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संस्कृत-व्याकरण में कारक तत्त्वानुशीलन
१२६९ ) । किसी वस्तु में होने वाली प्रीति को ही विषयता सम्बन्ध से अवच्छिन्न प्रीति कहते हैं; जैसे - मोदकविषयक या कलहविषयक प्रीति । जिस वस्तु में प्रीति है उसी में अनिवार्यतया अभिलाषा नहीं है । रुचि का अर्थ प्रीति के अनुकूल तथा प्रीति का समानाधिकरण व्यापार है । जिसमें प्रीति, उसी में रुचि - यह स्थिति है । किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि दोनों पर्याय हों । प्रीति रुचि का परिणाम है— दोनों में कार्यकारणभाव है । अभिलाषा तो रुचि तथा प्रीति से बिलकुल भिन्न ही है । 'हरये रोचते भक्ति: ' में इस प्रीति का समवाय- सम्बन्ध से हरि आश्रय है, अत: उसमें सम्प्रदानत्व-शक्ति है । अब प्री- धातु का अर्थ है - समवाय सम्बन्ध से अवच्छिन्न प्रीति के अनुकूल व्यापार । इस सम्बन्ध के कारण ही 'हरि प्रीणयति' में कर्म होता है । इसके अभाव में षष्ठी विभक्ति होती । अब हम निम्नलिखित तीन उदाहरणों पर पहुँच चुके हैं -
(१) हरये रोचते भक्तिः - रुचि के अर्थ के फलभूत प्रीति का समवाय सम्बन्ध से आश्रय हरि सम्प्रदान है ।
( २ ) हरिभक्तिमभिलष्यति - रुच्यर्थ से भिन्न अभिलषण क्रिया का आश्रय हरि कर्ता है ।
( ३ ) हरि प्रीणयति - प्री-धातुगत व्यापार का फलाश्रय हरि कर्म है । स्मरणीय है कि प्रीत्यनुकूलता का समान अर्थ रहने पर भी तीनों के साथ हरि को विभिन्न कारक -संज्ञाएँ मिलती हैं, क्योंकि अन्ततः तीनों धातु भिन्नार्थक हैं ।
लाराज एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाते हैं कि सम्प्रदान के प्रथम सूत्र से ही जब काम चल जाता है तब 'रुच्यर्थानाम्' इत्यादि सूत्रों को आरम्भ करने की क्या आवश्यकता है ? इसके उत्तर में वे कहते हैं कि सम्प्रदान- शब्द अन्वर्थ है, अतः प्रथम सूत्र में विहित सम्प्रदान का अर्थ लौकिक है, किन्तु पिछले सूत्रों से होने वाली सम्प्रदानसंज्ञा में लौकिक अर्थ नहीं रहता । अतः केवल शब्द का संस्कार ( रचना, साधुत्व ) - प्रतिपादित करने के लिए भी शास्त्रारम्भ करना असंगत नहीं है । 'हरये' इत्यादि शब्दों में निर्दिष्ट चतुर्थी की सिद्धि करने के लिए ही उक्त संज्ञा का अतिदेश किया गया है । लाराज इस प्रकार सम्प्रदान के दो भेद कर डालते हैं- ( १ ) लौकिक तथा ( २ ) शास्त्रीय सम्प्रदान २ । दोनों स्थितियों में सम्प्रदान कृत्रिम संज्ञा ही है, किन्तु लौकिक सम्प्रदान न्यूनाधिक रूप से लौकिकार्थ के अधिक निकट है, दुर्गाचार्य के
१. द्रष्टव्य – ( ल० श० शे०, पृ० ४४१ ) 'यत्किञ्चिद्विषयक प्रीत्यनुकूलव्यापाराश्रयोऽभिलष्यतिकर्ता' ।
२. ‘अन्वर्थत्वात् सम्प्रदानशब्दस्य लौकिक एव सम्प्रदानार्थः पूर्वमुक्तः । इह तु रुच्यर्थादिविषये तदर्थाभावाच्छब्द संस्कारमात्रप्रतिपादनाय शास्त्रारम्भसामर्थ्यात् सम्प्रदानत्वमुच्यत इति शास्त्रीय लौकिकभेदेन द्विविधं सम्प्रदानं व्याख्यातम्' ।
- हेलाराज ३, पृ० ३३५