों से विपरीत वरताय करने से जीव निच्च गोत्र बन्धता है अर्थात् जिनमें गुणष्टि न होकर दोषदृष्टि है जाति कुलादि आठ प्रकार के मद करे पठन पाठन में प्रमाद आलस्य-घणा होती हे आशातना का करनेवाला हे एसे जीव निश्चगोत्र उपार्जन करते है
(८' अंतराय कर्म के बन्ध हेतु-जो जीव जिनेन्द्र भगवान् कि पूजा में विघ्न करते हो-जैसे जल पुष्प अग्नि फल आदि चढाने में हिंस्या होती है वास्ते पूजा न करना ही अच्छा है तथा हिंस्या ऋट चौरी मैथुन रात्रीभोजन करनेवाले ममत्वभाव रखनेवाले हो तथा सम्यक् ज्ञानदर्शन चारित्ररूप मोक्षमार्ग में दोष दिखलाकर भद्रीक जीवों को सदमार्ग से भ्रष्ट बनानेवाले हो दुसरों को दान लाभ-भोग उपभोग में विघ्न करनेवाले हो। मंत्र यंत्र तंत्र द्वारा दुसगे कि शक्ति को हरन करनेवाले हो इत्यादि कारणों से जीव अंतराय कर्म उपार्जन करते है
उपर लिग्वे माफीक आठ कर्मों के बन्ध हेतु के सम्यक् प्रकारे समज के मदेव इन कारणों से बचते रहना और पूर्व उपार्जन कीये हुवे कर्मों को तप जप संयम ज्ञान ध्यान सामायिक प्रभावना आदि कर हटा के मोक्ष की प्राप्ति करना चाहिये।
संवं भंते सेवं भंते-तमेव सच्चम् .