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शीघ्रबोध भाग ४ था.
मुनिजीको जुलाब दीया और अकलमन्द प्रधानोंने राजाको जुलाब दीया. दोनोंके पाणीका अंश निकल जाने से राजा राजमें और मुनि अपने योगमें रमणता करने लगे.
[ २ ] उद्देसीक दोष - एक साधुके लिये किसीने आहार बनाया है वह साधु गवेषना करने पर उसे मालुम हुवा कि यह आहार मेरे ही लिये बना है उसे आधाकर्मी समजके ग्रहन नही किया अगर वह आहार कोइ दुसरा साधु ग्रहन न करे तो उनके लिये उद्देसीक दोष है.
[३] पूतिकर्म दोष - निर्वद्याहारके अन्दर एक सीत मात्र at marnath मील गइ हो तथा सहस्र घरोंके अन्तर भी Harrier लेप मात्र भी मीला हुवा शुद्धाहार भी ग्रहन करनेसे पूतिकर्म दोष लगते है. श्री सूत्रकृतांग अध्ययन पहले उसे तीजे पूतिकर्मा हार भोगवनेवालोंको द्रव्ये साधु और भावे गृहस्थ एवं दो पक्ष सेवन करनेवाला कहा है ।
[ ४ ] मिश्रदोष -कुच्छ गृहस्थोंका, कुच्छ साधुका निमित्त से बनाया आहार लेनेसे मिश्रदोष लगता है 1
[५] ठवणा दोष- साधुके निमत्त स्थापके रखे.
[ ६ ] पाहुडिय - महेमान - कीसी महेमानोंको जीमाण: हैं. साधुके लिये उनोंकि तीथी फीरा देवे उन महेमानोंके साथ मुनि hi भी मिष्टान्नादि से तृप्त करे। एसा आहार लेना दोषित है।
[७] पावर - जहां आघेरा पडता हो वहां साधुके निमित्त. प्रकाश [ बारी ] करवाके आहार देना.
[८] क्रिय - क्रियविक्रय. मुनिके निमित्त मूल्य लायके देवे. [९] पामिकचे दोष - उधारा लाके देवे.
[१०] परियठे दोष-वस्तु बदलाके देवे.