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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन प्रक्रिया-ग्रन्थों का उद्भव तथा विकास
प्रक्रिया-ग्रन्थस्वरूप आंशिक रूप से व्याकरण पढ़नेवाले विद्यार्थियों के अध्ययन-क्रम को ध्यान में रखकर प्रक्रिया-ग्रन्थों का आरम्भ संस्कृत-व्याकरण में हुआ। इसी प्रणाली के अनुसार समस्त व्याकरण को प्रकरणों में विभक्त किया गया। यथा-सन्धि, सुबन्त, तिङन्त, कारक, समास, कृदन्त, तद्धित इत्यादि। इनमें किसी भी एक या तदधिक प्रकरण के अध्ययन से उतने विषय का ज्ञान हो जाता है। अष्टाध्यायी-प्रभृति 'यथाशास्त्र' प्रणाली में प्रकरण-विभाग न होकर अधिकरण-विभाग हुआ है, जिससे सम्पूर्ण ग्रन्थ के अध्ययन की आवश्यकता होती है। किसी एक अंश के अध्ययन से किसी भी प्रकरण का ज्ञान नहीं होता। उदाहरणार्थ कारक तथा विभक्ति के विचार अष्टाध्यायी में विभिन्न अध्यायों में हुए हैं, किन्तु प्रक्रिया-ग्रन्थों में प्रकरण का नाम 'विभक्त्यर्थ' या 'कारक-प्रकरण' रखकर दोनों को समाविष्ट कर लिया गया है। आंशिक अध्ययन के लिए प्रक्रिया-प्रणाली भले ही उपयुक्त हो, किन्तु जहाँ भाषा के सभी अंगों के ज्ञान का प्रश्न हो वहाँ 'यथाशास्त्र-प्रणाली' परमोपयोगी है। ___ व्याकरण के अध्ययन में अल्पकाल लगाकर शास्त्रान्तर में प्रविष्ट होनेवाले या शीघ्र गृहस्थाश्रम में जानेवाले लोगों में प्रक्रिया-ग्रन्थों का बहुत प्रचार हुआ, क्योंकि वे व्याकरण के अत्यन्त आवश्यक भागों को पढ़कर ही संस्कृत समझने तथा बोलने की साधारण योग्यता पा जाने से कार्यान्तर में लग जाते थे। व्याकरण में कौन-कौन आवश्यक भाग हैं, इनका निर्णय करने में प्रक्रिया-ग्रन्थकारों ने अपनी समस्त बुद्धि लगायी तथा इसके परिणामस्वरूप अनेकानेक संक्षिप्त ग्रन्थ व्याकरण के क्षेत्र में आये। एक र अष्टाध्यायी के सभी सूत्रों का उपयोग करनेवाली सिद्धान्तकौमुदी लिखी गयी तो दूसरी ओर केवल ७०० सूत्रों में समाप्त होनेवाली सारसिद्धान्तकौमुदी भी प्रकाशित हुई। प्रक्रिया-ग्रन्थों का प्रेरणा-स्रोत शर्ववर्मा का कातन्त्रव्याकरण है, जो पतञ्जलि के आविर्भाव-काल के तुरंत ही बाद दक्षिण में प्रचारित हुआ था। इसका अत्यधिक प्रचार देखकर पाणिनितन्त्र में भी अष्टाध्यायी के सूत्रों का आश्रय लेकर प्रक्रिया-ग्रन्थों की रचना आरम्भ हुई।
रूपावतार पाणिनितन्त्र का प्रथम प्रक्रिया-ग्रन्थ धर्मकीर्ति ( १०८० ई० ) का रूपावतार है, जिसमें अष्टाध्यायी के प्रत्येक प्रकरण के उपयोगी सूत्रों की शब्द-साधुत्व की दृष्टि से व्याख्या की गयी है । अष्टाध्यायी के २६६४ सूत्र इसमें आये हैं । इसके दो भाग हैं । प्रथम भाग में संज्ञा, संहिता, सुबन्त, अव्यय, स्त्रीप्रत्यय, कारक, समास तथा तद्धित के प्रकरण हैं । द्वितीय भाग में दस लकारों, दस प्रक्रियाओं तथा कृदन्त का निरूपण है । शरणदेव ने दुर्घटवृत्ति में ( रचनाकाल ११७३ ई० ) धर्मकीर्ति तथा रूपावतार
१. पं० ब्रह्मदत्त जिज्ञासु द्वारा सम्पादित काशिका का उपोद्घात, पृ० ८ ।