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कर्मबन्ध हेतु. मन अपने के आधिन करना इत्यादिसे रति मोहनिय कर्म ब. न्धता है। ईर्षालु-पापाचरणा-दुसरोंके सुख में विघ्न करनेवाले बुरे कर्म में दूसरेको उत्साही बनानेवाला संयमादि अच्छा कायमें उत्साहा रहित इत्यादि हेतुबोसे अरति मोहनिय कर्मबन्ध होते है ! खुद डरे औरोंके डरावे त्रास देनेवाला दया रहित मायावी पापाचारी इत्यादि भयमोहनिय कर्मबन्ध करता है। खुद शोक करे दुसरोको शोक करावे चिंता देनेवाला विश्वास घात स्वामिद्रोही दुष्टता करनेवाला--शोकमोहनियकर्म वन्धता है। सदाचारकि निंदा करे चतुर्विध संघकि निंदा करे जिन. प्रतिमाकि निंदा करनेवाला जीव जुगप्सा मोहनिय कर्म वन्धता है । विषयाभिलाषी परखि लंपट कुचेष्टा करनेवाला हावभावसे दुसरोंसे ब्रह्मचर्य से भृष्ट करनेवाला जीव त्रिवेद बन्धता है। सरल स्वभावी-स्वदारा संतोषी सदाचारवाला मंद विषयवाला जीव पुरुषवेद बन्यता है । सतीयोका शील खंडन करनेवाला तीव्र विषयाभिलाषी कामकीडामें आसक्त त्रि-पुरुषोंके कामकि पुरण अभिलाषा करनेवाला नपुंसक वेद मोहनियकर्म बन्धता है इन सब कारणोंसे जीव मोहनीयकर्म उपार्जन करता है।
(५) आयुष्य कर्मबन्धके कारण- जेसे रौद्र प्रणामी महारंभ. महा परिग्रह पांचेन्द्रियका घाती. मांसाहारी, परदाराग मन विश्वासघाती, स्वामिद्रोही इत्यादि कारणोंसे जीव नरकका आयुष्य बान्धता है.। मायावृत्ति करना गुढ माया करना कुडा तोल माप जूटे लेख लिखना, जूटी साख देना परजीवोंकों तक लीफ पहुचाना दुसरेका धन छीन लेना इत्यादि कारणोंसे जीव तीर्यचका आयुष्य बान्धता है। प्रकृतिका भद्रीक होना विनयवान् होना-स्वभावसेही जिनोंका क्रोध मान माया लोभ पतला हो दुसरोंकि संपत्ति देख इयां न करे भद्रीक दयावान् कोमलता