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( ११८) शीघ्रबोध भाग २ जो. योग, काययोग, (४) विवतसयनासन याने स्त्रि नपुंसक ओर पशु आदि विकारीक निमत्त कारण हो एसे मकानमें न रहे इति ।
इन छे प्रकारके तपको बाह्यतप कहते है।
(७) प्रायश्चिततप-मुनि ज्ञान दर्शन चारित्रके अन्दर सम्यक् प्रकारसे प्रवृत्ति करते हुवेकों कदाचित् प्रायश्चित लग जावे, तो उन प्रायश्चितकी तत्काल आलोचना कर अपनि आत्माको विशुद्ध बनाना चाहिये यथा
दश प्रकारसे मुनिकों प्रायश्चित लगते है यथा-कंदर्प पी. डित होनेसे, प्रमादवस होनेसे, अज्ञातपणेसे, आतुरतासे, आप. तियों पडनेसे, शंका होनेसे, सहसात्कारणसे, भयोत्पन्न होनेसे द्वेषभाव प्रगट होनेसे, शिष्यकि परिक्षा करनेसे।
दश प्रकार मुनि आलोचन करते हुवे दोष लगावे. कम्पता कम्पता आलोचन करे. पहले उन्मान पुच्छे कि अमुक प्रायश्चित सेवन करने का क्या दंड होगा फीर ठीक लागे तो आलोचना करे । लोकोंने देखा हो उन पापकि आलोचना करे दुसरेकी नही. अदेखा हुवे दोषकि आलोचना करे। बड़े बडे दोषोंकी आलोचना करे. छोटे छोटे पापोंकी आलोचना करे. मंद स्वरसे आलोचना करे. जोर जोरके शब्दोंसे० एक पापकों बहुतसे गीतार्थोके पास आलोचना करे,अगीतार्थोके पास आलोचना करे.
दशगुणोंका धणी हो वह आलोचना करे. जातिवन्त, कुलवन्त, विनयवन्त उपशान्तकषायवन्त, जितेन्द्रियवन्त, ज्ञानवन्त, दर्शनवन्त, चारित्रवन्त, अमायवन्त, और प्रायश्चित ले के पश्चाताप न करे।
दशगुणोंके धणी के पास आलोचना लि जाति है. स्वयं आचारवन्त हो. परंपरासे धारणवन्त हो. पांच व्यवहारके नानकार हो. लज्जा छोडाने समर्थ हो शुद्धकरने योग हो. आग