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( २९६) शीघ्रबोध भाग ५ वा. प्रकृति १५८ का संक्षिप्त विवरण कर आप.क सेवामें रखी जाति है आशा है कि आप इस कर्म प्रकृतियोंकों कंठस्थ कर आगे के लिये अपना उत्साह बढाते रहेगें इत्यलम् ।
-----* *थोकडा नम्बर ४१
( मूल आठ कर्मोकि उत्तर प्रकृति १५८.) (१) ज्ञानावर्णियकर्म-चैतन्यके ज्ञान गुणको रोक रखा है। १२ दर्शनावर्णियकर्म-चैतन्यके दर्शन गुणको रोक रखा है। (३) वेदनियकर्म-चैतन्यके अन्याबाद गुणको रोक रखा है। (४) मोहनियकर्म-चैतन्यके क्षायिक गुणको रोक रखा है। (५) आयुष्यकर्म-चैतन्यके अटल अवगाहाना गुणको रोक रखा है. (६) नामकर्म-चैतन्यके अमूर्त गुणको रोक रखा है। (७) गौत्रकर्म-चैतन्यके अगुरु लघु गुणको रोक रखा है। (८) अन्तरायकर्म-चैतन्यके वीर्य गुणको रोक रखा है। इन आठों कर्मोकि उत्तर प्रकृति १५८ है उनोंका विवरण. (१) ज्ञानावणियकर्म जेसे घाणीका बहल याने घाणीके बहलके नैत्रोंपर पाट्टा बान्ध देनेसे कीसी वस्तुका ज्ञान नही होता है. इसी माफीक जीवोंके ज्ञानावर्णिय कर्मपडल आजानेते वस्तुतस्यका ज्ञान नहीं होता है । जीस ज्ञानावरणीय कर्मकि उत्तर प्रकृति पांच है यथा-(१) मतिज्ञानावर्णिय, ३४० प्रकारके मतिज्ञान है (देखो शीघ्रबोध भाग ६ ठा) उनपर आवरण करना अर्थात् मतिसे कीसी प्रकारका ज्ञान नही होने देना अच्छी बुद्धि