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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
जयन्तभट्ट की आपत्ति
जयन्तभट्ट ने न्यायमञ्जरी में कर्म को क्रिया के द्वारा सम्पाद्य साध्य ) मानकर, उसे फल के रूप में व्यवस्थित करते हुए उसके कारकत्व का खण्डन किया है । क्रिया के द्वारा व्याप्त किये जानेवाले पदार्थों में इष्टतम का अर्थ फल ही हो सकता है । वह इसलिए कारक नहीं है कि क्रिया-सम्पादकत्व धर्म जो कारक की विशेषता है, उसमें नहीं । कोई पदार्थ एक ही साथ जनक तथा जन्य दोनों नहीं हो सकता । स्पष्टतः जयन्त ने कर्म क्रियाजन्य ( फल ) के रूप में माना है, फलाश्रय नहीं - इसी से यह सारी भ्रान्ति उत्पन्न हुई है ।
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पुरुषोत्तम द्वारा समाधान
ठीक ऐसी ही शंका कारकचक्र में पुरुषोत्तमदेव ने भी उठायी है, किन्तु जयन्त के विपरीत उन्होंने उसका समाधान भी किया है । वे पूर्वपक्ष से कहते हैं कि कारक तो क्रिया का निमित्त होता है, किन्तु कर्म स्वयं क्रिया के द्वारा साध्य है । अत: वह साधन और साध्य दोनों कैसे हो सकेगा ? इसकी विशद व्याख्या उन्होंने कुछ श्लोकों का उद्धरण देकर की है । उत्तर में कहा जा सकता है कि कर्ता क्रिया के द्वारा जिसे व्याप्त करना ( अर्थात् उत्पन्न करना, विकृत करना या प्राप्त करना ) चाहे वही कर्म है । इसलिए सभी कर्मों में स्वगत व्यापार तो रहता ही है । उसी व्यापार या क्रिया की अपेक्षा से उसका कारकत्व सिद्ध होता है । जो पदार्थ उत्पन्न होता है वह उत्पत्तिक्रिया के प्रति कर्ता रहकर बाद में कर्म बन जाता है ( कटं करोति = कटमुत्पद्य - मानमुत्पादयति ) । 'भवति' के प्रयोग में जो कर्ता है वही 'करोति' का प्रयोग होने पर कर्म बन जाता है— कटो भवति = कटं करोति ( ' भवत्यर्थस्य यः कर्ता करोतेः कर्म जायते' – कारकचक्र, पृ० १०७ ) | यदि यह चटाई ( कट ) अनुत्पत्तिधर्म वाली होती तो कर्ता उसे उत्पन्न नहीं कर सकता था । पुरुषोत्तम इसके अनन्तर कहते हैं कि कर्म में स्वगत क्रिया का कर्तृत्व ( सम्पादकत्व ) अवश्य स्वीकार करना चाहिए, अन्यथा 'कर्मवत्कर्मणा तुल्यक्रिय:' ( पा० सू० ३।१।८७ ) निरर्थक हो जायगा । इस सूत्र में कर्तृभूत कर्म का कर्मवाच्य के सदृश रूप ( कर्मवद्भाव ) विहित है; जैसे – 'पच्यते
१. 'क्रियासम्पादकं हि कारकमुच्यते । क्रियासम्पाद्यं तु फलं भवति, न कारकम् । कारकं च क्रियया चाप्तुमिष्टतममिति च विप्रतिषिद्धम्' । - वही, पृ० ३८३
२. 'निर्वर्त्य कारकं नैव क्रिया तस्य हि साधिका । विकार्यमपि भावेन विरोधान्नैव कारकम् ॥ प्राप्यत्वात्पूविकावस्था न सा कर्म बुधैर्मता । प्राप्यावस्था क्रियासाध्या साध्यत्वात्साधनं न हि ॥ आत्मलाभे हि भावानां कारकापेक्षिता भवेत् । लब्धात्मनां स्वकार्येषु प्रवृत्तिः स्वयमेव हि' ।।
- कारकचक्र, पृ० १०६