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सम्प्रदान कारक
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इसके फलस्वरूप 'पत्ये शेते' का संशोधित शाब्दबोध कराते हैं - 'पतिसम्प्रदानकमारम्भ कर्मभूतं पत्नी कर्तृकं शयनम्' ।
उद्देश्यत्व का प्रयोग व्यापक अर्थ में होता है, इच्छाविषयत्व का सीमित अर्थ में । इसलिए विशिष्ट इच्छाविषयत्व को उद्देश्यत्व के रूप में ग्रहण किया जा सकता है । नागेश दोनों में स्पष्ट भेद मानते हुए भी, लघुमंजूषा में 'इच्छा-विषय' का प्रयोग करते हुए सम्प्रदानत्वशक्ति का निर्वचन करते हैं - ' और वह शक्ति है, उन उन धाओं के अर्थ के कर्म में निवास करनेवाले फल के निरूपक के रूप में इच्छाविषय में जिसका निवास हो' ( ल० म०, १२६१ ) । दानार्थक धातु के कर्म ( गो ) में विद्यमान फल ( स्वत्वनिवृत्ति, परस्वत्वापादन ) का निरूपक ब्राह्मण है, इसी रूप में वह इच्छा का विषय है, अतः सम्प्रदान है । प्राचीन आचार्यों ने इसे ही उद्देश्य कहा है ( ल० म० कला ) । कर्म चूंकि इस चतुर्थी का निमित्त है, इसलिए उक्त लक्षण में 'कर्मनिष्ठाफलनिरूपक' के रूप में सम्प्रदान का ग्रहण किया गया है । कर्म और सम्प्रदान के बीच सम्बन्ध भी इसी रूप में होता है ।
'पितृभ्यः श्राद्धं दद्यात्' इस प्रयोग में यद्यपि पितरों के द्वारा स्वत्व के निरूपण में बाधा पहुँचती है, क्योंकि दान का पूरा अर्थ जो स्वत्वनिवृत्ति तथा परस्वत्वापत्ति है वह यहाँ व्यवस्थित नहीं हो सकता; तथापि अपने स्वत्व की निवृत्ति के अनन्तर परमात्र में ( सामान्यतया ) स्वत्वापादम के अनुकूल त्याग के रूप में जो दा-धातु का अर्थ है उसमें पितरों के उद्देश्यत्व का भाव है । यहाँ नागेश के द्वारा स्वीकृत दा-धातु का विलक्षण अर्थ ध्यातव्य है, क्योंकि इसी पर इस धातु के विभिन्न प्रयोगों की पुष्टि निर्भर करती है । परस्वत्व का आपादान अक्षरशः न भी हो तो कोई हानि नहीं, तदनुकूल व्यापारमात्र से काम चल जायगा, जो त्याग के रूप में रह सकता है । त्याग ही तो परस्वत्व का कारण है । अतः उक्त वाक्य का शाब्दबोध होगा - 'पित्रभिन्नसम्प्रदान- निष्ठोद्देश्यतानिरूपकः स्वत्वनिवृत्त्याद्यनुकूलो व्यापारः' ( कला, १२६३ ) ।
अपनी इस मान्यता के समर्थन में नागेश धर्मशास्त्रीय दायभाग का उदाहरण देते हैं । परदेश में गये हुए किसी पात्र के उद्देश्य से जो धन अलग किया जाय उसे यदि पात्र को स्वीकार करने का अवसर न मिले तथा उसकी मृत्यु हो जाय तो ऐसी दशा में पिता के दाय के रूप में उस धन का विभाजन उसके पुत्र आपस में कर लेते हैं, दूसरों को यह अधिकार नहीं है । यह सामान्य अनुभव है कि जो धन विप्र के उद्देश्य से त्यागा गया है वह विप्र का ही है, दाता का नहीं । यदि ऐसा नहीं होता तो अरण्यस्थ कुशादि के समान सभी लोग उसका व्यवहार करने लगते, प्रत्यवाय का भय नहीं रहता । यह प्रश्न हो सकता है कि जब ग्रहणकर्ता की स्वीकृति के बिना भी दानक्रिया पूरी हो जाती है तब इस स्वीकृति की आवश्यकता ही क्या है ? उत्तर है कि स्वीकृत धन-दान अर्थात् प्रतिग्रह अधिक फलद है ( लब्धावष्टगुणं पुण्यम् ) । प्रतिग्रह का वास्तविक अर्थ है - अदृष्ट फल की प्राप्ति के लिए दिये गये धन को स्वीकार करना । इसलिए दूसरे के द्वारा पितृ-परितोषादि ( अदृष्ट फल ) के लिए प्रदत्त