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शीघ्रबोध भाग २ जा.
लाते है जब सोना को जल पवनादिकी सामग्री मीलती है तब परगुण अग्नि ) त्याग कर अपने असली स्वरूप को धारण करते है इसी माफीक जीव भी दर्शनज्ञान चारित्रादिकि सामग्री पाके कर्म मेलको त्याग कर अपना असली ( सिद्ध ) स्वरूपको धारण कर लेता है।
द्रव्यसे जीव असंख्यात प्रदेशी है। क्षेत्रसे जीव स्मपुरण लोक परिमाणे है ( एक जीवका आत्मप्रदेश लोकाकाश जीतना है) कालसे जीव आदि अन्त रहीत है भावसे जीव ज्ञानदर्शन गुणसंयुक्त है । नाम जीव सो नाम निक्षेपा, जीवकि मूर्ति तथा अक्षर लिखना वह स्थापना जीव है उपयोग सुन्य जीवकों द्रव्य निक्षेपा कहते है उपयोगगुण संयुक्तकों भावजीव कहते है।
नय-जीव शब्दको नैगमनय जीव मानते है असंख्याता प्रदेश सत्तावाले जीवकों संग्रहनय जीव कहते है-बस स्थावरके भेदवाले जीवोंको व्यवहारनय जीव कहते है : सुखदुःखके परिणामवाले जीवोंको ऋजुलूत्र नयजीव कहते है क्षायकगुणप्रगटांणा ही उसे शब्दनय जीव कहते है केवलज्ञान संयुक्तको संभिरुद्ध नयजीव कहते है सिद्धपद प्राप्त कीये हुवे कों एवंभूत नयजीव कहते है।
जीवोंके मूलभेद दोय है (१) सिद्धोंके जीव और २) संसारी जीव. जिस्मे सिद्धोंके जीव सर्वता प्रकारे कर्म कलंकसे मुक्त है अनंते अव्यावाध सुखोंमे लोकके अग्रमागपर सचिदान्द बुद्धानन्द सदानन्द स्वगुणभोक्ता अनंतज्ञानदर्शनम रमणता करते है, द्रव्यसे सिद्धोके जीव अनंत है क्षेत्रसे सिद्धोंके जीव पैतालीस लक्ष योजनके क्षेत्रमें विराजमान है कालसे सिद्धोंके जीव बहुत जीवोंकी अपेक्षा अनादि अनंत है एक जीवकि अपेक्षा सादि अनंत है भावसे अनंतज्ञान दर्शन चारित्र वीर्य गुणसंयुक्त समय