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अध्याय : ७
सम्प्रदान-कारक
व्युत्पत्ति सम् तथा प्र इन दो उपसर्गों से युक्त दा-धातु से ल्युट-प्रत्यय लगाकर सम्प्रदानशब्द की निष्पत्ति होती है । 'कृत्यल्युटो बहुलम्' ( पा० ३।३।११३ ) सूत्र के अनुसार ल्युट अपने निर्दिष्ट क्षेत्र ( भाव, करण तथा अधिकरण-पा० ३।३।११५, ११७ ) से भिन्न अर्थों में भी होता है, अतः 'सम्यक् प्रदीयतेऽस्मै' यह निर्वचन सुविधापूर्वक दिया जा सकता है । अतः सम्प्रदानार्थक ल्युट यहाँ लगा है । निर्वचन के अनुसार जिसे कोई वस्तु सम्यक् रूप से दी जाय वह सम्प्रदान है। इसमें सदा के लिए दे देना या अपना अधिकार वस्तुविशेष से हटाकर ( स्वत्व-निवृत्तिपूर्वक ) दूसरे व्यक्ति का अधिकार उस पर स्थापित करना ( पर-स्वत्वापादन ) सम्प्रदान की अनिवार्यता है । इस अर्थ में कुछ लोगों के द्वारा सम्प्रदान की विवेचना होने पर भी यह सर्वसम्मत सिद्धान्त नहीं है । किसी शब्द का व्युत्पत्तिजन्य अर्थ सदा स्थिर रहे, यह आवश्यक नहीं ।
___ पाणिनि-सूत्र का विश्लेषण पाणिनि ने सम्प्रदान-संज्ञा के लिए कई सूत्र दिये हैं, जिनमें प्रथम सूत्र को सम्प्रदाय में प्रधान तथा अन्य सूत्रों को गौण सम्प्रदान का संज्ञासूत्र माना गया है । प्रथम सूत्र है-'कर्मणा यमभिप्रेति स सम्प्रदानम्' (पा० १।४।३२ ) । इस सूत्र का सरलार्थ है कि जिस पदार्थ या व्यक्ति को कर्ता अपने कर्म के द्वारा सम्बद्ध करता है या करना चाहता है वह सम्प्रदान कारक है । पतंजलि इस सूत्र की व्याख्या में-(१) कर्मणा, ( २ ) यं सः तथा ( ३ ) अभि +प्र के प्रयोग का प्रयोजन बतलाते हैं।
(१.) यदि सूत्र में 'यमभिप्रेति स सम्प्रदानम्' इतना ही अंश रहता तो कर्ता का आक्षेप करके अर्थ करते कि जिसे कर्ता सम्बद्ध करता हो उसे सम्प्रदान कहते हैं अर्थात् उसके ईप्सिततम ( कर्म ) को भी सम्प्रदान कहने का प्रसंग उपस्थित हो जाता । 'उपाध्यायाय गां ददाति' में उपाध्याय तथा गौ दोनों ही अभिप्रेत हैं-करणरूप दानक्रिया के द्वारा गौ अभिप्रेत ( सम्बद्ध ) होती है और गौ के द्वारा उपाध्याय अभिप्रेत होते हैं। दोनों स्थितियों में सम्पदान-संज्ञा की सिद्धि हो जाती है, किन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। यह समाधान दिया जा सकता है कि परत्व के कारण गौ को कर्मसंज्ञा होगी तथा परिशेष-विधि से उपाध्याय को ही सम्प्रदान होगा' । किन्तु दोनों में अभिप्रेयमाणता समानरूप से सम्भव होने पर भी यह सम्प्रदान-संज्ञा कर्मरूप
१. 'तत्र परत्वाद् गोः कर्मसंज्ञेति पारिशेष्यादुपाध्यायस्यैव सम्प्रदानसंज्ञा भविष्यतीति प्रश्नः' ।
-कयट २, पृ० २५६