________________
(३०८)
शीघ्रबोध भाग ५ वां.
हो, परन्तु दान देने में उत्साह न बढे वह दानांतराय कर्मका उदय है.
दातार उदार हो दानकी चीजों मौजूद हो आप याचना करनेमें कुशल हो परन्तु लाभ न हो तथा अनेक प्रकारके व्यापारादिमें प्रयत्न करने पर भी लाभ न हो उसे लाभान्तराय कहते है ।
भोगवने योग्य पदार्थ मौजुद है उस पदार्थोंसे वैराग्यभाव भी नही है न नफरत आति है परन्तु भोगान्तराय कर्मोदयसे कीसी कारण से भोगव नहीं सके उसे भोगान्तराय कहते है जो वस्तु एक दफे भोगमें आति हो असानादि ।
उपभोगान्तराय - जो खि व भूषणादि वारवार भोगने में आवे एसी सामग्री मोजूद हो तथा त्यागवृत्ति भी नहो तथापि उपभोग में नहीं ली जावे उसे उपाभोगान्तराय कहते है ।
र्यान्तराय-रोग रहीत शरीर बलवान सामर्थ्य होने पर भी कुच्छभी कार्य न कर सके अर्थात् वीर्य अन्तराय कर्मोदयसे पुरुषार्थ करने में वीर्य फोरने में कायरोंकी माफीक उत्साह रहित होते है उठना बैठना हलना चलना बोलना लिखना पढ़ना आदि कार्य करने में असमर्थ हो वह पुरुषार्थं कर नही सकते है उसे वीर्य अन्तरायकर्म कहते है इन आठ कर्मोंकी १५८ प्रकृतिको कंठस्थ कर फीर आगे थोकडेमें कर्मबन्धनेका कर्म तोडने के हेतु लिखेंगे उसपर ध्यान दे कर्मबन्धके कारणोंको छोडनेका प्रयत्न कर पुरांणे कर्मकों क्षय कर मोक्षपद प्राप्त करना चाहिये इति । सेवते सेवंभंते तमेवसचम्
-X()*+