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तीर्थकरपद. . (५३) (३) श्री पांच समति तीन गुप्ति यह अष्ट प्रवचनकी माता
है. इनोंको सम्यकप्रकारसे आराधन करनेसे । (४) श्री गुणवन्त गुरुजी महाराजका गुण करनेसे । ( ५ ) श्री स्थिवरजी महागजके गुणस्तवनादि करनेसे। (६) श्री बहुश्रुती-गीतार्थोंका गुणस्तवनादि करनेसे। (७) श्री तपस्थीजी महाराज के गुणस्तवनादि करनेसे । (८) लीखा पढा ज्ञानको वारवार चितवन करनेसे । (९) दर्शन (समकित) निर्मल आराधन करनेसे। (१०) सात तथा १३४ प्रकार के विनय करनेसे । (११) कालोकाल प्रतिक्रमण करनेसे । ( १२ ) लिये हुवे व्रत-प्रत्याख्यान निर्मल पालनेस । (१३) धर्मध्यान-शुक्लध्यान ध्याते रहनेसे । ( १४ ) बारह प्रकारकी तपश्चर्या करनेसे । (१५) अभयदान-सुपात्रदान देनेसे। (१६) दश प्रकार की वैयावश्च करनेसे । (१७) चतुर्विध संघको समाधि देनेसे । ( १८ ) नये नये अपूर्व ज्ञान पढनेसे । (१९) सूत्र सिद्धान्तकी भक्ति-सेवा करनेसे। ( २० ) मिथ्यात्यका नाश और समकितका उद्योत करनेसे ।
उपर लिखे वीस बोलोका सेवन करनेसे जीव कर्मोंकी कोडाकोडी क्षय करदेते है. और उत्कृष्टी रसायण ( भावना) आनेसे जीव तीर्थकर नामकर्म उपार्जन करलेते है. जीतने जीव तीर्थकर हुवे है या होंगे वह सब इन बीस बोलोंका सेवन कीया है और करेंगे इति ।।
॥ सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम् ॥